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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अधमागधी कितना परिवर्तन आया होगा इसका अन्दाज सरलता से लगाया जा सकता है ।
भाषा सम्बन्धी इस परिवर्तन के दो कारण रहे हैं -एक तो समकालीन भाषा का परिवर्तित रूप और द्वितीय व्याकरणकारों द्वारा प्रस्तुत किये गये भाषा सम्बन्धी नियम । प्राकृत भाषा के वैयाकारणों ने यदि ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से हरेक भाषा का स्वरूप निरूपित किया होता तो शायद यह परिस्थिति उपस्थित नहीं होती । प्राकृत के व्याकरणों में आर्ष अर्धमागधी के कुछ उदाहरण तो अवश्य दिये गये हैं परन्तु मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप (कुछ व्यंजनों के घोषीकरण के सिवाय) सर्वव्यापी सभी प्राकृत भाषाओं पर लागू हो जाता हो ऐसा फलित होता है, जबकि प्राचीन प्राकृत भाषाओं -- मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी आदि में इस प्रकार का लोप होना ऐतिहासिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं लगता है । बड़े पैमाने पर मध्यवर्ती व्यञ्जनों का लोप महाराष्ट्री प्राकृत में ही हुआ है और इस भाषा का काल ई० सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों का माना जाता है । अनेक प्राचीन शिलालेखों में उत्कीर्ण भाषा के स्वरूप पर विचार करें तब भी यही फलित. होता है । उदाहरण के तौर पर भ. महावीर के ८४ वर्ष बाद में बडली ( अजमेर, राज० ) में उपलब्ध शिलालेख में मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप नहीं मिलता, नामिक विभक्ति-'ते' और 'ये' के, स्थान पर 'ए' नहीं है । अशोक के शिलालेखों में ध्वनि-विकार का प्रारम्भ हो जाता है । घोषीकरण, अघोषीकरण एवं लोप का कुल प्रमाण ५ से ६ प्रतिशत ही है । मौर्यकालीन अन्य शिलालेखों में भी यही स्थिति है । खारवेल के शिलालेख में घोषीकरण बढ गया है । आठ में से छः बार 'थ' का 'ध' मिलता है हालाँकि वर्ण-विकार तो ५ से ६ प्रतिशत ही मिलता है । विभिन्न प्राचीन उत्कीर्ण लेखों से पता चलता है कि मध्यवर्ती व्यंजनों के लोए की प्रवृत्ति का प्रचलन उत्तर-पश्चिम और पश्चिम
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