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सभ्यता के दावेदार / ६५
हमारे मुंह पर थप्पड़-सी लगी। ऐसा लगा, जैसे हम सोते-सोते उठ पड़े हैं। हम अपने-आप में लज्जित होने लगे। कहां ये अनपढ़ लोग और कहां हम शिक्षित लोग ! इन्होंने हमारा इतना निःस्वार्थ आतिथ्य किया और हम इनको एक कप चाय की झूठी मनुहार भी न कर सके ? झंपकर इन बच्चों को थोड़ा चाकलेट बांट कर आगे बढ़े, पर हमारा मन अपनी इस क्षुद्रता के लिए बराबर पछताता रहा।
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