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एक पत्थर-एक आदमी
जब भी कोई आदमी मेरे सामने हीरे की अंगूठी पहन कर पाता है तो अनायास मेरा मन उसमें उलझ जाता है । यद्यपि मैं कोई जौहरी नहीं हूं और न ही मुझे जवाहरात संग्रह करने का शौक है, पर जब से मेरे मित्र प्रभात ने एक घटना सुनाई तब से न जाने मेरे अवचेतन मन में क्यों ऐसे संस्कार जम गये हैं कि हीरे की अंगूठी को देखकर मैं सोचने लगता हूँ कि इसकी कीमत समझने वाले लोग तो फिर भी मिल जायेंगे, पर जीवन के हीरे की कीमत समझने वाले लोग कितनेक मिलेंगे ?
बात यह हुई कि प्रभात एक दिन एक बड़े सामाजिक भोज में परोसने के लिए गया हुआ था। सैंकड़ों लोग कतार में बैठकर भोजन कर रहे थे । वातावरण अत्यन्त कोलाहलमय था। कोई साग मांग रहा था तो कोई पूड़ी, कोई नमकीन मांग रहा था तो कोई मिठाई। कहीं हंसी के फव्वारे छूट रहे थे तो कहीं व्यंग्य बाणों की वर्षा हो रही थी। कहीं मीठी मनुहारें हो रही थीं तो कहीं बच्चों की किलकारियाँ। इसी गहमागहमी में प्रभात संभल-संभल कर सबको मिठाई परोसता हुआ जा रहा था। हालांकि अक्सर ऐसे मौकों पर लोग अपने परिचितों का ही विशेष खयाल रखते हैं। उन्हें अच्छी और श्रेष्ठ चीज परोसने में दिलचस्पी लेते हैं, पर प्रभात के मन में ऐसी कोई ग्रन्थि नहीं थी। वह समान भाव से सबको यथेच्छ मिठाई परोसता हुआ जा रहा था। ___ अचानक एक बच्चे की थाली में मिठाई परोसते-परोसते प्रभात चौंक पड़ा। यद्यपि अगली पंक्ति के लोग उसले मिठाई मांग रहे थे, पर प्रभात तो जैसे वहीं जम गया। उसे आगे-पीछे का कोई खयाय नहीं रहा और
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