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________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्घमागधी १९ इस पूरी समीक्षा से ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि प्राचीन प्राकृत भाषा में प्रारंभिक 'न' का 'ण' नहीं होता था और यह तो बाद की प्रवृत्ति है । इस दृष्टि से प्राचीन अर्धमागधी आगम ग्रन्थों के सम्पादन में प्रारम्भिक 'न' का 'न' ही रखा जाना चाहिए और सम्पादकों ने जो अलग अलग पद्धति अपनायी हैं उसे सुधारने की आवश्यकता प्रतीत होती है । __ अर्धमागधी आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ आचरांग है और उसके संस्करणों को देखे तो स्पष्ट होगा कि शुबिंग महोदय के संस्करण में प्रारंभिक नकार प्रायः नकार ही रखा गया है जबकि आगमोदय समिति के संस्करण में पचास प्रतिशत णकार मिलता है । जैन विश्व भारती के संस्करण में प्रायः णकार अपनाया गया है और महावीर जैन विद्यालय के संस्करण में तो पचहत्तर प्रतिशत णकार अपनाया गया है । इस सारे विवेचन का सार यहीं है कि वररुचि का सर्वत्र नकार का णकार बनाने का विधान प्राचीन शिलालेखों और प्राचीन साहित्य में उपलब्ध प्रयोगों के अनुरूप नहीं है । यह नियम मात्र किसी एक प्राकृत (महाराष्ट्री) तक ही सीमित है । इस सम्बन्ध में हेमचन्द्राचार्य का विधान योग्य लगता है । अतः प्राचीनतम प्राकृत साहित्य के नये संस्करणों में शब्द के प्रारंभ के नकार के लिए नकार ही रखा जाना चाहिए और जिन्होंने नकार के बदले में णकार अपनाया है उन पर परवर्ती प्रवृत्ति का प्रभाव है और कुछ अंश में पाइय-सद्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
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