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के. आर. चन्द्र
की
रूपक और कथा
लगाया जा सकता है कि प्राकृत भाषाओं में भी ळकार का प्रचलन था लेकिन उत्तरवर्ती काल में उसका स्थान 'ल' और 'ड' ने ले लिया' । पिशल महोदय (240) के अनुसार तो सभी प्राकृतों में ळकार का प्रयोग (हस्तप्रतों में) मिलता है और उत्तरभारत हस्तप्रतों में उसके स्थान पर ल ( और ड भी ) मिलता है । उन्होंने अपने प्राकृत व्याकरण में सभी प्राकृतों ( काव्य, साहित्य) में से मध्यवर्ती ळकार - युक्त शब्दों के इतना ही नहीं परन्तु अर्धमागधी आगम साहित्य से) में से भी अनेक ळकार वाले शब्द उद्धृत स्पष्ट है कि अर्धमागधी भाषा में ळकार का से ही था ( क्योंकि वह पूर्वी भारत की भाषा थी) परन्तु उत्तरवर्ती काल में इस व्यंजन के बदले में लकार का प्रयोग (कुछ शब्दों में
उदाहरण दिये हैं । (हस्तप्रतों के आधार
किये हैं । इससे
प्रयोग प्राचीन काल
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2. हेमचन्द्राचार्य ने पैशाची प्राकृत में लकार के बदले ळकार का प्रयोग समझाया है परंतु वास्तविक रूप में देखा जाय तो यह 'ल' का 'ळ' में परिवर्तन नहीं है परंतु संस्कृत भाषा की तुलना में समझाया जाने के कारण ऐसा कहना पड़ा | अन्य प्रकार से कहा जाय तो पैशाची के ळकार के बदले में संस्कृत में लकार मिलता है क्योंकि ळकार तो वैदिक परंपरा से चला आया है लेकिन शिष्ट संस्कृत ने उसे नहीं अपनाया |
हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी है और हिन्दीभाषी विद्वान् मराठी और गुजराती भाषा को समझाते समय स्वभावतः ऐसा कहेंगे कि लकार का मराठी में ळकार हो गया और गुजराती में कार हो गया । वास्तविकता ऐसी नही है । यह तो मात्र विभिन्न भाषाओं को समझाने के लिए किसी एक भाषा को आधार बनाकर अमुक नियम बनाया जाता है ।
इस दृष्टि से शिष्ट संस्कृत में से प्राकृत भाषा का उद्भव हुआ ऐसा कहना भी उपयुक्त नहीं लगता क्योंकि वेदों की भाषा में ळकार का प्रयोग था और वही प्रयोग पैशाची ( और अन्य प्राकृतों) में परंपरा से चला आया ।
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