Book Title: Naye Mandir Naye Pujari
Author(s): Sukhlalmuni
Publisher: Akhil Bharatiya Terapanth Yuvak Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नये मंदिर नये पुजारी मुनि सुरवलाल STATESTANTS TONK MOVIE For Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नए मंदिर : नए पुजारी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नए मंदिर ; नए पुजारी .. लेखक : मुनि सुखलाल यवा प्रकाशन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : अखिल भारतीय तरापथ युवक परिषद् लाडनूं, ३४१३०६ प्रथम संस्करण : १६८१ अर्थ सौजन्य : श्री दीपचन्द भूरा नोखा की सुपुत्री श्रीमती सुवटी देवी सुराणा धर्मपत्नी स्व० श्री मूलचन्द सुराणा ( रासीसर ) मूल्य : पाँच रुपए मुद्रक : आर० के० भारद्वाज प्रिटर्स, दिल्ली Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका बहुत वर्षों पहले जबकि अणुव्रत आन्दोलन शुरू हुआ ही था मैंने अणुव्रत भावना पर एक कहानी लिखी थी। मैं उसे लेकर खुशी-खुशी आचार्य श्री तुलसी के पास गया । अपने व्यस्त समय में भी आचार्य श्री ने न केवल उसे देखा-सुना ही अपितु मुझे पुरस्कृत भी किया। यह भी कहा हमारे धर्मसंघ में इस विद्या में लिखने में तूने पहल की है, इससे मैं प्रसन्न हूं। मैं नहीं जानता वह कहानी कितनी सशक्त थी पर इतना तय है कि आचार्य श्री के इस वात्सल्य भाव से मुझे गहरी प्रेरणा प्राप्त हुई। लेखन की दिशा में बढ़ने का संभवत: वह मेरा पहला चरणन्यास था। उसके बाद साहित्य की अनेक धाराओं में मुझे बहने का मौका मिला। मुझे ऐसा तो लगता है कि मैं किसी एक विद्या में पूरी तरह नहीं उत्तर पाया फिर भी आचार्य श्री का आशीर्वाद मेरे साथ रहा है। मेरी कहानियों की प्रस्तुत पुस्तक 'नये मंदिर: नये पुजारी, उसी आशीर्वाद का प्रतिफल है।। जैन आचार्यों ने कथा साहित्य पर बहुत गहरा और व्यापक कार्य किया है। विशेषज्ञ लोग मानते हैं कि मानवीय उत्कर्ष की दृष्टि से वह बहुत मूल्यवान् है । पुराने जमाने में चूंकि कहानी सुनने का ही विषय थी इसलिए उसमें घटनात्मक मोड़ और चमत्कार आवश्यक था । आज कहानी सुनने की अपेक्षा पढ़ने का विषय ज्यादा बन गई है इसलिए उसमें मनोवैज्ञानिकता ज्यादा आ गई है। मैंने इन दोनों के बीच से अपनी राह बनाने की कोशिश की है । अणुव्रत, युवादृष्टि, कथालोक, जैनभारती, जैन जगत् आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में मेरी कहानियां छपती रही हैं। अपने मित्र मुनिश्री मधुरकर जी की प्रेरणा से मैंने इसे पुस्तक के रूप में संग्रहीत कर दिया है। आशा है मेरे समान धर्मा पाठक न केवल इससे संतुष्ट ही होंगे अपितु लाभान्वित भी होंगे। ४ जुलाई मुनि सुखलाल अणुव्रत-विहार नई दिल्ली Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m K G 6 ३० ६ ० ० ० ॥ W वी अनुक्रम १. संकेतों की भाषा २. रिसते घाव ३. भूल ४. कमीशन ५. दूसरा पहल ६. तीसरा अपराध ७ बचत की आदत ८. अनुकरण ६. नये मंदिर : नये पुजारी १०. बन्धन और मुक्ति ११. सीमा-विवाद १२. सभ्यता के दावेदार १३. अन्याय का पैसा १४. प्रतिक्रिया १५. पुनरावृत्ति १६. परिवर्तन १७. कानून की मौत १८. बासी टुकड़ों का पुण्य १६. विवशता २०. गरीबी हटाओ २१. हिंसा की तस्वीर : अहिंसा का फेम २२. सार्वजनिक जीवन २३. मां फलेषु कदाचन २४. आग और आंसू २५. एक पत्थर एक आदमी २६. ताबूत ७० ० 0 १०१ OM ~ ११५ ११६ १२४ १२३ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेतों की भाषा सावन का महीना था। आकाश बादलों से भरा था । रिमझिम-रिमझिम वर्षा हो रही थी। प्राकृतिक दृश्य बड़ा ही मनोरम था। एक ओर हरी-भरी पहाड़ी थी, दूसरी ओर कल-कल करती बरसाती नदी बह रही थी। चारों ओर छोटे-छोटे खेल लहलहा रहे थे। किसान बड़े खुश नज़र आ रहे थे । इस साल कई वर्षों बाद भरपूर वर्षा हुई थी। सारे बांध भर गये थे। रबी की फसल का भी अच्छा अन्दाज़ लग रहा था। अभी भी फसलें काफी ऊंची आ गई थी। इसी आश्वासन से सारे लोग सुख की नींद सो रहे थे। कुछ गड़रिये अपनी भेड़ों को लिए नदी के किनारे बैठे थे। उन्हें उस पार जाना था, पर नदी में पानी वढ़ जाने के कारण उन्हें इसी पार रुक जाना पड़ा । इसी बीच रात को 12 बजे अचानक नदी में पानी बढ़ने लगा। गड़रियों ने पहले तो अपनी भेड़ों को सुरक्षित स्थान पर हटाना चाहा, पर पानी का वेग इतना तेज था कि उसके आगे खड़े रहना कठिन हो गया, बल्कि कुछ भेड़ें तो पानी में बह भी गईं। इसीलिए वे पास वाले गांव में सहायता के लिए दौड़े । गांव के लोगों को जगाया और उनसे अपनी भेड़ें बचाने का आग्रह किया, पर इस स्वार्थी दुनिया में कौन किसकी सुनता है ! कुछ लोगों ने तो उनकी बात पर ध्यान ही नहीं दिया। कुछ लोग उनकी दीनता भरी प्रार्थना पर पिघले, पर जब तक वे गांव के बाहर आये तब तक बाढ़ पूरे वेग में आ गई थी। अतः सम्भव नहीं रहा कि भेड़ों को बचाया जा सके । आधे घन्टे में 5000 भेड़ों में से केवल 30-35 भेड़ों को ही बचाया जा सका। यही गनीमत थी कि गड़ रियों की जान वच गई। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० / नए मंदिर : नए पुजारी पर परेशानी की बात यह नहीं थी । बाढ़ का पानी क्षण-क्षण बढ़ता जा रहा था। एक लहर आती और एक साथ दो-दो फुट पानी फैल जाता । फिर दूसरी लहर आती और उससे भी भयंकर दृश्य उपस्थित कर देती । और, अब तो बाढ़ का प्रवाह गांव में भी आ चुका था । ढोल 1 ने शुरू हो गये । एकाएक आधी रात को खतरे का संकेत सुनकर लोग जाग गये | घर से बाहर निकले तो पता लगा कि भयंकर बाढ़ आ गई है । कुछ लोगों को अभी तक विश्वास भी नहीं हो रहा था कि ऊंचाई पर बसे उनके गाँव में भी बाढ़ आ सकती है । शायद किसी ने ऐसी स्थिति नहीं देखी थी । ऊपर के बांध तड़ातड़ टूट रहे थे । इसी से पानी का यह अकल्पित वेग आ गया था । उसे रोकने के लिए प्रवाह के आगे पत्थर डाले गए । काठ के बड़े-बड़े पट्टे डाले गए, पर सब कुछ बेकार गया । लोगों ने सोचा, शायद इन्द्रदेव का प्रकोप है, अतः उनको प्रसन्न करने के लिए तत्काल होम किया गया । नदी की भी पूजा-आरती की गई, पर सब बेकार ! प्रति क्षण पानी बढ़ रहा था । गाँव में भगदड़ मच गई। कच्चे मकान धड़ाधड़ धराशायी हो रहे थे । लोगों की आंखों में आंसू आ गये थे । उनकी जन्म-भर की कमाई घरों में ही रह गई थी, पर आने वाली विपत्ति के क्षण की कल्पना करके आंसू सूखने लगे । जिधर भी सुरक्षा का आभास हुआ, दौड़-दौड़ कर एकत्र हो गये । मां कहीं थी तो उसका दूधमुहां बच्चा कहीं; पति कहीं था तो पत्नी कहीं ! किसी को किसी का पता नहीं चल रहा था । सारे परिवार छिन्न-भिन्न हो रहे थे । सारे लोग अपनी ही चिन्ता में घुल रहे थे । बाज़ार में पन्द्रह फुट पानी चढ़ आया था। कुछ मकान तो बिल्कुल पानी में डूब चुके थे । नदी का वेग अभी भी कम नहीं हुआ था । ऊषा काल के धुंधले से उजाले में लोगों ने देखा, चारों ओर लाशें - ही - लाशें तैर रही हैं । कहीं किसी मां की लाश मरे हुए बच्चे को अपनी छाती से चिपकाए बह रही है, कहीं कोई मृत सुन्दरी गहने-कपड़े पहने हुए बह रही है तो कहीं किसी आदमी की लाश धन का डिब्बा अपनी छाती से लगाये बह रही है । किसी का मृत शरीर नंग-धड़ंग बह रहा है। जानवरों की तो कोई गलती ही नहीं थी । बड़े-बड़े वृक्ष तिनके की भांति बहते जा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेतों की भाषा | ११ रहे थे। पास-पास हर जगह लाशों से अटी पड़ी थी। रह-रह कर कोई कर्ण-भेदी चीत्कार कलेजा चीर जाती थी। सारा गांव खंडहर बन गया था। सिर्फ दो-तीन पक्के मकान और मंदिर ही बचे थे। उन्हीं में सब लोग कांपते हुए शरण पा रहे थे। कुछ लोग जो पहाड़ी की ओर भाग जाने में सफल हो गये, वे तो अलबत्ता आश्वस्त थे, पर जो मकानों और मंदिरों की शरण लिये हुए थे, पल-पल उनका खतरा बढ़ता जा रहा था। कभी उनकी कोई दीवार ढहती थी, तो कभी कोई गोखड़ा । उन्हें लग रहा था कि आज बचने की कोई आशा नहीं है। सब एक-दूसरे से क्षमा मांग रहे थे। सभी लोग तन्मय होकर भगवान से प्रार्थना कर रहे थे। प्रभो ! हमें आज-आज बचा दो, इतने दिन हमने अनेक अन्याय किए हैं । आपका भजन नहीं किया। इस बार बच गये तो आपकी भक्ति करेगे। जीवन को नये सिरे से न्यायपूर्वक जीएंगे। कुछ लोग मन-ही-मन अपने पापों को याद कर उनका प्रायश्चित्त कर रहे थे। सारा वातावरण धर्ममय हो रहा था । पक्के नास्तिक भी पक्के आस्तिक नज़र आने लगे थे, पर उनका ध्यान फिरफिर कर भगवान से हटकर अपने प्राण पर आ टिकता था। सेठ फतहलाल जी के घर में भी आठ फुट पानी बढ़ चुका था। एक मंजिल पूरी पानी में डूब चुकी थी। दूसरी मंजिल पर उनके अपने परिवार तथा आस-पास के 30-35 स्त्री-पुरुष 'जाति-पांति का भेद-भाव भूलकर कन्धे से कन्धा सटाकर एक ही कमरे में खड़े हुए थे। कुछ लोग मौन थे और कुछ प्रलय की कल्पना को सत्य बता रहे थे। चारों ओर पानी के सिवाय और कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था । लगता था कि बस आज ही प्रलय हो जाएगी। इसी बीच लगभग तीन बजे एक कबूतर भीगता हुआ सेठ जी के कमरे में घुसा। घुसते ही वह अचेत हो गया और सेठ जी के पैरों में आ गिरा । सेठ जी के दया हृदय पर एक मार्मिक चोट लगी। चारों ओर मौत के इस नंगे दृश्य में भी यदि कोई हृदय पिघलता नहीं है,तो उसे मनुष्य नहीं यम ही समझना चाहिए । यद्यपि सेठ जी स्वयं मौत से जूझ रहे थे, पर न जाने उस अनजान पंछी के प्रति कौन से जन्म की ममता उभर आई। उन्हें आभास हुआ यह कबूतर कोई सामान्य कबूतर नहीं है। कोई देवदूत Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ / नए मंदिर : नए पुजारी ही कबूतर का रूप लेकर उन्हें कुछ कहने आया है । इसी भाव से उन्होंने कबूतर को अपने हाथों पर उठा लिया। सेठ जी के शरीर की गर्मी पाकर थोड़ी देर में उसकी चेतना लोटने लगी। उसने आंखे खोली, अपने पंख फड़फड़ाये। मौत के इस कहर के बीच खुशी की लहर दौड़ गई। सेठ जी ने भगवान को धन्यवाद दिया कि उन्होंने उन्हें एक बुझते हुए दीपक में तेल डालने का अवसर दिया। फिर उन्होंने कबूतर को कुछ दाने डाले, पर वह अब भी थर-थर कांप रहा था। कुछ सर्दी से और कुछ अनजान लोगों से घिरकर वह भयभीत हो रहा था। न जाने वह कितनी दूर से उड़कर आया था ? न जाने उसके मन में अपने परिवार के प्रति क्याभाव आ रहे थे ? सेठ जी ने उसे प्रेम से दुलारा, उसे प्यार भरे शब्द कहे । शायद कबूतर उनकी भाषा को न समझ पाया, पर प्रेम की भाषा को समझ गया। थोड़ी देर में वह बिल्कुल निर्भय हो गया। उसकी प्राणशक्ति लौट आई । वह दाने भी चुगने लगा। एक क्षण के लिए सबका ध्यान मृत्यु से हटकर जीवन पर केन्द्रित हो गया। .. बाहर अभी भी मौत उसी ताल में नृत्य कर रही थी, बल्कि उसका डरावना रूप कुछ गहरा ही हुआ था। बाज़ार में 20 फुट पानी चढ़ गया था। सेठ जी के दुमंजिले को भी पानी छूने लगा था। सभी लोग अपने पूर्वकृत कृत्यों का स्मरण कर रहे थे। एक-दूसरा खुले हृदय से अपने अन्तर्मन की व्यथा प्रकट कर रहा था। सारी गन्दगी मानो धुलकर साफ हो गई थी। इतने में लगभग चार बजे फुर्र से कबूतर उड़ गया। दो-एक क्षण के लिए सब व्यक्ति आश्चर्य चकित हो गये । सेठ जी भी अवाक् रह गये । उनकी आंखें फैलकर ऊपर चढ़ गईं, मुंह खुल गया, हाथ फैल गए. पर बहुत शीघ्र ही ने आत्मस्थ हो गये। संयत स्वर में उन्होंने कहाबस, अब हमें अविलम्ब इस मकान से बाहर निकल जाना चाहिए । यद्यपि बाहर अब भी नन्हीं नन्हीं बूंदें पड़ रही थीं, पर सेठ जी ने जरा भी प्रतीक्षा गहीं की। वे सबसे पहले खुली छत पर बाहर निकल आए। धीरे-धीरे शेष लोग भी बाहर आने लगे। कुछ लोगों को यह सेठ जी की सनक-सी लगी, पर इस क्षण सब कुछ इतने भावात्मक ढंग से घटित हो रहा था कि एक-एक कर सब लोग बाहर निकल आये । अन्तिम आदमी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेतों की भाषा | १३ के आने में थोड़ा विलम्ब हुआ, पर आश्चर्य की बात थी कि ज्यों ही उसने अपना पैर बाहर रखा, यकायक वह मकान ढह पड़ा। निकलतेनिकलते उस पर कुछ मिट्टी गिर पड़ी,पर हाथ खींचकर उसे बाहर निकाल लिया गया। सभी लोग कबूतर की इस सांकेतिक भाषा को समझने का प्रयास कर रहे थे। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिसते घाव सब्जी मण्डी से एक टांगा (रेड़ा) सब्जियाँ भर कर आ रहा था। सात-आठ आदमी भी उस पर बैठे थे। घोड़ा बिल्कुल मरियल सा था, पर फिर भी तांगे वाला चाबुक मार-मार कर उसे दौड़ाए जा रहा था । पुल मिठाई तक आते-आते वह जरा टिठक गया। उसने देखा सामने नीली पगड़ी वाले (बेरहमी के) कुछ पुलिस खड़े हैं। ताँगेवाला तत्क्षण नीचे उतर कर दूसरे लोगों से भी नीचे उतरने का आग्रह करने लगा। एक आदमी ने पूछा-क्यौँ, क्या बात है ? उसने बताया--सामने नीली पगड़ी वाले पुलिस खड़े हैं। तांगे में ज्यादा भार देखेगें तो मेरा गलान कर देगें अतः जल्दी-जल्दी नीचे उतर जाओ। सभी नीचे उतर आए। पर जैसी कि आशंका थी तांगे के पुल पर पहुंचते ही पुलिस ने उसे रोक लिया। घोड़े को देखकर बोला-कितना सामान लाद रखा है ? तांगे वाला-साहब ! यह तो आपके सामने ही है। पुलिस-जानते हो साढ़े सात मन से ज्यादा बोझ लादना गैरकानूनी तांगे वाला—साहब ! बहुत ज्यादा तो नहीं है। पुलिस-तो फिर क्या बीस मन लादना चाहते थे ? पंदरह मन तो बोझ लाद रखा है इतने सारे आदमी बैठे थे सो अलग। तुम कोई आदमी हो या राक्षस । लगते तो भले से हो, पर हो कसाई से भी ज्यादा निर्दयी। वह तो एक बार में ही मार देता है। तुम इसे तिल-तिल जलाकर मारोगे। __ ताँगे वाले ने हाथ जोड़कर कहा-साहब ! क्या करू ? किसी तरह गुजारा तो करना ही होता है। बसों और टम्पुओं के हो जाने के बाद Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिसते घाव | १५ इन तांगों को कौन पूछता है ? सुबह के समय में ही दो पैसे हो जाते हैं, फिर तो दिनभर खाली बैठा रहता हूं। आज कुछ बोझ ज्यादा हो गया है । माफ करो । आगे कभी इतना बोझ नहीं लादंगा। ___ पुलिस के मुखिया ने आंखे निकालते हुए कहा-तुम वेवकूफों को चाहे कितना ही समझाओ अक्ल आती ही नहीं। रोज कहते हो ऐसा नहीं करूगा, पर करते सदा ऐसा ही हो । यदि सरकार ध्यान न दे तो तुम लोग किसी पश को जिन्दा ही नहीं छोड़ो'. और वह घोड़े की पीठ देखने लगा। रोज-रोज जीन रखने से उसके घाव हो रहे थे। थोड़ा थोड़ा खून भी उसमें से निकल रहा था। बोला-देखो, यह क्या हो रहा है ? घोड़े के स्थान पर तुम्हें जोता जाए तो पता चले कि दर्द क्या चीज होती है। तांगे वाला- अरे बाबा ! मैं तो लदा हुआ हूं। गृहस्थी की गाड़ी में अकेला हूं। बाल-बच्चेदार आदमी हूं। रोज सात पेट खाने के लिए तैयार रहते हैं। उनमें कुछ न डाल तो कैसे काम चले ? पैदा कुछ है नहीं ; मंहमाई ने कमर तोड़ रखी है । किसी तरह उधार ले कर यह तांगा खरीदा है। उसे भी अब तुम मत चलाने दो। पुलिस-हम तांगा चलाने से मना करते हैं ? सब लोग चलाते हैं, तुम भी चलाओ। आज कल तो तुम लोग खूब पैसा पीट रहे हो। (धीमे) कुछ हमारे चाय-पानी का भी तो व्यवस्था करो। तांगे वाला- साहब ! मेरे गले की सौगन्ध जो पैसा जुड़ रहा हो। सुबह-शाम सदा सिर पर सवार रहती है। अब आपकी क्या ब्यवस्थ करू? यह एक अठन्नी जेब में है, इसे तुम लेलो। पुलिस-हू''आठ आना ? जानते हो, चालान हो गया तो कितने आठ आने भरने पड़ेंगे ? तांगे वाला पुलिस के पैरों में गिर पड़ा। कहने लगा-मुझ गरीब को मत सताओ। मेरे पास इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है । घर पर बच्चे बीमार है। चालान हो गया तो मर जाऊगा। पुलिस-इसलिए तो हम तुमसे कह रहे है । तांगे वाला--पर क्या करूं ? मेरे पास इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है । पुलिस--हमने तुम्हारे जैसे बहुत देखे हैं। पट्टे पैसे से जेबें भरे रहते Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ / नए मंदिर : नए पुजारी हैं, फिर भी कहते हैं कि हमारे पास कुछ नहीं है। तांगे वाला-बाबा ! जो कुछ हो तुम्हारा । मेरी तलाशी लेलो। इतने में कुछ लोग इकट्ठे हो गए। पुलिस ने मामले को समेटते हुए तांगे का मुह मोड़ लिया। तांगे वाला बिचारा बहुत गिड़गिड़ाया, पर पुलिस पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। थाखिर चालान हो गया। सब्जी वालों ने अपनी सब्जी नीचे उतार ली। घोड़ा पशु-चिकित्सालय में चला गया। तांगे वाला बिचारा रोता रह गया । उसे आदेश मिला कि तीन दिनों बाद कोर्ट में हाजिर हो जाए। घोड़े के अभाव में तांगेवाला खुद तांगे में जुत कर उसे खींचने लगा। मन में गुस्सा, अपमान, चिन्ता आदि उमड़ रहे थे। वह यंत्र की तरह बेसुध होकर चल रहा था कि इतने में पीछे से एक स्कूटर की टक्कर लगी और उसका कन्धा छिल गया, उसमें से खून बहने लगा। पीड़ा से करहाते हुए वह अपने घर की ओर चल रहा था। घर आते ही खून से रंगे कपड़े देख कर पत्नी ने कहा-यह क्या कर आए हो? घोड़ा कहां है ? तांगे वाले के मुंह से एक ही शब्द निकला-चालान; और वह फूटफूट कर रोने लगा। पत्नी ने उसे ढ़ाढ़स बंधाया। कपड़े बदले। उसके बाद और दो दिनों तक वह खाट पर पड़ा रहा। तीसरे दिन कोर्ट में जाना आवश्यक था। क्योंकि यदि वह नहीं जाता तो घोड़े का हाथ से निकल जाना स्पष्ट था। अत: वह जैसे तैसे कर मजिस्ट्रेट के सामने हाजिर हुआ। पुलिस ने सारा मामला मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किया। तांगे वाला बिचारा कुछ नहीं बोल सका और उस पर पचास रुपये फाइन हो गए, यह सुनते ही उसकी आंखों में आंसू छलक आए और अपने कन्धे पर से कपड़ा हटाते हुए बोला-साहब घोड़े की पीठ पर घाव हो जाने पर उसे तो किसी अस्पताल में भी भेजा जा सकता है, पर क्या मनुष्य की पीठ पर घाव हो जाने पर उसे किसी अस्पताल भेजने का प्रबन्ध है ? और एक ही साथ उसने अपनी सारी स्थिति का चित्र कोर्ट में खींच दिया। सारे लोग क्षण भर के लिए विस्मित से हो गए । मजिस्ट्रेट ने देखा कि उसका घाव रिस रहा है, पर कानून की धाराओं के सामने वह परास्त था। अतः फाइन में कोई भी रियायत नहीं हो सकी। घाव रिसता ही रह गया। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूल खेलते-खेलते माधुरी और महेश अपने क्वार्टर के साथ लगी बगिया में चले गए। दोपहर का समय था। भयंकर गर्मी पड़ रही थी। सभी लोग अंदर क्वाटर में विश्राम कर रहे थे, पर माधुरी और महेश के बचपन को गर्मी कहाँ छू सकती थी ? स्कूल से आने के बाद उन्हें खिला-पिलाकर उनकी मम्मी सुशीला भी आराम करने लगी थी। सोते ही उसको नींद आ गई, पर माधुरी और महेश को नीद कहाँ आती? यद्यपि मम्मी ने उन्हें सो रहने के लिए कड़ी हिदायत कर दी थी। अत: वे एक बार लेट भी गए। कुछ देर सोने की कोशिश भी की, पर नीद नहीं आई तो उन्होंने आंखों ही आंखों में इशारे करने शुरू कर दिए । थोड़ी देर में महेश उठ कर दबे पांव बाहर निकल गया । माधुरी भी उठकर चुपचाप उसके पीछेपीछे बाहर आ गई। दोनों खेलते-खेलते बगिया में आ गए। ___बगिया में घास का कालीन बिछा हुआ था। गमलों में कुछ केक्टास लगे हुए थे, कुछ चमेली झाड़ लगे हुए थे, भांति-भांति की लताएं लगी हुई थी। कुछ ओम के पेड़ लगे हुए थे। एक गुलाव का पौधा लगा हुआ था। उस पर एक ही फूल आया हुआ था । माधुरी ने उसे देखा और बड़े प्यार से उसे सहलाते हुए कहा--अहा, कितना सुन्दर है यह फूल ! महेश ने उसे सूंघते हुए कहा-अहा ! कैसी मीठी है इसकी सुगन्ध । कल में इसे अपने कोट के रोजहाल में लगाकर स्कूल जाऊंगा। सारे लड़के मेरी ही ओर देखेंगे। माधुरी ने कहा-गर्मी में कहीं कोट पहनते हैं ? इसे तो कल में अपनी चोटी में लगाऊँगी। हमारी मिस हमेशा अपनी चोटी में ऐसा ही फूल लगाकर आती हैं । मुझे बड़ा अच्छा लगता है। ___ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ / नए मंदिर : नए पुजारी महेश : नहीं, तू चोटी में कैसे लगाएगी ! इसे तो मैं अपनी कमीज में लगाऊंगा। लोमड़ी की पूंछ जैसी तो तेरी चोटी है। उसमें यह इतना बड़ा फूल क्या अच्छा लगेगा ? माधुरी : हमारी किताब में लिखा है, लड़कियां अपनी चोटी में फूल लगाती हैं। महेश : ऐसा है तो तू चमेली का सफेद फूल लगा लेना। हमारे ड्राइंग मास्टर कहते हैं कि काले पर सफेद रंग बहुत अच्छा खिलता है। तेरे काले बालों पर भी चमेली का सफेद फूल बड़ा अच्छा लगेगा। माधुरी : नहीं, नहीं। चमेली का फूल तू अपनी शर्ट में लगा लेना। गुलाब का फूल तो मैं अपनी चोटी में ही लगाऊंगी। महेश : तू कैसे लगाएगो ? मैं सुबह उठते ही इसे तोड़कर छिपा दूंगा। तव तू फिर (अंगूठा दिखाकर) यह लगाना। माधुरी : तू ऐसा करेगा तो मैं आज शाम को ही इसे तोड़ लूंगी। फिर तू देखते रहना। यों तकरार करते-करते दोनों आगे बढ़ गए। गुलाब पीछे छूट गया और थोड़ी देर में वे एक आम के पेड़ के नीचे आ गए। अब वे आम की बातें करने लगे। बातें क्या करने लगे, अपनी सूरत बिगाड़-बिगाड़ कर आम खाने का अभिनय करने लगे। माधुरी ने कहा कि मैं दो आम खाऊंगी। महेश ने कहा-मैं चार आम खाऊंगा। माधुरी : मैं दस खाऊंगी। महेश : मैं सौ खाऊंगा माधुरी : मैं सारे आम खाऊंगी। महेश : तुमसे सारे आम खाए जाते हैं ? इतने आम खाने से तुमको दस्त नहीं लगने लगेगी? माधुरी : तू सौ खाएगा तो तुझको दस्त नहीं लगेंगी? महेश : पर मैं तो धीरे-धीरे खाऊंगा। माधुरी : तो फिर मैं भी धीरे-धीरे नहीं खालूंगी ? कुछ पापा को भी दूंगी। थोड़े से तुमको भी दे दूंगी। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूल | १६ यों एक के बाद एक न जाने कितनी बातें हो गई। फिर तो वे घर वापस भी चले आए। अपना-अपना होम वर्क किया, खाए-पिए और खेलेकूदे। इसी तरह शाम हो गई। मम्मी ने उन्हें बताया कि आज जल्दी तैयार हो जाओ। आज हमें सिनेमा देखने जाना है। अतः वे जल्दी ही नहा-धोकर तैयार हो गए। मम्मी ने भी स्नान किया। अपनी चोटी गूंथी। फिर उसमें गुलाब का फूल लगाने के लिए बगिया में आई, पर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ जब गुलाब के पौधे पर कोई फूल ही नहीं दिखाई दिया। गर्मी के मौसम में यों ही फूल कम होते हैं । उसभ भी एक मात्र फूल गायब देखकर मम्मी झल्ला गई। मन ही मन कहने लगी – रोज फूल नहीं लगाती । कभी-कभार जब बाहर जाने का काम पड़ता है, तो शौक आता है। कल तो एक फूल दिखा था, पर ये छोकरे फलों को कहां टिकने देते हैं । उसने गुस्से में ही महेश को आवाज दो--महेश, ओ महेश ! एक विनीत बच्चे की तरह महेश झट मम्मी के सामने आकर खड़ा हो गया। मम्मी ने पूछा-अरे, यह गुलाब का फूल कहां गया। अचानक महेश को दोपहर की माधुरी की बात याद आ गई। उसने सोचा, सचमुच माधुरी ने ही फूल तोड़ा होगा । वह बड़ी बदमाश है। उसे शिक्षा देने के लिए वह बोल पड़ा-मम्मी ! फूल तो माधुरी ने तोड़ा है। मम्मी झल्लाई हुई तो थी ही अत: बिना कुछ विशेष पूछ-ताछ किए अंदर आ गई । संयोग से माधुरी दरवाजे पर ही खड़ी थी। मम्मी ने कुछ कहा न सुना, माधुरी को एक थप्पड जड़ दिया। माधुरी को बिचारी को पता ही नहीं चला कि उसे यह थप्पड़ का उपहार क्यों मिला; वह हक्की-बक्की सी देखती रह गई। मम्मी अंदर चली गई । इतने में महेश अंदर आया। उसने माधुरी को चिढ़ाते हुए कहा-ले, मेरे से तकरार करती है तो चख इसका मजा । गुलाब का फूल तू ने ही तोड़ा था ना! मैंने कहा था, मेरी बात मान जा, फूल मुझे लेने दे, पर तू तो लाट साहब हो रही है। मेरी बात कैसे मानेगी! पर देख, तू ने मुझे फूल नहीं लेने दिया, इसका फल. तुझको मिल गया। अब आगे मुझसे कभी मत लड़ना। माधुरी : पर मैंने तो फूल तोड़ा ही नहीं। महेश : तो फिर किसने तोड़ा ? | Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० / नए मंदिर : नए पुजारी माधुरी : मुझे क्या पता। महेश : देख माधुरी ! मुझे बेवकूफ मत बना। तूने दोपहर को मुझे नहीं कहा था कि मैं आज शाम को फूल तोड़ लूंगी ? माधुरी : कहा तो था पर मैं तो तेरे साथ मजाक कर रही थी। क्या तू . ने मुझे नहीं कहा था कि मैं सबेरे ही फूल तोड़ कर छिपा दूंगा। महेश : पर तू ने तो सवेरा होने ही नहीं दिया, पहले ही फूल गायब कर दिया। माधुरी : नहीं, महेश! मैं विद्यामाता की सौगंध खा कर कहती हूं कि मैंने फूल नहीं तोड़ा। महेश : तो फिर किसने तोडा? माधुरी : हमारे पड़ोस वाली चम्पा काकी भी तो कई बार फूल ले जाती है। महेश : पर तो भी तुमने चिढ़ाया, इसका फल तो मिल ही गया। मैंने तुमसे हजार बार कह दिया कि मुझसे मत भिड़ाकर । मैं तेरी चटनी बनवा दूंगा, पर तू सदा मेरे से अकड़ती है। इसी का यह परिणाम है। अब भी तेरे में अक्ल है तो समझ जा । अब मेरे से कभी मत अकड़ना। माधुरी : पर तू भी तो मेरे साथ अकड़ता है। तू तो मेरे साथ विश्वास घात करता है। तू ने उस दिन भी मेरी पिटाई करवाई थी। __ अब देख लेना, मैं भी इसका बदला कैसे लेती है ? मैं भी तेरा झूठा नाम लगाऊंगी और पापा से तेरी पिटाई कराऊंगी। __यह कहते-कहते माधुरी की आंखे भर आई। महेश कुटिलता से हंसता हुआ बाहर भाग गया। इतने में अंदर से पापा की आवाज गूजी-अरे, मेरी जेब में पैसे थे, कहां गए ? सुशीला : तुम्हारी जेब में पेसे होते भी हैं, जो कहीं जाएं ? पापा : वाह ! मुझे बेवकफ बना रही हो। सुबह ही में अपने कमीज में एक रुपये की चिल्लर छोड़ कर गया था। सुशीला : छोड़ कर जाते तो मिल जाते। यहां कोई जादूगर तो हैं नहीं, जो तुम्हारे पैसे उड़ा ले जाए। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा : देखो, ऐसा मत बोलो। मुझे अच्छी तरह याद है कि मैंने एक रुपये की चिल्लर अपनी जेब में छोड़ी थी। तुम सदा मेरी तलाशी लेती रहती हो। मैं अपने जेब खर्च में से जो बचाता हं वह भी तुम हजम कर जाती हो। सुशीला : मैं हजम करने वाली कौन हूँ ? तुम्हीं जब भूल जाते हो, तो मैं क्या करू ? - इतने में माधुरी अंदर आ गई। उसने मां बाप का संवाद सुना तो खुश हो गई। अचानक उसे शरारत सूझी। अभी वह महेश द्वारा करवाए गए अपने अपमान को भूली नहीं थी। पापा पर उसका पूरा साम्राज्य था। उसने सोचा कि महेश से बदला लेने का यह सुन्दर मौका है। अतः वह धीरे से बोली-पापा ! मैं बताऊं, पैसे कहाँ गए ? पापा ने आश्चर्य से कहा- बताओ। माधुरी : पापा ! पैसे तो महेश निकाल कर ले गया था। पापा : (पत्नी की ओर घूरते हुए देख कर) देखा अपने शाहजादे के कारनामे ! अभी से जनाब चोरी करना सीख गए हैं। और उसी गुस्से में उन्होंने कड़क कर महेश को पुकारा। महेश के अन्दर प्रवेश करते ही उन्होंने महेश को ऐसा जोरदार थप्पड़ मारा कि उसका मुह सूज गया। एक ही थप्पड़ में वह तो बिचारा जमीन पर बैठ गया। पापा उसकी और मरम्मत करते, इससे पहले ही सुशीला ने आकर महेश का बचाव किया। पापा बोले -तू ही इसको शह देती है, इससे यह दिन-ब-दिन बिगड़ता जा रहा है, पर याद रखना इस तरह यह शाहजादा सारे घर को तबाह करके रख देगा। आज घर का वातावरण बड़ा तनावपूर्ण हो गया। पापा का भी मूड बिगड गया, मम्मी का भी मूड बिगड़ गया, महेश का भी मूड बिगड़ गया, माधुरी का भी मूड विगड़ गया। महेश तो अन्दर जाकर फफकफफककर रोने लगा। उसने सिनेमा जाने से भी मना कर दिया । सिनेमा जाने का समय हो गया पर कोई जाने को तैयार नहीं था। सार। मजा ही किरकिरा हो गया था। सभी एक दूसरे के दोषों को देख रहे थे। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ / नए मंदिर : नए पुजारी आखिर पापा ने कहा-अब टिकट आ गए होंगे तो उनका क्या होगा ! मैं अनिल को कहकर आया हूं। वह प्लाजा पर हमारा इतजार कर रहा होगा। __सुशीला ने कहा - तुम चले जाओ। 'पापा : पर टिकिट तो चार होंगे। सुशीला : चार होंगे तो मैं क्या करूं ? तुमने तो सारा वातावरण ही उत्तेजित कर दिया है। पापा : पर तू ने तो भी अभी माधरी को मारा था। यों मारने से बच्चे सुधरते हैं क्या? सुशीला : हाँ, मुझे ही उपदेश देते हो। अब तुम ही अपने राजकुमार को मनाकर लाओ। 