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के. आर. चन्द्र
की रचना है, जो हेमचन्द्राचार्य के समय के बहुत नजदीक की है. अर्थात् प्रारंभिक न का ण प्रायः नहीं मिलता है । शिलालेखों और. मुद्रित संस्करणों के इस परिप्रेक्ष्य में प्रो. नीति डोल्बी का निम्न अभिप्राय कितमा वास्तविक लगता है :
उनका कहना है कि वररुचि का नकार का सर्वत्र णकार बनाने का नियम पिशल को मान्य हो परन्तु जुल्श ब्लोख को यह नियम मान्य नहीं है । प्राकृत के अन्य व्याकरणों और उनकी कारिकाओं के आधार पर से उनका ऐसा मत है कि वररुचि के अनुसार प्रारम्भिक न का ण कुछ शब्दों तक ही सीमित था परन्तु बाद में "नादौ" का सूत्र “वादी" बन गया और आगे चलकर “वादो" भी निकल गया और सर्वत्र 'न' का 'ण' हो गया जो किसी न किसी प्रकार की भूल से ऐसा हुआ है । ध्यान देने की बात यह है कि स्वयं हेमचन्द्राचार्य द्वारा दिये गये शौरसेनी और मागधी के उदाहरणों में कितने ही शब्दों में प्रारंभ में नकार मिलता है (८.४.२६०-३०२)
(i) शौरसेनी–निच्चिन्दो, नाडयं, नेदि, नियविधिणो (H) मागधी-नले, नमिल, मिस्फलं, नलिन्दाणं
अव्ययों के उदाहरण- न (२९९), नु (३०२).
उनके अनुसार शौरसेनी में अव्यय ननु का णं होता है (८.४.२८३) । प्रो. नीति डोल्ची को भी शंका है कि सर्वत्र नकार का णकार (वररुचि के अनुसार) होता होगा। उनके अनुसार प्रारंभिक अवस्था में मात्र नूनं जैसे अव्यय के लिए पूर्ण का प्रयोग होता होगा ।
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