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सभ्यता के दावेदार
अरावली पर्वत की सुरम्य उपत्यका में दूर तक चली गई एक घाटी-छोटे-छोटे खेत । चारों ओर फैली हरियाली । एक सूखा झरना किनारे पर खड़ा आम का सघन वृक्ष । सब कुछ इतना मनोहारी था कि हमारी पार्टी कुछ देर वहाँ रुकने के लिए विवश हो गई। हम वहाँ थोड़ी देर बैटे थे कि पास ही खड़े कुछ बच्चे सकुचाये-सकृचाये से हमारी ओर देखने लगे । यद्यपि उनका रंग काला-कलूटा था। उस पर भी मैल चढ़ा हुआ था। कपड़े भी नाम-मात्र के थे। वे भी जगह-जगह से फटे हुए एवं मैले-कुचैले, फिर भी उनके चेहरों पर स्वस्थता की एक गहरी चमक थी। हम लोग आपस में बाते करने लगे--कितने अभागे हैं ये लोग ! विज्ञान के इस युग में भी आदिम मनुष्य-सा जीवन जी रहे हैं। उनकी इस दयनीय स्थिति पर करुणा होकर मैंने एक बच्चे से पूछ लिया-- क्या तुमने कभी सिनेमा देखा है ? सहानुभूति का सेक पाकर वे जरा नजदीक आ गये । मैंने फिर उसी अपने प्रश्न को दोहराया-- क्या तुमने कभी सिनेमा देखा है सनिमा ? सनिमा क्या होता है ? एक बच्चे ने उलटकर प्रश्न मुझ पर ही लाद दिया। मैंने कहा- पर्दे पर जो दृश्य आते हैं, वह ! पर बच्चा मेरी बात को नहीं समझ सका। सच बात तो यह है कि मुझे भी अपने उत्तर से संतोष नहीं था। इतने में बच्चे ने हरे-भरे पहाड़ की ओर संकेत कर कहा- हमारा 'सनिमा' तो यह है। सुबह-शाम सूरज आताजाता है, और हम भगवान की लीला देखते रहते हैं। हमारी भेड़-बकरियां ही हमारा सनिमा हैं।
मुझे उसके अज्ञान पर दया तो आयी, पर मैं सोचने लगा, पहाड़ियों,
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