SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ के. आर. चन्द्र बज्झमाणाण पाणिणं 23.80, जोइसंगविऊ जे य धम्माण पारगा 25.7 वेयाणं च मुहं बूहि, बूहि जन्नाण जे मुहं 25.14 जं च धम्माण वा मुहं 25.11, तुम्भे धम्माण पारगा 25.36 दशवकालिक सूत्र विप्पमुक्काण ताईणं 3.1 सव्वजीवाण जाणई 4.37, वित्ती साहूण देसिया 51.123, पंचिंदियाण पाणाणं 7.21, तोरणाण गिहाण य 7.27 हस्तप्रतों में उपलब्ध इस प्रकार दोनों प्रकार के पाठ और प्राचीन विभक्ति-प्रत्ययों के प्रयोगों की दृष्टि से प्रत्ययों में अनुस्वार का आगम आनावश्यक आचारांग (गद्यांश) (i) तेणं 1, परवागरणेणं 2, पुढवीकम्म-समारंभेणं 12, 14. पमादेणं 33, अप्पाणेणं 62, इत्यादि । (ii) संजतेहिं, जतेहिं, अप्पमत्तेहिं 33, सत्थेहिं 44, 59, अण्णेहि 47, - 54, 61, 62, विरूवरूवेहि 52, 59, इत्यादि । सूत्रकृतांग (अनुष्टुप् छंद) . , (i) णाणाविहाई दुक्खाई 1.1 1.26, संकियाई असंकिणो 1.1.2.6 (ii) पुढे गिम्हाभितावेणं 1.3 1.5, संतत्ता केसलोएणं 13.1.13, णण्णत्थ अंतराएणं 1.9.29 . '(iii) जेहिं वा संवसे णरे 1.1.1.4, एतेहिं तिहिं टाणेहि 1.1.4 12, सव्वाहि अणुजुत्तीहि 1.3.3.17, एतेहि दोहि ठाणेहि 18.2 भूतेहि न विरुज्झेज्झा 1.15.4 (-हिं के अनेक प्रयोग इस प्रकार के मिलते हैं)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001436
Book TitleParamparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages162
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy