________________
६४ / नए मंदिर : नए पुजारी फुर्ती से उठा और पास की टेकरी पर बनी अपनी झोंपड़ी की ओर दौड़ा। कुछ ही क्षणों में हम देखते हैं कि वह अपने हाथ में एल्म्युनियम का मैला-सा बर्तन थामे आ रहा है । अब झोंपड़े के अंदर से ग्राम्य औरतों की कुछ जोड़ी
आंखें भी हमारी ओर देखने लगी थी। लड़का हमारे पास आया और बोला- लो बाबू, दूध ! हमें इस अप्रत्याशित आतिथ्य पर बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ। कहाँ तो हम शहरों के लोग, जो घर आये लोगों से भी बचना चाहते हैं और कहाँ ये ग्रामीण लोग, जो बिना ही जाने-पहचाने हमारा आतिथ्य कर रहे हैं । हमारे अन्तर्मन में एक द्वन्द्व छिड़ गया। यद्यपि हम जाति-पांति के बन्धन से मुक्त थे, फिर भी हम अपनी ही क्षुद्रता के नीचे दबे जा रहे थे ! हम सोच रहे थे कि हमें इनका आतिथ्य स्वीकार करने का कोई अधिकार नहीं है, पर हमें चाय पीनी थी अतः सोचा कि फिर पैसे दे देंगे, अभी दूध तो लेलो।
लड़कों ने ईंधन इकट्ठा करने में भी हमारा साथ दिया। साथ क्या दिया-- अधिकतर लकड़ियां उन्होंने ही इकट्ठी की थी । पत्थरों का एक चूल्हा बनाया। पानी भी ले आये। चाय उबलने लगी। प्राकृतिक सुरम्य दृश्य और खुला वातावरण, हाथ की बनी चाय, मित्रों की टोली इतना स्नेह भरा आतिथ्य ! सचमुच चाय पीने में बड़ा मजा आया। चाय पीकर हमने अपना सामान झोले में डाला और बर्तन लौटाते हुए दूध का हिसाब करने लगे। लगभग आधा किलो दूध था । हमने हिसाब लगाया कि उदयपुर में अढ़ाई रुपया किलो दूध मिलता है। गांवों में कुछ सस्ता होगा, अत: एक रुपया किलो के हिसाब से आठ आने उनको देने लगे । बच्चों ने कहा-क्या करते हैं ? आप तो हमारे मेहमान हैं। आपसे पैसा किस बात का ? हमने कहा-हम तुम्हारे कहां के अतिथि हुए ? बच्चों ने कहा- हमारी बस्ती में आये और यहां विश्राम किया, तो अपने-आप हमारे अतिथि हो गये । हमने कहा--फिर भी दूध के पैसे तो तुम्हें लेने होंगे। तुम लोग कोई अमीर हो, जो पैसे नहीं लेते? बच्चों के मुंह पर अजीब भाव आया । बोले--बाबू ! हम गरीब हो सकते हैं पर धर्महीन नहीं हो सकते । क्या दूध और पूत भी कभी बेचे जाते हैं !
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org