'पापा : भई, अब गुस्से में जो हो गया सो हो गया । चलो, महेश को मना कर लाओ। जल्दी करो, अनिल बोर हो रहा होगा। सुशीला : अब मैं क्यों मनाऊं? मारते तो तुम हो और मरहम-पट्टी करनी पड़ती है मुझे। मैं नहीं जाती। तुम्हें ही मनाना है तो बनाओ। पापा महेश को मनाने अन्दर गए, पर महेश तो फफक-फफककर रो रहा था । पापा को देखकर यह और भी जोर से रोने लगा। पापा ने कहा - देखो महेश यह चोरी की आदत अच्छी नहीं है। तुम्हें पैसे चाहिए तो मांगकर लो। हम कब मना करते हैं। चलो, अब अपनी गल्ती स्वीकार करो और सिनेमा देखने चलो। यह सुनते ही महेश और ज्यादा उग्र हो गया। वह रोता हुआ बोला---पापा ! मैंने पैसे नहीं चुराये हैं। पापा को एक बार गुस्सा आया । वे महेश पर दो-चार हाथ अजमाने वाले ही थे कि उनका पितत्व जाग उठा। सोचने लगे- आज तक महेश ने कभी पैसे नहीं चुराये और न कभी झूठ बोला, तो आज यह सब कैसे हो गया ? उन्होंने अपने आप को काबू में किया और स्थिति पर विचार करने लगे। इतने में महेश कड़क कर बोला – नहीं जाना है मुझे सिनेमा। आपको जाना है तो जाइए । पापा समझ गए कि उत्तेजना में Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूल / २३ महेश को समझाना कठिन होगा। अत: वे शांत भाव से लौट आए। सुशीला से बोले-बच्चों को घर पर ही छोड़ो और अपन चलो। . सुशीला को भी डर था कि यदि हम नहीं गए तो अनिल और उसकी पत्नी हमसे जबाब तलब किए बिना नहीं मानेगे। घर का झगड़ा मित्रों के सामने खुले बिना नहीं रहेगा, इसलिए बिना मन उसको तैयार होना पड़ा। महेश के लिए माधुरी को भी घर पर ही छोड़ दिया गया। महेश का गुस्सा अभी तक शान्त नहीं हुआ था। माधुरी उसके पास गई और उसे मनाने लगी। वह उसके बालों में हाथ फेरने लगी तो महेश ने उसे एकदम झटक दिया। माधुरी उसके पास बैठ गई। एक ओर महेश से बदला लेने से खुश थी तो दूसरी ओर सिनेमा नहीं जाने तथा महेश के जोरदार मार पड़ने से दुखी भी थी। _रो लेने के बाद जब महेश थोड़ा शांत हुआ तो माधुरी ने अपना मुंह उसके पास ले जाकर पूछा – क्या बहुत जोर से लगी है ? महेश : (अपना मुँह फुलाकर) और क्या प्रेम की पुचकार थी। देख गेंद कितनी जोर से हिट हुई । पाँचों अंगुलियों के निशान पड़े होंगे। धीरे-धीरे बातचीत थोड़ी सहज हुई तो माधुरी बोली-देख, आज यह मार तुम्हारे अपने कारनामों से ही पड़ी है। महेश चौंक कर बोला - क्यों, मैंने क्या गलत कारनामें किए ? पापा मेरे पर झूठा इलजाम लगाते हैं । मैंने आज क्या कभी भी एक पैसा नहीं चुराया। माधुरी : पर, तुमने मम्मी से मेरी झूठी शिकायत नहीं की थी ? महेश : कौन-सी झूठी शिकायत ? माधुरी : वाह, अभी भूल गए । तुमने ही तो मम्मी से कहा था कि फूल मैंने तोड़ा था। तुमने मेरा झूठा नाम लिया तो मैंने भी तुम्हारा झूठा नाम ले लिया। महेश : अरे माधुरी ! यह सब तेरी शरारत है । देख लेना, मम्मी को आने दे । मैं सब सच्ची-सच्ची बात कह कर तेरी ऐसी पिटाई कराऊंगा कि तुझे अस्पताल जाना पड़ेगा। बस, अब आने दे Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ नए मंदिर : नए पुजारी मम्मी-पापा को। महेश की यह आक्रोशपूर्ण धमकी सुनकर माधुरी इतनी डर गई कि उसे बुखार हो गया। उसकी जबान बन्द हो गई। वह अक्षम होकर फर्श पर ही लेट गई । जब तक मम्मी-पापा आये तब तक महेश को भीनींद आ गई। उन्होंने बेल बजा-बजा कर बड़ी मुश्किल से महेश को उठाया । आधी नींद में ही महेश ने दरवाजा खोला। वातावरण बदल जाने से मम्मी-पापा का मन थोडा शांत हो गया था, पर जब सुशीला ने फर्श पर लेटी हई माधरी को बिछौने पर सोने के लिए उठाया तो स्तब्ध रह गई। माधुरी का शरीर आग की तरह जल रहा था। सुशीला अत्यन्त ममतामयी होकर बोली--अरे, माधुरी को तो तेज बुखार हो गया है । पर माधुरी नींद में इतनी बेसुध थी कि उसे दवाई भी नहीं दी जा सकी। सबेरे भी माधुरी का बुखार चालू था । अतः वह स्कूल भी नहीं जा सकी। महेश मार तथा अपमान से इतना संतप्त था कि वह बिना नाश्ता किए ही स्कूल चला गया। यद्यपि वह पापा से अपनी कैफियत देना चाहता था तथा मम्मी से माधुरी की मरम्मत भी करवाना चाहता था, पर माधुरी बुखार में थी अतः यह संभव नहीं हो सका । वह गुस्से में ही स्कूल चला गया। सुबह से ही घर का वातावरण बोझिल था। इतने में पड़ोसिन चम्पा की लड़की किसी काम से उनके घर आ गई। उसकी चोटी में लगे हुए गुलाब के फूल को देखकर सुशीला ने पूछा-अरे यह फूल कहां से लाई ? उसने कहा--तुमको पता नहीं है क्या? कल मम्मी ने तुम्हारी बगिया में से लाकर ही यह फूल मेरी चोटी में गूंथा था। फूल बड़ा अच्छा था, अतः रात को मैं इसे उतारकर सो गई थी। सुबह फिर से लगा लिया है। ___इतना सुनते ही सुशीला अन्दर कमरे में भागी मौर माधुरी से लिपट गई । उसकी आंखों में पश्चाताप के आंसू आ गए । माधुरी को बार-बार चूमते हुए उसने कहा-बेटी, तुम्हारा कोई दोष नहीं। मैंने गलती से तुम्हें मारा । न जाने महेश ने मुझे क्यों गलत सूचना दी, जिससे मुक्षसे यह al Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूल / २५ गलती हो गई । मेरे कारण तेरे को यह बुखार हो गया । अब तू उस बात को भूल जा और शांत हो जा । माधुरी मम्मी का यह अतिशय प्रेम तथा पश्चात्ताप देखकर थोड़ी आश्वस्त हुई। उसने कहा- मम्मी ! पप्पू ने मेरा झूठा नाम लिया, इससे मैंने भी उसका झूठा नाम ले लिया । वास्तव में पैसे उसने नहीं चुराए थे । मैंने उसका झूठा नाम ले लिया था । मम्मी, तू मुझे पीटेगी ? पप्पू ने कहा था कि मैं मम्मी से तुम्हारी मरम्मत कराऊंगा । इतने में ही बाहर से पापा की आवाज आई । 'अरे, पैसे तो मेरे पुराने शर्ट में पड़े हैं। मैं तो भूल ही गया । व्यर्थ ही मैंने महेश को अपमानित किया ।' यह कहते-कहते वे अन्दर आ गए । स्पष्ट रूप से उनके चेहरे पर पश्चात्ताप का भाव झलक रहा था । सुशीला ने कहा- आज महेश भूखा ही स्कूल चला गया है । तुम जरा जल्दी करो और आफिस जाने से पहले उसका नाश्ता स्कूल पहुँचा आओ' मैंने नाश्ता तैयार कर दिया है । पापा उसी समय नाश्ता लेकर स्कूल पहुँचे । महेश का मन अब भी अशांत था । उन्होंने मुश्किल से उसे एक ओर बुलाकर कहा - महेश ! मुझसे गल्ती हो गई बेटे ! माधुरी के कहने से मैंने तुम्हारा अपमान किया । मुझे मेरे पैसे भी मिल गए हैं तथा माधुरी ने भी अपनी गलती स्वीकार कर ली है । वह बुखार से पीड़ित है । तुम उसे क्षमा करो । मेरा मन भी पश्चात्ताप से जल रहा है। अब तुम खाना खाओ और पिछली को भूल जाओ । माधुरी की पीड़ा तथा पापा के चेहरे पर उभरे पश्चात्ताप के भावों से महेश अभिभूत हो गया। अब तक वह दूसरों की गलती देख रहा था । अब उसे अपनी गलती भी स्पष्ट दिखाई देने लगी । वह पापा से क्षमा मांगते हुए बोला, पापा ! मुझे माफ करो । वास्तव में गलती आपकी या माधुरी की नहीं है मेरी ही गलती है । मैंने ही बिना जाने-बूझे उस पर आरोप लगाया । उसने जो कुछ किया, वह तो केवल प्रतिक्रिया थी । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ / नए मंदिर : नए पुजारी मैं अभी आपके साथ चलता हूं तथा माधुरी से मांफी मांगता हूं । पापा ने क्लास टीचर से कहकर महेश को अपने साथ लिया। अब तक माधुरी का बुखार काफी कम हो गया था, पर जब महेश ने उससे माफी मांगी तब तो वातावरण अत्यन्त द्रवित हो गया था । माधुरी का रहा-सहा बुखार भी उतर गया । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमीशन रेलवे पटरियों के साथ-साथ चलने वाली पगडंडी से होकर आफिस जाना मेरा रोजमर्रा का कार्य है। अब तो यह रास्ता मुझसे इतना परिचित हो गया है कि शायद आंखें मींचकर भी निकल जाऊं, पर प्रारम्भ में इतना सहज नहीं था । बीच में कुछ खाली माल-डिब्बे पड़े रहते हैं । कुछ इंजन भी ईंधन पानी के लिए खड़े रहते हैं। समय-समय पर गाड़ियों की साइडिंग भी होती रहती है, पर यह रास्ता थोड़ा शार्टकट है, इसलिए मैं कई वर्षों से इधर से ही आता-जाता हूँ। प्रारम्भ में जब मैंने इस राह से आना-जाना शुरू किया, तो देखा कि कुछ किशोरियाँ इंजन द्वारा खाली किये गये राख केढेर में से कुछ अधजले कोयले बीन रही हैं। मैंने सोचा, इस वेस्टेज से भी कितने जीव पल रहे हैं। भले ही रेलवे वालों को राख के ढेर से कोई मतलब नहीं, पर खोजने वाले कहाँ-कहाँ कैसे-कैसे अर्थ खोज लेते हैं ? कोयलों की कालिख से किशोरियों के फटे हुए कपड़े ही काले नहीं हो जाते थे, अपितु पसीने से लथपथ उनके चेहरे भी जगह-जगह से काले हो जाते थे। उनकी आंखों में एक अजीब प्रकार की निराशा मुझे स्पष्ट दिखाई देती थी। कभी-कभी जब राख के ढेर में से कोई बड़ा अधजला कोयला मिल जाता, तो उनकी आंखों में ऐसी चमक आ जाती, मानो उन्हें कोई खजाना मिल गया हो । मुझे भी उनकी खुशी से थोड़ी खुशीहोती। मुझे लगता, मनुष्य एक दूसरे के साथ कितनी सूक्ष्मता से बंधा हुआ है। धीरे-धीरे मैंने देखा कि इंजन के खलासी आवश्यकता से पहले ही इंजन को खाली कर रहे हैं । इस सिलसिले में काफी अधजले कोयले नीचे गिर जाते हैं। इससे किशोरियों को कुछ अधिक कोयले मिलने Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ / नए मंदिर : नए पुजारी लगे। उनकी टोकरियां जल्दी-जल्दी भरने लगीं। तब उनके साथ कुछ अधेड़ तथा प्रौढ़ औरतों को भी में वहाँ देखने लगा। एक दिन मैंने देखा कि खलासी कुछ बिना जले कोयले के बड़े-बड़े पत्थर ही नीचे फेंक रहा है । किशोरियां उन्हें बड़ी मुश्किल से उठा पा रही थीं। प्रौढ़ाएं उनका सहयोग कर रही थीं । वे जल्दी-जल्दी उन्हें अपनी टूटी हुई टोकरियों में भर कर पटरियों की सीमा को पार कर रही थीं। मुझे देखकर एक क्षण खलासी चौंका । किशोरियां और प्रौढ़ाएं भी चौंकी। मैं भी चौंका । पर मैं उनकी गरीबी को देखकर चुप हो गया। मैं सोचने लगा कि यदि मनुष्य को जीने का अधिकार है तो दो रोटी प्राप्त करने का अधिकार भी होना चाहिए । यद्यपि उस अवसर पर राष्ट्रद्रोह की बात भी मेरे मन में आई, पर उनकी गरीबी के सामने मेरी कठोरता पिघल गई और मैं सारी बात को अनदेखा कर आगे निकल गया । फिर तो धीरे-धीरे यह क्रम भी बढ़ने लगा । खलासी रोज-रोज बड़े-बड़े कोयले इंजन से नीचे खिसकाते और किशोरियां तथा प्रौढ़ाएं उन्हें अपनी टोकरियों में भरकर जल्दी-जल्दी भाग जाती । अब उन्हें मेरा कोई डर नहीं रह गया था । वे समझने लगीं थी कि मेरी ओर से उन्हें कोई खतरा नहीं है । I पहले तो मैंने सोचा कि ड्राइवर तथा खलासी इनके सम्बन्धी होंगे, जो अपने गरीब रिश्तेदारों की मदद करते हैं, पर एक दिन मैंने देखा कि एक प्रौढ़ा हाथ में एक-एक रुपये के कुछ नोट लिये खलासी से कुछ बात कर रही है । खलासी कह रहा है — “इतने से काम नहीं चलेगा । मैंने इतने कोयले गिराए हैं, पांच रुपये देने होंगे ।" प्रौढ़ा ने एक नोट और निकाला । खलासी ने उसे बड़ी रुखाई से अपने जेब में डाल लिया और इंजन जोरदार सीटी देता हुआ दौड़ गया । अब तो इस दृश्य को मैं रोज-रोज देखने लगा । पटरी के पास रेलवे पुलिस की एक टपरी (hut ) थी । उसमें दो सशस्त्र रेलवे पुलिस हर क्षण ड्यूटी पर तैनात रहते थे । एक दिन मैंने देखा कि पुलिस वालों ने उन पौढ़ाओं और किशोरियों को पकड़ा । किशोरियां तो भाग गयीं, पर प्रौढ़ाएं निश्चल मुद्रा में खड़ी रहीं । पुलिसवालों ने उनके पास आकर उन्हें धमकाना शुरू किया - यह कोयला तुम्हारे बाप का है. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमीशस | २६ जो बेधड़क ले जा रही हो?" औरतें कुछ बोली नहीं । लब पुलिसवाला बहुत तेज बोलने लगा, तो पौढ़ाओं के चेहरे पर एक अर्थपूर्ण हंसी फैल गई। पुलिसवाला अपने-आप नरम पड़ गया। मैं उस दिन तो आगे निकल गया, परअब आये दिन पौढ़ाओं तथा पुलिसवालों में रहयस्यपूर्ण फुसफुसाहट होती रहती, बल्कि वे उनके पास बैठकर पान-तम्बाकू खाती और बातें भी करती रहतीं। कभी-कभी उनके हाथों में नोट भी चमकते रहते । कभी जब कोई नया पुलिसवाला आता, तो वह जरा तेज बोलता। मैं समझ गया कि उसका वह झगड़ा केवल रौब जमाने वाला होता था। थोड़े दिनों में जब वह यहां की हवा पानी में रम जाता तो उसमें भी एक पालतूपन आ जाता और उनमें आपस में पारिवारिक सलाह-मशविरा का सा क्रम शुरू हो जाता। हालांकि गरीब औरतों की गरीबी पर मुझे तरस आता और मैं पिघल जाता, फिर भी नुझे ड्राइवर, खलासी तथा पुलिसवालों की बेईमानी अखरती रहती। कई बार मैंने उनकी शिकायत करने की बात भी सोची, पर एक बार तो मैंने देखा कि एक पुलिस अफसर भी उधर आया और अपना कमीशन बटोरने लगा। मैं समझ गया इस धन्धे की जड़ें काफी गहराई तक फैली हुई हैं। मैंने ऊपर तक जाने की बात भी सोची, पर जब मुझे अपने आफिस की याद आ गयी तो मैं सोचने लगा कि आदमी सब जगह एक सा ही होता है । यद्यपि मेरे लिए बेईमानी का कोई अवसर नहीं है, पर मैं कह नहीं सकता, यदि मुझे अवसर मिलता तो अपने स्थान पर कितना ईमानदार रहता। सचमुच में तो बेईमानी का यह धन्धा ऊपर के आफिसर से चपरासी तक चलता है। इस मामले में पिसते हैं तो बेचारे गरीब ही पिसते हैं। इसलिए मैंने इस ओर ध्यान देना हो बन्द कर दिया। अब रोज मेरी आंखों के सामने यह धन्धा होता है । मैं मौन-दर्शक की भांति उसे देखता रहता हूँ। मैं नहीं जानता कि यह उचित कर रहा हूं या अनुचित ? पर इतना तय है कि मेरे सारे तर्क चुक गये हैं । मैं अब एक महात्मा की तरह उदासीन भाव से घर से आता हूं और दफ्तर चला जाता हूं। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा पहलू सुबह से ही सेठ हीरालालजी के घर का वातावरण तनावपूर्ण हो गया था। यद्यपि यह आज कोई नई बात नहीं थी। महीने में पचीस दिन इस घर में ऐसा ही वातावरण रहता है । सेठजी प्रातः चार बजे ही उठ गए थे। माला-मनका तथा संध्या-पूजा से निवृत्त हो जाने के बाद वे अपने घर के बाहर की चौकी पर बैठकर तमाखू से दांत घिस रहे थे। यह भी उनका रोज का नित्यकर्म था । उनके लिए रोटी छूट जाना फिर भी संभव हो सकता था, पर दिन में तीन बार तम्बाखू से दांत घिसे बिना रहना असंभव था । आधे घंटे तक बैठे-बैठे वे दांत भी घिसते जाते थे तथा इधर-उधर की गप-शप भी करते जाते थे। इस सिलसिले में जो कोई भी उधर से गुजरता, उसे बिना कुछ-कहे-सुने गुजरना मुश्किल था। आज भी उन्होंने राजाराम को पकड़ लिया। उसे कह रहे थे--देखो, कैसा जमाना आ गया है। दो घंटा दिन चढ़ने को आया है, पर अभीतक मेरा बेटा रमेश उठा नहीं है। सचमुच आजकल कलियुग आ गया है। हसारे जमाने में तो हम अपने बाप से पहले उठते थे। सेठानी सुबह-सुबह उठकर घर की सफाई करती थी, आटा पीसती थी, दही बिलोती थी, कुएं से पानी लाती थी, फिर भी मजाल है कि कभी चाचा जी के नाश्ते में देरी हो जाय । पर आज स्थिति यह है कि रमेश की बहू अभी तक उठी ही नहीं है । घर का सारा काम बिचारी बूढ़ी को करना पड़ता है। अब उसके कोई काम करने के दिन हैं ? पर क्या करे ? कहे किसको ? अपनी जांघ उघाड़ने में खुद को ही शर्म आती है। हमने तो सोचा था कि इस छोकरे की शादी हो जायेगी तो बूढ़ी को जरा आराम मिलेगा, पर अब तो उल्टा काम हो गया Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा पहलू / ३१ है । बूढ़ी बीमार पड़ी है और बहू अभी तक उठी भी नहीं है । राजाराम - अरे सेठ जी ! आजकल के लोगों की कुछ न पूछिए । मेरा भी छोकरा ऐसा ही है । बहू तो उससे भी आगे है । मेरी औरत को उनको चाय बनाकर पिलानी पड़ती है । जल्दी उठने को कहते हैं, तो उत्तर दे देती है- मुझसे जल्दी नहीं उठा जाता । तुमसे काम होता हो तो करो, नहीं तो नौकरानी रख लो । सेठ – अरे भाई ! आजकल जमाना ऐसा ही आ तुम्हारी यह स्थिति है कि तुम नौकरानी रख लो ? पर आजकल की छोकरियां तो महारानियां बनकर आती हैं । बी० ए०, एम० ए० पढ़ जरूर जाती हैं, पर उन्हें रसोई बनाना नहीं आता । रमेश की बहू को ही देखो । घर पर मेहमान आए हुए थे । उनके लिए रसोई बनानी थी, पर बहु तो सज-धज कर सिनेमा के लिए तैयार हो गई । आखिर उसे जबरदस्ती रोकना पड़ा । पर बिना मन कहीं रसोई होती है? उसने पूरियां बनायी तो जैसे घी में तलकर रख दीं । ( गौमाता को खिलाने का पुण्य लूटने के लिये सेठ जी उन पूरियों को अपने पास लिए बैठे थे) राजाराम को बताते हुए बोले- देखो ! घी तो खराब हुआ सो हुआ ही, पर वे सिककर इतनी आकरी हो गई हैं कि हमसे तो खाई ही नहीं गई । मैंने उसे थोड़ा उलहना दे दिया तो मुंह फुलाकर बैठ गई । इतने में पीछे से रमेश निकल आया । वह गरज कर बोलापिता जी ! आपको यही काम है या और कुछ भी ? आपको एक बेटाबहू है, उनका सुख भी आपसे नहीं सहा जाता । इतना ही नहीं, गांव में हमारी बदनामी करते फिरते हैं । सचमुच आपने हमारा जीवन नरक बना दिया है, पर है भगवान ! अब जायें भी तो कहाँ ? सेट जी – कहाँ क्या, दुकान में जाओ । यों घर में बैठे-बैठे काम नहीं चलेगा। आज तक गधे की तरह खट-खट कर मैंने दुकान चलाई है । अब थोड़ी तुम भी संभालो । रमेश - पर आपको कौन कहता है कि आप दुकान पर बैठो । आपसे खुद ही रहा नहीं जाता। रोज सुबह आठ बजे जाकर बैठते हो । अब इतना जल्दी दुकान जाना जरूरी है ? कौन ग्राहक इतनी जल्दी आता गया है । अब क्या करें ? Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ / नए मंदिर : नए पुजारी है ? और आया भी तो कौन-सी लंका लुट रही है ? अपने भाग्य में लिखा है वह अपने-आप मिल जायेगा। पर आपको कौन कहे ? आप किसी की सुनें तब न ! सेठ जी -हाँ, कोई रोटी जबरदस्ती तुम्हारे मुंह में ठूंसकर चला जायेगा ? जब तक हम जीते हैं, तब तक तुम्हारे लिए कमाते हैं, पर तुमको यह भी अच्छा नहीं लगता । तुमसे तो हमें रोटी-टुकड़े का भी सुख नहीं है । उल्टा हमें ही तुम्हें खिलाना पड़ता है । रमेश पिता जी ! आप क्यों यों बिना मतलब बक-बक कर रहे हैं । हमें आपके पैसे की आवश्यकता नहीं है । मुझ पर इतना अहसान न लादें । हमारे भाग्य में जो लिखा होगा, वह अपने आप मिल जायेगा | इतना कहकर रमेश तो तीर की तरह चला गया । पीछे से सेठजी दांत पीसकर रह गये । इतने में कुम्हार का एक छोकरा अपने गधों पर मिट्टी भरकर उधर से निकला । उसके एक गधे के गले में ट्रांजिस्टर लटक रहा था । उसमें गाना चल रहा था - "तेरे बिना भी क्या जीना ।" छोकरा मजे से उसकी धुन में धुन मिलाकर गा रहा था। एक क्षण के लिए सेठ जी अपनी बात को भूल गए और गीत की उस पंक्ति और छोकरे की एक्टिंग में उलझ गए । वे राजाराम से कहने लगे - देखो राजाराम ! क्या जमाना आ गया है ? कुम्हार भी आजकल गधे के गले में ट्रांजिस्टर लटकाकर गाने सुनते फिरते हैं । राजाराम ने भी उसके सुर में सुर मिलाकर कहा'हां सेठ जी ! बस अब कलियुग में कोई कसर नहीं रह गई है । देखिये न ! इस छोकरे का बाप पीछे चल रहा है और छोकरा मजे से गाता-बजाता जा रहा है । साले को अपने बाप की शर्म नहीं है । हम तो अपने जमाने में अपने बाप के सामने आंख उठाकर भी नहीं देखते थे, पर आजकल सबकुछ farड़ गया । ww गधों की कतार के पीछे ही पीछे छोकरे का बाप चल रहा था । उसने यह संवाद सुना तो बोल उठा - सेठ जी ! दो दिन की इस जिंदगी में आदमी जितना हंस ले, उतना अपना है । आखिर एक दिन सभी को यहां से चले जाना है । इस छोकरे की बेचारे की यही अवस्था है कि थोड़ी Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा पहलू / ३३ मस्ती कर ले। इसीलिए मैंने इसको ट्रांजिस्टर खरीद दिया है। सुबहशाम सबको ही इसका आनन्द मिल जाता है। भगवान ने जिंदगी दी है तो क्यों रो-बिसुर कर जियें ? आखिर बच्चे ही तो हमारी संपत्ति हैं। इनकी खुशी ही हमारी खुशी है। अपने जमाने में हमने भी यों ही मस्ती की थी। हो सकता है, हमारा जमाना थोड़ा संकोच का रहा हो, पर हमारे बड़े-बूढ़े तो हमें कोसते ही थे। मुझे अपने बाप की फटकार याद है। उसने मुझे कभी सिनेमा नहीं जाने दिया, पर मैं रुकता थोड़े ही था। छुप-छुप कर जाता था। इसीलिए मैंने तो सोच लिया कि बच्चों को रोकना निरर्थक है। समझदारी इसी में है कि हम उनकी खुशी को अपनी खुशी बना लें। तब तो वे अंकुश में भी रहने को तैयार हो जायेंगे। अब देखिये, यह छोकरा मेरी कितनी अदब करता है। दिन भर मेरे साथ मेहनत करता है । मेरी हर सुविधा का ख्याल रखता है। कभी मेरे सामने नहीं बोलता। यह सब इसीलिए है कि मैंने भी इसकी खुशी में ही अपनी खुशी समझ ली है। यह कहकर कुम्हार इतनी मुक्त हंसी हंसा कि सारा वातावरण मुखरित हो उठा, पर सेठ जी गहरे विचार में पड़ गये। वे उस अशिक्षित कुम्हार की कसौटी पर अपने-आपको कसने में लीन हो गये। सोचने लगेक्या मैं भी रमेश के साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता? क्या मैं भी रमेश की खुशी को अपनी खुशी नहीं बना सकता ? उन्हें लगा, जैसे उस गरीब कुम्हार ने उन्हें एक बहुत मूल्यवान नसीहत दे डाली है। यह संयोग की बात है कि हमारे सामने घटनाएँ तो हर क्षण घटती रहती हैं, पर कभी-कभी कोई घटना हमारे मन में बहुत गहराई से पैठ जाती है । सेठ जी उस कुम्हार पर बड़े प्रसन्न हुए और गाय को खिलाने के लिये जो पूरियाँ लाये थे, उन्हें देते हुए बोले-लो, थोड़ा प्रसाद लेते जाओ। __ कुम्हार ने वेहिचक अपना अंगोछा सेठ जी के सामने फैला दिया। सेठ जी ने अत्यन्त कृतज्ञता से सारी की सारी पूरियां उसके अंगोछे में डाल दी। कुम्हार सेठ जी को धन्यवाद देता हुआ अपने पुत्र को सम्बोधन करते हुए बोला- "अरे पुनियाँ ! देख सेठ जी ने आज हमें कैसा प्रसाद Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ / नए मंदिर : नए पुजारी दिया है ? पूरियाँ कितनी आकरी-आकरा सका हुई है । ल, तू भा खा। सेठ जी को फिर एक झटका लगा। वे सोचने लगे कि यही जीवन है। बाप और बेटे को जोड़ने वाला यदि कोई सूत्र है तो वह प्रेम ही है, पर साथ ही साथ उन्हें एक दूसरी बात भी बींध गई। वे सोचने लगे--. इन पूरियों को देखने की एक दृष्टि मेरी थी, पर इन्हें देखने की एक दृष्टि इसकी भी है। मैंने पूरियों में अवगुण देखा, पर इसने इनमें भी गुण ढूंढ़ लिया। सेठ जी के रुग्ण मन को जैसे बहुत मुफीद दवा मिल गई। वे उसी क्षण वहां से उठ गये। उन्हें इस बात का ख्याल ही नहीं रहा कि राजाराम उनके पास बैठा है। वे सीधे सेठानी के पास गये जौर उससे बोलेरमेश की माँ ! रमेश बहुत वर्षों से कश्मीर घूमने की बात कह रहा है। चार-पाँच दिन में उसको तैयार कर दो। बहू से पूछ लो। यदि वह चाहे तो किसी नौकर-नौकरानी को साथ ले जा सकते हैं। खर्च-वर्च की कोई परवा नहीं। आखिर उनकी खुशी में ही हमारी खशी है। ___ यह कहते-कहते सेठ जी के आँखों में वात्सल्य के आँसू छलक आये । सेठानी भी उनकी प्रसन्नता से नहाकर इतनी ताजगी से भर गई कि बोल नहीं पाई। उसने रमेश की बहु को बुलाकर सेठजी की बात कही तो वह बोली- नहीं मांसा ! अभी कहाँ कश्मीर जाना है ! अभी तो तुम्हारी तबीयत ही अच्छी नहीं है। जब तुम्हें आराम हो जायेगा तो बाद में सोचेंगे। सेठानी बोली-नहीं बेटी ! मेरी तबियत की क्या बात है ? मैं तो सदा बीमार ही रहती हूँ। घर के काम-धन्धे में घुल-घुल कर मर गई हूं। तुम्हारे अभी खेलने-खाने के दिन हैं । जाओ, खुशी से कश्मीर या जहाँ तुम्हारा जी चाहे घूम आओ । तुम्हारी खुशी ही हमारी खुशी है । हां, किसी बात की तंगी मत देखना । रमेश की बहू सासू के चरणों में झुक गई । श्रद्धा के आँसूओं की दो बूंदों ने सासू के चरणों को गीला कर दिया। यह आर्द्रता उसके ठेठ हृदय तक पहुंच गई Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अपराध हमारा मकान ऐन मेन रोड़ पर बसा हुआ है । इसे किसका दोष कहा जाए कि हमारे मकान की तीसरी पैड़ी सीधी सड़क पर ही उतरती है , यह एक खोज का विषय है कि कैसे नगरपालिका ने यह मकान बनाने की इजाजत देदी? कैसे मकान-मालिक ने इस तरह मकान बनवा लिया ? पर हम स्वयं भी इस दोष से मुक्त नहीं हो सकते कि हमने भी क्यों यह मकान किराये पर लिया ? एक लाइन में दो-दो कमरों के बने हुए हमारे दस मकान एक प्रकार से खोली जैसे ही हैं । न सामने खुली जगह न पीछे खुली जगह। अगल-बगल में तो खैर खुली जगह होने का सवाल ही नहीं है । अब यह तो नहीं हो सकता कि जहां परिवार बसते हैं, वहाँ बच्चे न हों। और यह भी नहीं हो सकता कि बच्चे हों और खेले नहीं । बल्कि हमारे दस परिवारों के बच्चे तो ऐसे हैं कि धमा-चौकड़ी मचाने में उन्हें शायद फर्स्ट प्राइज मिल सके । वैसे हमारे दसों ही परिवार नौकरी-पेशा लोगों के हैं । हम सभी अलग-अलग गांवों से आए हैं। फिर भी आपस में मेल-मिलाप इतना है कि जैसे एक ही परिवार के सदस्य हों । पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की दोस्ती बहुत गहरी है । यद्यपि पड़ोसियों के साथ प्रेम से रहना बस की बात नहीं होती, पर हमने अपने-अपने परिवारों से कह रखा है कि यदि आपस में प्रेम से नहीं रहोगी तो हमारा जीना भी दूभर हो जाएगा। पुरुष लोग तो खैर अपने ऑफिस की चिन्ता में घुले रहते हैं, फिर भी कभी-कभार इधरउधर की कोई पार्टी हो ही जाती है। आखिर सभी लोग पढ़े-लिखे हैं, अतः जीवन का रस लेने की पूरी आकांक्षा हम में है । पर, इस मामले में हमारी Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ / नए मंदिर : नए पुजारी महिलाएँ और भी आगे हैं। पुरुषों के दफ्तर चले जाने के बाद मुहल्ले पर उनका ही एकछत्र साम्राज्य रहता है । अत: गृह कार्य से निवृत्त हो किसी भी जगह उनकी अनायोजित गोष्ठी जम जाती है । इधर-उधर की ही नहीं, सब तरफ की चर्चाएँ वहाँ वे रोक-टोक होती रहती है । बड़े बच्चे तो स्कूल चले जाते हैं, पर छोटे बच्चे आपस में खेलते रहते हैं । कभी-कभी लड़ते-झगड़ते तथा रोते रहते हैं । पर पडोसी धर्म के मर्म को समझने वाली हमारी औरतें अपने-अपने बच्चों के आंसू पूंछ-पाछ कर चुप करा देती हैं और फिर अपनी बातों के एक सूत्री कार्यक्रम में व्यस्त हो जाती हैं। हम बहुत बार औरतों को समझाते हैं कि हमारे सामने ही नहीं, बल्कि ठीकं सटकर मेन रोड है । यातायात का दबाब रहता है, अतः बच्चों को सड़क पर न जाने दें। पर, औरतों का सीधा जवाब रहता है कि क्या बच्चे खेले बिना रह सकते हैं ? हम कहते हैं कि फिर भी उन्हें थोड़ा कन्ट्रोल में रखना चाहिए | कभी भी कोई दुर्घटना हो सकती है, पर उनका सीधा जवाब रहता है कि इतना बच्चों का ख्याल है तो यहाँ सड़क के ऊपर मकान लिया ही क्यों ? कहीं कोई अच्छा-सा फ्लैट क्यों न ले लेते ? हम भी तो आराम से रहती । हम बच्चों का ध्यान रखते ही हैं तो भी तुम पुरुष लोगों का ताना तो हमारे सिर पर ही पड़ जाता है ? यह भी मजे की बात है कि हमारी हर बात का जबाब औरतें समूह की भाषा में देती हैं । फिर भी अपनी लाचारी तथा औरतों की आपसी मैत्री को देख हमें खुशी होती है, इसलिए छोटी-मोटी बातों की ओर हमें ध्यान देने की जरूरत नहीं है । किसी बच्चे की बीमारी, दाखला आदि छोटे-छोटे काम बिना किसी भेद भाव के हमारा संगठित महिला मण्डल अपने-आप सम्भाल लेता है । उनकी इस एकता से आखिर हमको भी थोड़ी राहत मिलती है । अतः हम भी इस यूनियन के जिंदाबाद का नारा लगा देते हैं । एक दिन मैं ऑफिस से आया तो देखा कि पीछे से एक व्यक्ति तेज साइकिल दौड़ाता आ रहा है । हमारे बच्चे सड़क पर खेल रहे थे । साईकिल वाले ने विचारे ने आवाज दी, पर हड़बड़ाहट में बच्चे इधरउधर भागे । इतने में पड़ौसी का बच्चा रमेश उसकी चपेट में आ गया । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अपराध / ३७. यद्यपि रोज-रोज के अभ्यास के कारण हमारे बच्चे दुर्घटना से बचने के अभ्यस्त हो गये हैं, पर होनहार को तो नहीं टाला जा सकता। इसे अंग्रेजी में इसीलिए एक्सीडेट कहा गया है । यद्यपि साईकिल वाले की साइड गलत नहीं थी। रमेश को चोट भी कोई खास नहीं लगी थी। थोड़ी सी खंरोच सी आई थी। थोड़ा खून बहने लगा था, पर रमेश इतने जोर से चिल्लाने लगा, जैसे उसका अन्तिम समय आ गया हो। साईकल वाले की यह गलती अवश्य थी कि एक्सीडेट होने पर भी वह नीचे नहीं उतरा, बल्कि और तेजी से साइकिल दौड़ाता हुआ भाग गया। हमारे आस-पास की औरतें रमेश के रोने की आवाज सुन अपने-अपने कमरे से बाहर निकल आई। साईकिल सवार को भागते हुए देख वे एक स्वर में चिल्ला उठींतुम खड़े-खड़े क्या देखते हो ? पकड़ो-पकड़ो, बेईमान ऐक्सीडेंट कर भाग रहा है। संयोग से मैं अपनी साईकिल से उतर ही रहा था। अतः औरतों ने मुझे ही आदेश दिया--देखते क्या हो? भागो, बदमाश को पकड़ो । बच्चे का एक्सीडेंट भी कर दिया और विना सम्भाल किये भागा जा रहा है। सचमुच ये लोग आजकल बहुत बदमाश हो गये हैं। इसीलिए तो जगहजगह एक्सीडेंट होते रहते हैं। इसका प्रतिकार न करो, तो कैसे सुधार हो? मुझे भी लगा कि वास्तव में ऐसे लोगों को शिक्षा देनी चाहिए। अतः मैंने भी अपनी साईकिल उसके पीछे कर दी। उसने तो अपनी सारी ताकत साईकिल पर झोंक दीं। मैंने भी उसको पकड़ने का पक्का इरादा कर लिया था, अतः अपनी पूरी ताकत लगा दी । बस्कि एक-दो जगह तो मेरा भी एक्सीडेंट होते-होते बचा । हम दोनों हवा की तरह दौड़े जा रहे थे। ____ राह-चलते कुछ लोग असमझ के कारण हमारी दौड़ को देखकर बातें कर रहे थे, देखो, कैसी दीवानगी है। आजकल नागरिकता का तो नाम शेष ही नहीं रह गया हैं। भीड़-भरी सड़कों पर ऐसे दौड़े जा रहे हैं जैसे यह सड़क उनके बाप की है। एक-दो व्यक्तियों ने आगे आकर हमें रोकने की कोशिश की पर, हम बचकर निकल गये । वह आगे दौड़ रहा था और मैं पीछे। दौड़ते-दौड़ते मैं उसके काफी नजदीक पहुंच गया। उसने Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ / नए मंदिर : नए पुजारी भी देखा कि अब उसका मेरे से बच पाना असम्भव है। अतः साइकिल रोककर खड़ा हो गया। मैं नजदीक पहुंचा तो बह हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। कहने लगा--भाई साहब ! आप मुझे मारना चाहते हो तो मारो, पर मेरी एक बात सुनें । देखिये, आगे वह जो व्यक्ति साईकिल पर दौड़ रहा है, वह भी हमारे मोहल्ले में एक्सीडेट करके आ रहा है । एक बच्चे की टांग टूट गई है, अतः मैं उसे पकड़ने के लिए जा रहा हूं। मैं मानता हूं कि मेरी गलती हुई है। यद्यपि मेरी साइड गलत नहीं थी। मैंने आपके बच्चे को आवाज भी दी थी, पर दुर्भाग्यवश वह चपेट में आ ही गया । मैं इतना निर्दय नहीं हूं कि ऐसे मौके पर नहीं रूक सकता । पर मैं भी उस व्यक्ति को पकड़ना चाहता था। इसलिए मैं नहीं ठहरा। यदि आप मुझे मारना चाहें तो मार लें, पर मेरा अनुरोध है कि एक बार उस अगले व्यक्ति को अवश्य पकड़ा जाए। यद्यपि मेरा तीसरे साइकिल सवार से कोई रिश्ता नहीं था, पर फिर भी मैंने देखा कि बात कूछ रहस्यपूर्ण मालूम पड़ती है। रमेश के कोई ज्यादा चोट नहीं लगी हैं, और यह साइकिल बाला तो मेरी गिरफ्त में है। इस बच्चू को तो अब मैं नहीं छोडूंगा, पर क्यों न इस सहसा आगत रहस्य को भी जान लिया जाये। अब देरी करने का समय नहीं था । हमारे देरी करने से अगला व्यक्ति रफ्फूचक्कर हो जाएगा। अत: मैंने कहा, ' चलो, हम भी उसे पकड़ते हैं । यह तय कर हम दोनों अपनी-अपनी साइकिलों पर सवार हो गए। अगला साइकिल सवार भी प्राणों की वाजी लगाकर भाग रहा था। प्राण-रक्षा के अवसर पर आदमी में कुछ अतिरिक्त ताकत आ जाती है, फिर भी काफी भागने से वह थक गया था। हम दोनों की रफ्तार काफी तेज थी, बल्कि मैं थोड़ा आगे दौड़ रहा था। अगले वाले साइकिल सवार से मेरा फासला बहुत थोड़ा रह गया था। वह बार-बार मुड़ कर पीछे देख रहा था । जब मैं उसके काफी नजदीक पहुंचा तो, मुझे लगा-वह तो कोई परिचित सा व्यक्ति है। मैंने उसे ललकार कर कहा-ठहर जाओ, नहीं तो खैरियत नहीं होगी। मेरी आवाज सुनकर उसने अपनी गति धीमी कर दी। ज्योंही मैं उसके नजदीक पहुंचा, वह साइकिल से उतर पड़ा। मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह तो Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अपराध | ३६ मेरे मामा का वेटा भाई अनिल था। मैंने आश्चर्य से कहा, अरे अनिल ! तू यहां कैसे ? कहां भागा जा रहा है ? क्या तुमने कोई एक्सीडेंड किया है ? ___अनिल मेरे पैरों में पड़कर बोला-भाई साहब ! मेरी गलती तो नहीं है, पर फिर भी यह सच है कि एक एक्सीडेंट मुझसे हो गया। मेरी यह भी गलती है कि मैं वहाँ पर रुका नहीं। मैंने सोचा कि रुकंगा तो लोग मुझे पीटे बिना नहीं छोड़ेंगें। अत: भाग कर आ गया। अब जो कुछ करना हो, सो कर लो। आपके हाथों पिटकर मुझे दुःख नहीं होगा। ___मैं रमेश के ऐक्सीडेंट की बात तो भूल गया और सोचने लगाक्या हमारा जीवन अपराधों का एक सिलसिला ही है ? क्या हम एक अपराध को पकड़ने के लिए दूसरा अपराध करते रहते हैं ? अब रमेश का एक्सीडेंट करने वाले साइकिल-सबार के प्रति मेरा गुस्सा कुछ ठण्डा हो गया। मैंने उससे कहा, भाई साहब ! आपने जो गलती की है, उससे भी बड़ीगलती अनिल की है। अनिल मेरा भाई है अतः मैं भी उसकी ओर से माफी मांगता हूं। पर भाई होने मात्र से उसका अपराध कम नहीं हो जाता। वास्तव में हमारा राष्ट्रीय चरित्र ही ऐसा हो गया है कि हम नागरिकता के नियमों का पालन नहीं करते। मैं आप दोनों से इससे बढ़कर और कुछ नहीं कह सकता कि हमें मानवता का पाठ सीखना चाहिए। अब आप दोनों ही घर जायें और भविष्य में नागरिकता का ध्यान रखें। वे दोनों अपने-अपने घरों की ओर चले गए। मैं अपनी साइकिल पर बैठकर घर वापस आ रहा था और सोच रहा था कि यदि तीसरा साइकिल सवार अनिल नहीं होता, तो मैं क्या व्यवहार करता ? अनिल के मेरे भाई होने के नाते क्या रमेश का एक्सीडेंट आया-गया हो सकता है ? क्या मेरे पड़ोसी यह नहीं समझेंगे कि एक अपराध को दबाने के लिए मैं दूसरे अपराध को माफ करने का तीसरा अपराध कर आया हूँ। