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के. आर. चन्द्र
(i) वेसनगर और भिलसा के लेखों में (द्वि. शती ई. स. पूर्व)-नेति (ii) ई. स. चतुर्थ शती (अ) वीरपुरुषदत्त-स्तंभ-लेख, नागार्जुनी-कोण्ड, नागवसु, नागसिरि, (ब) गुणपदेय ताम्रपत्र, गुण्टुर- निवत्तणा, नारायण
और (स) शिवस्कंदवर्मन का ताम्रपत्र, हीरहडगल्लि, बेलारी-नेयिके, नंदिजस, नागनंदि , निगह, नराधम, निवतणं, नो (नः) ।
नकार को 'ण' में बदलने की मूल प्रवृत्ति दक्षिण की ही रही है जो बाद में अन्य क्षेत्रों में फैली है । प्राकृत व्याकरणकारों का नियम :
वररुचि के प्राकृत-प्रकाश के अनुसार प्रारम्भ और मध्य में सर्वत्र नकार का णकार होता है. नो णः सर्वत्र-२.५२ सूत्र और वृत्ति । भरतनाट्यशास्त्रानुसार भी सर्वत्र णकार होता है । यथा--
सर्वत्र च प्रयोगे भवति नकारोऽपि च णकारः ॥ १७.१३ ।। परन्तु हेमचन्द्र इस नियम से सहमत नहीं हैं। , आदि नकार के लिए उनका सूत्र है--
वादौ (८.१.२२९) ____ वृत्ति............नस्य णो वा भवति ।
अर्थात् वे आद्य नकार का ण में परिवर्तन वैकल्पिक मानते हैं और उनके द्वारा णरो, नरो; गई, नई; णेइ, नेइ-दोनों प्रकार के उदाहरण दिये गये हैं।
णकार सम्बन्धित सूत्रों के अन्तर्गत वररुचि ने जो उदाहरण दिये हैं और पूरे व्याकरण में अन्य नियमों के अन्तर्गत जो उदाहरण
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