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की समीक्षा और अर्धमागधी
अक्षरों की प्राचीन लेखन पद्धति और नकार में णकार के भ्रम की संभावना
(अध्याय नं. ७ और ८ से सम्बन्धित नयी सामग्री )
दीर्घ काल के अनुभवी और विद्वान लिपिकार श्री लक्ष्मणभाई भोजक ( लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद) ने ऐसा बतलाया है कि प्राचीन काल में दन्त्य नकार रोमन लिपि के उलटे टी के आकार में लिखा जाता था और णकार में इस उलटे टी के ऊपर सीधे टी की तरह रेखा खींची जाती थी | परन्तु चौथो शताब्दी यानि गुप्तकाल से सभी अक्षरों पर शिरोरेखा खींची जाने लगी । इस नयी पद्धति के कारण नकार में णकार का भ्रम होना प्रारम्भ हो गया होगा ऐसी संभावना अनुचित नहीं है । बोलचाल की भाषा में भी अमुक प्रमाण में नकार के बदले में णकार बोला जाने लगा और यह प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढती गयी जिसके प्रमाण शिलालेखों में मिलते हैं । यह महाराष्ट्री प्राकृत का काल था अतः इन दोनों कारणों से महाराष्ट्री प्राकृत के लिए नियम - बन गया कि नकार का णकार में परिवर्तन हो जाता है ।
परम्परागत प्राकृत व्याकरण
I
महाराष्ट्री प्राकृत का यह नियम पूर्वी भारत की अर्धमागधी जैसी प्राचीन भाषा के लिए कैसे उपयुक्त हो सकता है। पालि भाषा में नकार का णकार नहीं होता है । अशोक और खारवेल के शिलालेखों में भी यह प्रवृत्ति नहीं है ऐसी हालत में अर्धमागधी भाषा में तो नकार यथावत् ही रहना चाहिए । अर्धमागधी भाषा में नकार के बदले में णकार आया है वह अक्षरों की लेखन पद्धति और महाराष्ट्री प्राकृत के नियम का प्रभाव है क्योंकि अर्धमागधी का अपना स्वतंत्र व्याकरण ही नहीं था ।
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