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बचत की आदत सुथार पूसाराम अपने छोटे बेटे हरिराम से मिलने के लिए राजस्थान से बम्बई आया था । हरिराम आज से बीस वर्ष पहले अम्बिका फर्निचर में सौ रुपये महीने की नौकरी पर आया था । पर अपनी लगन तथा हस्तलाघव से आज वह डेढ़ हजार रुपये महीना कमाता है । उसने अपने पारfron हुनर को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने में इतनी दक्षता प्राप्त करली थी कि उसके हाथ का स्पर्श पाकर काठ का टुकड़ा जैसे जीवन प्राप्त कर लेता है । हांलाकि वह एक नौकर के रूप में काम करता था, पर अपने व्यवहार से उसने अपने मालिकों तथा सहयोगियों का समान आदर प्राप्त कर रखा था । उसकी कला की बदौलत ही अम्बिका फर्नीचर बम्बई में ही प्रसिद्ध नहीं था, अपितु विदेशों से भी उसे अनेक आर्डर मिलते थे । कंपनी के मालिक कमलकुमार उसी के गांव के ही रहने वाले थे । एक बार जब वे अपने गाँव ( राजस्थान ) गए तो उन्होंने हरिराम के अंदर सोये कलाकार को भांप लिया और उसे अपने साथ बम्बई ले आये । हरिराम यहां सब तरह से प्रसन्न था । वह बहुत चाहता था कि उसका बूढा बाप एक बार बम्बई आकर अपनी आँखों अपने पुत्र की कला - कुशलता तथा मान-सम्मान को देखे । पूसाराम इसी प्रेरणा से यहाँ आया था । कमलकुमार तो छोटी उम्र में ही बम्बई आ गया था । पहले उसके पिता जी सेठ मायारामजी राजस्थान में ही रहते थे, पर जब कमलकुमार का काम बम्बई में बहुत बढ़ गया तो सेठजी को भी बम्बई बुला लिया गया। यहां उनके पास कोई काम नहीं था । बूढा आदमी स्वाभाविक रूप से बात करना चाहता है, पर बम्बई में ऐसा कौन व्यक्ति मिलता जिसे बात करने की Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बचत की आदत / ४१ फुर्सत हो! सब अपने काम में इतने व्यस्थ रहते हैं कि दूसरों की ओर आंख उठाना भी मुश्किल है। फिर भाषा की भी एक कठिनाई थी । सेठ जी ठेठ राजस्थानी बोलते थे। बम्बई में राजस्थानी बोलने वाला कौन मिलता ? इसके अतिरिक्त पुरानी पीढ़ी के लोगों के लिए बम्बई का उन्मुक्त जीवन भी एक सिर दर्द बन जाता है। इसीलिए सेठजी को बम्बई का जीवन रास नही आता था। वे तो अपने गांव में ही रहना चाहते थे, पर उनके बेटे-पोते बम्बई में रहें तो वे अकेले गांव में कैसे रह सकते थे ? अतः उन्हें मन मसोस कर यहीं रहना पड़ता था। पर जब से पूसाराम बम्बई आया तब से सेठजी बड़े प्रसन्न रहते थे। न तो पूसाराम को कोई काम था और न सेठ जी को। अतः वे घंटों बैठे रहते और अपने गांव की पुरानी यादों में खो जाते । कभी कुए की बात चलती तो कभी तालाब और बूढ़े पीपल की, कभी नाई -कुम्हार की बात चलती तो कभी किसी सेठ सेठानी की । इसी सिलसिले में सेठ जी ने कहा-पूसाराम ! क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे और मेरे जीवन में यह जो अन्तर आ गया है, इसका राज क्या है ? पूसाराम ने कहा-सेठ जी! इसके तो अनेक कारण हैं, पर सबसे बड़ा एक कारण है कि आप भाग्यवान हैं । सेठजी-हां यह तो ठीक हैं कि भाग्य बड़ी चीज है, पर यदि आदमी प्रयत्न न करे तो कुछ भी नही हो सकता। सच पूछा जाये तो यह सारी करामात उन्नीस सो छियानवे की है। तुमको याद होगा कि उस साल फसल कितनी तगड़ी हुई थी। वह किसी एक आदमी के भाग्य का सवाल नहीं था। उस साल हर आदमी के खेतों में इतना अनाज पैदा हुआ था कि समेटे नही सिमटता था । उस साल तुम्हारे भी पांच सौ मन बाजरी हुई थी, मेरे भी पाँच सौ मन हुई थी। हमारे कोठे भर गए थे। तुमने उस साल अपने बाप का मृत्यु भोज किया था । आसपास के कितने लोग आये थे तुम्हारे दरवाजे पर ! तुमने भी क्या दिल खोल कर काम किया था । उसदिन जब लोग तुम्हारी वाह-वाही कर रहे थे तो मुझे भी लगा कि तुम कितने सौभाग्यशाली हो । यद्यपि जब तुमने मुझ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ / नए मंदिर : नए पुजारी से मृत्यु-भोज करने की राय ली थी तो मैने तो यही कहा था -~~-माँ-बाप का कर्जा चुकाना जरूरी है, अत: थोड़े बहुत ब्राह्मणों को भोज करवादो, थोड़े गांव के प्रमुख लोगों को बुलालो । पर तुमने कहा था कि सेठजी ! बाप कोई बार बार थोड़े ही मरता है ? इस वर्ष भगवान् की हम पर मेहरबानी हो गई हैं, तो मुझे भी दिल खोलकर अपन बाप का मृत्यु-भोज करना है । तुमने बात नहीं मानी और जो फसल हुई थी, उसे दाव पर लगा दिया। उल्टे मेरे से हजार रूपये कर्ज भी लिये। मैं तुम्हारी ना समझी पर हंसा था । पर जब सारा गांव तुम्हारे दरवाजे पर इकट्ठा हुआ। ब्राह्मणों ने तुम्हारे किलक निकाला । पंचों ने तुम्हें पगड़ी पहनाई तो एक बार तो मेरे मन में भी आया कि मैं भी अपने बाप का मृत्यु-भोज कर दं, पर में वैसा नहीं कर सका। फिर उस साल फसल से जो पैसा मिला उसे लेकर कमलकुमार बम्बई आ गया। पर भाई ! सच पूछो तो आज जो मेरी हालत हैं उसका श्री गणेश उसी साल हुआ था। उन्हीं रुपयों से कमल कुमार ने अम्बिका फर्नीनर का काम शुरू किया था। उसके बाद मेरे पो-बारह पच्चीस हो गए। देख,मेरे घर का फ्लेट हो गया, कार हो गई, कारखाना हो गया। भगवान की मर्जी से सब कुछ चल ठीक रहा है, पर पूसाराम ! एक बात कहता हूँ कि कमल के छोकरों में किफायत-सारी नहीं है। यद्यपि कमल तो फिर भी कुछ किफायत करता है । इसके छोकरों में तो बिल्कुल ही किफायत सारी नहीं है। रोज इतना ब्यर्थ का खर्च करते हैं कि कहने की बात नहीं । अब तुम ही देखो, १००-१५० रुपये तो इनका जेबखर्च है। यह ठीक है कि आज उनकी कमाई है, पर सदा दिन एक सरीखे नहीं रह सकते। आदमी धनवान् होता है तो कमाने से नहीं बचाने से होता है। मैं इन छोकरों को कहूं तो उल्टे मेरी ही मजाक उड़ाते हैं। कहते हैं कि दादा जी ! तुम पुराने जमाने के आदमी हो। हमें अपनी सोसाइटी देखनी पड़ती है। इस सोसाइटी के पीछे इनमें अनेक गंदी आदतें आ गई हैं। मुझे डर Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बचत की आदत / ४३ लगता है कि भगवान इनकी नैया कैसे पार लगायेगा। पर भाई ! तुम्हारा हरिराम बहुत अच्छा लड़का है । सच पूछो तो हम इसे लाये तो तुम्हारे बाप के मृत्यु-भोज का कर्जा चुकाने के लिए थे, पर इसने न केवल कर्जा ही चुकता कर दिया है अपितु कुछ पैसा जोड़ भी लिया है। यह सौ कमाता था तो पचास बचाता था। हजार कमाता है तो पांच सौ बचाता है। मुझे इसकी आदत बड़ी अच्छी लगती है। क्या तुम्हें भी घर कुछ पैसा भेजता है ? - सेठ जी ! भेजने को तो यह भेज सकता है । एक-दो बार भेजा भी था, पर मैंने मना कर दिया। अभी तक मेरे हाथपांव चलते हैं। दो बेटे मेरे पास हैं ही। हम अपना काम वहाँ चला लेते हैं । हम तो इतने से ही. बहुत प्रसन्न हैं कि इसने मेरा कर्जा उतार दिया । अब यदि यह दो पैसा बचाता है तो आगे सुख पायेगा। मैंने कभी बचाना नहीं सीखा। आपने ठीक ही कहा है कि मैंने बाप के मृत्यु-भोज में बहुत पैसा खर्च कर दिया, पर मेरा यह छोटा लड़का सुपात्र है । इसने मेरा कर्जा उतार दिया, पर यह तो इसकी बचपन की आदत है। मैंने तो इसे खैर क्या दिया है, पर जब भी इसे दो पैसे मिलते तो यह एक पैसा बचाता था। हमको अब इसके पैसे की जरूरत नहीं हैं। यह आराम से कमाये और आराम से खाये । हम तो भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि बाल-बच्चे लायक हो जायें। इसने तो हमारे बड़े बेटे के छोकरों को भी यहाँ बुला कर होशियार कर दिया है। अब हमें इससे बढ़ कर और क्या चाहिए ? फिर आप जैसे लोगों की छत्रछाया है। कमल बाबू ने इसे दो आदमियों के बीच बैठने के लायक बना दिया। यह भी क्या कम बात है ? हम आपके उपकार को जन्म भर नहीं भूलेंगे। मैं तो कमल बाबू और हरिराम दोनों को आशीष देता हूँ कि ये नेकनियती से चलें और अपने बाप-दादों के नाम को रोशन करें। यह कहते-कहते फूसाराम की आँखों में से हर्ष के आँसू उछल आये । सेठ मायाराम को भी आज लम्बे अर्से से दिल Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ / नए मंदिर : नए पुजारी खोलकर बात करने का मौका मिला था अतः उनकी आँखों में भी हर्ष के आँसू उछल आये । सचमुच बूढ़ा हृदय ही दूसरे बूढ़े के हृदय की पीड़ा को जानता है । फसाराम बम्बई में एक महीने रहा । उसके दिन का अधिक भाग सेठ मायाराम के साथ बातों में ही गुजरता । मायाराम का तो मानो बचपन ही लौट आया था। उसने अपने गांव की एक-एक बात को खोदखोद कर पूछा। खेत-खलिहान से लेकर हाट-हवेली तक की और चाकर से लेकर ठाकर तक की सारी बातें खुलकर हुई। ये सब बातें करते उसे इतना आनन्द आता कि उसके सामने सिनेमा और टी०वी० का आनन्द भी फीका-सा अनुभव होता था। जब फूसाराम चला गया तो सेठजी को एक बहुत बड़ी रिक्तता की अनुभूति हुई। ___ पाँच वर्षों के बाद फिर एक ऐसा अवसर आया, जब पूसाराम बम्बई आया। अम्बिका फर्नीचर अब हरिराम के पास आ गया था। फूसाराम उसके मुहूर्त के अवसर पर ही यहाँ आया था। यद्यपि अम्बिका फर्नीचर के स्वामित्व में अन्तर आ गया था। वह कमलकुमार से हटकर हरिराम के पास आ गया था, पर सेठ मायाराम और फूसाराम के मन में कोई अन्तर नहीं आया। वह पहले ही की तरह रोज सेठजी के पास जाता और घंटों बातों में खो जाता। हरिराम के लिए कमलकुमार अब कोई महत्व नहीं रखते थे, पर पूसाराम के लिए सेठ मायाराम वही महत्व रखते थे जो पहले रखते थे। बदली हुई परिस्थिति में जब वह सेठ जी के पास बैठता तो उन्हें और अधिक अच्छा लगता । रोज-रोज की बातचीत में सेठजी ने फूसाराम को बताया कि पोते फिजूलखर्ची से किस तरह व्यसन-ग्रस्त हो गये। गंदे लोगों के सम्पर्क से इनकी आदतें बिगड़ गई और धीरे-धीरे काम पर से पकड़ कमजोर होती गई। ऐशआराम और मौज-मजों तथा यार दोस्तों ने उन्हें इतना गुमराह कर दिया कि उनके लिए अम्बिका फर्नीचर को सम्भालना भारी पड़ गया। यद्यपि कमलकुमार ने कुछ साइड बिजनेस और शुरू कर दिया था, इसलिए हम भिखारी बनने से बच गए, पर हमारी जो स्थिति अम्बिका फर्नीचर से थी वह अब नहीं रह गई। हरिराम ने समय-समय पर इन्हें बहुत सावधान Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बचत की आदत / ४५ किया था, पर फिर भी ये संभल न पाये। इसका नतीजा यह हुआ कि कारखाना हमारे हाथों से निकल गया। यह दुर्भाग्य अब भी समाप्त नहीं हुआ है। जो आदत एक बार पड़ जाती है वह मिटनी बड़ी मुश्किल है । न जाने अव हमारा क्या होगा ? पर भाई ! मुझे खुशी है कि कारखाना हरिराम के हाथ आ गया। हमारे से तो वह जाने का ही था, पर हरिराम ने कुछ पैसे जमाकर लिए, इससे वह दूसरों के हाथों में जाने से बच गया। अब तो तुम्हारे सभी पोते भी उसी में काम करने लगे हैं। फूसाराम-यह पैसा तो फिरत-घिरत की छाया है। कभी इधर आता है तो कभी उधर । पर इतना तय है कि लक्ष्मी टिकती उसी के पास है, जो बचत करना जानता है। जो बचत करना नहीं जानता उसके पास भले लाखों रुपये क्यों न हो जाएं पर वे टिक नहीं सकेंगे और बचत करने वाला आदमी पैसा-पैसा बचाकर भी लखपती बन सकता है। सेठजी, तुम्हारा और हमारा सम्बन्ध पैसे का नहीं है। तुम हमारे गांव के सेठ हो। हम हमेशा तुम्हारे सामने झुकते ही रहेंगे। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकरण हिन्दुस्तान में अकसर लड़कियाँ हीनताग्रस्त बातावरण में ही जन्मती, और पलती-पुषती हैं। लड़का भले ही आगे जाकर नालायक ही क्यों न निकल जाय, जैसे कि अधिकांश निकलते हैं, पर उनका जिस उत्सुकता से स्वागत होता है उतना लड़की का नहीं होता। कहीं-कहीं तो उन्हें जन्मते ही मार दिया जाता है। जहाँ वे शरीर से ज़िन्दा रह जाती हैं, वहां धीरे-धीरे उनकी आत्मा मर जाती है। यद्यपि ऊपर से वे हंसतीखेलती दिखाई देती हैं, पर अन्दर से उनमें जो एक हीन भावना घर कर जाती है वह उनमें स्वतन्त्र व्यक्तित्व को उभरने नहीं देती। पुरुष ने उनकी हीन भावना को अलंकार बनाने की कोशिश की है, पर जिस बोझ के नीचे वे दब जाती हैं वह कम नहीं होता है, अपितु धीरे-धीरे बढ़ता ही जाता है। पर कमला इस अभिशाप से मुक्त थी। उसका एक कारण तो यह था कि वह चार भाइयों की इकलौती लाडली बहन थी। उससे भी बड़ा कारण यह था कि उसके आगमन के साथ ही परिवार की परिस्थिति का आश्चर्यजनक ढंग से काया पलट हो गया। जिस वर्ष उसका जन्म हुआ था उस वर्ष से परिवार को न केवल अकल्पित अर्थ लाभ ही हुआ था, आनन्ददायक सम्मान भी प्राप्त हुआ था। सदा बीमार रहने वाली कमला की माँ तो उस वर्ष से अपने आप स्वस्थ रहने लगी। उसके दादा प्यार से उसको कमला नहीं कह कर कमल ही कहते थे। यद्यपि कमला (लक्ष्मी) तथा कमल (फूल) का अर्थ-भेद उन्हें मालूम था, बल्कि कमला ने यह अभिधान भी इसीलिए पाया था कि वह घर में धन की देवी का रूप ग्रहण करे, पर फिर भी दादा के अवचेतन संस्कारों के पुत्रत्व ने पुत्रीत्व को हरा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकरण | ४७ दिया। इसलिए कमला कमल बन गई। कमला के लिए इसका कोई मतलब नहीं था कि वह कमला बनकर जीये या कमल बनकर जीये । पर इतना सच है कि सारे परिवार में उसका एकछत्र साम्राज्य था। समय पर उसके भाइयों की कोई इच्छा अपूर्ण रह जाती थी, पर कमला की कोई इच्छा अपूर्ण नहीं रहती। वह यदि घर में कोई तोड़-फोड़ भी कर देती तो किसी को असह य नहीं लगती थी। वह यदि कभी जरा सी रो भी देती तो तत्क्षण दादा का रोष पूर्ण स्वर गूंज उठता—क्या बात है, कमल क्यों रो रहा है ? दादा जहां भी जाते उसे अपने साथ ले जाते । भोजन तो वह उसके बिना करते ही नहीं थे । यही कारण था कि कमला ने कभी अपने ननिहाल का मुख तक नहीं देखा । नाना-नानी, मामा-मामी बिचारे उसकी एक झलक देखने के लिए तरसते रहते थे, पर इस के लिए उन्हें स्वयं कमला के घर ही आना पड़ता था। इसका यह अर्थ नहीं है कि कमला उच्छृखल थी। बहुत बार उन्मुक्त वातावरण आदमी को उच्छृखल बना देता है पर कमला की हर उच्छृखलता में भी एक शालीनता होती थी। यही कारण था कि वह जिस ओर से निकल जाती उस ओर से मायूसी हवा हो जाती थी। सभी लोग उसकी सन्निधि से जैसे प्रफुल्ल हो उठते थे। उसकी अस्पष्ट जबान सबको इतनी प्यारी लगती थी कि हर कोई उससे बात करना चाहता था। अपनी बाल-सुलभ चपलता से बह हर एक का मन मोह लेती। बल्कि कभी-कभी तो वह ऐसी बात कह देती थी, जिससे न केवल घर के लोग खिलखिला उठते थे, अपितु उसकी गहराई में डूब जाते थे । कमला घर में घटने वाली हर घटना का बड़ी सूक्ष्मता से अध्ययन करती थी। यही तो वह अवस्था है जब आदमी का वास्तविक निर्माण होता है। इस अवस्था में उसे जैसा देखने-सुनने को मिलता है, वही उसके जीवन का अंग बन जाता है । बाद में मकान के रंग-रोगन में भले ही परिवर्तन आ सकता है, पर जो नींव इस अवस्था में पड़ जाती है वह स्थिर बन जाती है। पर वातावरण के साथ-साथ एक सवाल यह भी है कि बच्चा किस सतर्कता या मनोदशा से उसे ग्रहण करता है। कभी-कभी बुरे वातावरण के भी अच्छे संस्कार तथा अच्छे वातावरण के भी गलत Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ / नए मंदिर : नए पुजारी संस्कार बच्चों में देखने को मिलते हैं । ऐसा क्यों होता है, यह एक बहुत ही गहरा सवाल है । निश्चय ही उसके कुछ अदृश्य कारण हैं । वे अदृश्य कारण क्या हैं इसका दार्शनिक विचारक लोग अलग-अलग ढंग से विचार करते हैं, पर इतना तय है कि हर कार्य का अदृश्य कारण श्रंखला के साथ जुड़े रहने के बाद भी उसके प्रकट होने के अपने कुछ निमित्त अवश्य होते हैं । वे निमित्त आदमी को अपने वातावरण से ही प्राप्त होते हैं । कुछ व्यक्तियों के लिए वे निमित्त शुभ का हेतु बन जाते हैं, कुछ व्यक्तियों के लिए a अशुभ का हेतु बन जाते हैं । कुछ बच्चों में वे कोई भी स्थायी प्रतिबिम्ब नहीं बना पाते, पर कमला हर घटना को इतनी बारीकी से देखती और ग्रहण करती कि सभी आश्चर्य चकित रह जाते । यद्यपि उसकी अवस्था 3-4 वर्ष की ही थी, पर उसके हिसाब से उसका सारा जीवन निश्चित हो चुका था। यहां तक कि अपनी बुआ की बरात में आये हुए फूफा के हम उम्र छोटे भाई को उसने अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया था । वह बहुत ही सहजता के साथ सब के सामने इस मानसिक संस्कार को स्वीकार करती थी । इसका यह अर्थ नहीं है कि यह सम्बन्ध तय हो गया था, पर अपने सामने आने वाले हर बिम्ब को वह कितनी सजगता से प्रतिबिम्बित करती थी, यह उसका एक उदाहरण था । इसी तरह हर एक घटना उसके मन पर अपना कुछ स्थायी - अस्थायी प्रभाव छोड़ जाती थी । उसके घर में एक ही स्नानागार था । जब भी कोई स्नान के लिए जाता तो अंदर से बाथ रूम को बंद कर लेता था । कमला को भी अनेक बार सहजता ही स्नानागार में जाने का मौका मिलता था । जब भी वह किसी के साथ बाथ रूम में जाती तो देखती कि अंदर जाकर हर एक दरवाजा लगाकर कपाट के बीच में लगी हुई चिटकनी को चढ़ा देता है । यद्यपि रोज उसे दादा-दादी माँ या नौकरानी आदि स्नान करवाते 1 थे । पर एक दिन उसको भी अपने-आप स्नान करने का शौक चर्राया । उसने तौलिया हाथ में लिया और स्नानाघर में घुस गई । उसकी अनुकरण प्रिय वृत्ति का यहीं अन्त नहीं हुआ, अपितु अन्दर जाकर उसने चिटकनी भी चढ़ा दी । यद्यपि चिटकनी तक पहुँचने में उसे काफी तकलीफ हुई । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकरण / ४६ अपने पैर की अंगुलियों के बल पर खड़े होकर किसी प्रकार उसन चिटकनी चढ़ा दी और मजे से अंदर स्नान करने लगी । थोड़ी देर में उसकी मम्मी भी स्नान करने के लिए स्नानघर आई । अंदर दरवाजा बंद देखकर उसने आवाज दी-अंदर कौन है ? कमला ने खुशी में झूमते हुए कहा - मम्मी मैं अभी स्नान कर रही हूं । तू बाद आना । मां को यह सुनकर हंसी आ गई। विचार करने लगी- बित्ते भर की यह छोकरी भी अजीब है । अभी तक पूरे कड़े पहनने नहीं आते हैं, तो भी बड़ों की चाल चलती है। उसने बाहर खड़े-खड़े ही कहा – बस, हो गया तुम्हारा स्नान । अब दरवाजा खोल । कमला ने फिर कहा नहीं, अभी नहीं, थोड़ी देर है । पर जब मां ने दरवाजा पीटना शुरू कर दिया तो आखिर उसे उठकर दरवाजा खोलने के लिए विवश होना पड़ा। ज्यों ही वह दरवाजा खोलने लगी कि चिटकनी कठोर हो गई । वह बार-बार अंगुलियों पर खड़ी होकर दरवाजा खोलने का प्रयास करने लगी, पर चिटकनी टस से मस नहीं हो रही थी । उसका बाल- विवेक हार गया और वह रोने लगी। मां ने बाहर खड़े-खड़े जब उसका रोना सुना तो गुस्से में होकर बोली - शैतान कहीं की, यदि दरवाजा नहीं खुलता है तो अंदर घुसी ही क्यों थी ? बाहर निकल, आज तेरी मरम्मत करूंगी | यह सुनते ही उसका रहा-सहा विवेक भी गुम हो गया और वह बेसुध होकर अंदर ही गिर पड़ी। धमाके की आवाज सुन कर उसकी मां के होश भी गुम हो गए। वह जोर-जोर से आवाज देने लगी, पर कमला तो अब होश में ही कहां थी, जो उत्तर देती । मां ने आस-पास सहायता के लिए पुकारा तो दादी आई। उसने भी आवाजें लगाईं, पर अंदर तो मौन का गहरा सन्नाटा छाया हुआ था। एक-दो मिनट भी नहीं हुआ था कि इस अकल्पित आधात से कमला की मां भी बेहोश होकर गिर पड़ी । अब तो घर में कुहराम मच गया । कोई डाक्टर की ओर दौड़ा तो कोई सुथार की ओर । कोई बजरंगबली की मनौती मनाने लगा तो कोई शंकर भगवान की । कमला के दादा को यह समाचार मिला तो वे भी दौड़ कर आये । एक क्षण वे भी किंकर्तव्यविमूढ़ रह गए । वे सोचने Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० / नए मंदिर : नए पुजारी लगे-आज यह क्या हो गया ! उन्होंने आव देखा न ताव पास में ही मुसल पड़ा हुआ था। उठाकर उसे ही स्नानघर के दरवाजे पर दे मारा। दो-चार धमाकों में ही प्लाइवुड का दरवाजा टूट गया, अंदर कमल बेहोश पड़ी हुई थी। दादा ने उसे उठाकर छाती से चिपका लिया। उनकी आंखों में आंसू बहने लगे । उनका हृदय भी इतना जोर से धड़कने लगा कि कहीं कमला से पहले कोई दूसरी घटना न घट जाये। दादी ने कमला की मां को संभाला। दोनों पर ठंडा पानी छिड़ का गया। हवा की गई तब जाकर कहीं दोनों को होश आया। जब उसने अपनी आंखें खोली तो दादा ने पूछा - बेटा, तूं अंदर गई ही क्यों थी ? तुझे स्नान करना था, तो मुझे कहना चाहिए था। __कमला ने अत्यंत सहजता से कहा - दादा, अब तो मैं बड़ी हो गई हूँ। अब मुझे अपने-आप ही स्नान करना चाहिए। दादा--पर अंदर जाकर त ने दरवाजा बंद क्यों किया ? कमला-वाह, दरवाजा क्या मैं अकेली बंद करती हूं ? तुम भी तो रोज दरवाजा बंद करते हो ? फिर मुझे ही क्यों कहते हो? सारे घर में हंसी का एक फव्वारा छूट गया। क्षण भर पहले जो गहरी उदासी छा गई थी, वह जैसे कमला के एक बोल से उड़ गई। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नए मंदिर : नए पुजारी जब से भाखड़ा की बिजली मिलनी शुरू हुई है, राजस्थान के गांव और कस्बे रोशनी से जगमगा रहे हैं। टीलों से घिरे ऐसे गाँव, जहां मनुष्य का पहुँच पाना भी कठिन था, वहाँ अब बिजली पहुँच चुकी है। पहुंच ही नहीं चुकी है, अपितु अब तो वहाँ के जीवन के साथ उसका इतना तादात्म्य हो गया है कि एक दिन भी बिजली न आए तो लोग परेशान नजर आने लगते हैं। पहले जिन घरों में मिट्टी के दीये भी नहीं जलते थे, अब वहां बिजली के लट्ट जगमगा रहे हैं। निश्चय ही इसके कुछ लाभ हैं, पर साथ ही साथ कुछ अलाभ भी अवतार लेने लगे हैं। पुराने जमाने के लोग बिजली-पानी आदि के लिये वरुण-इन्द्र आदि देवों की पूजा किया करते थे। अब उनका स्थान धीरे-धीरे यंत्र लेते जा रहे हैं। पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने एक बाँध का उद्घाटन करते हुए ठीक ही कहा था--अब हम नये तीर्थ-स्थानों का निर्माण करने जा रहे हैं। पुराने तीर्थस्थानों का महत्व धीरे-धीरे कम होता जा रहा है और ये नए तीर्थ लोक-जीवन की धड़कन बनते जा रहे हैं । सारे देश में, गाँव-गाँव में इन्हीं तीर्थों से सम्बन्धित पावर हाउस आदि के रूप में नये मंदिर भी बनने लगे हैं। जिस प्रकार शादी-विवाह के अवसर पर पुराने जमाने में मन्दिरों में में पंडे-पुजारियों को प्रसाद चढ़ाना आवश्यक होता था, उसी प्रकार आजकल इन नये मंदिरों में काम करने वाले कर्मचारियों को प्रसाद, चढ़ाना आवश्यक हो गया है । ___ सेठ चिमनीरामजी को पहले इस बात का ज्ञान नहीं था। होता भी कैसे ? वे तो दूर बंगाल में अपना व्यवसाय करते थे। किसी विशेष अवसर पर ही वे राजस्थान में अपने कस्बे में आया करते थे। अब भी वे Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '५२ / नए मंदिर : नए पुजारी अपनी पुत्री की शादी करने के लिए ही इधर आए थे । पैसे की इनके पास कोई कमी नहीं थी। बड़ी धूमधाम से वे अपनी लड़की की शादी कर रहे थे। गाँव के सभी लोग इस अवसर पर किसी न किसी रूप में लाभान्वित हो रहे थे,अत: चारों ओर हर्षोल्लास का वातावरण छाया हुआ था। सेठजी भी खूब खुले हाथ से पैसा फेंक रहे थे। पर गांव के नये मंदिर पावर-हाउस की ओर उनका ध्यान नहीं गया। पावर हाउस के बाबू ने एक व्यक्ति के माध्यम से सेठजी का ध्यान आकर्षित किया भी, पर सेठजी ने कहा - अरे उसको तो फिर देख लेंगे । यद्यपि सेठजी का यह विचार नहीं था कि पावर हाउस के वाबू की उपेक्षा की जाये। जब वे इतना पैसा खर्च कर रहे थे तो इस छोटी सी बात के लिए भला वे उसको क्यों नाराज करते? पर उनका ख्याल था कि शादी हो जाने के बाद वे उसको राजी कर देंगे। शादी की सारी तैयारियाँ हो गई। मंडप भी बन गया। बिजली से इतना सजाया गया था उसे कि कोसों तक उसकी बल्ब-पंक्ति लोगों का ध्यान आकर्षित कर रही थी। खारों ओर यही चर्चा धी-ऐसी सजावट तो कभी नहीं हई । होती भी तो कहां से ? यहां बिजली को आए हुए लंबा समय नहीं हुआ । सेठजी अपनी इस प्रशंसा से बहुत प्रसन्न हो रहे थे। उन्हें शायद इस बात से कोई सरोकार नहीं था कि यही बिजली उद्योगों में लगकर कितना उत्पादन बढ़ा सकती थी। मनुष्य अपने अहंकार के तुच्छ घेरे को तोड़कर आगे नहीं बढ़ पाता है, तभी आडम्बर पनपते हैं। ___ पावर हाउस पर बाबू लम्बे समय तक अपनी भेंट-पूजा की प्रतीक्षा करता रहा। अब तो भात का अतिम दिन भी आ चुका था। आज भी उस के घर मिठाई का प्रसाद नहीं पहुंचा था। उसने सोचा-बनियां मुझे धोखा दे रहा है। आगे की वात कह कर शादी के बाद वह मुझे यों ही टरका देना चाहता है । भला स्वस्थ हो जाने के बाद कोई बीमार डाक्टर को बुलाता है ? आज का अवसर ही अंतिम अवसर है। यदि आज कुछ नहीं हो सका, तो फिर कुछ नहीं हो सकेगा । रात का समय हो चुका था। मंडप के चारों ओर बिजलियां चमकने लगीं। ऐसा लग ही नहीं Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नए मन्दिर : नए पुजारी / ५३ रहा था कि अभी रात है। बारात के भोजन का समय हो चुका था। बाराती लोग भोजन करने बैठे ही थे कि इतने में सारी बत्तियां एक साथ गुल हो गई। चारों ओर हाहाकार मच गया। एक-दो गैस की बत्ती इधर-उधर थी, उसे लाया गया। जिधर से गैस की बत्ती चली जाती, उधर अंधेरा घुप्प हो जाता था। लोग बुरी तरह चिल्ला रहे थे। बाराती बिचारे बैठे रह गए। पंखे बन्द हो गए। सब गर्मी से बुरी तरह परेशान होने लगे। ऐसे समय में बदमाशों की बन आती है। मिठाई के कई घामे-चुरिये इधर-उधर हो गए । नौकरों ने भी हाथ साफ करना शुरू कर दिया। सेठजी तो जैसे सन्न रह गए। घर के अन्दर भी कोहराम मच गया था। औरतों ने अपने अनुमान लगाने शुरू कर दिए । किसी ने कहा--- देखा न ! गणेश जी की पूजा नहीं की, उसी का यह परिणाम है। किसी ने कहा-सती माता को याद नहीं किया, उसी का यही परिणाम है। पर सेठजी समझ रहे थे यह बिजलीघर के नाग की पूजा नहीं की उसी का परिणाम है। उन्होंने तत्क्षण बहुत सारी मिठाई देकर एक विश्वस्त आदमी को पावर हाउस के बाबू के घर भेजा। उधर उसी क्षण जेनेरेटर का खराब पुर्जा ठीक हो गया। सेठजी सोचने लगे, पुराने देवता तो फल देने में कभी विलम्ब भी कर देते थे, पर नए देवता इस मामले में चुस्त हैं। कम से कम अपनी भेंट-पूजा पाकर काम तो ठीक कर देते हैं। