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सभ्यता के दावेदार | ६३
नदियों, झरनों, वृक्षों तथा खेतों से भी बढ़कर क्या कोई सिनेमा होता है ? सुबह-शाम जो दृश्य आकाश पर प्रतिबिम्बत होते हैं, सचमुच उनके सामने सिनेमा के अच्छे से अच्छे दृश्य भी फीके हैं। बादलों की रंगीन छटा किसी रंगीन पिक्चर से क्या कम होगी ? शहरों में रहने वाले लोगों को कहाँ प्राप्त होता है यह प्राकृतिक सिनेमा !
इतने में हमारे एक साथी ने ट्रांजिस्टर का बटन दबाया और सिलोन से गाने आने लगे। मैंने उन वनवासी लड़कों से पूछा- कुछ समझ में आता है ?
उन्होंने सिर हिला दिया। मैंने फिर पूछा- इसमें कौन बोल रहा है ? उन्होंने कहा- हमें क्या पता बाबू ? तुम भी कभी गाना गाते ? मैंने आगे पूछा।
एक लड़की को आगे कर उन्होंने कहा- यह रोज शाम को भगवान की आरती में भजन गाती है। बच्ची ने बिना झिझक और बिना किसी नाज-नखरे के गाना शुरू कर दिया---'म्हारे आंगणिये आओ घनश्याम, दरश बिन मैं तड़फं।' गला इतना साफ था उस लड़की का कि जितना साफ गला शहरों में हजारों लड़कियों में भी शायद नहीं मिलता । हो भी कैसे, जबकि वे दिन भर चाय, आईसक्रीम, चाट, पकौड़े चाटती रहती है। और उस भोली आकृति पर भावों की जो छाया उतर रही थी, उसमें तो मैं अपने-आप को बिलकुल भूल गया। मैं फिर अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों पर लज्जित हुआ । मुझे लगा, यद्यपि शहरों में अनेकों मनोरंजन के साधन प्राप्त हो रहे हैं, पर फिर भी हम अपना स्वाभाविक मनोरंजन खो रहे हैं । दिन-भर चलते-चलते हमारा दल कुछ थक गया था । पर उन बच्चों के साथ जो सहज मनोरंजन हो रहा था, उससे मन को शांति मिल रही थी। कुछ साथियों को भूख भी लग आई, अतः विचार हुआ कि यहीं नाश्ता कर लें। हमने अपने-अपने झोले में से नाश्ता निकाला
और खाना शुरू कर दिया। कुछ साथियों की इच्छा हुई कि यहाँ यदि चाय मिल जाये तो मजा आ जाये । चाय की पत्ती तथा चीनी हमारे पास थी कुआं पास में था ही, ईंधन की कमी जंगल में नहीं थी। कमी थी तो केवल दूध की । हम आपस में यह बात कर ही रहे कि इतने में एक बड़ा लड़का
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