________________
८.
प्राचीन प्राकृत भाषा में मध्यवर्ती नकार
(क) व्याकरण और साहित्य
प्राकृतभाषा के प्राचीनतम सुज्ञात व्याकरणकार वररुचि का मध्यवर्ती नकार के विषय में आदेश है :
नो णः सर्वत्र ( प्राकृत प्रकाश 2.42 )
आचार्य श्री भरत के नाट्यशास्त्र में भी ऐसा ही नियम मिलता हैसर्वत्र च प्रयोगे भवति नकारोऽपि च णकारः - ( भ.ना.शा. 17.13 ) परन्तु हेमचन्द्राचार्य का विधान इन दोनों से कुछ अलग है | मध्यवर्ती नकार के विषय में उनका सूत्र और उस पर की वृत्ति इस प्रकार है -
सूत्र - नाणः ( 8.1.228 ) वृत्ति - आयें आरनालं, अनिलो, अनलो इत्याद्यप ।
अर्थात् वररुचि और भरतमुनि नकार के लिए सर्वत्र णकार के प्रयोग का आदेश देते हैं परन्तु हेमचन्द्राचार्य के अनुसार आप प्राकृत अर्थात् अर्धमागधी भाषा में कभी-कभी मध्यवर्ती नकार के प्रयोग भी
मिलते हैं ।
आचार्य श्री हेमचन्द्र ने अपनी वृत्ति में भले ही कभी - कभी दन्त्य नकार के प्रयोग अर्धमागधी तक ही सीमित रखे हो परन्तु उनके ही व्याकरण ग्रन्थ में मागधी और शौरसेनी प्राकृत में भी मध्यवर्ती नकार के प्रयोग मिलते हैं । मागधी में - धनुस्खंड ( 8.4.289 ) और संयुक्त व्यंजन के रूप में एक प्रयोग है : - विस्तु ( 8.4.289 )
--
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org