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धन और मुक्ति कबूतर के बच्चों का एक जोड़ा प्रशिक्षण के दौरान अपने मातापिता के साथ आहार की खोज में घूम रहा था । यद्यपि उनके पंख अब काफी खुल चुके थे, पर फिर भी खुले आकाश में वे एक सीमित उड़ान ही भर सकते थे। उनके जीवन का यह स्वर्णिम युग था, जिसमें वे अपने माता-पिता से कुछ महत्त्वपूर्ण गुर सीख रहे थे । वैसे कुछ बातें एक अवस्था के बाद प्राणियों में अपने आप प्रकट हो जाती हैं, पर मां-बाप यह अवश्य ही चाहते हैं कि वे अपनी वह सारी जानकारी अपने बच्चों में संक्रान्त कर दें, जो स्वयं उनमें हैं। इसीलिए कभी मां और कभी बाप सक्रिय रूप से दोनों बच्चों को सिखा रहे थे कि किस प्रकार आहार की खोज करनी चाहिए ? किस प्रकार दानों को चोंच में पकड़ना चाहिए ? किस प्रकार दाना चुगते समय भी चारों ओर से सतर्क रहना चाहिए ? यहाँ तक कि किस प्रकार आक्रमण करना चाहिए और किस प्रकार दूसरे के आक्रमण को विफल करना चाहिए ? पशु-पक्षियों का सारा प्रशिक्षण अनुकरणात्मक ही होता है, पर फिर भी कहीं-कहीं संकेतों द्वारा भी कुछ बातें समझाना आवश्यक हो जाता है । अत: इस दौरान उनकी अपनी गुटु रगं की भाषा का उपयोग भी किया जा रहा था। इसी बीच अचानक बक्चे वहाँ बिछे हुए जाल के निकट आ पहुँचे । जाल में अच्छे दाने बिखरे हुए थे, अतः उन्हें देख बच्चों का मन ललचा उठा । __ अच्छा तो यही होता कि वे जाल की ओर बढ़ने के पहले अपने मां-बाप का संकेत प्राप्त कर लेते। पर जिनके लिए भोजन ही एक बड़ा लालच होता है भोजन दीख जाने के बाद उनके लिए अपने पर नियंत्रण ___ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धन और मुक्ति / ५५ रख पाना बड़ा कठिन होता है । जब मनुष्य भी भोजन के सामने अपने आदर्श को भूल जाता है, तो पक्षी को दोष देना शायद उपयुक्त नहीं होगा । इसलिए एक अवश आकर्षण से ग्रस्त होकर दोनों बच्चे जाल की ओर बढ़ने लगे और उससे पहले कि मां-बाप का ध्यान उधर जाता, वे दाल में कूदे । तत्क्षण बटमार ने जाल की डोरी खींच ली । दोनों बच्चे जाल में बंध कर करुण क्रन्दन करने लगे । इस स्थान पर यदि कोई आदमी होता तो वह सोचता कि क्यों मुझे यों बेकसूर पकड़ लिया गया ? क्या भोजन की खोज करना भी कोई अपराध हो सकता हैं ? स्वयं बटमार ने जो दाने बिखेर रखे थे क्या वे किसी के लिए एक मूक आमंत्रण नहीं था ? पर मनुष्य स्वयं भी अक्सर ऐसे चक्कर में फंसता है । यह दूसरी बात है कि अपने स्थान पर वह सब तर्कों को भूल जाता है। उन अनजान पक्षियों के लिए तो यह सोचना भी अकल्पनीय था । फिर भी बंधन उनको भी प्रिय था । इसलिए वे छूटने के लिए तीव्र संघर्ष करने लगे । उनकी करुण पुकार ने मां बाप का ध्यान भी खींचा। संतान के लिए स्नेह के वश में होकर एक बार उनके मन में उन्हें छुड़ाने का भी विचार आया, पर वे तो बिचारे स्वयं भी असहाय थे । अतः विवश होकर उनकी ओर एकटक देखने लगे। पर ज्यों ही बटमार अपने स्थान से उठा उन्हें भी अपने प्राणों में संशय होने लगा । अतः वे फुर्र से उड़ गए। पर मैं देख रहा था कि उड़ते हुए भी उनकी नजर अपने बच्चों पर टिकी हुई थी। एक क्षण केखिए मैंने सोचा -- क्या बड़े होकर ये बच्चे इनका भरण-पोषण करेंगे ? निश्चय ही बड़े होकर ये अपने मां-बाप को छोड़कर अपनी गृहस्थी बसाने के लिए अन्यत्र चले जायेंगे या फिर अपने मां बाप के नीड़ पर ही अपना कब्जा कर लेंगे, पर कबूतर - दम्पत्ति के सामने ये विचार नये नहीं थे । सचमुच मां-बाप का प्रेम सौदेबाजी की भाषा नहीं जानता। उनके लिए संतान का सुख ही अपना सुख होता है। इसलिए वे पास के एक वृक्ष की डाली पर बैठकर गुटगू - गुटगू करने लगे । यद्यपि मैं उनकी भाषा नहीं समझता था, फिर भी मेरा निश्चित अनुमान है कि वह करुण विलाप ही था । दोनों बच्चों का रेडियो भी उसी स्टेशन से बोल रहा था । धीरे Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ / नए मंदिर : नए पुजारी धीरे मुक्ति-संघर्ष और तेज होता जा रहा था। यद्यपि जाल काफी मजबूत था, फिर भी वह पुराना पड़ गया था , अत: स्थान-स्थान से जीर्ण हो गया था। कबूतर बच्चों के निरंतर के चोंच तथा पंजों के प्रहार से जाल का एक धागा टूट गया और बह एक बच्चे के पंजे में अटक कर रह गया। पर जी-जोड़ प्रयत्न के बाद भी वे मुक्त नहीं हो सके। मैं जिजीविषा के इस प्रयत्न में जड़ और चेतन का भेद स्पष्ट समझ रहा था शायद उनके मन में भविष्य की कोई कल्पना नहीं रही होगी। आगे वे जीयेंगे या मरेंगे, यह स्पष्ट विचार भी उनके सामने सामने नहीं था, बल्कि इस क्षण तो वे भूख को भी भूल गए थे । उनकी चेतना अगर कहीं उलझी हुई थी, तो वह केवल बंधन की अनुभूति में ही उलझ रही थी। उन्होंने अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य को स्वतन्त्रता के दांव पर लगा दिया था, पर फिर भी वे मुक्त नहीं हो सके। इतने में बटमार निकट आया। उसे नजदीक आते देख दोनों बच्चे फिर कुछ भयभीत हुए उन्होंने पंखों को तीव्रता से फड़फड़ाया। यद्यपि पंख तो स्वतन्त्र थे, पर वे स्वयं जाल में फंसे हुए थे। अतः मुक्ति असंभव थी। मुझे यह दृश्य देखकर अनुकम्पा आई। मैं अपने-आपको रोक नहीं सका। मैंने बटमार से कहा-भाई ! तुम इन निरीह पक्षियों को जाल में क्यों फंसा रहे हो? मुझे ऊपर से नीचे तक एक हैरत-भरी दृष्टि से देखकर बटमार ने कहा- लगता है, आपने अभी दुनिया देखी नहीं है ? मैंने कहा-यह तो तुम ठीक कहते हो। मेरी अपेक्षा तुम्हारी उम्र बड़ी लगती हैं । पर उम्र का अक्ल के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि तुम्हारे मन में जरा भी करुणा होती तो तुम बिचारे इन निरामिषभोजी पंछियों को यों जाल में नहीं फाँसते । इस बार बटमार के शब्द जरा आर्द्र हो गए थे । मेरी कल्पना के विपरीत उसने कहा-बाबू ! मैं भी तो इनकी ही तरह आप जैसे महाजनों के जाल में फंसा हुआ हूं। मुझे तो शायद बनिया पूरा चूस कर ही दम लेगा । शायद वह मेरी अगली पीढ़ी को भी नहीं बख्सेगा, पर मैं इन्हें मारूंगा नहीं। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधन और मुक्ति / ५७ मैंने कहा- तो फिर तुम इनका क्या करोगे ? उसने कहा-कल हमारी स्वतन्त्रता की पचासवीं वर्ष गांठ है , उस उपलक्ष में हमारे प्रधानमंत्री पच्चास कबूतरों को खुले आकाश में बंधन मुक्त करेंगे । अत: मैं उनके लिए कबूतरों को जुटा रहा हैं। अब तक मैंने चालीस कबूतर तो पकड़ लिए हैं, केवल दस बाकी हैं। इससे ज्यादा कबूतर मुझे नहीं पकड़ने हैं। मुझे उसके कथन पर विश्वास नहीं हआ। मैंने सोचा कि ये बटमार भी बात बनाने में कितने माहिर हो गए हैं, पर दूसरे दिन जब मैं अपनी छत पर बैठ कर धूप सेंक रहा था तो यह देखकर विस्मित हो गया कि कबूतर का वही जोड़ा मेरी छत पर धूप में खेल रहा है । एक चच्चे के पैर में अभी तक कल वाले बटमार के जाल का एक धागा फंसा हुआ है। मैं सोचने लगा, अवश्य ही इस जोड़े को आज प्रधान मंत्री ने बंधन मुक्त किया होगा और फिर मैं स्वतन्त्रता की इस परिभाषा में खो गया । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमा विवाद हम अपने एक मित्र के घर वियतनाम के युद्ध पर चर्चा कर रहे थे। चर्चा इतनी गर्म हो गई कि रूस और अमरीका पीछे छूट गए, हम स्वयं ही तीव्र वाक-युद्ध में उलझ गए। हमारे आरोपों-प्रत्यारोपों का तुमुल संघर्ष चल ही रहा था, कि अचानक नीचे से एक पिल्ले की कर्णभेदी चें-चें की आवाज़ सुनाई दी। उस अन्तराल में मुझे कुत्तों पर ही गुस्सा आ गया । मेरे मन में एक उचक्कु कुत्ते का चित्र चक्कर काटने लगा जो किसी बच्चे के हाथ से रोटी छीनकर भाग जाता है । फिर मुझे एक गंदले कुत्ते की याद आई जो स्थान गंदा करना अपना जन्म-सिद्ध अधिकार मानता है। और फिर मुझे एक भौंकने वाले कुत्ते की याद आ गई जो भौंक-भौंक कर सबकी नींद हराम कर देता है। अन्त में मैं एक शैतान कुत्ते की कल्पना करने लगा, जिसके पास रोटी खाने और लड़ने के सिवाय और कोई काम नहीं होता। इन्हीं सब भावनाओं से कुत्तों के प्रति मेरा मन रोष से भर आया और सोचने लगा कि ज़रूर कोई कुत्ता किसी बच्चे के हाथ से रोटी छीनकर ले गया होगा। अब उसकी मरम्मत हो रही है और वह चें-चें कर रहा है। __इतने में हमारे मित्र का छोटा लड़का दौड़ता-दौड़ता आया और बोला पापा ! मेरे पिल्ले को कुत्ते मार रहे हैं। उसकी आकृति और बातों में इतनी भावनुभूति थी कि हम लोग वहाँ रूक नहीं सके ! उसी पल उठे औरनिचली मंजिल की ओर दौड़े। वहां आकर देखते हैं कि तीन-चार तगड़े कुत्ते एक पिल्ले पर पिल रहे हैं। पिल्ला बेचारा अकेला था और क्रूर लड़ाई के दांव पेंच भी पूरे नहीं जानता था। अतः चें-चें के सिवाय Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमा विवाद / ५६ उसके पास कोई उपाय नहीं था । हमने आकर बड़ी मुश्किल से उन कुत्तों को भगाया । वे तो शायद इसे मारकर ही विश्राम लेना चाहते थे पर हमने ऊपर से पत्थर बरसाने शुरू कर दिए, कुछ लाठियों के झपाटे भी मारे, पर उनका क्रोध इतना तीव्र था कि कुछ देर तक तो हमारी मार की भी कोई परवाह नहीं की। बल्कि एक बार तो वे पिल्ले को छोड़कर हमारी ओर झपटे। उन्होंने सोचा होगा कि हम कुत्तों की लड़ाई में बीच-बचाव करने वाले ये मनुष्य कौन होते हैं ? पर अन्ततः हमारा गुस्सा भी तेज़ हो गया और वे चारों ओर से आक्रमण से घिर गए। उनका मनोरथ सिद्ध नहीं हो सका और विवश होकर उन्हें पिछले दरवाज़े से भाग जाना पड़ा । भय ने उसे बेचैन पिल्ले की चें-चें अभी तक चल रही थी । वह बिलकुल अधमरा हो चुका था, बल्कि कहना चाहिए कि वह अन्तिम सांसें गिन रहा था । हमारे मित्र को चिन्ता हुई कि यह कहीं मकान में ही अन्तिम सांस न तोड़ दे | अतः उसे भगाने के लिए लकड़ी दिखाई । पिल्ला अधमरा हो चुका था, फिर भी उसमें कुछ दम शेष था । मार के कर दिया था, पर ज्यों ही वह भागने के लिए उठा दूसरी और लुढ़क गया। फिर उठने की कोशिश की तो इस ओर लुढ़क गया ! उसकी हड्डियों का ढांचा चरमरा गया था और स्थान-स्थान से खून निकल रहा था । अब उसे रोटी का लालच दिखाया गया, पर वह दर्द के मारे इतना पीड़ित था कि उसने रोटी को सूंघा तक नहीं । आखिर उसपर पानी छिड़का गया कि शायद इससे उसके प्राण लौट आएं; पर वह प्रयास भी विफल रहा। अब तो अन्देशा यही था कि वह कहीं मकान में ही प्राण छोड़ दे । अतः हम दोनों ने उसे लकड़ी पर उठा कर रेडक्रास सोसाइटी के स्वयंसेवकों की तरह बाहर गली में फेंक दिया । अब हमारा युद्ध का उन्माद ठंडा पड़ चुका था । मौत को अपनी आंखों के सामने देखकर हमारे मन में बैठी करूणा की कच्ची मूरत पिघलने लगी । हम लोग विचार करने लगे कि आखिर उन कुत्तों ने इस पिल्ले को क्यों मारा । आखिर यह भी तो उन्हीं की जाति का ही था । इसकी शिराओं में भी वही रक्त बह रहा था, जो उनकी शिराओं में बहु Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० / नए मंदिर : नए पुजारी रहा था। नाक-नक्श और डील-डौल से इसकी और उनकी वंश-परम्परा में भी तो कोई अन्तर नहीं लग रहा था । फिर यह घटना घटी तो क्यों घटी ? बात छोटी-सी थी और हम उसपर बड़ी गहराई से विचार कर रहे थे । हमारे मित्र ने एक लम्बी सांस लेते हुए कहा - दोस्तों, यह विवाद भी एक सीमा विवाद ही था । बात राजनीति से जुड़ गई थी, अतः हमने जिज्ञासा प्रकट की कि आखिर इस सीमा विवाद का थोड़ा खुलासा किया जाय । हमारे मित्र पर भी जैसे अमल का नशा चढ़ गया हो। उन्होंने एक खास प्रकार से खांसकर कहना शुरू किया - "दोस्तों, मेरे मकान की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार की है कि इसके दोनों ओर दो गलियां हैं। दोनों ही गलियों में मेरे दो दरवाज़े खुलते हैं। दोनों पर कुत्तों की दो भिन्न-भिन्न पार्टियों का साम्राज्य है । इधर का कुत्ता उधर नहीं जा सकता और उधर का कुत्ता इधर नहीं आ सकता । पता नहीं, यह जगह नगर पालिका के अधिकार में है, प्रान्तीय सरकार के अधिकार में है या राष्ट्रीय सरकार के अधिकार में है, पर कुत्ते समझते हैं। कि वह उनके ही अधिकार में है । इसलिए अपनी-अपनी हद पर उनका अपना-अपना कब्जा है । वैसे मेरा मकान दोनों ओर को दो भागों में बांटता है, पर कभी-कभी जब दोनों ओर के दरवाज़े खुले रह जाते हैं तो सचमुच मेरा प्रांगन एक युद्ध क्षेत्र बन जाता है । शायद इसके पीछे रोटी का स्वार्थ जुड़ा हुआ है, पर मुझे लगता है कि रोटी से भी अधिक अधिकार की कोई अदृश्य डोरी है । इसलिए समय-समय पर उनका परस्पर संघर्ष चलता रहता है । दल परिवर्तन का तो कोई सवाल ही नहीं है, क्योंकि कोई एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र में आ जाता है तो वह मौत के घाट उतार दिया जाता है । दूसरे पक्ष के प्रति घृणा के भाव न जाने किस विधि से भर जाते हैं कि संघर्ष के क्षेत्र में छोटे-छोटे पिल्ले भी मोर्चे पर पर आकर डट जाते हैं । बल्कि कई बार तो लड़ाई की शुरुआत भी वे ही करते हैं। भौंकने में भी वे सबसे आगे रहते हैं अतः सामान्यतया इनके परस्पर मिलने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता । लगता है, आज पिछला दरवाज़ा खुला रह गया । सम्भवतः यह Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमा विवाद | ६१ पिल्ला सामने के दरवाजे से आया। उसी समय ये कुत्ते पिछवाड़े से आ गए होंगे। पिल्ले को अकेला देखकर वे इसपर झपट पड़े। इस बेचारे की जरा-सी जान थी, इधर से तीन-चार मोटे कुत्ते थे, अतः मुकाबले का तो कोई सवाल ही नहीं रह जाता। इस पक्ष के कुत्ते पहुंच नहीं पाए, अन्यथा एक बड़ा महाभारत मचता। मेरा बच्चा इस पिल्लेसे बड़ा प्यार करता था। इतने में गली में से पिल्ले के कराहने की एक करुण आवाज़ आई ! मुझे लगा जैसे वियतनाम सीमा-विवाद के युद्ध में घायल होकर कोई सैनिक कराह रहा है। al Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभ्यता के दावेदार अरावली पर्वत की सुरम्य उपत्यका में दूर तक चली गई एक घाटी-छोटे-छोटे खेत । चारों ओर फैली हरियाली । एक सूखा झरना किनारे पर खड़ा आम का सघन वृक्ष । सब कुछ इतना मनोहारी था कि हमारी पार्टी कुछ देर वहाँ रुकने के लिए विवश हो गई। हम वहाँ थोड़ी देर बैटे थे कि पास ही खड़े कुछ बच्चे सकुचाये-सकृचाये से हमारी ओर देखने लगे । यद्यपि उनका रंग काला-कलूटा था। उस पर भी मैल चढ़ा हुआ था। कपड़े भी नाम-मात्र के थे। वे भी जगह-जगह से फटे हुए एवं मैले-कुचैले, फिर भी उनके चेहरों पर स्वस्थता की एक गहरी चमक थी। हम लोग आपस में बाते करने लगे--कितने अभागे हैं ये लोग ! विज्ञान के इस युग में भी आदिम मनुष्य-सा जीवन जी रहे हैं। उनकी इस दयनीय स्थिति पर करुणा होकर मैंने एक बच्चे से पूछ लिया-- क्या तुमने कभी सिनेमा देखा है ? सहानुभूति का सेक पाकर वे जरा नजदीक आ गये । मैंने फिर उसी अपने प्रश्न को दोहराया-- क्या तुमने कभी सिनेमा देखा है सनिमा ? सनिमा क्या होता है ? एक बच्चे ने उलटकर प्रश्न मुझ पर ही लाद दिया। मैंने कहा- पर्दे पर जो दृश्य आते हैं, वह ! पर बच्चा मेरी बात को नहीं समझ सका। सच बात तो यह है कि मुझे भी अपने उत्तर से संतोष नहीं था। इतने में बच्चे ने हरे-भरे पहाड़ की ओर संकेत कर कहा- हमारा 'सनिमा' तो यह है। सुबह-शाम सूरज आताजाता है, और हम भगवान की लीला देखते रहते हैं। हमारी भेड़-बकरियां ही हमारा सनिमा हैं। मुझे उसके अज्ञान पर दया तो आयी, पर मैं सोचने लगा, पहाड़ियों, Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभ्यता के दावेदार | ६३ नदियों, झरनों, वृक्षों तथा खेतों से भी बढ़कर क्या कोई सिनेमा होता है ? सुबह-शाम जो दृश्य आकाश पर प्रतिबिम्बत होते हैं, सचमुच उनके सामने सिनेमा के अच्छे से अच्छे दृश्य भी फीके हैं। बादलों की रंगीन छटा किसी रंगीन पिक्चर से क्या कम होगी ? शहरों में रहने वाले लोगों को कहाँ प्राप्त होता है यह प्राकृतिक सिनेमा ! इतने में हमारे एक साथी ने ट्रांजिस्टर का बटन दबाया और सिलोन से गाने आने लगे। मैंने उन वनवासी लड़कों से पूछा- कुछ समझ में आता है ? उन्होंने सिर हिला दिया। मैंने फिर पूछा- इसमें कौन बोल रहा है ? उन्होंने कहा- हमें क्या पता बाबू ? तुम भी कभी गाना गाते ? मैंने आगे पूछा। एक लड़की को आगे कर उन्होंने कहा- यह रोज शाम को भगवान की आरती में भजन गाती है। बच्ची ने बिना झिझक और बिना किसी नाज-नखरे के गाना शुरू कर दिया---'म्हारे आंगणिये आओ घनश्याम, दरश बिन मैं तड़फं।' गला इतना साफ था उस लड़की का कि जितना साफ गला शहरों में हजारों लड़कियों में भी शायद नहीं मिलता । हो भी कैसे, जबकि वे दिन भर चाय, आईसक्रीम, चाट, पकौड़े चाटती रहती है। और उस भोली आकृति पर भावों की जो छाया उतर रही थी, उसमें तो मैं अपने-आप को बिलकुल भूल गया। मैं फिर अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों पर लज्जित हुआ । मुझे लगा, यद्यपि शहरों में अनेकों मनोरंजन के साधन प्राप्त हो रहे हैं, पर फिर भी हम अपना स्वाभाविक मनोरंजन खो रहे हैं । दिन-भर चलते-चलते हमारा दल कुछ थक गया था । पर उन बच्चों के साथ जो सहज मनोरंजन हो रहा था, उससे मन को शांति मिल रही थी। कुछ साथियों को भूख भी लग आई, अतः विचार हुआ कि यहीं नाश्ता कर लें। हमने अपने-अपने झोले में से नाश्ता निकाला और खाना शुरू कर दिया। कुछ साथियों की इच्छा हुई कि यहाँ यदि चाय मिल जाये तो मजा आ जाये । चाय की पत्ती तथा चीनी हमारे पास थी कुआं पास में था ही, ईंधन की कमी जंगल में नहीं थी। कमी थी तो केवल दूध की । हम आपस में यह बात कर ही रहे कि इतने में एक बड़ा लड़का Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ / नए मंदिर : नए पुजारी फुर्ती से उठा और पास की टेकरी पर बनी अपनी झोंपड़ी की ओर दौड़ा। कुछ ही क्षणों में हम देखते हैं कि वह अपने हाथ में एल्म्युनियम का मैला-सा बर्तन थामे आ रहा है । अब झोंपड़े के अंदर से ग्राम्य औरतों की कुछ जोड़ी आंखें भी हमारी ओर देखने लगी थी। लड़का हमारे पास आया और बोला- लो बाबू, दूध ! हमें इस अप्रत्याशित आतिथ्य पर बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ। कहाँ तो हम शहरों के लोग, जो घर आये लोगों से भी बचना चाहते हैं और कहाँ ये ग्रामीण लोग, जो बिना ही जाने-पहचाने हमारा आतिथ्य कर रहे हैं । हमारे अन्तर्मन में एक द्वन्द्व छिड़ गया। यद्यपि हम जाति-पांति के बन्धन से मुक्त थे, फिर भी हम अपनी ही क्षुद्रता के नीचे दबे जा रहे थे ! हम सोच रहे थे कि हमें इनका आतिथ्य स्वीकार करने का कोई अधिकार नहीं है, पर हमें चाय पीनी थी अतः सोचा कि फिर पैसे दे देंगे, अभी दूध तो लेलो। लड़कों ने ईंधन इकट्ठा करने में भी हमारा साथ दिया। साथ क्या दिया-- अधिकतर लकड़ियां उन्होंने ही इकट्ठी की थी । पत्थरों का एक चूल्हा बनाया। पानी भी ले आये। चाय उबलने लगी। प्राकृतिक सुरम्य दृश्य और खुला वातावरण, हाथ की बनी चाय, मित्रों की टोली इतना स्नेह भरा आतिथ्य ! सचमुच चाय पीने में बड़ा मजा आया। चाय पीकर हमने अपना सामान झोले में डाला और बर्तन लौटाते हुए दूध का हिसाब करने लगे। लगभग आधा किलो दूध था । हमने हिसाब लगाया कि उदयपुर में अढ़ाई रुपया किलो दूध मिलता है। गांवों में कुछ सस्ता होगा, अत: एक रुपया किलो के हिसाब से आठ आने उनको देने लगे । बच्चों ने कहा-क्या करते हैं ? आप तो हमारे मेहमान हैं। आपसे पैसा किस बात का ? हमने कहा-हम तुम्हारे कहां के अतिथि हुए ? बच्चों ने कहा- हमारी बस्ती में आये और यहां विश्राम किया, तो अपने-आप हमारे अतिथि हो गये । हमने कहा--फिर भी दूध के पैसे तो तुम्हें लेने होंगे। तुम लोग कोई अमीर हो, जो पैसे नहीं लेते? बच्चों के मुंह पर अजीब भाव आया । बोले--बाबू ! हम गरीब हो सकते हैं पर धर्महीन नहीं हो सकते । क्या दूध और पूत भी कभी बेचे जाते हैं ! Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभ्यता के दावेदार / ६५ हमारे मुंह पर थप्पड़-सी लगी। ऐसा लगा, जैसे हम सोते-सोते उठ पड़े हैं। हम अपने-आप में लज्जित होने लगे। कहां ये अनपढ़ लोग और कहां हम शिक्षित लोग ! इन्होंने हमारा इतना निःस्वार्थ आतिथ्य किया और हम इनको एक कप चाय की झूठी मनुहार भी न कर सके ? झंपकर इन बच्चों को थोड़ा चाकलेट बांट कर आगे बढ़े, पर हमारा मन अपनी इस क्षुद्रता के लिए बराबर पछताता रहा। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्याय का पैसा इस वर्ष फसल इतनी अच्छी हुई थी कि अब भी खेत खलिहान अनाज से भरे थे। शायद सौ वर्षों में ऐसी फसल नहीं हुई थी। इसलिए साठ वर्षों का एक प्रौढ़ किसान, सेठ करोड़ीमल जी के घर आया और उन्हें पुकारने लगा। किसान और सेठजी में केवल राम-राम का सम्बन्ध था। अतः उसे अपने घर आये देखकर सेठजी ने पूछा- क्यों भाई किशन जी! आज कैसे आना हुआ ? किशन जी ने कहा-सेठ जी, आज हमारा हिसाब-किताब साफ कर दो। इस बार भगवान ने हमें दिल खोलकर दान दिया है, तो मैं भी अपना पिछला दारिद्रय धो देना चाहता हूं। आपका जितना पैसा निकलता हो, उतना ले लीजिए। सेठ जी जरा विस्मित हुए। उन्हें इस बात का जरा भी ज्ञान नहीं था कि किशन जी में उनकी कुछ उधार भी है। अतः अपनी स्मृति को साफ करते हुए जरा चिन्तन की मुद्रा में लीन हो गए, पर किशन जी ने कहासेठ जी आप चिन्तित क्यों होते हैं ? __सेठ जी-भाई ! मुझे याद नहीं है कि मैंने तुम्हें कभी रुपये उधार दिए हैं। किसान-हां, यह आप ठीक कहते हैं, पर मेरा बाप जब मरा था तो उसने मरते-मरते मुझसे कहा था कि सेठजी के कुछ रुपयों का कर्ज़ हमारी तरफ है, अत: जब भी तुम्हारा हाथ खुला हो, तो मेरा बोझ उतार देना। इतने वर्ष फसल अच्छी नहीं हुई, अतः मैं अपने बाप का कर्ज नहीं चुका सका; पर यह कांटा मुझे सदा चुभा करता था। इस बार जब भगवान ने Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्याय का पैसा | ६७. दिल खोलकर दिया है, तो मुझे भी बाप की अन्तिम इच्छा को पूरा देना चाहिए । अतः आपके जितने रुपये हुए हों उतने जी भर कर ले लीजिएगा। मेरे पास ४ भैसे हैं, ८ गाय हैं २०० भेड़-बकरियां हैं, गुड़ है, अनाज है। आपका जितना पैसा बना हो, उतना ब्याज समेत ले लीजिए। सेठजी जरा विस्मित हुए, पर पैसे की बात सुनकर उनके मुंह में पानी भर आया। उन्होंने किसान को तो अन्दर कमरे में बैठा दिया और पुराने बहीखातों को पलटना शुरू किया। ५०-६० वर्षों के जमा खाते में न तो किसान का नाम आता था और न उसके पिता का। किशन ने सेठ जी से कहा--- सेठजी ! आपने कितने वर्ष पुराने बही-खाते देखे हैं ? सेठ जी ने कहा-.५०-६० वर्ष पुराने बही-खाते तो देख लिए। किशन - आप १०० वर्ष पुराने खाते देखिए। मेरे दादा राजाराम के नाम का कोई लेन-देन होगा। यह तो मुझे पता नहीं उन्होंने कितने रुपये लिए थे। इतना हिसाब न मेरे पिताजी को आता था और न मुझे। इसलिए आपके जितने धर्म के रुपये बनते हों आप खुलकर ले लीजिए। हां, हम गरीब हैं, इस बात का ज़रूर ख्याल रखना।। ___एक बार तो सेठ जी के मन में जरा पत्रिता आई। उन्होंने सोचा, कहाँ यह गरीब किसान और कहां मैं एक भाग्यवान सेठ ! इसके मन में अपने-आप को धोने के लिए कितनी भावना है पर मैं कितना कीचड़ में सना हुआ हूँ ! अत: उन्होंने कहा---किशन जी ! सौ वर्ष की बात अब जाने भी दो। आजकल तो 3 वर्ष बाद ही रुपयों की बात खतम हो जाती है। इसी बात के लिए ही मेरा जाने कितने लोगों से झगड़ा चल रहा है। तुम पहले व्यक्ति हो, जो आज मेरे घर चलकर आए हो । बाकी आज घर पर आकर रुपए देने का तो जैसे रिवाज ही उठ गया हो। मैं तुम्हारी इस ईमानदारी से प्रसन्न हूं। अत: तुम्हारे रुपए हैं भी तो आ गए समझो।। किशन-सेठ जी, आपकी यह कृपा तो बहुत बड़ी है. पर मैं कपूत होना नहीं चाहता। मेरे बाप-दादों का जो कर्ज है वह मेरा ही कर्ज है। न जाने ये रुपए आप हमसे किस जन्म के मांगते हैं ? आज नहीं चुकायेंगे तो न जाने किस जन्म में चुकाने पड़ेंगे? इसलिए मैं नहीं चाहता इस परम्परा को आगे तक बढ़ाया जाय। आप अपने रुपए आज ही ले Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ / नए मंदिर : नए पुजारी लीजिए। कल न जाने क्या हो, मैं नहीं कह सकता । सेठ जी तो इस उत्तर से कुछ नहीं बोले, पर उनके पुत्रों के मुंह में लार टपकने लगी। उनके धर्म-कर्म की परिभाषा में एक मोटी मुर्गी मिल गई थी । श्रतः वे उसे जी भर कर चूस लेना चाहते थे । सौ वर्षों के बही खाते देखे गए, आखिर एक जगह राजाराम का नाम मिल गया । उसने अपने बाप के मृत्यु भोज के लिए सेठ किरोड़ीमल जी के पिता से १०० रुपए उधार लिए थे । अवसर ही ऐसा आ गया कि वे चुकाए नहीं 'जा सके । सेठ के पुत्रों ने बड़ी चतुराई से ब्याज प्रतिब्याज लगाया, हजारों रुपए हो गए थे। उन्होंने बड़ी दया दिखाते हुए कहा - किशन जी, सारा रुपया तुम नहीं चुका सकोगे । हिसाव किताब के झगड़े में मत पड़ो । हम भी नहीं चाहते कि तुम्हारा घर-बार चौपट हो जाय । तुम्हारे बाल-बच्चे -दाने को तरसें । बताओ, अभी तुम अपने साथ क्या लाए हो ? 1 किसान ने बताया - - अभी २ गाड़ी मक्की, १ गाड़ी गुड़, १०० रुपए नगद । सेठ पुत्रों ने कहा- ये तो हमें दे ही दो । साथ २ भैंसें, २ गाय और १०० भेड़-बकरियां और देना । बस, तुम्हारा लेन-देन साफ किए देते हैं । किशन जी को इतना हिसाब-किताब कहां आता था ? उन्होंने इस बात को स्वीकार कर लिया, पर दूसरे ही क्षण सामने जल रही अंगीठी में उन्होंने एक चिमटी भर कर राख उठाई । उसे अपनी हथेली पर रखा और बोले- देखिए सेठ जी ! आपका धर्म आपके पास है और मेरा धर्म मेरे पास । मैं नहीं जानता कि आपने मेरे से जो लिया है वह सही हैं या नहीं, फिर भी आप पर अविश्वास करना मेरा धर्म नहीं है । आपका धर्म आपके लिए फले-फूले मुझे कोई आपत्ति नहीं है । पर इतना आपको - बता देता हूं कि पाप का पैसा कभी नहीं फलता । इतना कहते-कहते किशन जी ने अपनी हथेली पर रखी राख पर फूंक मारी। फिर बोलेआपका खरा पैसा आपके पास रहे जिस और प्रकार यह राख उड़ गई है, उसी प्रकार आपका अन्याय का पैसा उड़ जाय । सेठ पुत्रों ने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया ' किशन जी जो कुछ लाए थे, उसे तो ले लिया और पशुओं को लाने के लिए अपने Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्याय का पैसा / ६६ नौकरों को भेजा । वे उन्हें लेकर आ रहे थे । रास्ते में एक पड़ाव करना जरूरी था। क्योंकि इतने लम्बे रास्ते को जानवर एक दिन में पार नहीं कर सकते थे । पर रात में न जाने कैसी हवा चली कि सारे-के-सारे जानवर एक साथ ही मर गए। न जाने यह कोई प्राकृतिक प्रकोप था या और कुछ, पर लोगों में एक चर्चा थी कि अन्याय का पैसा इसी तरह नष्ट हो जाता। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रिया रमेश ज्वेलरी स्टोर और मेरी दुकान एकदम पास-पास में है। वर्षों से हम अपना-अपना व्यवसाय करते आ रहे है। पड़ौसी की भांति एकदूसरे का सहयोग भी करते रहते हैं। हम दोनों एक ही मकान मालिक सेठ रामकिशनजी के किरायेदार हैं। दुकानों के ऊपर ही सेठजी का आरामदेह विशाल मकान है। भाड़े की आमदनी के अतिरिक्त उनका ब्याज का भी अच्छा धंधा चलता है। यद्यपि वे किराया और ब्याज बहुत कस कर लेते हैं, पर फिर भी जरूरतमंदी को मौके-बे-मौके उनके पास आना ही पड़ता है। आज जब मैं अपनी दुकान पर आया तो दूर से एक बड़ी भीड़ रमेश ज्वेलरी स्टोर और मेरी दुकान के सामने खड़ी दिखाई दी। थोड़ा आगे आने पर वहां मुझे कुछ पुलिस वाले भी नजर आये। यह सब देखकर मेरी छाती धड़कने लगी। कांपते कदमों से मैं आगे आया। जल्दी ही मुझे पता लग गया कि रमेश ज्वेलरी स्टोर पर आज रात को चोरी हो गई है। काफी माल चोरी चला गया है। लोग आपस में बातें कर रहे हैं - देखो, कैसा नाजुक जमाना आ गया है ! चोरों को तो मानो किसी का डर ही नहीं रह गया है। कोई पुलिस की अकर्मण्यता को कोस रहा है, तो कोई जनता की कायरता को । बीच-बीच में कोई-कोई व्यापारियों की मुनाफाखोरी, बदनीयत तथा शोषण वृति पर भी व्यंग कस रहा है. पर मुझे इस वात से धैर्य बंधा कि मेरी दुकान पर कुछ नहीं हुआ। मैं भीड़ को चीरकर आगे आया और अपने मित्र को सान्त्वना देने लगा। यद्यपि मेरी सान्त्वना से उसे धैर्य नहीं बंध रहा था। वह तो पुलिस को रिपोर्ट लिखाने में Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रियश् / ७१ व्यस्त था । फिर भी पड़ोसी के नाते ऐसे असवर पर उसे धैर्य बंधाना मेरा कर्तव्य था। यह सब चल ही रहा था कि इतने में अफवाह आई कि सेठ रामकिशनजी के युवा पुत्र की किसी अज्ञात व्यक्ति ने हत्या कर दी है। मुझे लगा, इन दोनों वारदातों में कोई अनोखा मेल है, और उसी समय अचानक मेरी स्मृति में दो महीने पहले की एक घटना कौंध गई। उस दिन एक हट्टा-कट्टा गर्वीला नौजवान दिलेरसिंह रमेश ज्वेलरी स्टोर पर अपनी नव-परिणीता पत्नी को लेकर गहने खरीदने आया या। उसकी पत्नी इतनी खूबसूरत थी कि राह चलते लोगों की आंखें उस पर ठहर जाती थी। तब फिर दिलेरसिंह पर तो शादी का नया खुमार था। उसके माता-पिता का देहान्त हो चुका था, अत: वह सब तरह से स्वतंत्र था। नई और सुन्दर पत्नी की गहनों की पहली मांग थी । दिलेरसिंह उसमें बह गया। वह सेठ रामकिशनजी से हजार रूपये कर्ज लेकर पत्नी के साथ उसके गहने खरीदने आया था। मैं भी उस दिन होश में नही रहा। बारबार मेरी आंखें ज्वेलरी स्टोर पर उलझ जाती थी। भड़कीली वेषभूषा. वाली उस सुन्दरी ने रूप की इतनी सुगंध बिखेर दी थी कि मैं अपने ग्राहकों के साथ भी ठीक तरह से व्यवहार नहीं कर पा रहा था । पर इसके बावजूद भी उस दिन मेरी दुकान पर इतने ग्राहक टूट पड़े थे कि मुझे उन्हें निपटाने में काफी झंझलाहट-सी अनुभव हो रही थी। वे भी उस दिन इतने बेसुध नजर आते थे कि उनका मेरे अस्थिर व्यवहार की ओर कोई भी ध्यान नहीं था। सभी लोगों की आंखें ज्वेलरी स्टोर के वन वे ट्राफिक की यात्रा कर रही थी। ___ रमेश ने भी उस दिन खूब हाड़-फोड़ कर दाम लिये। जब सारा सौदा पट गया और भीड़ छंट गई तो उसने बताया आज तो अच्छी मछली फंसी। उसने ही मुझे दिलेर सिंह का नाम पता व उसके सेठ रामकिशन जी से कर्ज लेने की बात बताई थी। इससे संयोग-ही कहना चाहिये कि दिलेरसिंह का घर पास वाले उसी गांव में था, जिस गांव में मेरा कृषि फार्म था। यद्यपि मैं उधर कई बार आता-जाता था, पर दिलेर सिंह के बारे में मुझे कोई ज्ञान नहीं था। परिचय से परिचय बढ़ता है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ / नए मंदिर : नए पुजारी अतः पिछले दिनों जब रमेश फार्म पर जाता तो अनायास दिलेरसिंह की स्मृति ताजी हो जाती। इस अर्से में मैंने सेठ रामकिशन जी के आलसी और दुश्चरित्र पुत्र रमाकान्त को भी रकम उगाहने के बहाने दिलेरसिंह के घर कई बार आते-जाते देखा। मैं जानता था कि रमाकान्त की रकम उगाहने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। बाप के बहुत कहने पर भी वह कहीं रकम उगाहने नहीं जाता था। निश्चिय ही उसकी दिलचस्पी का कारण तो और ही था। दिलेरसिंह को भी रमाकान्त की बदनीयती का पता चल गया था। इसीलिये सेठजी के कर्ज से मुक्त होने के लिये उसने अपनी पत्नी के गहने वापिस बेचने का निश्चय कर लिया था। अभी पांच-चार दिन पहले ही वह रमेश ज्वेलर्स स्टोर पर गहनों को वापिस बेचने आया था। उसका ख्याल था कि थोड़े रुपये काट कर रमेश उसके गहने वापिस ले लेगा, पर जब रमेश ने उन गहनों की कसौटी पर कस कर उन्हें खोटे कहकर लेने से इन्कार कर दिया तो दिलेर सिंह का खून खौल उठा। उसने कहा-अभी दो महीने पहले ही तो मैं तुम्हारी दुकान से ये गहने ले गया था । पर रमेश ने उसकी एक न सुनी। उसने उलटा उलाहना देते हुए कहा—मेरी दुकान से गहने ले गये थे, तो तुम्हें आंखें खुली रखनी चाहिये थी। मैं खोटे गहनों का धन्धा नहीं करता । लगता है, तुम मुझे बदनाम करना चाहते हो। पर बच्चू, मैं तुम्हारे झांसे में आने वाला नहीं। यदि तुम सच्चे होते तो दो महीने में ही गहने बेचने क्यों आते ? मैंने तुम्हारे जैसे कई चोरों को चराया है। इसी क्षण मेरी दुकान से नीचे उतर जाओ, अन्यथा ठीक नहीं रहेगा। ध्यान रहे, पुलिस थाना ज्यादा दूर नहीं है। दिलेरसिंह की सहिष्णुता हद से बाहर हो गई। अपने पर झूठा इल्जाम लगा देख उसका संतुलन बिगड़ गया। उसने भी बहुत-सी अंट-संट बातें कह दीं। राह-चलते अनेक लोग इकट्ठे हो गये । रमाकान्त भी वहां आ गया था। वह रमेश की हां में हां मिल रहा था। वातावरण इतना विक्षुब्ध हो गया था कि दिलेर सिंह को एक भयंकर-प्रतिक्रिया ने डस लिया। मैं अतीत की घटना के इन बिखरे टुकड़ों को आगे-पीछे जोड़ने । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रिया | ७३ मसगल था कि इतने में थानेदार ने मुझसे ही पूछताछ करनी शुरू कर दी । मैंने कुछ भी जानने से इन्कार कर दिया, पर मुझे इस बात का संदेह पैदा हो गया कि कहीं पुलिस वाले मुझे भी फंसा न डालें । इसीलिये मैं वहां से खिसक कर अपने फार्म पर चला गया। बीच में दिलेरसिंह के घर को देखा तो वह बन्द मिला । मैंने पास-पड़ोस से जानकारी की तो पता चला कि दिलेरसिंह तो चार पांच दिनों से घर ही नहीं आया। मैं नहीं जानता कि मेरा अनुमान सही है या गलत, पर मुझे यही जंचता है कि रमेश ज्वेलरी स्टोर की चोरी और रमाकान्त की हत्या का अभियुक्त दिलेर सिंह के सिवाय और कोई नहीं हो सकती। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनरावृत्ति पिछले 20 वर्षों से में हर वर्ष दशहरे की छुट्टियों में सपरिवार राजसमन्द चूमने आया करता हूं । मेरे जैसे सामान्य शिक्षक के लिए यह तो असम्भव है कि कश्मीर, नैनीताल या आबू जैसे पर्वतीय स्थानों पर घूमने जा सकू । परपढ़ा-लिखा होने के नाते जीवन का रस लेने की ललक मुझ में है । अत: राजसमंद को ही पर्यटन-केन्द्र मानकर मैं हर वर्ष यहां आया करता हूं। मेरा मानस उस समय कुछ हल्कापन महसूस करता है, जब मैं अपने समानधर्मा कुछ लोगों को ही नहीं, अपितु कुछ समृद्ध लोगों को भी यहां घूमते देखता हूं। जब दूर-दूर के लोग यहां आकर खुशी मना सकते हैं, तो मेरे लिए अपने-आपको संतुष्ट नहीं कर लेने का कोई कारण दिखाई नहीं देता। इसलिये अपने-आपको तरो-ताजा करने के लिए मैं हर वर्ष यहां आया करता हूं। पर आज यहां जो कुछ देख रहा हूं, उससे मेरे पुराने घाव के टांके फिर टूट गये हैं। एक नौ-दस वर्ष का लड़का तालाब में स्नान करने का आग्रह कर रहा है। उसकी मां हाथ पकड़े उसे रोक रही है, और मैं बीस वर्ष के अतीत की गहराई में उतर गया। ठीक यही दिन था, जब मैं अपनी पत्नी अचला के साथ पहले-पहल यहां घूमने के लिये आया था। उस समय हमारे परिवार में हम दो ही सदस्य थे। हम लोग उन्मुक्तता से तालाब की पाल पर घूम रहे थे । उस समय जवानी का रंग था । अचला ने पहली बार गर्भ धारण किया था। मैं उसे अधिक से अधिक सुख देना चाहता था। मेरे प्रेम से अचला इतनी तृप्त थी कि वह मुझसे सम्पन्न लोगों को देखकर भी मन में हीनता Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनरावृत्ति / ७५ का अनुभव नहीं करती थी। वास्तव में प्रेम ही हमारे सारे अभावों को भरता है । इसी प्रवाह में बहते हुए हम भी बड़े उल्लास और उत्साह से इधर-उधर घूम रहे थे। कभी हम छतरियों की सुन्दर तराश को देख रहे थे, तो कभी पाल के सुदृढ़ वास्तु-शिल्प को देख रहे थे । कभी पानी की लहरों को देख रहे थे, तो कभी उन पर तैरने वाली मछलियों को। तालाब खूव भर गया था। ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। हम लोग घूमते-घूमते बाँध के दक्षिणी किनारे पर आ गये । वहां पर एक छोटा-सा मन्दिर था । हम उसके अन्दर चले गये । अचानक अचला का मन अपने भावी शिशु की कल्पना में कुलाचें भरने लगा । उसने प्रतिमा की ओर देख संकोचभरे स्वरों में कहा–यदि मुझे लड़का हुआ तो मैं उसे इसी वर्ष इसी प्रतिमा के चरणों में लिटाऊंगी। वास्तव में यह एक संकल्प नहीं, अपितु मनौती थी । यह अचला की पुत्र-कामना की अभिव्यक्ति थी। मैंने उसे दुलारते हुए कहा अरे ! इसी वर्ष क्या मैं तुम्हें और तुम्हारे बेटे को हर वर्ष इस प्रतिमा के दर्शन कराऊंगा। आओ, हम भगवान से वरदान मांगें कि वे हमें पुत्र प्रदान करें। भावना के तीव्र प्रवाह में बहते-बहते अत्यन्त श्रद्धा और विश्वास के साथ हमने अपने भावी पुत्र का नाम भी तय कर लिया था ! कितना सुन्दर था वह नाम देवदत्त । सचमुच हमारी श्रद्धा के अनुरूप हमें पुत्र ही प्राप्त हुआ। उसी वर्ष दशहरा की छुट्टियों में ही हम देवदत्त को लेकर राजसमंद के उस अज्ञात नामा देव-मंदिर में उपस्थित हुए। उस वर्ष हमारे साथ अनेक सम्बन्धी भी थे । मेरे भाई-बहन, अचला के भाई-बहन आदि । हमारी वह यात्रा बड़ी सुखद रही। सब लोगों ने हम पर जी भर कर आशीर्वाद बरसाये। सभी हमारे पति-पत्नी की जोड़ी पर खुश थे। यद्यपि मैं अपने अभावों से बेखबर नहीं था, पर जो आदमी सदा अभावों में ही जीता है वह जीवन का रस नहीं ले सकता? आज तो जैसे मेरे सारे अभाव भी छूमंतर हो गए थे। अचला तो उस दिन अत्यन्त प्रसन्न थी। उसने अत्यन्त श्रद्धा भाव से अपने हाथों से देवदत्त को प्रतिमा के चरणों में लिटाया। तब से ही राजसमंद हमारा पर्यटन केन्द्र ही नहीं रह गया, अपितु श्रद्धा-केन्द्र भी बन गया। पर्यटन का रंग तो अवस्था के साथ अलबत्ता कुछ फीका Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ / नए मंदिर : नए पुजारी पड़ जाता है, पर श्रद्धा का रंग कभी फीका नहीं पड़ता । इसीलिए तब से हर वर्ष हम यहां आते और विनम्र भाव से प्रतिमा के चरणों में अपनेआपको समर्पित करते। देवदत्त भी सदा हमारे साथ रहता । कभी-कभी किसी वजह से यदि हम छुट्टियों में न आ पाते तो बाद में आते, पर यहाँ हर वर्ष आने का हमारा संकल्प कभी खंडित नहीं हुआ। पर पिछले पांच वर्ष में मेरे यहां आने की प्रेरणा में परिवर्तन हो गया है। अब न तो वह पर्यटन की रही और न श्रद्धा की, अपितु मातम मनाना मात्र रह गयी हो। उस दिन भी हमारा छोटा-सा परिवार--- मैं अचला और देवदत्त यहाँ घूमने तथा देव दर्शन के लिए आये थे। देवदत्त उस समय १५ वर्ष का हो गया था। हमारा उस पर अतिशय प्रेम था। अचला के तो वह प्राणों में अटका रहता था। वह तो उसे बाहर खेलने के लिए भी नहीं जाने देती थी। कभी वह स्कूल से आने में थोड़ी देर कर देता तो अचला उसको लेने पहुंच जाती थी। कभी उसे थोड़ा-सा जुकाम भी हो जाता, तो अचला की नींद हराम हो जाती। मुझे अचला का यह अतिशय पुत्र-प्रेम कुछ पागलपन-सा लगता, पर देवदत्त के प्रति मेरी ममता भी कम नहीं थी । मैं उसे एक योग्य व्यक्ति बनाना चाहता था। मैं नहीं चाहता था कि वह भी मेरी ही तरह शिक्षक बनकर एक छोटी-सी जगह में उलझ जाये। ___मैं उसे बड़ा आदमी बनाना चाहता था। मेरा विचार था कि अचला अतिशय प्रेम में पालकर उसे कायर और कमजोर बना रही है। इसीलिए तो उस दिन जब देवदत्त बांध में नहाने की जिद करने लगा तो अचला ने उसको जाने नहीं दिया। उसने कहा था--तुम्हें नहाना है तो, इधर नल पर नहा लो, पानी में नहीं जाने दूंगी। पर देवदत्त तालाब में नहाने का आग्रह कर रहा था। तालाब में और लोग भी नहा रहे थे। कुछ बच्चे तैर भी रहे थे। उन्हें देखकर ही देवदत्त के मन में नहाने का भाव जागा था । यदि देवदत्त किसी अन्य चीज या खाने-पीने का आग्रह करता तो अचला उसकी बात को कभी नहीं टालती, पर पानी के निकट जाने में उसकी ममता को कुछ खतरा-सा दिखाई दे रहा था। अतः उसने कडाई से देवदत्त को रोक दिया। वैसे देवदत्त अपनी मां के लाड़ को Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनरावृत्ति / ७७ समझना था, पर उस लाड़ ने उसे जिद्दी भी बना दिया था। अपनी माँ को हराने का उसके पास एक मात्र वही हथियार था-रोना, पर आज तो अचला इस हथियार से भी टस से मस नहीं हई। मुझसे यह सब देखा नहीं गया। एक ओर तो देवदत्त के मन में गांठ बंधती नजर आ रही थी तथा दूसरी ओर अचला के प्रेम में कुछ दब्बूपन की गंध आ रही थी। अत: मैंने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा--तू देवदत्त को जाने क्यं नहीं देती ? बच्चे को पानी में नहाने का चाव पैदा हो गया है, तो किनारे पर बैठकर नहा लेगा, तू इसे क्यों रोकती है ? । . अचला ने कहा -चाव बहुत होते हैं, मैं कब उन्हें रोकती हूँ। मैं इसके किसी चाव को अधूरा नहीं रहने देना चाहती, पर पानी में मैं नहीं जाने देती। मैंने अचला का मजाक उड़ाते हुए कहा - इसी प्रकार तू इसे दब्बू बनाये रखेगी। ___ अचला -- यह दब्बूपन की बात नहीं है । अनुभवी आदमियों ने ही तो कहा है राजा जोगी अगन जल, याकी उल्टी रीत, दूरा रहियो परसराम तड़के तोड़े प्रौत। मैं-इतने लोग पानी में नहाते हैं, वे क्या सारे डूब जाते हैं ? अचला-डूब नहीं जाते हैं, तो पिछली बार वह देवगढ़ वाला लड़का क्यों डूब गया था ? मैं—यों किसी की मौत आ जाती है तो उसको कोई नहीं रोक सकता। इतनी आशंकाओं से आदमी का काम नहीं चल सकता। मेरी बात अचला के गले तो नहीं उतरी पर वह उसका जबाव नहीं दे पायी । देवदत मेरे हस्तक्षेप से संतुष्ट था। वह मन ही मन हंस रहा था। अत: मैंने भी खुश होकर कहा-चल, बेटा ! हम दोनों ही आज तालाब में स्नान करने जाते हैं । और अचला के विरोध के बावजूद भी हम तालाब चल पड़े । अचला थोड़ी कट कर रह गई, पर मेरी खुशी को अपनी खुशी मान लेने की उसकी आदत थी। अतः हमें सावधान करते हुए बोलीजरा सावधान रहना। ___ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ / नए मंदिर : नए पुजारी मैंने मधुर व्यंग करते हुए कहा - अब सावधानी के लिए तुम भी हमारे साथ आ जाओ तो अच्छा रहेगा। _अचला ने संकुचाते हुए कहा-इतने आदमियों के बीच में अच्छी लगूंगी? और फिर हम दोनों कपड़े उतार कर तालाब में नहाने लगे । मैं अत्यंत सतर्क धा । देवदत्त को मैं अपने पास ही रखे हुए था। हम लोग धीरे-धीरे तालाब की चौकियां उतर कर थोड़े पानी में नहाने लगे। तारुण्य की मस्ती में देवदत्त मेरे से थोड़ा आगे उतर गया। मैं उसको मना करता, इतने में एक करुण चीत्कार के साथ देवदत्त पानी मैं गायब हो गया। मैं थोड़ा उसके पीछे दौड़ा, पर मैं भी तैरना नहीं जानता था । अत: आगे. नहीं जा सका। मैं वहीं खड़ा 'बचाओ, बचाओ' की आवाज़ लगाने लगा। थोड़ी दूर पर कुछ लोग नहा रहे थे। उनमें से एक-दो आदमी पानी में कूदे. पर देवदत्त का कोई पता नहीं लग सका। काफी लोग मेरे चारों ओर एकत्र हो गये। मुझे तो काटो तो खून न रहा । मुझे इस बात का तो दुख था ही कि मेरी वजह से आज देवदत्त अचानक इस लोक से बिदा हो गया, पर मुझे अचला की याद कर अत्यंत लज्जा आने लगी। में सोचने लगाअब मैं अचला को कैसे अपना मुंह दिखाऊँगा? कुछ देर तक तो मुझे सूझ ही नहीं पड़ा कि क्या करना चाहिए। लोग मुझे सान्त्वना दे रहे थे, पर मेरा तो जैसे कलेजा फट रहा था । एक क्षण तो मुझे विचार आया कि अब मैं भी पानी में कूद कर जल-समाधि ले लू। पर कुछ तो लोगों ने मुझे घेर रखा था, कुछ जीबन का अव्यक्त मोह था, जिससे आत्महत्या नहीं कर सका। और इतने में मूछित भी हो गया। मुझे फिर कुछ भी पता नहीं रहा कि क्या हुआ । जब मुझे होश आया तो मैंने देखा कि अचला मुझे अपनी गोद में लिटा कर मुझ पर हवा कर रही है। उसकी आंखों में आँसुओं की धारा बह रही है ।मैं तो कुछ बोल भीनहीं सका। अचला ने रोते-रोते कहा-अब जो हुआ सो हुआ, उसको भूलो । चलो अपने घर चलें। ___ मैं अब कर ही क्या सकता था ? मैंने कहा-अचला! मुझे क्षमा करो। मैं तुम्हारे पुत्र का हत्यारा हूँ ! Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनरावृत्ति / ७६ दूसरे वर्ष मैं दशहरे की छुट्टी में राजसमंद नहीं आना चाहता था । पर अचला ने मुझसे आग्रह किया । मैंने कहामें कोई रस नहीं है । - अब मेरा राजसमंद जाने अचला ने कहा - भले ही अब तुम्हारी वहां जाने में कोई अभिरुचि नहीं है, पर कम से कम देवदत्त की याद करने तो चलो । इस प्रकार निरंतर यह क्रम बीस वर्ष से चालू है । मैं पिछले पाँच वर्षों से यहाँ आता तो हूँ, पर आनंद मनाने नहीं । यहाँ आकर जी भर कर रोता हूँ । मुझे लगता है, इसमें मेरा कलेजा थोड़ा हलका होता है, पर आज जब एक अज्ञात स्त्री को अपने बच्चे का हाथ पकड़ कर तालाब में स्नान करने से रोकते हुए देखकर फिर मेरी आँखों के आगे देवदत्त की छवि नाचने लगी है । आज मैं यह नहीं कह सका कि - -इतने लोग पानी में नहाने जाते हैं, वे क्या सारे डूब जाते हैं ? बल्कि मेरे होठों में अचला का कहा हुआ यह दोहा नाच रहा था राजा जोगी अगन जल, याकी उल्टी रीत, दूरा रहियो परसराम, तड़के तोड़े प्रीत | 门 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन उस बच्चे को शराब की दुकान पर देखकर मुझे अपना बचपन याद आ गया। मैं भी एक दिन इतनी ही उम्र में अपने बाप के साथ पहली बार ऐसी ही दुकान पर पाया था। मेरा बाप शराबी था। पता नहीं, उसे यह आदत कब लगी थी, पर जब से मैंने होश संभाला, वह खूब छककर पीता था। दारूखाने में तो पीता ही था, पर घर पर भी उसे परहेज नहीं था। मेरी माँ पहले-पहले थोड़ा विरोध करती थी, पर जिस दिन विरोध करती उस दिन उस पर मार पड़ती। इसलिए धीरे धीरे माँ ने तो विरोध करना ही छोड़ दिया। फिर भी कभी मेरा बाप जब ज्यादा पी लेता था, तो बिना किसी वजह ही गालियाँ बकने लगता । साधारणतः मेरी माँ नहीं बोलती, पर जब कभी वह मुंह खोल लेती तो उसकी पिटाई हो जाया करती थी। घर में भयंकर गरीबी थी। बाप कड़ी मेहनत करता था। अत: अपनी थकान उतारने के लिए उसे पीना जरूरी था । माँ भी मेहनत करती थी पर वह पीती नहीं थी। वह यथासंभव पिताजी को अपनी अपेक्षा अच्छा खाना देती थी। कभी-कभी तो जब शराब नहीं मिलती, तो पिताजी इतने नर्वस हो जाते थे कि ने निढाल होकर घर आकर पड़ जाते । माँ को उन पर दया आती और वह अपने बचाये हुए पैसों से शराब लाकर पिलाया करती थी। बल्कि कभी कभी तो शराब के लिए पिताजी माँ को इतना पीटते थे कि बेचारी अधमरी हो जाती । इसलिए मार की अपेक्षा उसे यही अच्छा लगता था कि पहले ही शराब की व्यवस्था कर दी जाय, पर मै देखता था कि मार खाने पर भी उसकी आँखों में दया की छाया ज्यादा दिखाई देती थी। पतिव्रत धर्म की भावना उसमें कूट कूट कर भरी हुई थी। al Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन / ८१ धीरे-धीरे पिताजी निर्बल होते गये । मेरी अवस्था बहुत छोटी थी, फिर भी मुझे मजदूरी पर लगाया गया। पिताजी को मेरे पर दया तो आती, पर क्या किया जाय ! घर का खर्चा चलाने के लिए यह आवश्यक था कि मैं भी कच्ची उम्र में ही मजदूरी के जुए में जोत दिया जाऊँ। जब मुझे पहले महीने की तनख्वाह मिली तो पिताजी मुझे भी अपने साथ अड्डे पर ले गये । शायद इन्होंने सोचा होगा कि जब उनको थकान आती है तो मुझे भी कैसे नहीं आती होंगी ? इसलिए वे मुझे अपने साथ ले गये और मुझे भी थोड़ी पिलाई। यद्यपि पहले दिन मुझे उसका स्वाद अच्छा नहीं लगा, पर मेरे मन में कौतू-हल था कि पिताजी रोज पीते हैं। देखना चाहिए, इसमें क्या खास बात है ? मुझे भी थोड़ी दारू पीकर ताजगी महसूस हुई। धीरे-धीरे यह क्रम बढ़ने लगा । बहुधा पिताजी मुझे भी अपने साथ दारू पिलाते। फिर तो ऐसी आदत हो गई कि पिताजी नहीं पिलाते तो मुझे स्वयं उसकी व्यवस्था करनी पड़ती। पैसा मेरे हाथ में नहीं आता था, अतः मुझे अपने हमउम्र दोस्त ढूँढ़ने पड़ते । वैसे तो उनमें कुछ तो स्वयं भी दारू के आदी थे, पर कुछ दोस्तों को पिलाना सिखाने का श्रेय मुझे भी मिला है। पैसे की तंगी होती, तो हम लोग चोरी करते । जब भी चोरी का पैसा मिलता तो हम लोगों की पार्टी अपने-आप जम जाती थी। अक्सर हम ग्रप में चोरी करते थे और साथ में ही शराब पीते थे । हम लोगों में ऐसी दोस्तीहो गई थी कि हम एक दूसरे की पूरी मदद करते थे। यद्यपि हमारे में कभी-कभी आपस में झगड़े भी होते थे, पर फिर भी हमारी दोस्ती इतनी गहरी थी कि एक दूसरे का सहयोग करने में हम आगा-पीछा नहीं करते थे। जब कभी व्यक्तिगत चोरी का अवसर मिल जाता तो हम आनंद से एक दूसरे को सिगरेट पिलाते, चाय पिलाते, सिनेमा दिखाते, कभी-कभी होटल में भी गुलछर्रे उड़ाते थे । सिनेमा से हमें अनेक प्रकार की शिक्षायें मिलीं। कई गंदे गाने हमें याद हो गये। गंदे फोटो भी हमें कहीं न कहीं मिल जाते थे। किसी भी लड़की को देखकर क्या फिकरे कसना, यह हमें ज्ञात हो चुका था। मेरा स्वास्थ्य बहुत खराब रहने लगा था। किशोर अवस्था में भी Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ / नए मंदिर : नए पुजारी मुझे खाँसी आने लगी थी। यद्यपि मस्ती के कारण मेरा शरीर तो मोटा होता जा रहा था, पर उसकी काँति नष्ट हो चुकी थी। मेरे होंठ काले पड़ चुके थे। सफाई का तो खैर कोई सवाल ही नहीं था। मैं बहुत गंदा रहता था। मेरी माँ को मेरी आदतों का पता चल गया था, पर वह मुझे कुछ कह नहीं सकता थी। कभी एकाध बार कहा भी तो मैंने पिताजी की आदतों का जिक्र कर उसे बंद कर दिया। बाप जब गलत रास्ते पर चलता है तो बेटे को कौन रोक सकता है ? माँ बिचारी कड़वी घूट पीकर रह जाती। कभी-कभी वह मुझे सत्संग में ले जाने की कोशिश करती, पर मेरे लिए अपने दोस्तों की संगत सर्वोपरि थी। घर में तो मैं बस खाने-पीने और सोने के लिए ही आता था। बाकी का मेरा समय तो बाहर ही बीतता था। मुझे वेश्याओं के तथा जुए के अड्डे अच्छी तरह से मालूम थे। पिताजी को मुझे कुछ कहने का सवाल ही नहीं था। वे जब स्वयं सर्वगुण-संपन्न थे, तो मुझे कुछ सीख देने का नैतिक अधिकार भी नहीं था। बल्कि पिताजी इस बात को अच्छा समझते थे कि मैं जिंदगी की मौज लट रहा हूँ। फिर कभी.कभी जब मुझे चोरी के पैसे मिलते तो मैं पिताजी की मदद भी किया करता था। अत: वे तो उलटे मेरे अहसानमंद थे। ___अचानक एक दिन पिताजी का देहांत हो गया। वैसे उनका आदमी तो पहले ही मर चुका था, पर फिर भी वे अपनी जिंदा लाश ढोते रहते थे । शराब ज्यादा पीने से उनकी आंखें खराब हो गई थीं। बोतल ने एक दिन उनको हमसे अलग कर दिया । ___अलबत्ता उस दिन मुझे एक धक्का लगा था। हालांकि पिताजी के क्रिया-कर्म के अवसर पर भी मुझे अपने संबंधियों तथा पिताजी के मित्रों के लिए बोतल का प्रबंध करना पड़ा था, पर अंतिम दिन सब लोग अपनेघर चले गये और घर में मैं और मेरी माँ हम दो ही थे । माँ ने मुझे गीली आँखों से कहा था--देख बेटा ! तेरे पिताजी की गंदी आदतों के कारण ही आज हमें यह दिन देखना पड़ा है। अब तेरे लिए सँभलने का अवसर है । तू यदि इसी रास्ते से जाना चाहता है, तो मेरे घर से निकल जा और यदि सही रास्ते पर चलना है तो अपनी गंदी आदतों को छोड़ दे। एक तो पिता जी की मृत्यु, दूसरे माँ के आँसू और तीसरी विवशता । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन | ८३ मैंने माँ के पैर छुए और उस दिन के बाद अपने जीवन का परिवर्तन करने की कसम खाई । माँ ने अपनी बात को पक्का करते हुए कहा, "देख : तू कसम तो खा रहा है, पर किसी दिन मैंने तुम्हें गंदी आदतों में व्यस्त देख लिया तो खैर नहीं होगी । अब से तू मेरे साथ ही काम पर आयेगा । तुझे अपने दोस्तों का संग छोड़ना पड़ेगा। माँ का सब कथन इतने मौके का तथा भावप्रवण था कि मैंने सचमुच ही अपने जीवन की राह बदल दी। यद्यपि कभी-कभी मुझे अभ्यासवश अपनी मित्रमंडली में जाने की ललक उठती, पर माँ के अनुशासन के कारण मैं उधर नहीं जा सका । पहले तो मुझे मेरे दोस्त ललचाते रहे। अवसर आने पर मुझ पर दबाव भी डालते रहे । ढुलमुल कहकर चिढ़ाते भी एक बार वे घर भी आये, पर मेरी माँ ने उन्हें ऐसी फटकार बताई कि वे मेरे घर का रास्ता ही भूल गये। मेरे ऊपर माँ का रंग इतना गहरा चढ़ चुका था कि उस पर दोस्तों का रंग हावी नहीं हो सका। माँ ने भी एक-आध बार मेरी परीक्षा के लिए कुछ जाल फैलाये---- पैसे खुले रखे, पड़ोसी की छोकरी को भी रखकर बाहर चली गई, शराब की बोतल भी रखी, पर मैं संभल चुका था। अत: किसी भी प्रलोभन से फिसला नहीं। ___हमारी आमदनी बहुत थोड़ी थी। पिताजी के क्रियाकर्म में कुछ कर्जा भी हो गया था। यद्यपि खाना अब पहले की अपेक्षा अच्छा मिलता तथा मेरा स्वास्थ्य भी सुधर गया था, पर फिर भी मैं कोई पढ़ा-लिखा तो था नहीं-न कोई धंधा करना जानता था । अंतत: बहुत सलाह-मशविरा के बाद मेरी माँ ने अवैध दारू बनाने का धंधा शुरू कर दिया। धीरे-धीरे हमारी आमदनी बढ़ने लगी। मैं भी इस धंधे में प्रवीण हो गया, पर अपनी मां के कठोर नियंत्रण में मैं दारू की एक बूद भी अपने गले के नीचे नहीं उतार सका । अब मैं वैसे थोड़ा-थोड़ा अपनी परिस्थति तथा संसार को भी समझने लगा था । पैसे के मूल्य तथा उसके महत्व की भी मुझे कुछ पहचान हो चुकी थी। अपने साथियों की दुर्दशा से भी मुझे कुछ सबक मिला। कुल मिलाकर शराब की गंगा के किनारे बसकर भी मैंने उसमें डुबकी नहीं लगाई। धीरे-धीरे हमारे पास कुछ पैसा इक्कठा हो गया। अब तो बाकायदा मैंने Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ / नए मंदिर : नए पुजारी अपनी दारू की दुकान खोल दी है। मैं नियमित रूप से इस दुकान में दारू बेच रहा हूँ। हर रोज ग्राहक आते हैं। बच्चे, बूढ़े, नौजवान । स्त्रीपुरुष । पर मैं अपने धंधे में इतना रच-पच गया हूँ कि मेरा उनसे केवल पैसे से वास्ता है। आज अचानक इस बच्चे को देख कर मुझे अपना इतिहास याद आ गया। मैं अचंभे में पड़ गया हूं। मुझे लगता है जैसे मैं ही अपनी दुकान में खड़ा हूं। ____ मैं अपने लोभ का संवारण करूं या एक इतिहास की पुनरावृत्ति करूं। मैं सोच रहा हैं यदि वह ठेकेदार मुझे शराब नहीं पिलाता, तो शायद मैं बच जाता, पर नहीं, वह तो शराब नहीं पिलाता तो मेरा बाप मुझे दूसरी दुकान पर ले जाता । मैं भी इसे नहीं पिलाऊँगा, तो यह भी दूसरी जगह जाकर पिएगा। सचमुच दुनियां में चारो और कीचड़ ही कीचड़ भरा है। यदि कोई इससे बचाने वाला है, तो वह माँ ही है। वहीं मनुष्य को जरक से निकालकर स्वर्ग पहुंचा सकती है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कानून की मौत सुबह ही सुबह, जब कि पूर्व ओर पश्चिम का भेद स्पष्ट हो गया था, पूर्व में थोड़ा-थोड़ा उजाला दिखाई दे रहा था तथा पश्चिम दिशा काली स्याह पडी हुई थी, चार मित्र - अशोक बियाणी, पांडुरंग कुलकर्णी, हरीश खन्ना एवं प्रफुल्ल चक्रवर्ती - रेलवे लाईन को क्रास कर आगे घूमने को जा रहे थे । इतने में उन्हें रेल की पटरी की ओर से एक आदमी मालगाड़ी से कुछ माल चुराकर भागता हुआ दिखाई दिया। मित्रों में आपस में चर्चा चल पड़ी । बियाणी बौला - देखो रेल विभाग कितना भ्रष्ट हो गया है । वह आदमी रेलवे की चोरी कर भाग रहा है। सामने पुलिस वालाखड़ा है, पर इसे रोक नहीं रहा । कुलकर्णी ने कहा- एक रेलवे क्या, आज तो सारा सरकारी तंत्र ही भ्रष्ट हो गया है । ऐसा लगता है, जैसे शासन नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई है । बियाणी - लोग व्यापारियों को बदनाम करते हैं, पर आजकल सरकारी तंत्र इतना निरंकुश और भ्रष्ट हो गया है कि कुछ मत पूछो ! कर्मचारियों व्यापारी अगर कुछ गड़बड़ करता भी है, तो सरकार के अफसरो और की सांठ गांठ से ही कर पाता है । यदि सरकारी तंत्र स्वस्थ हो तो मजाल है कि कोई व्यापारी बेईमानी कर पाये ? खन्ना- वास्तव में सरकार को कड़ाई से काम लेना चाहिए। वह ज्यों ज्योंढील देती है, त्यों त्यों बदमाशों के हौसले बढ़ते जा रहे हैं। मैं तो सोचता हूँ, इस संबंध में कड़े से कड़ा कानून भी बनाना पड़े, तो सरकार को हिच - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ / नए मंदिर : नए पुजारी कना नहीं चाहिए | पर किया क्या जाए, सरकार के लोग खुद ही बेईमानी करते हैं तो कहें किसे ? बियाणी - बिलकुल ठीक बात है । मैं इस बात का समर्थन करता हूँ । यदि सरकार मजबूत हो तो मजाल है कि कोई यों रेलवे के माल की चोरी कर सके ? इतने में ड्यूटी पर खड़ा बन्दूकधारी पुलिस बोल पड़ा - सेठजी ! आप लोग जितनी बड़ी चोरी करते है, उसके सामने तो यह कुछ भी नहीं है । बेचारा गरीब आदमी पेट भरने के लिए कुछ इंतजाम कर रहा है, तो भी अपको जुलाब लग जाती है । इन छोटी-छोटी बातों से दाल में हींग भी नहीं पड़ती। वास्तव में तो सरकार को बड़ी मछलियों को फांसने की व्यवस्था करनी चाहिए। वे ही सारे तालाब को गंदा करती हैं । यदि स्वच्छ तरीके से सारा काम चले, हर आदमी को खाने को रोटी मिले तो कौन ऐसा शैतान होगा जो बेईमानी कर अपने लिए नरक का रास्ता साफ करे ? उन्हें तो अपनी तिजोरी भरने से मतलब है । उसी से कालाबाजारी होती है, उसीसे मिलावट होती है । उसीसे गरीब पिसता है जीना उस बेचारे की विवशता है। मौत नहीं आती है तब तक उसे अपने बालबच्चों के पेट में रोटी के दो कौर डालने पड़ते है, पर क्या किया जाय ? व्यापारी लोग उनकी विवशता को कहाँ समझ पाते है ? यों ही बेचारा गरीब अधमरा तो है ही, पर व्यापारी लोग उसे अधमरा भी नहीं देखना चाहते । उनका बस चले तो शायद वे गरीबों को कच्चा ही चबा जायें । faarit एकदम बिगड़ कर बोला- वाह ! तुम यहां क्यों खड़े हो ? खुलेआम चोरी का समर्थन करते हो ? व्यापारी धंधा करता है, वह चोरी नहीं करता है । लगता है, तुम्हारी भी इस खेल में कोई पार्टनरशिप है । पुलिस -- मेरी कोई पार्टनरशीप है या नही, इस बात को रहने दें । आप जैसे लोग ही इस चोरी को प्रोत्साहन दे रहे हैं । वे माल सस्ते में खरीदते हैं और मंहगे में बेचते हैं । उसी शह पर यह चोरी का धंधा चलता है । वे यदि धंधा छोड़ दें, तो गरीब का यह धंधा अपने आप ही छूट जाएगा। अत: पहले व्यापारी लोग बेईमानी करना छोड़ें, फिर वे गरीबों को उपदेश दें, सरकार को कोसें। वे अपने धन्धे में तो कोई कटौती Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कानून की मौत | ८७ करना नहीं चाहते और दूसरे लोगों पर इल्जाम लगाते हैं यह गलत बात है। बियाणी---तुमने शराब तो नहीं पी, रखी है ? जानते हो, तुम जिस तरह से बोलते हो उससे तुम्हें थाने की राह दिखाई जा सकती है। पुलिस-थाने की राह तो आप क्या दिखाएंगे, हम आपको दिखाएंगे। अभी गरीब वर्ग इतना संगठित नहीं है। पूंजीपतियों ने ही इनमें फूट डाल रखी है । जिस दिन मजदूर एक हो गए तो समझ लीजिए कि आपको थाने में जाने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। वे अपने आप आपसे सलट लेंगे। कुलकर्णी - नहीं यार ! आजकल इन बेईमान लोगों के बड़े सींग आ गए हैं। देखो तो सही, यह दो टके का आदमी किस तरह से बात कर रहा है। ऐसा लगता है जैसे कोई मार्क्स का ही अवतार है । पर भाई ! यों बातें बघारने से नहीं होगा । यदि देश का उत्थान करना है, तो पहले अपने-आपको सुधारो । गरीब को चाहे कितना ही पैसा क्यों न मिल जाए, पर क्या वह अपनी गंदी आदतों को सुधारता है ? मैंने तो देखा है, जब भी उनके हाथ में पैसा आता है तो वे व्यसनग्रस्त हो जाते हैं और उत्पात मचाते हैं। केवल पूजीपतियों को गाली देने से देश का सुधार नहीं हो सकता । पहले अपनी जबान संभालो। जरा सोचो कि तुम क्या बोल रहे हो? पुलिस-- मैं तो सोच-समझकर ही बोल रहा हूँ। वास्तव में आप मेरी जगह होते तो पता लगता कि आदमी को क्या बोलना चाहिए। आपने कभी गरीबी के दर्शन नहीं किए हैं। आप बड़े-बड़े महलों में रहते हैं। आपके आफिस भी एयरकंडीशंड हैं। कार हर क्षण आपके सामने खड़ी रहती है पर यदि आप गरीब की दशा देख लेते, उसकी टूटी बिखरी सीलनभरी झोंपड़ी को देख लेते, उसके बीमार बच्चे को देख लेते, उसकी पिसती हई औरत को देख लेते तो शायद आपको इतना गुस्सा नहीं आता। आपने अभी तक अमीरी के ही सपने देखे हैं, गरीबी की वास्तविकता का आपको पता नहीं है। बियाणी -हद हो गई। जब बाड़ की ककड़ी को खाने लगे तो क्या किया जाए ? मैं तो कहता हूँ, केवल चोरी करने वालों को ही नहीं अपितु Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ / नए मंदिर : नए पुजारी उनको शह देने वालों को भी गोली से उड़ा देना चाहिए। एस लागा क कारण ही सरकार को करोड़ों का नुकसान उठाना पड़या है। रेलवे कर्मचारियों को सरकार ने कितनी सुविधाएँ दी हैं, तो भी ये लोग नहीं रुकते आए दिन कहीं न कही हड़ताल तैयार रहती है । सरकार भी आज इनके वश में है । उसे इनके सामने नाक रगड़नी पड़ती है। इनकी माँगें स्वीकार हो जाती हैं । फिर भी ये लोग काम करके कहाँ देते हैं । आये दिन दुर्घटनाएं होती रहती हैं। सरकार को इनके लिए कानून बनाने चाहिए । चक्रवर्ती - ( जो इतनी देर चुप था ) पर भाई साहब ! ये सब प्रश्न बड़े टेढ़े हैं। इन पर सहानुभूति से विचार करना पड़ेगा । केवल कानून से काम नहीं चलेगा। इन सारी समस्याओं पर मानवीय दृष्टि से विचार करना पड़ेगा । बियाणी -- मियाँ ! आप जैसे सहानुभूति वाले लोगों ने ही देश का बेड़ा गर्क कर रखा है । सरकार चलती कानून - कायदे से चलती है । बिना कायदे के घर की गाड़ी भी नहीं चलती । चक्रवर्ती - यही बात तो मैं कह रहा हूँ । जिस आदमी ने थोड़ा सा भी समाजशास्त्र का अध्ययन किया है, वह अच्छी तरह से जानता है कि केवल कानून से देश नहीं चलता । यद्यपि मुझे धर्म-कर्म की विशेष जानकारी नहीं है और न ही मैं इसे मानता हूँ । पर इतना अवश्य मानता हूँ कि जब तक जनता का हृदय परिवर्तन नहीं होगा, तब तक कानून निरर्थक । है । वे केवल कागजों में लिखे रह जायेंगे । कानून की दृष्टि से देखा जाय तो आज कानून कम थोड़े ही हैं ? दिन प्रतिदिन उनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है । पर जब तक जनता को कानून में विश्वास नहीं होगा तब तक एक नहीं हजार कानून बनानो किसी का पालन नहीं होगा । कुलकर्णी - तो जनाब यह समझते हैं कि आज जो सरकार चल रही है, वह कानून से नहीं चल रही है ? चक्रवती - मैं कानून की अवहेलना कहाँ करता हूँ ? मैं तो मनाता हूँ कि सबसे अच्छा कानून वह है जो सबको न्याय दे । समाज के किसी एक वर्ग को कोसने से काम नहीं चलेगा। आवश्यकता इस बात की है कि आज जो सरकार चल रही है वह सारे समाज की दृष्टि से कानून Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कानून की मौत / ८६ की व्याख्या करें ? बियाणी - ऐसा लगता है, जैसे आप पर भी आजकल कम्युनिज्म का नशा चढ़ने लगा है, या फिर लगता है, आपने कोई सत्संगति ज्वाइन कर ली है, जो इतना अच्छा लेक्चर झाड़ सकते हो। मैं और कुछ नहीं जानता । मैं तो इतना ही जानता हूँ कि यदि देश की बागडोर मेरे हाथ आ जाय तो इन चोरों, और बेईमानों को सीधा कर दूँ । एक-एक बदमाश को रास्ते पर लगा दूं । 1 चक्रवर्ती - भाई साहब ! अच्छा है, आप देश को सुधार दें । मैं आपको इस शुभ काम के लिए शकुन देना चाहता हूँ, पर यदि आपने केवल कानून को पकड़ कर शान्ति की मंजिल पानी चाही तो पहुंचना मुश्किल है । आप लोगों को क्या सीधा कर देंगे, कहीं लोग ही आपको सीधा न कर दें । आज की सैर इन्हीं बातों में खत्म हो गयी । यद्यपि आपस में थोड़ा हास्य-विनोद भी चलता था, पर व्यंग्य इतने तीखे हो गए थे कि सैर का मजा जाता रहा । फिर भी अपने-आप को अभिव्यक्त कर सभी थोड़ा हल्कापन अवश्य महसूस कर रहे थे। सभी अपने चोट खाये तर्कों की मालिश कर रहे थे । रोज की यह सैर हमेशा चलती रही। रेलवे क्रासिंग पर आकर अनायास ही चर्चा समाज व्यवस्था और राजनीति से जुड़ जाती । वहाँ ड्यूटी देने वाले पुलिस को भी इसमें थोड़ा-थोड़ा रस आता । मन ही मन वह बियाणी से बडा नाराज था, क्योंकि गरीबों पर सबसे तीखा प्रहार उसका ही होता था । पन्द्रह-बीस दिनों बाद एक दिन मौसम कुछ ठीक नहीं था । थोड़ी बूंदाबांदी भी हो रही थी । और कोई घूमने नहीं आया, केवल बियाणी आया था । उसे घूमने की ऐसी आदत पड़ गयी थी कि सैर के बिना उसका सारा दिन सूना-सूना-सा बीतता था ? अतः मक्खन जीन की सफेद हाफ पैंट और उसी तरह का सफेद बनियान पहन, हाथ में एक छोटा-सा डंडा ले वह घूमने निकल गया । सारा वातावरण शान्त था । चारों ओर कोई आदमी दिखाई नहीं दिया, पर ज्योंही उसने रेलवे Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० / नए मंदिर : नए पुजारी क्रासिंग पर पैर रखा कि दाहिनी ओर से रेलवे पुलिस की सनसनाती हुई गोली आई और उसके कलेजे को बींध गई । वियाणी वहीं गिर पड़ा। गिरते ही उसके प्राण पंखेरू उड़ गये। थोड़ी देर में यह बात सारे शहर फैल गई । बियाणी के संबंधियों ने आकर देखा तो दंग रह गये । उन्होंने पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवाई । तत्काल पुलिस आई, पर वह यह देख कर दंग रह गयी कि बियाणी के आस-पास रेलवे का कुछ कीमती सामान इस तरह बिखरा पड़ा हुआ था, जैसे वह उसे चुरा कर भाग रहा था । उसके आगे पुलिस कुछ नहीं कर सकी । परिवार वाले तर्क देते रहे कि यह सारा षडयंत्र है । उन्होंने रेलवे पुलिस पर केस भी किया। अच्छेअच्छे वकील भी लगवाये | बियाणी के मित्रों में भी यह जोश था कि वे इस निर्मम हत्यारे को अवश्य दंडित करवायेंगे, पर प्रफुल्ल चक्रवर्ती ने पिछले घटना चक्र से अनुमान कर लिया कि कानून के एक अन्ध समर्थक की मौत हो गई और अब कानून की भी मौत होने वाली है । में Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासी टुकड़ों का पुण्य मैं बिना किसी प्रयोजन के खिड़की के पास खड़ा था। अनेक दृश्य मेरी आंखों के सामने आ रहे थे। पास के नीम पर कौआ कर्कश स्वर में कांव-कांव कर रहा था। कीचड़ में बैठा सूअर-परिवार आनन्द मग्न होकर किलोल कर रहा था। कहीं छोटे-बड़े कुत्ते गली के बीच अांखें मूंदे आलस्य से ऊंघ रहे थे। कुछ पनिहारिनें पानी लेकर लौट रही थीं। दूर मंदिर में घण्टा बज रहा था। अवचेतन मन की हांडी में न जाने और भी क्या पक रहा था कि अचानक मेरा चेतन मन पड़ोस के मकान के दरवाजे की ओर खिच गया। एक साथ अनेक कुत्ते उसी ओर दौड़ रहे थे । मकान-मालकिन हाथ में बासी रोटियां लिये 'तू-तू' कर कुत्तों को बुला रही थी। शायद यह बात मेरे ध्यान में नही आती, क्योंकि वह दरवाजा मेरे नीचे की ओर था, पर ज्योंही कुत्ते उस निमंत्रण को सुनकर दावत खाने दौड़े तो मैं नीचे की ओर झुक गया। अब मैं स्पष्ट देख रहा था कि मकान-मालकिन बड़े संतोष भाव से कुत्तों को वह बासी दान देने की तैयारी कर रही थी। मैं सोचने लगा--विविधता भरे इस वातावरण में प्राणी अपने आवश्यक संकेत को कितनी तत्परता से ग्रहण करता है और कितना सस्ता है यह पुण्य ! कुछ रोटी के टुकड़े बच गये, उन्हें ही लेकर मालकिन स्वर्ग की राह में बिखेरने लगी । यदि इतने से टुकड़ों से स्वर्ग मिल जाय तो उसे खो देना दुर्भाग्य ही होगा। मैं इस दर्शन और गणित में उलझ रहा था, पर कुत्ते इस अनुकम्पा के लिये अवश्य ही हृदय से आशीर्वाद दे रहे थे। वे अपनी पूंछ हिला-हिला कर ललचाई दृष्टि से लम्बी जीभ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ / नए मंदिर : नए पुजारी वाहर निकाल कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे। चारों ओर से काफी कुत्ते इक्कठे हो गए थे। उनमें से कुछ बड़े थे तो कुछ छोटे । कुछ ताकतवर थे तो कुछ कमजोर । वे रोटी के टुकड़ों की इतनी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे, मानो फुटबाल के खिलाड़ी आउट हुए गेंद के शो की प्रतीक्षा कर रहे हों। __मालिकन ने सबसे पहले एक मोटा टुकड़ा उस कुत्ते की ओर फेंका जो अक्सर रात में उसके मकान के सामने सोया करता था। जब भी कोई अजनबी उधर से निकलता तो वह स्वामी भक्ति का इजहार करता हुआ भौंकने लगता। यदि कोई अजनबी मकान में प्रवेश करने की कोशिश करता तो वह उसके गले ही पड़ जाता था। शायद इसलिए उसे पहले-पहल रोटी का टुकड़ा फैंकने में मालकिन ने सबसे ज्यादा पुण्य समझा । पर ज्योंही रोटी का टुकड़ा इस कुत्ते के सामने गिरा सारे कुत्ते उसी ओर झपट पड़े । वह भी कमजोर तो था नही, अत: बड़ी तत्परता से उसने उस टुकड़े को अपने मुंह में दबोच लिया। मालकिन ने देष कत्तों के ध्यान को उस ओर से हटाने के लिये एक दूसरा टुकड़ा फैका । अब सारे कुत्ते दूसरे टुकड़े की ओर मुड़ गये। उसके लिए आपस में छीनाझपटी होने लगी। एक मरियल-से कुत्ते ने सबसे पहले उस टुकड़े को अपने मुंह में दबोच लिया, क्योकि वह उसके ही मुंह के आगे आकर गिरा था। पर दूसरे ही क्षण एक तगड़ा कुत्ता उसकी ओर झपटा और उसके मुंह से टुकड़ा छीन लिया अब धीरे धीरे और भी टुकड़े फैके जाने लगे, पर वे सब उन्हीं के पास पहुंच जाते थे जो तगड़े थे । कमजोर कुत्तों के हाथ यदि बे आये भी तो न जाने उन्हें तगड़े कुत्तों के कितने दांत व पँजों के प्रहार सहने पड़े । बल्कि इस छीना-झपटी में विचारे कुछ कमजोर कुत्तों की तो इतनी मरम्मत हुई कि वे तो खाली पेट ही भीड़ से निकल कर एक ओर खड़े हो गए। कोई अपनी टूटी टांग को अधर से लटकाये लडखड़ाता हुआ चल रहा था तो कोई दर्द के मारे 'चें-चें' कर रहा था। यद्यपि रोटी पाने की उनकी लालसा अभी मरी नहीं थी। फिर भी वे पूछ हिलाते हुए आऊट हुए खिलाड़ी की भांति एक ओर खडे तमाशा देख रहे थे। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासी टुकड़ों का पुण्य / ६३ मैं सोच रहा था कि इनके मन में विद्रोह की आग़ क्यों नहीं सुलगती ? ये क्यों नहीं कहते कि हमें भी जीने का अधिकार है ? क्यों नहीं कमजोर कुत्ते अपना संगठन बना लेते ? शायद संख्या की दृष्टि से वे तगड़े कुत्तों की अपेक्षा अधिक थे पर उनको इसका एहसास ही कहां था ? संगठित हित नाम का उनके पास कोई नारा ही नहीं था। वे सब अपने-अपने हित को सेकने की फिकर में रहने वाले प्राणी थे। उन्हें भी अवसर मिलता तो शायद वे भी अपने से कमजोर कुत्तों से रोटी झपटने में कमी नहीं रखते। वास्तव में प्राणी जब तक स्वार्थ से ऊपर नहीं उठता है तब तक उसमें करुणा का स्रोत फूट नहीं सकता । सच तो यह है कि निस्वार्थता ही सबमें वड़ा स्वार्थ है। भला जब बहुत सारे मनुष्यों में भी वह निःस्वार्थ-भाव नहीं आता तो कुत्तों से ऐसी आशा करना तो गधे के सिर पर सींग उगाने जैसा ही है। हां, उन्हें देखकर मालकिन के मन में एक संवेदना की लहर अवश्य उठी । इसलिए उसने शेष रोटियां उनकी ओर फेंकी, पर उनके नसीब में वे कहाँ लिखी थी ? तगडे कुत्ते झपटे और उन्हें भी साफ कर गये । मुझे कुछ लोगों की समाजवादी सहानुभूति याद आयी और मैं सोचने लगा कि -क्या कमजोर प्राणियों की नियति में यही बदा है कि वे सदा कमजोर ही बने रहें। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवशता दरिया किनारे बसे उस गांव में और सब कुछ था पर भगवान के मन्दिर की एक बहुत बड़ी कमी थी । स्कूल, अस्पताल, सड़कें, डाकघर, पानी की टंकी आदि तो यहाँ के जागृत एवं पहुँचवाले लोगों ने अपने प्रभाव से सरकार से बनवा लिये थे, पर मन्दिर के मामले में सरकार से कोई सहकार संभव नहीं था । यद्यपि नौजवानों को मन्दिर जाने में बहुत रस नहीं था, पर जब उनके बूढ़े मां-बाप मौके बेमौके मीलों पैदल चलकर पड़ौस के गांव में दर्शन करने के लिए जाते तो उनका दिल पसीज जाता । कभी-कभी बरसात के दिनों में तो उन्हें भीगते-भीगते बहते नाले से पार होना पड़ता था तब तो बात और भी बेधक बन जाती थी । पिछले वर्ष एक बुढ़िया तो नाले में बह ही गई थी । अनेक लोगों को भीगने से जुकाम हो गया और उनमें से कुछ तो भगवान के दरबार में भी पहुँच गए थे । इसीलिए यह आवश्यकता यहाँ ज्वलंत चर्चा का विषय बनी हुई थी । फिर आसपास के गांवों में सब जगह भव्य मन्दिर बन गये थे । एक गांव के लोगों ने तो उन पर व्यंग्य भी कस दिया था कि सरकार के पास से तुम बहुत कुछ करवा सकते हो, पर अपने गांव में मन्दिर खड़ा कर सको तो हम जानें । सचमुच यह बात यहाँ के लोगों के लिए एक चुभती हुई चुनौती थी । अतः एक सांझ एक अनौपचारिक बातचीत में ही कुछ नौजवानों ने बीड़ा उठा लिया कि वे गांवमें मन्दिर अवश्य बनवायेंगे । इसमें कोई सन्देह नहीं था कि वहाँ के नौजवान शिक्षित, सभ्य एवं कर्मशील थे । सरकार की हर सेवा विभाग में भी यहाँ का कोई न कोई प्रभावशाली सदस्य सेवारत था । यद्यपि आम तौर पर सरकारी सेवा में रहने वाले Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवशता / ६५ लोगों का अपना एक बंधा-बंधाया रुटीन बन जाता है । अक्सर वे लोग घर से दफ्तर और दफ्तर से घर का रास्ता ही जानते हैं । बहुत हुआ तो छुट्टी के दिन अपने परिवार या मित्रों के साथ इधर-उधर मनोरंजन कर लेते हैं। इसके सिवा दूसरों के सुख-दुःख में भागी बनना या सार्वजनिक कामों के प्रति दिलचस्पी रखना उनके स्वभाव में नहीं होता, पर यहाँ के नौजवान इस बात के अपवाद थे। इसीलिए वे किसी कठिन कार्य को भी अपने हाथ में ले लेते थे और अपने बुजर्गों के आशीर्वाद से उसे पार भी लगा देते थे । इसीलिए उन्होंने मन्दिरके निर्माण की बात को भी अपने हाथ में ले लिया। पर कठिनाई तो यह थी कि इसके लिए अर्थ कहाँ से जुटाया जाए ? यह बहुत कम संभव था कि नौकरी-पेशे वाले आदमी बहुत अधिक आर्थिक सहयोग कर सकें, क्योंकि उन्हें जो कुछ वेतन मिलता है वह तो प्रायः दैनिक आवश्यकताओं में ही पूरा हो जाता है। पारिवारिक जीवन से सम्बन्धित या तीज-त्यौहार से सम्बन्धित जो अतिरिक्त खर्च उन पर आ पड़ता है उसके लिए तो उनका बजट पहले से ही धाटे में चलता है। फिर जो लोग स्वाभिमानी हों, उनके लिए भ्रष्ट तरीकों का दरवाज़ा भी बन्द रहता है। अतः उसके लिए बहुत अधिक खर्च कर पाना संभव नहीं था। इसी दृष्टि से कुछ उत्साही व्यक्तियों की एक सीमित बना ली गई जो सारे कार्य को अन्जाम दे सके । उसे सम्पूर्ण अधिकार दे दिये गए कि वह जो कुछ करेगी उसे सब लोग सहर्ष स्वीकार कर लेंगे। फिर भी अर्थ की दृष्टि से सभी लोगों का ध्यान सेठ धनसुख भाई पर टिका हुआ था । यद्यपि उनके पास धन तो काफी था, पर सामान्य लोगों के साथ उनका सम्पर्क बहुत ओछा था । सार्वजनिक भलाई की दष्टि से भी उन्हें अब तक पैसा खर्च करने का अवसर नहीं मिला था। उनमें स्वयं में तो यह प्रवृत्ति थी ही नहीं गांव के लोग भी उनकी गुलामी करने की अपेक्षा अब तक सारा कार्य सरकारी स्तर पर करवा लेना अच्छा समझते थे । पर अब भारी खर्चा सामने था। अत: एक रविवार के दिन मन्दिर समिति के सभी सदस्य अपनी योजना लेकर सेठजी के घर पर उपस्थित हुए । चतुर सेठ ने बड़े मीठे शब्दों में उनका स्वागत किया, बैठने ___ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ / नए मंदिर : नए पुजारी के लिए ऊंचा आसन दिया, ठंडा पानी पिलाया। कुछ इधर-उधर की चर्चा करने के बाद पूछा - आज आप सबने मेरे घर को पवित्र कैसे किया ? समिति के एक सदस्य ने शान्त भाव से कहा-हम लोग गांव में एक मन्दिर की योजना लेकर आपके सामने उपस्थित हुए हैं। सेठजी—यह तो आपने बहुत ही सुन्दर बात बताई । भला इससे बढ़कर हमारे लिए और सौभाग्य की क्या बात हो सकती है कि गांव में मन्दिर बने ? सदस्य---हां, इसीलिए हमने यह बीड़ा उठा लिया है, पर आप जानते हैं यह काम बहुत बड़ा है। इसे आपके सहयोग से ही पूरा किया जा सकता है। सेठजी -बहुत अच्छा, पर मैं अकेला क्या कर सकता हूं? यह तो सारे गांव का काम है । अतः इसमें सहयोग करना तो अपना धर्म है, पर आपने योजना कैसे बनाई है ? सदस्य----योजना को अन्तिम रूप तो आपकी सहमति से ही दिया जा सकेगा। आप देख लीजिए, यह योजना है । हमारा अनुमान है कि खर्चा बीस हजार से ज्यादा ही होगा। सेठजी-आपने जो अनुमान लगाया है वह तो ठीक ही है । पर मन्दिर का खर्च तो बार-बार नहीं होता। यह किसी एक व्यक्तिका तो है नहीं, सारे गांव का है। इसलिए ऐसा नहीं होना चाहिए कि हम अपने पड़ोस वाले गांव से कम रह जाएं। सदस्य -- पर इसके लिए तो पैसे का सवाल है ? सेठजी--अरे, आप सब लोग हैं तब पैसे की क्या चिन्ता ? मैं भी अपना तुच्छ सहयोग प्रदान करूंगा, पर इसके लिए हमें जरा बुद्धिमानी से काम करना होगा। सदस्य---इसीलिए तो हम आपके पास हाजिर हुए हैं। सेठजी---नहीं, मैं क्या चीज हूँ। मैं तो आप जो कहेंगे वह करने के लिए तैयार हूं, पर क्या मन्दिर पर किसी दानदाता का नाम लगाना अच्छा नहीं रहेगा? Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवशता | ६७ सदस्य-दान करने वाले तो बहुत सारे होंगे । सबका नाम कैसे लगाया जा सकेगा ? हां, अन्दर एक ओर उनके नाम की सूची अवश्य लगाई जा सकती है। सेठजी-नहीं, मेरा मतलब था कि कोई आदमी पैसा लगाता है तो प्रति दान अवश्य चाहता है। अतः ऐसा करें, जो व्यक्ति सबसे ज्यादा पैसा दे उसका नाम ऊपर लगवा दें। सदस्य-~-दान का सबसे बड़ा प्रतिदान तो त्याग ही है । यह तो भगवान का मन्दिर है। हम इसे भगवान का मन्दिर ही रहने देना चाहते हैं । यह उचित नहीं लगता कि ऐसे स्थान पर पैसे को बिठाया जाए। सेठजी-नहीं, मेरा मतलब आप समझे नहीं। ऊपर और नीचे नाम लिखने में कोई फर्क नहीं है। जैसा नीचे वैसा ऊपर । इस अच्छे काम में किसी का नाम ऊपर आता है तो हमें एतराज नहीं होना चाहिए। सदस्य - हमारा आशय तो यही है कि किसी के पास यदि धन है तो उसका सदुपयोग किया जाए। पूर्व के पुण्य से उसे धन मिला है। आगे के पुण्य के लिए उसे उसका सदुपयोग करना चाहिए। यदि नाम ऊपर आयेगा तो उस व्यक्ति का पुण्य क्षीण होगा। हम नहीं चाहते कि हम उसके निमित बने । सेठजी- मैं आपके विचार से सहमत हूँ, पर आजकल जमाना ही ऐसा है कि सीधी अंगुली से घी निकलता ही नहीं। यदि कोई इस बहाने भी अपना कुछ पैसा इस पुण्य कार्य में लगता है तो हमें उसे अवसर देना चाहिए, यह मेरा सुझाव है। आप लोग भी मेरे सुझाव पर विचार करें। इस शुभ काम में यदि कुछ समय लग जाए तो भी कोई बात नहीं है, पर हमारा काम सब दृष्टियों से उत्तम होना चाहिए। पैसे की अपने पास कोई कमी नहीं है। पास वाले गांव की अपेक्षा अपना कार्य बढ़िया होना चाहिए। यह किसी का व्यक्तिगत अहंकार नहीं है, अपितु सारे गाँव के गौरव का सवाल है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ / नए मंदिर : नए पुजारी समिति के सदस्यों ने सेठजी का आशय समझ लिया। अतः विचार करने का बहाना बनाकर उठ आए। बाहर आकर बात करने लगे- सेठ हमारे साथ सौदेबाजी कर रहा है। शायद वह पैसा तो दे देगा, पर उसके बल पर हमें खरीदना चाहता है। यदि भगवान का मन्दिर पैसे वाले का मन्दिर बन गया तो हमारे लिए इससे बढ़कर लज्जा की बात और क्या होगी? पर पैसे के बिना मन्दिर कैसे बनेगा? एक सदस्य ने पूछा। समिति के अर्थमंत्री ने जो एक्साइज आफिस में हेडक्लर्क भी थे, कहा - आप में दम है, तो पैसे के बिना कोई कार्य नहीं रुक सकता। हाँ, यह बात ठीक है कि पैसा आखिर वहीं से पायेगा, जहां वह है। अतः जिसका जितना सामर्थ्य है, वह दिल खोलकर पैसा दे। जो पैसा न दे सके, वह श्रमदान करे। उसके बाद भी पैसे की आवश्यकता रहेगी, तो मैं लाऊंगा। सदस्य---- आप कहां से लायेंगे ? अर्थमंत्री--कहीं से लाऊं, पर इसकी जिम्मेदारी मैं लेता हूँ। आप जानते हैं, हमारे हाथों से रोज़ लाखों रुपये निकलते हैं। अत: मुझे पैसा बड़ा नहीं लगता, पर उस घमंडी बनिये को यह दिखा देना है कि उसके बिना कोई काम रुका नहीं रह सकता ! धर्म के साथ सौदेबाजी नहीं चल सकती। सदस्य--तो फिर आप कोई छोटा देहरा खड़ा कर दो। थोड़े पैसे में काम चल जाएगा। बड़ी योजना के लिए बड़े पैसे की आवश्यकता होगी। अर्थमंत्री-तब फिर हमारी बात ही क्या रही ? सदस्य-~-बात ही रहने का सवाल है, तब सेठ की न रही आपकी रह गई। इसमें फर्क क्या पड़ता है ? यह तो धर्म का काम है। इसमें बात वात का कोई सवाल नहीं है। अर्थमंत्री- इसीलिए तो मैं कहता हूँ, मुझे नाम की जरूरत नहीं। भगवान का मन्दिर किसी व्यक्ति-विशेष का मन्दिर नहीं बनना चाहिए। पैसे की भी व्यवस्था मैं क्या करूंगा, भगवान अपने-आप करेंगे, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवशता / ६६ पर उसके लिए हमारा काम नहीं रुकना चाहिए । 1 अर्थमंत्री के पास पैसा तो अधिक नहीं था, पर उसकी बात का इतना भरोसा था कि वह सबके दिल में जंच गई। सब जानते थे कि वह जो कह देता है, उसे करके छोड़ता है । अतः सारे गांव में उत्साह की एक जबरदस्त लहर दौड़ गई। सभी लोगों ने . अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार, बल्कि उससे कुछ ज्यादा ही धन दिया । जो लोग आर्थिक सहयोग करने की स्थिति में नहीं थे, उन्होंने श्रमदान करना शुरू कर दिया। सभी लोग अनुभव कर रहे थे, जैसे यह उनका अपना घर ही बन रहा है । बड़ेबूढ़े और सम्पन्न लोग भी श्रमदान कर अपने-आप को पुण्यशाली मान रहे थे । एक बुढ़िया तो पत्थर ढोते हुए गिरकर मर भी गई, पर किसी ने उसके प्रति दुःख प्रकट नहीं किया। सभी लोगों ने यही कहा कि वह बहुत भाग्यशालिनी थी, जो उसकी हड्डी मन्दिर की नींव में काम आयी । किसी की मजदूरी का तो कोई प्रश्न ही नहीं था । केवल बाहर से जो कारीगर आये थे, उनकी मजदूरी चुकानी पड़ती थी। आर्थिक सहयोग भी अपने आप जुटता जा रहा था । न जाने कहां से पैसा आता ? किसी बात की कमी नहीं अनुभव हो रही थी । सभी का एक ही स्वर था कि मन्दिर शानदार बने । इतना शानदार कि आसपास के लोग उसे देखने के लिए आएं । समुद्र के सामने एक ऊंचे टीले पर जोरों से काम चल रहा था । और अब तो पूर्व योजना में भी बहुत अंतर आ गया था । पहले की अपेक्षा अब आगे बढ़ गई थी, फिर भी काम दिन दूना और चल रहा था । वह दुगुनी से रात चौगुना सेठ की कल्पना थी कि गांव के लोग उसके पास आकर नाक रगड़ेंगे । वे बड़े अहसान के साथ अपना नाम मन्दिर के साथ जोड़ेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ । कोई आदमी उसके पास चन्दा मांगने के लिए भी नहीं आया। हां एक दिन एक्साइज ऑफिस की ओर से पत्र अवश्य मिला। उस में उनके गुप्त व्यवसाय के बारे Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० / नए मंदिर : नए पुजारी में पूछताछ की गई थी। उसे पढ़कर सेटजी के तो होश गुम हो गए। अब तो उन्हें स्वयं मन्दिर निर्माण समिति के अर्थमंत्री के घर जाना पड़ा । अर्थमंत्री ने कहा-सेठजी ! यह काम तो हजारों में नहीं, लाखों में निपटेगा । बदनामी होगी, वह अलग। अतः आप संभल जाइए। सेठजी ने गिड़गिड़ाकर कहा-इसीलिए तुम्हारे पास शाया हूं। यह काम तुम्हारे विभाग का है, किसी तरह मेरी मुक्ति करा दो। इसके बदले में तुम जो भी मांगोगे, वह दूगां । अर्थमंत्री ने सेठजी को झिटकते हुए कहासेठजी ! आपको यह कहते हुए शर्म नहीं आती ! मेरे लिए पाप का पैसा धूल के बराबर है । सेठजी ने संभलते हुए कहा-नहींनहीं, मेरा आशय वह था कि मैं मन्दिर में तुम कहो उतना पैसा लगा दूँगा। अर्थमंत्र--पर मन्दिर का काम तो अच्छी तरह चल रहा है। सेठजी ----चल रहा है तो उसे और वढाना, पर मेरी मुक्ति करानी होगी। काफी अनुनय-विनय के बाद आखिर चालिस हजार में सौदा पटा । उस पर सेठजी ने कहा--तुम इस पैसे की चर्चा किसी के पास मत करना । तुम मेरा यह काम निकाल दो मैं तुम्हारा अहसान मानूंगा । अर्थमंत्री मन ही मन अपनी योजना की सफलता से खुश होकर सोच रहा था कि क्या अनेक मन्दिरों की नींवों में ऐसा ही कुछ विवश दान नहीं छिपा हुआ है ? Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरीबी हटाओ किशन चमार बेहद गरीब था। उसके पास बहुत थोड़ी सी जमीन थी उसी पर खेती कर वह अपने परिवार का गुजारा किया करता था । एक दिन वह सेठ चन्दूलाल के घर आया । सौभाग्य से सेठ जी घर पर ही मिल गए । उन्होंने बड़ी आत्मीयता से पूछा- 'क्यों किशन ! आज कैसे आ गये हो? किशन ने हाथ जोड़ते हुए कहा-~-मालिक ! आया तो कुछ काम से ही था। बहुत अच्छा-सेठजी ने कहा, समय पर तुम लोग मुझे याद कर लेते हो । भगवान् की मेरे पर बड़ी कृपा है । बोलो क्या काम है ?, किशन ने झिझकते हुए चाँदी के कड़े अपनी फटी हुई अंगरखी की जेब से निकालते हुए कहा --- 'मैंने रामदेव जी बोलमा बोली हुई हैं। कल उनका प्रसाद करना है । अत: कुछ पैसों की आवश्यकता है।' सेठजी ने बड़ी मधुरता से पूछा- कितने पैसे चाहिए ?' किशन- 'सौ रुपये की आवश्यकता है। ये कड़े आप रख लीजिए और मुझे रुपए दे दीजिए।' ___ सेठजी- उलाहना देते, हुए किशन ! तू अपना आदमी है, पर लगता है कि तुमने मुझे समझा नहीं । तुम्हारा और मेरा धर कोई अलग-अलग थोड़े ही है ! रामदेव जी महाराज का प्रसाद करना है, तो उसका थोड़ासा पुण्य तो मुझे भी कमाने दो। किशन-'मालिक, आपके पुण्य की क्या बात कहूँ ? भगवान् की आप पर अटूट कृपा है जो आपको इतना पैसा दे रखा है। आपके मन में Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ / नए मंदिर : नए पुजारी मेरे जैसे कीड़े के लिए स्थान है, यही मेरे लिए काफी है।' सेठ-'काफी होता, तो तुम ये गहने लेकर नहीं आते। इन्हें वापस ले जाओ । लो सौ रुपये । ठाठ से प्रसाद करना । भगवान् से जरा मेरे लिए भी दुआ मांगना। किशन --- 'सेठजी ! यह नो आपकी कृपा है, पर गहने यहाँ पड़े रहें या वहाँ पड़े रहें, इसमें क्या फरक पड़ता है। कभी मेरी नियत बिगड़ जाए, चोरी हो जाए, और भी न जाने क्या हो जाए, इसलिए इन्हें आप अपने पास ही रखें । यहां ज्यादा सुरक्षित रहेंगे।' सेठजी--'किशन, तू भोला है । मैंने तुझे कभी पराया नहीं समझा। ये रुपए कोई वापस थोड़े ही करने है ? हां, मेरा जरा एक काम कर देना किशन-'क्या काम ? मैं यदि आपके कोई काम आ सक, तो बड़ी प्रसन्नता होगी।' सेठजी-'हां, तुम कर सकते हो, इसीलिए तो कह रहा हूँ । आजकल सरकार कई प्रकार के ऋण दे रही है। ऋण सीमांत कृषकों को सस्ते ब्याज पर दिये जा रहे हैं। उसके अनुसार तीन बीघे से पांच बीघे वाले किसानों को आर्थिक सहायता मिलती है । तुम्हें बैलों की आवश्यकता हो तो बोलो? किशन---'मैं बैलों की जोड़ी का क्या करूगा ?' सेठजी - 'हां-तुम्हें आवश्यकता नहीं उसको पैसा दिया जा रहा है और जिसको पैसे की आवश्यकता है, वे बैठे ताक रहे हैं।' ___किशन --- सेठजी ! आपके ताकने की क्या बात है ? आपको तो भगवान् ने यो ही बहुत दे रखा है।' सेठजी----'पर, 'रावला का तेल पल्ले में ही झेल' सरकार का ऋण व्यर्थ क्यों जाने दिया जाए ? और सरकार भी तो आखिर हमारी ही है। तब फिर उसके द्वारा बांटे जाने वाले पैसों से क्यों मुंह मोड़ा जाए ? तू ऐसा कर, यह फार्म मैं तेरे नाम भरे देता हूं। तू अपना अंगूठा लगा दे। इससे पन्द्रह सौ रुपये मिलेंगे । दस वर्षों में धीरे-धीरे किस्तों पर पैसा चुकाना ' पड़ेगा, सो मैं चुकाता रहूँगा। तुझे कुछ नहीं करना पड़ेगा। केवल बैल लाने के लिए मेले जाना पड़ेगा, तेरे साथ मैं रामेसर को भेज दूगा । दोनों Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरीबी हटाओ / १०३ अच्छी-सी बैलों की जोड़ी चुन लेना । पशुओं का डाक्टर भी वहाँ तुम्हारे साथ होगा । वह जब बैलों को सर्टिफाई कर देगा, तो वहीं बैंक का आदमी पैसा चुका देगा । बैल मेरे यहाँ बाँध जाना । धीरे-धीरे किस्तों से पैसा चुका दूंगा । कभी तेरे दस्तखतों की आवश्यकता हुई तो अंगूठा करवा लूंगा ।' किशन को इसमें कोई बुरी बात नहीं लगी । वह सोचने लगा-' - 'मुझे बैलों की जरूरत नहीं है । सेठजी को जरूरत है । इनको कोई फायदा होता है तो होने दो, अपना क्या लगता है।' एक बार उसके मन में संदेह भी उभरा 'कहीं सेठजी मेरे साथ चार सौ बीसी तो नहीं खेल रहे हैं ?' पर दूसरे ही क्षण उसने विचार किया 'सेठजी मुझसे कितने प्र ेम से बात कर रहे हैं। क्या वे मुझे धोखा देंगे ? और फिर उसका ध्यान अपने हाथ में कुलबुला रहे सौ रुपयों की ओर गया । सेठजी लाभ कमाते हैं तो कमाने दो आखिर मुझे भी तो ये सौ रुपये दे रहे हैं । अपना कौनसे काँटों में हाथ जा रहा है ।' और अन्त में उसने फार्म पर अंगूठे का निशान लगा दिया । सेठजी ने उसे पानी पिलाया । बीड़ी भी पिलाई। हर तरह से आरवस्त किया। कहा 'कभी जरूरत पड़े, तो मुझे भूलना मत । इसे अपना ही घर समझना । हम तो तुम्हीं लोगों से कमा कर खाते है । तुम्ही हमारे अन्नदाता हो । हां, इन सौ रुपये की बात किसी से कहना मत। यह मेरी ओर से भगवान के नाम पर गुप्तदान है । किसी को कह दिया, तो मेरा पुण्य नष्ट हो जाएगा ।' किशन तो जैसे पानी-पानी हो गया । उसने चांदी के कड़े, सौ रुपये अपनी जेब में रख लिए और अपने घर लौट आया। घर में अब बड़ी खुशियां मनाई गयी । यार-दोस्तों ने किशन से पूछा - 'रुपए कहां से लाये ?' पर वह प्रश्न को विलकुल टाल गया । बोला- 'भगवान् की कृपा हो तो पैसे की क्या कमी रहती हैं । तुम्हारी भाभी ने जमा कर रखा था । किसी ने कहा - ' औरत कितनी चतुर है कि चुपके-चुपके पैसे बचा लिए ।' किसी ने कहा - 'औरत कितनी बदमाश है कि छिपे-छिपे पैसा जमा कर लिया ।' पर सब प्रसाद पाकर मस्त हो गये । किशन की मस्ती Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ / नए मंदिर : नए पुजारी का तो कोई पार ही नहीं था। कुछ दिनों बाद वह रामेसर के साथ जाकर मेले में से एक अच्छी बैलों की जोड़ी खरीद लाया और उसे सेठजी के बाड़े में बाँध दिया। धीरे-धीरे समय निकलता गया। कानूनी खानापूति करना तो सेठजी जानते ही थे, बल्कि वे स्वयं गांव के सरपंच थे। कानून के सारे रास्ते तो उनके घर से होकर निकलते थे । अतः सेठजी को कोई परेशानी नहीं हुई। उन्होंने दो किश्तों के रुपये भी भर दिए । उनके मन में धोखा करने की कोई बात नहीं थी। वे तो केवल यही चहाते थे कि पन्द्रह सौ रुपयों में पांच सौ अनावर्तक है, वे तो अपने हो ही जाएंगे। शेष हजार रुपए भी सस्ते ब्याज पर मिल रहे हैं। और फिर उन्होंने यह भी सोचा कि पन्द्रह सौ के बैलों को खिला-पिला कर दो हजार में बेच देंगे तो पाँच सौ रुपए वे भी चित हो जायेगे । अतः वे भी बहुत प्रसन्न थे। पर विधि का विधान कुछ दूसरा ही था । अचानक कुछ दिनों के बाद सेठजी का. देहान्त हो गया। पीछे से किश्तें नहीं चुकाई गई । अतः सरकार की ओर से किशन के नाम किश्तें चुकाने का नोटिस आया । वह उसे देखकर दंग रह गया। भला सरकार से उसका क्या लेना देना ! सारी बात जान लेने पर वह नोटिस लेकर सेठजी के पुत्रों के पास गया। उन्होंने उत्तर दे दियाहमें इस बात का कोई पता नहीं। सेठजी ने हमें इस विषय में कुछ नहीं बताया ।'किशन उनके सामने रोया धोया। सारी बात विस्तार से बताई, पर सेठजी के बेटे टस से मस नहीं हुए। उन्होंने कहा -- नोटिस तुम्हारे नाम है तुम जानो और नोटिस जाने। हम इस मामले में कुछ नहीं कर सकते । तुम्हें कोई काम करना था तो लिखा-पढ़ी के हिसाब से करना था। हमारे यहाँ तुम्हारी कोई लिखा-पढ़ी नहीं है।' किशन निराश हो कर लौट आया। सोचा--जब सरकार के आदमी आएंगे तो भंडाफोड़ कर दूंगा । कुछ दिन यो ही बीत गये। सरकार का फिर नोटिस आया। उसने उस पर भी कोई कार्रवाई नहीं की । आखिर बैंक की ओर से कुर्की का आदेश हुआ । सरकार के आदमी पुलिस को लेकर उसके मकान पर आए । किशन तो उन्हें देख कर हक्का-बक्का रह गया। आखिर सारा भेद मालूम हुआ तो उसने कहा--'मैंने तो बैल Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरीबी हटाओ | १०५ खरीदे नहीं।' सरकारी अफसर ने कहा-'खरीदे नहीं तो यह अगूठा किसका है ! और ये दो किस्तें किसने चुकाई हैं ! ___ अंत में किशन ने सेठजी का सारा भंडाफोड़ करते हुए कहा-'बैल तो सेठजी के बाड़े में बंधे हैं। सरकारी अधिकारियों को दाल में कुछ काला लगा तो वे सेठजी के पुत्रों के पास गए । सेठजी के पुत्रों ने बात को आगे न बढ़ाने की दृष्टि से उनकी जेब गरम कर दी । उनका राजनीति को दृष्टि से इस क्षेत्र में प्रभाव भी था । स्थानीय एम.एल.ए. से तो उनकी रिश्तेदारी भी थी । अतः सरकारी अधिकारी उन से दब गए। गांव के अन्य लोग भी कुछ नहीं कर सके, क्योंकि पिछले चुनाव में गांव में भंयकर फूट पड़ गई थी, अत: किशन का पक्ष लेकर अपने को जलील बनाने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ । अंत में अधिकारियों ने अपने रुपये वसूल करने लिए किशन के घर को निलाम कर दिया। उसका सामान बाहर निकाल दिया गया। वह अपनी गीली आखों से अपने घर के सामने खड़ा दीवार पर लगे 'गरीबी हटाओ के पोस्टर को देख रहा था। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिसा की तस्वीर : अहिंसा का फ्रेम उस दिन मैं एक बहुत बड़े सेठ के घर मेहमान था । उसका कई जगह व्यापार चलता था। जिस कमरे में मुझे ठहराया गया वह बहुत अच्छी तरह से सजाया हुआ था । आधुनिक सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण उस कमरे में एक और सेल्फ पर भगवान् बुद्ध की करुणापूरित मूर्ति रखी हई थी, तो दूसरी ओर गीता हाथ में लिये हुए महात्मा गांधी का चित्र था। मैं सोच रहा था कि एक जैन परिवार होते हुए भी यहां भगवान महावीर की तसवीर क्यों नहीं है ? शायद महावीर की तसवीर लगाने में मूर्तिपूजा का सूक्ष्म खतरा अनुभव किया होगा । पर बुद्ध और गांधी के साथ मूर्ति पूजा का कोई खतरा नहीं है तो वह अकेले महावीर के साथ कैसे हो सकता है ! मैं इस विषय में अपने मन में विचार कर ही रहा था कि इतने में पिछले दरवाजे से 'खड़िया मिट्टी ले लो', 'खड़िया मिट्टी ले लो' की आवाज़ आई। निश्चय ही उस आवाज़ से यह पहचाना जा सकता था कि यह किसी वृद्ध महिला के कंठों से निकलता हुआ स्वर है। पर मैंने सजगतापूर्वक उस पर ध्यान नहीं दिया। दूसरी बार फिर आवाज़ आई और बड़ी-बड़ी दीवारों से टकराकर खो गयी। किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया । ___कोठी के प्रांगन का दरवाजा बिलकुल गली में खुलता था। वह जमीन से ज्यादा ऊंचा भी नहीं था। अत: बुढ़िया आंगन के दरवाजे तक चढ गयी और अपने पोपले मुंह से फिर मिट्टी खरीदने की आवाज़ देने लगी। अब वह मेरी दृष्टि के बिलकुल सामने थी। उसका चेहरा झुरियों से भरा हुआ था। कमर झुक गयी थी। कपड़े मैले तथा जगह-जगह से फटे हुए Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा की तस्वीर : अहिंसा का फ्रेम | १०७ थे। हाथ में एक टूटी हुई लकड़ी थी । उसी के सहारे धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए सिर पर खड़िया मिट्टी का बर्तन रखे वह आँगन की देहरी तक ऊपर चढ़ आई थी। छाया में खड़ी होकर उसने अपना पसीना पोंछा। ___एक मिनट के लिए मेरे मन में प्रश्न उठा--संगमरमर के इस महल में आखिर खड़िया मिट्टी की क्या आवश्यकता होगी? पर दूसरे ही क्षण इसका समाधान भी मिल गया। राजस्थान के आम रिवाज़ के अनुसार दीपावली के अवसर पर मकान के कुछ हिस्से को मिट्टी से पोतकर उस पर हिरमिच से भांति-भांति के चित्र उकेरे जाते हैं। हालांकि गोबर से लिपे मकानों के फर्श पर वे चित्र ज्यादा खिलते हैं, पर फिर भी परम्परा के अनुसार हर घर में उस प्रथा को निभाया जाता है । चूंकि अब दीपावली निकट आ गयी थी, इसीलिए बुढ़िया मिट्टी लेकर उसे बेचने निकली थी। भले ही साग घी और मसालों से स्वादिष्ट बनता है, पर उसमें नमक का भी अपना एक स्थान है । उसी प्रकार सेठ जी के इस देवोपम मकान में खड़िया मिट्टी का भी अपना एक उपयोग था। इसी आशा से बुढ़िया वहाँ पहुँची। न जाने उसके कितने अरमान जमी हुई मिट्टी की तहों के बीच कुलबुला रहे थे । शायद लक्ष्मी-पूजा के लिए सामग्री जुटाने हेतु ही वह इतना कठिन परिश्रम कर रही । न जाने इसने कितनी बार लक्ष्मी की पूजा की होगी, फिर भी अभी तक लक्ष्मी इस पर प्रसन्न नहीं हई। देश का दुर्भाग्य है कि कहीं सदा दीपावली मनायी जाती है, तो कहीं दीपावली के दिन भी मिठाई हाथ नहीं आती। मैं इस विचार-प्रवाह में बहा जा रहा था कि इतने में एक नौकरानी उधर आ निकली। आंगन की देहरी पर बुढ़िया को खड़ी देखकर उसे एकदम गुस्सा हो पाया। गरजती हुई बोली-“अरे चोटी! ऊपर क्यों आई ?” बुढ़िया ने गिड़गिड़ाते स्वर में कहा - "बाई जी ! दीपावली के दिन हैं, जरूरत हो तो थोड़ी मिट्टी ले लीजिए।" उसके स्वरों में व्यापारिक कौशल न होकर एक दीन याचना थी। मैंने देखा, भूख ने उसके स्वाभिमान को ही मार दिया । पर, भला सेठजी की नौकरानी को यह उत्तर कहां से पचता ? वह और भी तेज होकर बोली-नीचे उतरती है कि नहीं ? देती हूं धक्का ! आयी है मिट्टी बेचने कहीं ? आँगन सूना Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ / नए मंदिर : नए पुजारी देखकर चोरी करने तो नहीं आयी ? बुढ़िया ने उस आरोप का कोई प्रतिकार नहीं किया। वह इस आरोप से हतप्रभ हो गयी। इतने में नौकरानी ने उसे धक्का दिया और वह नीचे जा गिरी। उसके शरीर में गहरी चोट आई, पर वह 'कुछ नहीं बोली। धीरे-धीरे उठी और आगे बढ़ गयी। यद्यपि आस-पास में कई लोग खड़े थे, पर मोटी कोठी वाले सेटजी की नौकरानी के विरुद्ध कोई मुंह नहीं खोल सका। मैंने भी एक सभ्य मेहमान के नाते उस नौकरानी से उलझना उचित नहीं समभा, फिर भी मुझसे रहा नहीं गया । मैंने नौकरानी से कहा-- "तुम्हारे पास क्या प्रमाण है, जिसके आधार पर तुमने बुढ़िया को चोर कहा !" उसने उत्तर दिया--बाबू जी ! आप इन बातों को नहीं समझ सकते । आप लोग ऊंचे महलों में बैठे रहते हैं । जन सामान्य की हरकतों का आपको कोई पता नहीं रहता। हमारा इनसे सदा पाला पड़ता हैं, इसलिए हम इनके चेहरों को पहचान सकते हैं।" ___मैंने फिर कहा--''यही तो मैं पूछता हूँ, तुमने कैसे पहचाना कि वह चोर थी !" ___ नौकरानी ने मुझे एक तीखी दृष्टि से देखकर कहा--"तो आपने नहीं देखा । धक्का खाकर भी वह कुछ नहीं बोली। चोर नहीं होती तो क्या वह चुप रहती ? अपराधी मन प्रतिकार करने का साहस खो देता ___ मैं उसके तर्क से दबा तो नहीं, फिर भी मैंने मानवीय पक्ष को छोड़ कर कानूनी पक्ष पर बात करते हुए कहा--"यदि तुम्हें उसके चोर होने का सन्देह था तो तुम थाने में उसे पकड़वा सकती थीं, पर इस तरह किसी व्यक्ति को धक्का दे देना अन्याय है। इस पर कानूनी कार्यवाही की जा सकती है।" ___इस बार नौकरानी ने अपने चेहरे का रंग बदलकर तुनककर कहातो आप यहाँ कानूनी कार्यवाही करने के लिए आए हैं ?" इतना कहकर वह जल्दी से मेरी आंखों से ओझल हो गयी। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा की तस्वीर : अहिंसा का फेम | १०६ फिर मेरा ध्यान सेल्फ पर रखी भगवान बुद्ध की मूर्ति और दीवार पर टंगी महात्मा गांधी की तसवीर की ओर चला गया। मैंने सोचा, यह अच्छा ही हुआ कि इस निघृण हिंसा का साक्ष्य होने के लिए परम अहिंसक "भगवान महावीर की तसवीर यहाँ नहीं है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्वजनिक जीवन हैड मास्टर साहब ने आज ही स्कूल का दायित्व संभाला था। बिल्कुल टूटा-फूटा भवन, अव्यवस्थित सामान, उखड़े हुए अध्यापक, उछृंखल लड़के, रूखे ग्रामवासी। उन्हें एक क्षण के लिए लगा, क्यों मैंने एम० एल० ए० साहब से लड़ाई मोल ली ? अच्छे गाँव में अच्छी तरह जमा हुआ था । मैंने ही तो जमाया था उस स्कूल को, पर केवल एम० एल० ए० साहब के लड़के को अवैध तरीके से नवीं कक्षा से उत्तीर्ण नहीं किया, उसका यह परिणाम भुगतना पड़ रहा है । स्थानान्तरण हो गया, इसका भी कोई दुःख नहीं । दुःख है तो केवल इसी बात का कि मैं झूठे गबन के आरोप से लाँछित हुआ । भगवान जानता हैं मेरी गलती नहीं थी, पर बड़ा चतुर है वह एम० एल० ए० । सारे गाँव को भड़का दिया । लड़कों को उकसाया और शिक्षकों को फोड़ लिया। खैर जो होना था, वह हो गया, पर एक अध्या-पक के नाते मेरा यह धर्म है कि मैं जहाँ भी जाऊं, समाज की भलाई करूं । सरकार मुझे तनख्वाह देती है, उसके बदले में मैं स्कूल में सेवा करता हूं । समाज का भी मुझ पर ऋण है, अतः मुझे स्कूल को अच्छी तरह जमाना है । I 1 कुछ दिनों बाद स्कूल जम गया । लड़के ढंग से बात करने लगे । शिक्षक समय पर आने और ईमानदारी से काम करने लगे । हेड मास्टर साहब ने एक दिन गाँव के लोगों को इकट्ठा किया । सबका ध्यान स्कूल के भवन की ओर खींचा। भला स्कूल का भवन अच्छा बने, इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी ! अतः सभी लोग इस प्रस्ताव से बड़े प्रसन्न हुए, पर गाँव के सेठजी ने सोचा कि कहीं बात मेरे पर न आ जाए । अतः उसे टर Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्वजनिक जीवन / १११ काने की दृष्टि से उन्होंने कहा "भवन बने यह तो अच्छा है, पर पैसा कहाँ से आएगा ?" हेड मास्टर साहब ने कहा - ''वैसे पैसा तो वहीं से आएगा, जहां वह है। मेरे जैसे व्यक्ति तो पैसा दे नहीं सकते, फिर भी हम गांव को बाध्य नहीं करेंगे । जो जितना देगा. उतना सहर्ष स्वीकार कर लेंगे । यदि पैसा कम हुआ तो चंदा करने के लिए बाहर जाएंगे। आखिर इसमें किसी व्यक्ति विशेष का तो स्वार्थ है नहीं, यह तो सारे गांव की भलाई का सवाल है । लोगों को हमारे काम पर विश्वास हो जाएगा तो पैसे की कमी नहीं रहेगी।" सेठजी को तो आश्वासन मिल गया, पर सरपंच के मन में संदेह उभरने लगा। अक्सर आदमी के मन में वही संदेह उभरता है, जिसमें से वह स्वयं गुजरता है। अतः सरपंच ने सोचा-यहाँ पहले भी कई हेड मास्टर आ चुके हैं। किसी ने भी स्कूल के भवन में इतनी दिलचस्पी नहीं ली। यह हेड मास्टर इतनी दिलचस्पी दिखाता है, इसका कोई कारण होना चाहिए । शायद यह भी बीच में कुछ हाथ सेंकना चहता होगा। पिछले गांव से इसी मामले में बदनाम होकर आया है । अत: इससे सावधान रहने की आवश्यकता है । इसीलिए उसने भी से पन मिलने की कठिनाई को दोहराया। पर गाँव का बहुमत पक्ष में था, अत: चंदा हुआ । उससे काम चलने वाला नहीं था । अतः हेड मास्टर साहक, सेटजी और सरपंच .. तीन आदमियों की एक समिति इस कार्य के लिए नियुक्त की गयी । हेड मास्टर साहब उसके मुखिया थे। वे होशियार तो थे ही साथ ही कुछ कर गुजरने की क्षमता भी रखते थे। अत: उचित समय पर स्कूल से छुट्टी लेकर दोनों व्यक्तियों के साथ चंदा लाने के लिए बाहर निकल पड़े। सचमुच लोगों से पैसा निकलवाना बड़ा कठिन काम है, पर हेड मास्टर साहब के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर पन्द्रह दिनों में बीस हजार रुपये दरठे हो गए ' सरपंच को यह बात जरा अखरी, क्योंकि उसकी अपनी बात झूठी होती जा रही थी। एक-दो जगह उसने चंदा देने वालों को गुमराह करने की कोशिश भी की, पर हेड मास्टर के सामने उसकी एक Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ / नए मंदिर : नए पुजारी नहीं चल सकी । अब तो सरपंच के लिए हेड मास्टर को बदनाम कराना और भी आवश्यक हो गया। चंदे का सारा पैसा हेड मास्टर के पास ही था। उनका हिसाब-किताब इतना साफ था कि उसमें उन्हें बदनाम करने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी । फिर भी सेठजी को भड़काने के लिए उसने हेड मास्टर साहब की पिछली बदनामी का जिक्र किया। सेठजी भी होशियार थे । अतः उन्होंने सोचा - चलो, हेड मास्टर और सरपंच दोनों की ही परीक्षा कर लें । इसी उद्व ेश्य से उन्होंने एक दिन अवसर देखकर हेडमास्टर साहबकी जेब में से हजार रुपये निकाल लिए। फिर सरपंच से कहा " आपका अनुमान ठीक निकला । हैडमास्टर साहब ने हज़ार रुपये मुझे दिए हैं, हज़ार रुपए खुद लेंगे और ये हज़ार रुपए आप लीजिए । तीन हज़ार रुपयों की चोरी की घोषणा करनी पड़ेगी । चलो, अपने को भी इस दौड़धूप का कुछ पारिश्रमिक मिल जाएगा ।' 47 सरपंच ने अपनी बात की पुष्टि करते हुए कहा'मैंने आपसे पहले ही कहा था । खैर, आपकी बात को मैं कैसे टाल सकता हूं ?" यह कहते हुए उसने रुपए अपनी जेब के हवाले किए । घर लौटते समय उसके पास काफी सामान हो गया था । गांव में पहुँचने पर सरपंच को बड़ा आश्चर्य हुआ, जब हेड मास्टर साहब ने बीस हजार रुपयों के चंदे की घोषणा की। उसने सेठजी की ओर अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा तो वे बोले- -"अभी नाटक समाप्त थोड़े हो गया है ? अभी तो कई दृश्य सामने आयेंगे । चुपचाप देखते रहो ।" घर आकर हेड मास्टर साहब ने रुपए गिने तो एक हज़ार रुपए कम निकले । उनका सिर ठनक गया । सोचने लगे, अब बदनाम होने में कोई कसर नहीं रहेगी । पहले वाली बात भी सत्य साबित हो जाएगी, पर अब क्या किया जा सकता था ? परिस्थिति बड़ी जटिल थी, पर हेड मास्टर साहब ने धैर्य नहीं खोया । उन्होंने सारी बात अपनी पत्नी से कही । पत्नी ने उसी समय अपना हार निकालते हुए कहा - "हार बाद में हैं इज्जत पहले है । इज्जत रहेगी तो हार के बिना भी काम चल जाएगा। इज्जत नहीं रहेगी, तो यह भी चुभने लगेगा | अतः आप इसे बेचकर रुपयों का पूरा हिसाब सेठजी को दे दीजिए । " Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्वजनिक जीवन / ११३ हेड मास्टर को यह अच्छा तो नहीं लगा, पर इसके सिवा और कोई विकल्प भी तो नहीं था । अतः उन्होंने सोचा-चलो अपनी ओर से स्कूल को हज़ार रुपए का गुप्तदान ही सही। और वे उसी वक्त हार लेकर सेठजी के पास आए। सेठजी ने हार देखकर कहा--- "यह क्या ?" हेड मास्टर साहब ने कहा- "मुझे इसी समय रुपयों की आवश्यकता है। आप उचित दाम लगाकर यह हार खरीद लीजिए।" सेठजी सारी बात समझ तो गए थे, पर फिर भी उन्होंने हेड मास्टर साहब से सारी बात कहलवाई । सेठजी ने देखा, हैडमास्टर साहब के चेहरे पर एक उदासी तो आई, पर उनके शब्दों में दृढ़ता थी। वे बार-बार कह रहे थे, "रुपए चले गए पर मुझे अपना विश्वास नहीं गंवाना है।" सेठजी ने कहा--"तो इसमें आपको पैसे भुगतने की क्या बात है, आखिर कार्यकर्ता परमेश्वर तो नहीं है। रुपए चले गए तो चोरी की बात कहकर मामला समाप्त कर देंगे।" पर हैडमास्टर साहब करीब-करीब चीखकर बोले--- “नहीं, ऐसा नाम भी मत लीजिए । जो कुछ हो गया उसे भूल जाइए और यह हार आप खरीद लीजिए।" | __सेठजी ने हैड मास्टर साहब का यह त्याग देखा तो अपने पर लज्जित होने लगे। सोचने लगे-."मैं पैसेवाला होकर भी पैसे के लिए रोता हूँ और यह व्यक्ति कितना ईमानदार है कि चोरी चले गए रुपयों के बदले भी अपना हार दे रहा है।' उसी समय सेठजी ने सरपंच को बुलाया और सारा रहस्य प्रकट करते हुए कहा - "हेड मास्टर साहब तो आग में तप कर खरे सोने की तरह निकल गए। अब बताइए, आप सीधे रुपए देते हैं या गांव को इकट्ठा करना पड़ेगा ?" सरपंच के सामने और कोई विकल्प नहीं था; क्योंकि बात इतनी स्पष्ट और नियोजित ढंग से की गई थी कि आखिर सरपंच को वे हज़ार रुपये उगलने पड़े । सेठजी ने उसे डांटते हुए आगे ऐसा काम नहीं करने की प्रतिज्ञा करवाई । दूसरे दिन मारे गांव की मीटिंग बुलाई गई । सेठजी ने अपने दौरे का विवरण देते हुए बताया कि हेड मास्टर साहब ने आपको बीस हजार रुपए चंदे की बात बताई थी, पर मैं आपको सूचना देता हूं कि अब वह रकम Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ / नए मंदिर : नए पुजारी इक्कीस हजार रुपए हो गई है । एक हजार रुपया मैं हेड मास्टर साहब के नाम अपनी ओर से दे रहा हूं । यदि आवश्यकता हुई तो मैं चंदे में पीछे नहीं रहूंगा । हेड मास्टर साहब से यही आशा करता हूँ कि वे हमारे गांव की भलाई के लिए हमारा नेतृत्व करते रहेंगे । O Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा फलेषु कदाचन मैं लंदे समय से संतोष को यह समझाने का असफल प्रयास कर रहा था कि कर्म को अच्छे और बुरे में मत बाँटो। अस्तित्व की ब्याख्या केवल इतनी ही हो सकती है कि वह है । इसके अतिरिक्त उसकी खूटी पर भले और बुरे के वस्त्र टाँकना केवल हमारी आरोपित मान्यताएं हैं। पर संतोष को मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा था। वह अक्सर मुझे तर्क दिया करता था कि अच्छे बीज का फल अच्छा ही होगा इसमें क्या संदेह है ? मैं उसे कहता-उदाहरणों में सत्य का प्रतिबिम्ब मत देखो। वह कभी सही भी निकल सकता है और कभी गलत भी। पर सच बात यह थी कि मैं स्वयं भी अपने तर्क के बल पर अपने को उस पर लादने की कोशिश कर रहा था। जिस तर्क से मैं उसको काट रहा हूँ उसी तर्क से क्या मैं अपने आपको नहीं काट रहा हूँ यह आभास मुझे हुआ करता था। इसीलिए कुछ दिनों से मैंने उसे कुछ भी समझाना छोड़ दिया था। मैं सोचने लगा था कि सत्य की व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है । कभी वह अपने आप प्रकाशित हो जाता है । और सच तो यह है कि सत्य के बारे में निश्चित धारणा बना लेना ही संभव नहीं है। __लम्बे समय के बाद कल संतोष मेरे पास आया और बोला - तुम जो कहते थे,बह सच निकला । कार्यको किसी निश्चित परिणाम में देखना मेरी भूल थी। क्रिया की परिणति प्रतिक्रिया में तो होती है पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह परिणति भली ही होगी या बुरी ही । हम जिस अच्छे परिणाम की आशा से कोई काम करते हैं, वह बहुत बार बुरे परिणाम में बदल सकता है। इसी प्रकार कभी-कभी बुरे परिणाम में से भी भलाई में निकल सकती Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ / नए मन्दिर : नए पुजारी है। असल में अच्छा और बुरा कुछ नहीं होता। यह केवल हमारा भ्रम है । मैंने उससे पूछा-आज अचानक तुम्हें यह सम्यक्त कैसे मिल गया ? रोज तो तुम मुझसे इस बात पर बहस किया करते थे। उसने कहा -- आज प्रातःकाल मैं शोच-निवृत्ति के लिए जंगल जा रहा था। रात-भर की गर्मी के बाद ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। इतने में साढ़े तीन हाथ का 'एक काला भुजंग मेरी दायीं ओर से निकलकर बायीं ओर घास के ढेर में घुस गया। एक क्षण के लिए मैं स्तंभित रह गया। मुझे लगा, जैसे मेरे सामने से साक्षात् मृत्यु का जुलूस निकल गया है। मेरे कदम बड़े संभलसंभलकर पड़ रहे थे। एक क्षण पहले मैं जिस उन्मुक्तता से चल रहा था, वह अब संदेहों से भर गयी थी। अब मुझे हर झाड़ी से साँप की सरसराहट सुनाई दे रही थी; वल्कि मुझे लग रहा था कि जैसे आकाश से भी साँप झर रहे हैं। फिर भी मैं साँप के चलने से बनी टेढ़ी-मेढ़ी लकीर की लांघ कर आगे बढ़ गया। यद्यपि मैं तेजी से आगे जा रहा था, पर मेरा ध्यान बराबर पीछे रहे घास के ढेर की ओर ही मुड़ रहा था। थोड़ी दूर आगे जाकर मैं शौच से निवृत्त होकर लौट आया । अब भी तरह-तरह की आशंकाएं मेरे मन में उमर रही थीं। इतने में मैं देखता हूं एक नवयुवती हाथ में एक टोकरी लेकर बेधड़क उसी घास की ढेरी की ओर आ रही है, जिसमें वह साँप छिपकर बैठा था। अचानक मेरे सामने जैसे बिजली कौंध गयी। मुझे लगा कि बस अभी साँप निकला और इस युवती को काटा। न जाने इसकी आँखों में कितने सपने तैर रहे होंगे। न जाने इसने क्या-क्या योजनाएं बना रखी होंगी, पर अगले क्षण वह सारी ताश के पत्तों से बने महल की भांति ढह जाएंगी। एक क्षण के लिए मुझे यह भी लगा कि हमारे जीवन में अज्ञान की भी कितनी आवश्यकता है। यदि हम हर क्षण तमाम परिवेश से परिचित रहें तो शायद एक क्षण के लिए भी भय से मुक्त न हो सकें। न जाने मृत्यु हम पर कितने हाथों से प्रहार कर रही है। हम उन सब प्रहारों से जानकार नहीं है । यदि जानकार होते तो त जाने अपने चारों ओर हमें कितने साँप लहराते नजर आते । और अचानक मेरे मुँह से करुणा का स्रोत फ़ट पड़ा - अरे जरा संभलना । अभी-अभी एक साँप इस घास की ढेरी में घुसा है। उसने संदेह Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा फलेषु कदाचन | ११७ मिश्रित आश्चर्य से एक बार मेरी ओर देखा और फिर घास की ढेरी की ओर देखा । बिना किसी प्रयत्न के उसे सोप के रेंगने से तत्काल बनी टेढ़ी -- मेढ़ी रेखा दिखाई दे गयी । अब उसे विश्वास हो गया कि सांप अभी-अभी: ढेर के अन्दर घुसा है । अच्छा होता, मेरी बात सुनकर वह लौट जाती या ढेरी के दूसरे किनारे से घास लेकर चली जाती, पर होनहार कुछ और ही थी । युवती के मन में साहस मिश्रित कुतूहल की एक लहर उठी और उसने उसी जगह जेवा को घास में घुसेड़ा, जहाँ सांप छिपा बैठा था। मैंने उसे बहुत मना किया कि ऐसा मत करो, सांप किसी का दोस्त नहीं होता । उसका तो बच्चा भी खराब होता है । फिर यह तो मोटा-ताजा काला भुजंग है, पर युवती ने मेरी बात नहीं मानी । वह मेरी संदेहासिक्त कायरता पर मुसकराई और बोली क्या सांप मुझे काटने के लिए ही बैठा है ? मैंने बहुत सांप खिलाएं हैं । हम बनिया नहीं, किसान हैं। हम ऐसे खतरों से नहीं डरते । मुझे उसके कोमल चेहरे ने फिर दयार्द्र किया । और मैं फिर गिड़गिड़ाया- अरे ! जाने भी दो । क्यों जानबूझकर मौत के मुह में हाथ डालती हो ? पर वह तो मानी ही नहीं । उसने बलपूर्वक जेवा को घास की ढेरी में घुसेड़ा और बड़ी ताकत से ऊपर उठाया । संयोग ऐसा हुआ कि साँप जेवा में उलझ गया। ज्यों ही युवती ने अपने हाथों को आकाश में उछाला, सांप भी घास के साथ आकाश में उछल गया। अब तो वह बहुत क्रुद्ध हो चुका था । आकाश से वह ठीक युवती के पास ही गिरा । उससे पहले कि युवती संभलती क्रुद्ध सांप ने अपनी लपलपाती जिह्वा से उसे डस लिया । एक करुण चीत्कार के साथ युवती उछलकर नीचे गिर पड़ी । 1 इतने में राह चलते कुछ और लोग भी इकट्ठे हो गए । सबने स्थिति का जायजा लिया। कोई तुनककर बोला - इसने जान-बूझकर क्यों काल के गाल में हाथ डाला ? कोई बोला - होनहार ही ऐसी थी । काल ही इसे खींचकर यहाँ लाया था। कोई बोला - भगवान की ऐसी ही मरजी थी, नहीं तो भला यह क्यों जान-बूझकर ऐसा खेल खेलती ? कोई बोला - यह तो सांप ने अपना पिछला बैर लिया है । इसी प्रकार की अनेक आवाजें मेरे कानौं से टकराती रहीं। मैंने सोचा जो होना था, वह हो चुका। अब Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ / नए मंदिर : नए पुजारी तो इसके प्राण बचाने का कोई उपाय करना चाहिए। सभी लोगों की राय लेकर मैंने उसे एक वाहन पर बिठाया और उसे उसके घर छोड़ आया । घर वालों ने उसे बचाने के अनेक प्रयास किए। उसे घी पिलाया, नीम के पत्ते खिलाए, मंत्रवादी को बुलाया, विष खींचने वाले ओझा को बुलाया रामदेव जी के देहरे भोपों का नृत्य करवाया, पर उसका विष नहीं उतरा । शाम को मैं फिर उसके घर गया। उसके मुँह से बराबर खून निकला जा रहा था । धीरे-धीरे वह नीली पड़ती जा रही थी । उसका सुन्दर चेहरा डरावना बन चुका था । परिवारिक लोक बुरी तरह से रो-पीट रहे थे। अपने माता-पिता की वह इकलौती लड़की थी। उन्होंने उसे बड़े लाड़• प्यार से पाला-पोसा था। बड़े उल्लास से साथ उसकी शादी की थी। वर्षों तक बड़ी सावधानी से पाला-पोसा पर वह वृक्ष मृत्यु के एक ही झोंके से ध्वस्त हो गया । उसका पति भी निरुपाय उसकी ओर टकटकी लगाए देख रहा था । मैं सोचने लगा - यदि मैं उसे सांप की बात नहीं बताता तो क्या उसकी मृत्यु होती ? शायद नहीं । और मुझे अपनी ही अनुकम्पा पर तरस आने लगा । मुझे लगा, जैसे यह पाप मैंने ही किया है, पर दूसरे ही क्षण मैंने सोचा - मैंने तो उसे बचाने का ही उपाय किया था, फिर भी अब मैं समझ गया हूं कि हमारी क्रियाएं केवल अच्छी प्रतिक्रियाओं से ही जुड़ी हुई नहीं हैं, उसके साथ बहुत-सी बुरी प्रतिक्रियाएं भी जुड़ी हुई हैं । असल में कर्म को परिणाम नहीं, भावना में आंकना चाहिए । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आम और प्रांस मर्डर के एक केस का राज खुलवाने के लिए पुलिस ने हरभजन को इतनी बेरहमी ले पीटा कि एक खून की खोज करते-करते दूसरा खून हो गया। यद्यपि जनता का खयाल था कि मर्डर का असली अपराधी कोई दूसरा ही था। पर राजनीतिक दबाव के कारण असली अपराधी को छिपा दिया गया तथा बेचारे निरपराध हरभजन को मौत के घाट उतर जाना पड़ा । पुलिस ने इस केस में अच्छे हाथ चिकने किये । पर हरभजन की पत्नी एवं छोटे-छोटे बच्चे इतनी असहायता से रो रहे थे कि पास-पड़ोस की जनता का दिल दहल गया। धीरे-धीरे यह आह सारे गांव में फैल गई और जनता पुलिस के विरुद्ध उबल पड़ी। यद्यपि पुलिस ने अपने-आप को बचाने के लिए काफी सुरक्षात्मक कार्यवाहियो करली थी। उसने मरने मे ४ घण्टे पहले डाक्टर से भी यह लिखवा लिया था कि हरभजन की हालत नोर्मल (सामान्य) है। हरभजन से डण्डे के बल पर कई सादे कागजों पर हस्ताक्षर करवा लिए थे, जिन पर कुछ भी लिखकर अपने पक्ष को बेगुनाह ठहराया जा सके; पर अन्तिम निर्णय के समय में, जबकि पुलिस ने हरभजन को अस्पताल में दाखिल कर दिया था, हरभजन को होश आ गया था और उसने रोते-रोते अपनी आप-बीती सम्बन्धियों को सुना दी थी। उसने बताया कि वह बिलकुल बेगुनाह है और पुलिस ने उसे इतनी बुरी तरह पीटा है कि उसका रो-रोआं दुख रहा है और अब उसका बचना मुश्किल है। यद्यपि उसके संबंधियों को भी पहले यह शंका थी कि शायद हरभजन ही असली हत्यारा है, पर अब मृत्यु के किनारे खड़े होकर हरभजन ने जो कुछ कहा, उससे सारी पिछली आशंकायें धुल Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० / नए मंदिर : नए पुजारी गई । अतः सम्बन्धियों का खून भी खौल उठा । ऊपर से पुलिस जो घोंस दिखा रही थी, उससे रहा-सहा धैर्य भी टूट गया । इसीलिए जव उन्हें हरभजन की लाश सुपुर्द की, तो उन्होंने उसे लेने के इन्कार कर दिया । उन्होंने आग्रह किया कि पहले हम इसका निष्पक्ष मुआयना करायेंगे, फिर इसे उठायेंगे । इसके लिए प्रदेश की राजधानी से सम्पर्क किया गया वहां से किसी मेडिकल बोर्ड के पहुंचने में काफी समय की आवश्यकत। थी । अतः इस इन्तजार में हरभजन का दाह संस्कार भी नहीं हो सका । इधर क्रुद्ध जनता की भीड़ अपना धैर्य खो चुकी थी। पहले तो जनता थाने पर गई, पर पता लगा कि हरभजन को पीटने वाला थानेदार तो कल से ही गायब हो गया है । तब वह अस्पताल की ओर दौड़ी। वहां उसने गलत रिपोर्ट लिखने वाले डाक्टर से बदला लेने की ठानी, पर डाक्टर भी न जाने कहां गायब हो गया। अलबत्ता अस्पताल के पास ही डाक्टर का मकान खाली पड़ा था । जनता ने दिल खोलकर उस पर अपना गुस्सा उतारा, मकान के सारे कांच तोड़ दिये, पर सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने से क्या फायदा ? अब तो जनता अस्पताल पर आकर जम गई । जिस किसी ने यह सुना, वह दौड़ा-दौड़ा अस्पताल जा पहुँचा । कोई २०-२५ हजार आदमी एकत्र हो गये थे । अस्पताल में पैर रखने तक के लिए भी जगह नहीं थी । सब लोग घटना की वास्तविकता को जानना चाहते थे, पर जैसा कि स्वाभाविक है, भीड़ में असली बात पर विचार होना कठिन है । अतः वहां का वातावरण इतना गर्म हो गया कि जनता बेकाबू हो गई। वह नारे लगाने लगी। खून का बदला खून से लेंगे । 'थानेदार मुर्दाबाद ! 'डाक्टर मुर्दाबाद !' और गन्दी गन्दी गालियों से सारा वातावरण कुलषित हो गया। उसने डाक्टर के ऑफिस में भी देखा, पर वहां डाक्टर कहां से मिलता ? संयोग से वहां एस० डी० आई बैठा हुआ था। कुछ उबले हुए नौजवान इतने बेताब हो गए कि डाक्टर को नहीं पाकर उन्होंने डाक्टर की जगह एस० डी० आई० की ही मरम्मत कर दी । उस बेचारे ने काफी सहनशीलता दिखाई। मार खाकर भी वह जनता से माफी मांगता रहा जनता पर उसका थोड़ा असर भी हुआ । वह एस० डी० आई० की बात सुनना चाहती थी कि इतने में Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आग और आंसू / १२१ L पुलिस के जवानों का खून खौल उठा और उन्होंने बिनाही बड़े आफिसरों की इजाजत के लाठी चार्ज कर दिया। भीड़ को बिखेरने के लिए अश्रु गैस भी छोड़ी । लाठियों की मार खाकर लोग एकबार तो इधर-उधर भागे पर अब उन्होंने अस्पताल की बाउन्डरी के बाहर खड़े होकर पत्थर फेंकने शुरू कर दिये । पुलिस के रंगरूट भी उबले हुए तो थे ही, अतः दांत भींचकर गालियां निकालने लगे । फिर जब जनता की ओर से पत्थरों की बौछार असह्य हो गई तो पुलिस ने फायर शुरू कर दिया । इस सारे केस में सरदार मिलखा सिंह को बहुत ही ताव आ रहा था । वह क्रोध से पागल हो रहा था । उसने अपने साथी पुलिस वालों को तो उकसाया ही पर एस० डी० आई० को भी बुरा-भला कह डाला । कहने लगा - आप यहां अन्दर कमरे में बैठे हमें बाहर मैदान में मरवा रहे हैं । आप देखते नहीं, अस्पताल के चारों ओर के कांच फूट गये हैं । अब भी सनसनाते हुए पत्थर आ रहे हैं और आप फायर का आदेश नहीं देते हैं । बस, हम अभी लोगों से निपट लेते हैं । जब लोगों को खून का रंग दीख जायेगा, तो अपने श्राप दुम दबा कर भाग जायेंगे । हम यदि डरते रहे तो आज हमारी खैर नहीं है । आपकी कायरता से एक-एक पुलिस आज जमीन नाप लेगा । हजारों आदमियों के सामने पुलिस के 100 जवानों की क्या बिसात है । अत: आपको फायर करने का आदेश देना पड़ेगा । विवश होकर एस० डी० आई० को फायर के आदेश पत्र पर अपने हस्ताक्षर करने पड़े । मिलखा सिंह तो आज जैसे राक्षस ही हो गया था । अचानक उसकी छाती से एक बड़ा-सा पत्थर आकर टकराया । अब तो वह आपे से बाहर हो गया और बिना आकाश में फायर किये उसने अपने रिवाल्वर को जनता की ओर तान दिया । उसके मुंह से बड़े असभ्य शब्द निकल रहे थे । उसका सारा शरीर कांप रहा था । उचक उचक कर वह फायर करता जा रहा था । जनता के गुस्से का कोई पार नहीं था । समुद्र की तरह अपार जनता पुलिस के साथ पत्थरबाजी में व्यस्त थी । कभी पुलिस जनता के पीछे दौड़ती थी तो कभी जनता पुलिस के पीछे । जनता भी निम्नतम शब्दों का प्रयोग कर रही थी । एक ओर जनता के रोष से Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ / नए मंदिर : नए पुजारी पुलिस को ताव आता था तो दूसरी ओर जनता गोलियों की बौछार से बेहोश हो रही थी । काफी आदमी मर चुके थे। पुलिस के जवानों को भी काफी चोटें आयीं थी, पर अभी गणना की फ़ुर्सत किसको थी ? कभी गोली खाली चली जाती थी, तो कभी कोई एकाध व्यक्ति जमीन पर गिर पड़ता था । इस रस्साकसी में जब जनता पीछे भागती तो पुलिस मरी हुई लाश को इस तरह घसीटते हुए अपने कब्जे में कर लेती थी मानो वह कोई कुत्ते की लाश हो ? इससे जनता फिर उबलती, और पुलिस फिर लाठी चलाती, पत्थर फैकती तथा कभी-कभी गोली चलाती थी । गोली की बात सारे गांव में फैलनी स्वाभाविक थी । इसलिए शहर के सभी स्कूलों की छुट्टी कर दी गई। गांधी सदन के लड़कों की भी छुट्टी हो गई थी । सभी लड़के भय और उत्सुकता से अपने-अपने घरों को लौट रहे थे । संयोग से गांधी सदन के रास्ते में ही अस्पताल पड़ता था । अतः लड़के भी दबे पांव अस्पताल की ओर दृष्टि टिकाये धीरे-धीरे सरकते जा रहे थे । इतने में कुछ क्रुद्ध नौजवान बाहर खड़ी पुलिस की गाड़ी के पास पहुँच गये । वे गाड़ी को आग लगाने का प्रयास कर ही रहे थे कि इतने में पुलिस का ध्यान उनकी ओर चला गया । मिलखासिंह ने आव देखा न ताव गाड़ी की ओर गोली दाग दी । ऊधमी लड़के तो गोली का रुख देखकर गाड़ी की आड़ में छिप गए, पर वह गांधी सदन से लौटते 10 वर्ष के मोहन्द्रि सिंह के सीने में जा लगी। एक करुण आह के साथ मोहिन्द्रसिंह ढेर हो गया । और लड़के भाग गये मोहिन्द्रसिंह वहीं पड़ा रह गया । पुलिस डण्डे लेकर तत्काल मोहिन्द्रसिंह को उठाने दौड़ी। वह उसे उसी प्रकार घसीटते हुए ले जा रही थी, जैसे किसी मरे हुए जानवर को लाया जा रहा हो । दूर से मिलखा सिंह ने देखा कि पुलिस के हाथों में कोई सरदार का बच्चा है । एक बार उसका हृदय थोड़ा कांपा और बन्दूक को कस कर पकड़े हुए उसके हाथ जरा ढीले हो गये । वह आंखें फाड़कर सरदार के बच्चे की लाश देखने लगा । यद्यपि कुछ देर तो उसे पता नहीं चला, पर ज्योंही लाश नजदीक आई उसने देखा सरदार के बच्चे ने वही कपड़े पहन रखे हैं जो उसका बेटा मोहिन्द्र पहना Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आग और आंसू / १२३ करता है । थोड़ा और नजदीक आने पर उसने स्पष्टतः पहचान लिया कि वह उसका बेटा मोहिन्द्र ही है। अब तो एक क्षण में उसका क्रोध ठंडा पड़ गया । न जाने कब उसके हाथ से बंदूक छूट कर गिर पड़ी और न जाने कब वह आकर मोहिन्द्र सिंह से लिपट कर धाड़े मार कर रोने लगा । सारा दृश्य सिनेमा पट की तरह बदल गया । एक क्षण पहले जहां रण-सा छिड़ा हुआ था, दूसरे क्षण वातावरण जैसे बिल्कुल गमगीन हो गया। लोग स्तब्ध होकर पत्थर फेंकना भूल गये और पुलिस फायर करना तथा डण्डा चलाना | मिलखा सिंह तो मोहिन्द्रसिंह से लिपटकर अचेत हो - गया था। पुलिस वालों ने दोनों को उठाकर अस्पताल में पहुँचाया। हवा करने तथा ठण्डे पानी छिड़कने से मिलखा सिंह की मूर्छा जरा टूटी तो उसने सबसे पहले यही पूछा -- बाहर फायर तो बन्द हो गई है ना ? जब उसके साथियों ने बताया कि हां, फायर तो बन्द हो गई है। एकदम मिलखा सिंह को कुछ याद आया और अस्पताल के दरवाजे की ओर दौड़ा। बाहर आकर वह हाथ जोड़कर निश्चल भाव से खड़ा होकर जनता से कहने लगा -- भाइयों ! मैंने आपके निर्दोष पुत्रों को मारा है, मुझे उसका बदला मिल चुका है। यहां मेरा लड़का भी गोली का शिकार हो गया है । वैसे तो अपनी करनी का फल मिल गया है, पर अभी तक कुछ और भी बाकी है । आपको भी यह अधिकार है कि अपने लड़कों की हत्या के बदले में मुझे मारें । मैं आपके सामने तैयार खड़ा हूँ । जनता जो भी दण्ड देगी, मुझे मंज़ूर है । मेरे प्राण आपके कदमों में हाजिर हैं । आप मुझ हत्यारे पर वार कर खत्म कर दीजिये । मुझ जैसे पुत्र हत्यारे को जीने का अधिकार नहीं है । अब मैं यों ही तड़प-तड़प कर मरूंगा, इससे तो यही अच्छा है कि आप मुझे मार दें 1 अब तक जनता का क्रोध भी शान्त हो गया था। जिन आंखों में थोड़ी देर पहले चिनगारियां उछल रही थीं, उनमें अब आंसू बहने लगे । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक पत्थर-एक आदमी जब भी कोई आदमी मेरे सामने हीरे की अंगूठी पहन कर पाता है तो अनायास मेरा मन उसमें उलझ जाता है । यद्यपि मैं कोई जौहरी नहीं हूं और न ही मुझे जवाहरात संग्रह करने का शौक है, पर जब से मेरे मित्र प्रभात ने एक घटना सुनाई तब से न जाने मेरे अवचेतन मन में क्यों ऐसे संस्कार जम गये हैं कि हीरे की अंगूठी को देखकर मैं सोचने लगता हूँ कि इसकी कीमत समझने वाले लोग तो फिर भी मिल जायेंगे, पर जीवन के हीरे की कीमत समझने वाले लोग कितनेक मिलेंगे ? बात यह हुई कि प्रभात एक दिन एक बड़े सामाजिक भोज में परोसने के लिए गया हुआ था। सैंकड़ों लोग कतार में बैठकर भोजन कर रहे थे । वातावरण अत्यन्त कोलाहलमय था। कोई साग मांग रहा था तो कोई पूड़ी, कोई नमकीन मांग रहा था तो कोई मिठाई। कहीं हंसी के फव्वारे छूट रहे थे तो कहीं व्यंग्य बाणों की वर्षा हो रही थी। कहीं मीठी मनुहारें हो रही थीं तो कहीं बच्चों की किलकारियाँ। इसी गहमागहमी में प्रभात संभल-संभल कर सबको मिठाई परोसता हुआ जा रहा था। हालांकि अक्सर ऐसे मौकों पर लोग अपने परिचितों का ही विशेष खयाल रखते हैं। उन्हें अच्छी और श्रेष्ठ चीज परोसने में दिलचस्पी लेते हैं, पर प्रभात के मन में ऐसी कोई ग्रन्थि नहीं थी। वह समान भाव से सबको यथेच्छ मिठाई परोसता हुआ जा रहा था। ___ अचानक एक बच्चे की थाली में मिठाई परोसते-परोसते प्रभात चौंक पड़ा। यद्यपि अगली पंक्ति के लोग उसले मिठाई मांग रहे थे, पर प्रभात तो जैसे वहीं जम गया। उसे आगे-पीछे का कोई खयाय नहीं रहा और Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक पत्थर एक आदमी | १२५ वह लगातार कभी उस बच्चे के हाथ की अंगूठी देखता तो कभी उसके चेहरे को, कभी उसके कपड़ों को देखता तो कभी उसके आस-पास बैठे लोगों को । अंगठी में एक हीरा जड़ा हुआ था,उसे देखते ही प्रभात की यह हालत हो गई थी। यद्यपि हीरे के आस-पास थोड़ा मैल जम गया था, पर फिर भी प्रभात की पारखी आंखों को यह समझते देर नहीं लगी कि यह एक कीमती हीरा है। बच्चे के रंगढंग को देखकर तो लगता था कि शायद यह हीरा नकली है, पर उसकी चमक ही उसके असली होने की घोषणा कर रही थी। इसी उधेड़-बुन में प्रभात मिठाई परोसता हुआ आगे बढ़ गया, पर उसका मन तो हीरे में ही अटका हुआ था। इसीलिए कुछ आगे जाकर उसने कुछ अन्य लोगों से उस बच्चे के बारे में पूछ-ताछ की। पता चला कि बे तीन-चार भाई हैं और रेसकोर्स के पास अपनी छोटी-सी दुकान करते हैं। प्रभात को फिर संशय हुआ। वह सोचने लगा कि या तो मेरा जवाहरात का ज्ञान गलत है या फिर यह हीरा इस बच्चे के पास गलती से आ गया । अपने आपको निःसंशय करने के लिए वह फिर बच्चे के पास आया। कुछ क्षण तक उसने फिर गौर से उस हीरे को देखा । आखिर उसने निश्चय कर लिया कि यह हीरा कीमती है, बच्चा ही इसकी कीमत से अनजान है। प्रभात ने उसके साथ बैठे हुए एक युवक से पूछा-यह तुम्हारा क्या लगता है ? युवक ने कहा-यह मेरा भाई है । प्रभात ने जरा सावधानी के लहजे में कहा- यह आपका भाई है तो आपको खयाल रखना चाहिए। बच्चों को ऐसे कीमती गहने नहीं पहनाने चाहिए। इतना सुनते ही वह युवक बिदक गया। वह जोर से तो नहीं बोल सका पर अन्दर ही अन्दर फुसफुसाने लगा - ये अमीर आदमी भी बड़े अजीब होते हैं । इनको क्या पड़ी है कि हमारे बीच में टाँग अड़ाते । अंगूठी पहनी है तो हमने अपनो घर की पहनी है, किसी की चुराकर नहीं पहनी है। पर वास्तव में ये बड़े लोग हमें फटी आँख से भी नहीं देखना चाहते । स्वयं तो लाखों रुपयों के गहने पहनकर आते हैं, पर दूसरा यदि कोई मामूली-सा गहना भी पहन लेता है तो उपदेश झाड़ने लगते हैं। अपने पर ये कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाते. पर दूसरों की जरा-सी भी शौक इनको नहीं सुहाती। वास्तव में Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ / नए मंदिर : नए पुजारी इन बड़े लोगों को किसी का ऊपर उठना सुहाता ही नहीं। ये सोचते हैं कि कोई हमसे ऊपर नहीं उठ जाय । खुद तो शादियों में बड़े-बड़े भोज करते हैं, दूसरा छोटा-सा भोज कर लेता है तो उसकी ओर अंगली उठाते हैं, समाज में बदनाम कर देते हैं । खुद तो बड़ा-बड़ा दहेज देते हैं, दूसरा यदि ऐसा कर लेता है तो उस पर टीका-टिप्पणी करने लगते हैं। सचमुच ये बड़े खतरनाक होते हैं। - प्रभात उसकी फुसफुसाहट को समझ गया, पर वह जरा भी विचलित नहीं हुआ। हालांकि परिस्थिति ऐसी थी कि वह उनसे विरत हो सकता था । वह तो उनकी भलाई के लिए ही ऐसा कह रहा था, वे लोग उल्टा उसे ही गलत समझने लगे। ऐसे ही अवसरों पर आदमी की पहचान होती है। प्रभात ने सोचा- उपेक्षा से जो खिन्न नहीं हो जाय और अपेक्षा से फूलकर कुप्पा न हो जाये वही तो सच्चा इन्सान है। उसने अपने हृदय को टटोला । उसके मन में कहीं कोई पाप नहीं था । वह तो एकान्त रूप से उनकी भलाई के लिए ही उनसे आग्रह कर रहा था, पर उसकी दवा का उल्टा असर हो रहा था। वह उनको उनके भाग्य पर छोड़ सकता था । जब रोगी दवा लेना ही नहीं चाहे तो डाक्टर विचारा क्या करे ? जब वे प्रभात की बात मानना ही नहीं चाहते तो वह क्यों उनसे अपना सिर टकराये । लेकिन नहीं, प्रभात इतनी-सी आंच पर पिघलने वाला पदार्थ नहीं था। वह समाज के हर व्यक्ति को अपना ही सम्बन्धी मान रहा था। उसे डर था कि कहीं ये लोग इस कीमती हीरे को यों ही न गंवा दे। इसीलिए उसने कुछ और पूछताछ की। उसे पता लगा कि उनका एक बड़ा भाई यहां और है । वह उसी के पास गया और बोला-भाई साहब ! आपको अपने छोटे भाई को इतने कीमती गहने नहीं पहनाने चाहिए। उसने कहा-पर हमारे पास तो कोई कीमती गहना नहीं है । प्रभात ने अंगूठी की ओर संकेत कर कहा कि यह कितने रुपयों की है ! बड़ा भाई बोला--यह तो कोई बहुत कीमती नहीं है। एक आदमी साठ. सत्तर रुपयों में हमारे पास गिरवी रख गया था। आज दो वर्ष हो गए, वह लौट कर ही नहीं आया । घर पर पड़ी थी, छोटा भाई उसे पहन आया। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक पत्थर- एक आदमो / १२७ प्रभात ने कहा .. जिसे तुम मामूली अंगूठी समझ रहे हो वह वास्तव में बहुत कीमती है । यह तो संयोग की बात है कि तुम्हें यह साठ-सत्तर में मिल गई, पर इसकी कीमत तीस-चालीस हजार से कम नहीं होगी। यह सुनते ही बड़ा भाई तो विचारा हक्का-बक्का सा रह गया । वह कहने लगा - आपको हम अच्छे मजाक करने वाले मिल गए। तीस-चालीस हजार रुपये यों कोई कचरे में पड़े हैं, जो हमने उठा लिए? हमने क्या हमारे बाप-दादा ने भी कभी तीस-चालीस हजार रुपये नहीं देखे हैं । आप हमारी गरीबी का मखौल न करें। प्रभात ने जोर देते हुए कहा- मुझे तुम लोगों से मजाक करने का शौक नहीं है । मुझे तो जवाहरात की परीक्षा करने का शौक है, इसलिए मैं तुमसे कह रहा हूं। हो सकता है, मैं नया-नया आदमी हूँ, इसलिए मेरी परीक्षा में कुछ फर्क पड़ जाये । अच्छा हो, हम बाजार में इसकी कीमत करवा लें। उसी समय वह बड़े भाई को लेकर जौहरी-बाजार में गया । कुछ लोगों को लगा कि मजाक गहरी होती चली जा रही है। कुछ लोगों को लगा कि प्रभात जरूर इसमें अपना कमीशन खायेगा, पर प्रभात ने किसी की परवाह नहीं की। उसने सोचा--- यदि मैं साथ नहीं जाऊंगा, तो शायद जौहरी लोग इन्हें ठग लेंगे। हो सकता है, कोई किसी प्रकार का इलजाम लगाकर इनको फंसा भी दे । इसीलिए प्रभात उनके साथ हो लिया। बाजार में एक प्रसिद्ध जौहरी को वह हीरा दिखाते हुए प्रभात बोलाभाई साहब ! इसकी कीमत कितनी हो सकती है। जौहरी ने हीरे को अंगठी से खोल कर तोला तो वह छह केरट का निकला। हीरा असली और बेदाग था। पर जवाहरात का धन्धा ही ऐसा है कि ट्राई किए बिना आदमी ठगा जाता है। इसलिए वह फिर एक दूसरे नामी जौहरी के पास गया। उसने उसकी कीमत पांच हजार रुपये के रेट बताई। प्रभात ने सोचा एक साथ दो हजार रुपये केरेट भाव बढ़ जाता है तो थोड़ी और ट्राई करनी चाहिए। वह फिर एक तीसरे और अत्यन्त विश्वस्त जौहरी के पास आया। उसने भी उसकी कीमत पांच-साढ़े-पांच हजार रुपये केरेट बताई। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ / नए मंदिर : नए पुजारी प्रभात ने बड़े भाई को समझाया कि हो सकता है, थोड़े दिन रोक कर रखा जाय तो इसकी कीमत और भी बढ़ जाय, पर सामान्य लोगों के लिए ऐसी कीमती चीजों का रोक कर रखना उपयुक्त नहीं है। बड़े भाई ने कहा-हमें किसलिए रोक कर रखना है । यदि हमें पैसा मिले तो हम अपना धन्धा बढ़ायेंगे । हमें हीरे का जरा भी शोक नहीं है। आप तो जल्दी से जल्दी हमारे पैसे खुले करवाओ। प्रभात ने आखिर मोलभाव करते-करते छह हजार रुपये केरेट के भाव से वह हीरा बिकवा दिया। खरीददार ने एक हजार रुपया कम किया। अत: बड़ा भाई पैंतीस हजार रुपयों के नोट लेकर दुकान से नीचे उतरा । उसने प्रभात को गले लगा लिया। उसे हजार-पन्द्रह सौ रुपये देने चाहे, पर प्रभात ने उससे एक पैसे की दलाली लेना अस्वीकार कर दिया। हालांकि बड़ा भाई इस सारे घटना कांड में साथ था, पर उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि क्या सचमुच ऐसा हो सकता है। उसे तो लग रहा था, जैसे वह स्वप्न देख रहा है। उसके पैर जमीन पर नहीं टिक पा रहे थे। प्रभात की आंखों में आंसू आ गए। निश्चय ही ये आंसू व्यापारिक दक्षता के नहीं थे, अपितु अपने एक बन्धु की निष्काम सेवा की आंखों से बहकर आये थे। हो सकता है प्रभात ने अपने धन्धे में लाखों रुपये कमाये होंगे, पर जितना आनन्द वह इस प्रसंग में अनुभव कर सका उतना कभी नहीं कर सका। बल्कि जब-जब वह इस प्रसंग को याद करता है तो उसे लगता है जैसे उसने भी अपने हाथों से मानवता की दीवार में एक पत्थर रखा है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताबूत सेठधनीराम का पीढ़ियों से ब्याजका धंधा था। वे हमेशा सोचा करते थे, 'मेरा धंधा कितना अच्छा है कि मुझे कुछ परिश्रम नहीं करना पड़ता । लोग अपने-आप मेरे पास आते हैं, पैसा ले जाते हैं और ब्याज दे जाते हैं । हाँ कभी-कभी कोई-कोई आदमी गलत भी निकल जाता है । वह पैसे लौटने में आना-कानी करता है, पर सेठजी को इस बात पर गर्व है कि आज तक कोई उनके पैसे नहीं पचा सका । यदि किसी के पास पैसा नहीं होता है तो वे सोना-चांदी, जमीन जायदाद, गाय-भैंस और यहां तक कि भांड़े बर्तन और कपड़े-लत्ते तक लेकर भी अपना पैसा चुकता कर लेते थे । यद्यपि उनके व्याज का दर सबसे ऊँचा रहता था, पर फिर भी जरूरत मंद को झक मारकर उनके सामने नाक रगड़ना पड़ता था । एक बार उनका काम निकल जाता तो वे समझते कि सेठजी बड़े दयालु हैं, पर असल में जो आदमी सेठ जी के जाल में फंस गया वह वापिस कभी नहीं निकल सका । वह क्या उसकी पीढ़ियां भी सेठ जी के जाल में छटपटाकर मर जाती हैं। सेठजी इसमें ही अपनी कुशलता समझते । उनकी अपनी समझ से ब्याज का धंधा बिल्कुल अहिंसक है, क्योंकि उसमें किसी भी जीव की हिंसा नहीं होती । पर, अप्रत्यक्ष रूप से खून पी-पीकर वे जितने मोटे होते जाते थे, इसका उन्हें कोई अंदाज नहीं था । यद्यपि इमर्जेंसी के समय जब थोड़े दिनों के लिए ब्याज का धंधा बन्द हो गया तथा सरकार गरीब लोगों को उनकी बन्धकें मुफ्त में दिलबाने लगी थी तो सेठजी को थोड़ा असमंजस जरूर हुआ था । कुछ बदमाश लोग अपनी बन्धक लेने के लिए उसके पास आये भी थे । कुछ बेईमान आदमी झूठे भी आये थे, पर Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० / नए मंदिर : नए पुजारी सेठजी ने पुलिस से मिलकर सबको ठिकाने लगा दिया । दुनियां को दिखाने के लिए उन्होंने वेकाम की कुछ बन्धके वापस भी की थी और अव, जबकि इमर्जेसी उठ गई तो सेठजी का धंधा दिन दुगना रात चौगुना हो गया। वे अकसर कहते कि हर धंधा दिन में चलता है, पर मेरा धंधा दिनरात चलता है। सरकार जितने कानन बनाती , सेठजी उससे पहले रास्ता खोज लेते। सारे गांव में उनकी अक्ल की धाक थी। लोग लुट-पिट कर भी सेठजी को अपना हित-रक्षक मानते । उनसे कर्ज लेते सो तो लेते ही पर उसका अहसान भी मानते । मौंके वे मौके उनका छोटा-मोटा काम भी कर देते और उनकी हाजिरी भी बजाते रहते।। इससे कोई संदेह नहीं कि ऊपर से सेठजी का काम बड़ी सफाई से चलता था, पर बिना परिश्रम की कमाई ने उनको इतना निर्दय बना दिया था कि वे आदमी का खुन क्या हड्डियां तक नहीं छोड़ते । उनकी इस निर्दयता का ऐसा एक ही शिकार था हीरा सुथार । उसने कई वर्षों पहले अपने बाप के मृत्यु-भोज के लिए सेठजी से पैसे लिए थे। इतने वर्षों का ब्याज चुकाते-चुकाते वह दुगना पैसा जमा करा चुका, पर फिर भी मूलधन अभी तक ज्यों का-त्यों था। वह बिचारा मेहनत करता । शरीर पर कपड़ा भी नहीं पहनता । अपने बच्चों तक को कभी चपड़ी रोटी नही खिलाता, पर सेठजी का पेट भरता जा रहा था। एक दिन अचानक सेठजी हीरा के घर की ओर से निकले । हीरा उस समय एक अच्छी बड़ी सी पेटी बना रहा था। उसे देखते ही सेठजी के मुंह में पानी भर आया। उनकी गिद्ध आंखे उस पेटी पर पड़ गई और उसी क्षण उन्होंने अपने बाज जैसे नुकीली पंजे उसमें अड़ा दिए । उन्होंने अत्यन्त मधुर स्वर में हीरा से कहा- वाह भाई ! मैं तुम्हारी कला का लोहा मानता हूँ। क्या चीज बनाई है ! इसका कितना खर्च आ गया होगा ? हीरा ने कहा-मालिक ! खर्च तो आज कल आता ही है ! हर चीज महँगी है। लकड़ी भी महंगी है, कीले और पातियां भी महंगी है। सेठजी-यह तो बिल्कुल ठीक है भाई ! आज हर चीज के दाम आसमान को छ रहे हैं। असल में हमारी सरकार ही खराब है। इससे तो राजेमहाराजे अच्छे थे, जो सब लोग आराम से जीते थे। आजकल बेईमानी Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताबूत / १३१ तो इतनी बढ़ गई है कि पूछो मत। हर आदमी हराम का खाना चाहता है । सरकार का छोटे से छोटा नौकर भी मुंह बाये खड़ा है । उस की भेंटपूजा न हो तो गाड़ी स्टेशन से भी आगे न चले । अब देखो - कहते हैं, सरकार गरीबों को लोन देती है, पर क्या अपना सिर लोन देती है ! बजट में जितनी रकम लोन में रखी जाती है, उसमें से आधी तो नेताओं में बांट जाती है । फिर जो थोड़ी-बहुत बचती है - उसे ऑफिसर खा जाते हैं । और जो थोड़ी बहुत बचती है वह जातिवाद, स्वार्थवाद या भाईभतीजेवाद में बंट जाती है । तुमको पता है, रामधन ने खेती के लिए सरकार से लोन लिया था, पर पानी पूरा नहीं गिरा । फसल ही पैदा नहीं हुई तो वह लोन कहां से चुकाता ? पर सरकार यह सब कुछ नहीं देखती । उसने तो बेचारे का खेत ही निलाम करवा दिया है। उधार तो हम भी देते हैं, पर ऐसा तो नहीं करते। पहले तो सरकार के कानून कायदे इतने पेचीदे हैं कि बिचारा गरीब उन्हें समझ ही नहीं पाता । यदि वकीलों या सरकारी ऐजेंटो के माध्यम से समझता है, तो उसकी यह गति होती है । हम लोगों के पास कोई कानून कायदा नहीं है। जरूरतमंद आधी रात को आता है और पैसे लेकर चला जाता है । हम कभी उसे निराश नहीं करते | थोड़ा-बहुत ब्याज ले लेते हैं, तो सरकारी गुर्गे कहते हैं कि बनिया हमें चूसता है पर सच्चाई यह है कि हम गरीब को नहीं चूसते, यह सरकार ही सबको चूस रही है । हीरा - आप ठीक कहते हैं सेठजी ! सरकार तो आजकल भ्रष्टाचार से भरी पड़ी है । सेठजी -- अब तुम ही देखो । तुमको कितने वर्ष हो गये हमसे रुपया लिए | तुम्हारे बाप के मृत्यु भोज के समय लिए थे । मेरा ख्याल है कि उसे तीस वर्ष तो हो ही गए होंगे। तुम रात को आये थे । मैंने तुम्हें कहीं चक्कर लगवाये ? केवल तुम्हारे अंगूठे के निशान के भरोसे पर रकम निकालकर दे दी । क्या सरकार ऐसा कर सकती है ? हीरा - नहीं मालिक ! बात करते करते ही सेठजी ने अपना असली तीर छोड़ दिया बोले—पर भाई ! तुम्हारा इस वर्ष का ब्याज नहीं आया है । कम Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ / नए मंदिर : नए पुजारी से कम ब्याज तो भर देना चाहिए। यह कहते कहते सेठजी ने पेटी पर हाथ फेरना शुरू कर दिया। हीरा-मालिक पैसा तो मेरे पास नहीं है। यदि आपको पसंद हो तो यह - पेंटी ही ले जाओ। सेठ--यह तो ठीक है, पर इसमें हम तुम्हारी लागत के ही पैसे देंगे। वैसे तुमको लगता ही क्या है ? काठ के टुकड़े तो इधर-उधर बचते हैं वे ही जोड़ लेते हो। मेहनत के पैसा हम देंगे नहीं। जो कील-काँटो आदि के पैसे लगते हों वह बता देना और कल-परसों जब भी फुर्सत हो यह पेटी घर पहुंचा देना। सेठजी ने यह सब इतनी सफाई और आत्म-विश्वाश से कहा कि हीरा विचारा कुछ नहीं बोल सका । अक्सर मनुष्य का अज्ञान ही उसमें हीन भाव भरता हैं और वह बिना मतलब दूसरों का बोझ अपने सिर पर ढोता रहता है। सेठजी के चले जाने के बाद हीरा के बेटों ने थोड़ा प्रतिरोध किया कि हम यों कौड़ी के मूल्य अपनी गाढ़ी कमाई नहीं दे सकते, पर हीरा ने उनकी एक नहीं सुनी। वह कहने लगा--तुम इस बात को नहीं जान सकते कि सेठजी ने संकट के क्षणों में मेरा कितना उपकार किया था। मैं इस बात को जन्म भर नहीं भूल सकता । इन्होंने मेरे बाप के मृत्यु-भोज के लिए मुझे पैसे दिये थे। इसलिए मेरे जीते जी तो निभा लेने दो। मेरे मर जाने के बाद तुम जो चाहो करना। बेटों ने कहा-काका ! पर आप तो हमारा भी पेट काटते हैं। हीरा ने आवेश में उत्तर दिया--मैं तुम्हारा पेट कहां काटता हूँ ? अभी तक तो मेरे हाथ-पाँव चलते हैं अतः मैं जो चाहं करूगा। जिस दिन तुम्हारे टुकड़े का मुंहताज हो जाऊँ उस दिन तुम अपनी मनमानी करना । मैंने तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा किया है। अबतक तो तुम्हारे पंख भी पूरे नहीं आये हैं, उससे पहले ही, मझ से जबान लड़ाने लगे हो, यह अच्छा नहीं। अपने बाप के आगे बच्चे अधिक विरोध नहीं कर सके । अन्ततः हीरा वह पेटी सेठजी के घर पहंचा कर आ गया। घर में पेटी आई तो सेठानी ने कहा--यह क्या ताबूत-सा उठा लाये Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताबूत । १३३ ही ? आगे ही घर में सामान अधिक है और स्थान कम । हमें यह पेटी नहीं चाहिए । सेठजी ने कहा- तुम्हें जरूरत नहीं है तो मौका आने पर बेच देंगे । यो ब्याज के पैसे नहीं आते थे, पेटी के बहाने पैसे भी आ गए और अब पेटी के सौदे में भी थोड़ा-बहुत और कमा लेंगे । स्थान की कमी के कारण पेटी को घर के पिछवाड़े में रखवा दिया गया। सेठजी अपनी तजबीज पर परम प्रसन्न थे । पेटी को घर में आये दो-चार दिन ही हुए थे । एक दिन सेठजी के दो बच्चे तथा पड़ौसी का एक बच्चा लुकाछिपी का खेल खेल रहे थे । से के बच्चे छिपने के लिए स्थान खोजते खोजते पेटी के पास आये । बड़े लड़के ने कहा- चलो, अपने इस पेटी में छिप जायेंगे। हमारा साथी हमें ढूंढ़ नहीं पाय | दूसरे लड़के को भी बात जँच गई तो उन्होंने पेटी को खोला। यद्यपि पेटी का ढक्कन भारी था, पर छिपने की सुरक्षित जगह देखकर दोनों ने मिलकर ढक्कन को अन्दर से बन्दकर लिया । संयोग की बात थी कि ऊपर से कपाट बन्द होते ही बाहर की कंडी लग गयी । अब तो बच्चे बड़े घबराये, पर कोई इलाज नहीं था । उन्होंने जोर भी लगाया, पर पेटी का खुलना असंभव था। वे जोर-जोर से चिल्लाये, पर पेटी इतनी संगीन बनी हुई थी कि उनकी आवाज बाहर नहीं आ सकी । उनका साथी लड़का उन्हें खोजते खोजते इधर आया, पर वह सोच भी नहीं सका कि पेटी के अन्दर भी कोई बैठ सकता । अतः वह बिचारा उन्हें ढूंढ ढूंढ़कर हार गया । आखिर यह समझ कर कि बच्चे अपने घर में चले गए होंगे, वह भी अपने घर लौट गया । थोड़ी देर तक बच्चे रोए -चिल्लाए, पर उनकी कौन सुनने वाला था ? अन्तत: प्राणवायु के अभाव में उन्होंने बन्द पेटी में ही अपने प्राणत्याग दिए । शाम तक भी जब बच्चे नहीं आये, तब सेठानी को चिन्ता हुई । उसने सेठजी से कहा । सेठजी ने इधर-उधर खोज करवाई, पर बच्चे कहीं न मिले। आखिर पुलिस को सूचना दी गई। गांव का कोना-कोना छान लिया गया । कुंए-बावड़ियां छान ली गई, पर कहीं पर भी बच्चे नहीं Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ / नए मंदिर : नए पुजारी मिले । इस रहस्यमय संवाद से सारा गांव आतंकित हो गया। सारे लोग अलग-अलग कल्पनाएं करने लगे। कोई किमी साधु-सन्यासी की बात करना तो कोई किसी उठाईगीर की। कुछ लोग जंगली जानवरों की भी कल्पना करने लगे। सेठजी और सेठानी की हालत तो बदतर हो गई थी बल्कि सेठानी तो लगातार कई घंटों तक बेसुध पड़ी रही। अन्त में एक ज्योतिषी को पूछा गयो । उसने बताया कि बच्चे तो घर में ही हैं। फिर से घर की छानबीन शुरू हुई । एक-एक कोना छाना गया। इसी सिलसिले में जब उस बक्से को खोला गया तो मरे हुए बच्चे प्राप्त हए। सारा परिवार शोक-संतप्त हो गया। एक रहस्य खुलने के बाद दूसरा रहस्य शुरू हो गया। कोई इसे खून हत्या का केस बता रहा था, तो कोई दैवी चमत्कार, कोई इसे सेठजी के पापों का परिणाम बता रहा था, तो कोई किसी गरीब की आह। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की अन्य कृतियां १. उलझे तार २. अनायास ३. नैतिक पाठशाला ४. अणुव्रत की कसौटी पर ५. निग्गंथ गाथा ६. अच्छे बच्चे ७. नये मंदिर नये पुजारी ८. विज्ञान के संदर्भ में जैन धर्म ६. निर्माण के बीज १०. जैन मनोविज्ञान ११. प्रश्न और समाधान १२. जन-जन के बीच आचार्यश्री तुलसी (दो भाग) १३. अनगढ़ पत्थर १४. परिन्दे १५. गीतों का गुलदस्ता १६. अणुव्रत के पथ पर १७. आचार्य श्री तुलसी अपनी ही छाया में Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________