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ताबूत
सेठधनीराम का पीढ़ियों से ब्याजका धंधा था। वे हमेशा सोचा करते थे, 'मेरा धंधा कितना अच्छा है कि मुझे कुछ परिश्रम नहीं करना पड़ता । लोग अपने-आप मेरे पास आते हैं, पैसा ले जाते हैं और ब्याज दे जाते हैं । हाँ कभी-कभी कोई-कोई आदमी गलत भी निकल जाता है । वह पैसे लौटने में आना-कानी करता है, पर सेठजी को इस बात पर गर्व है कि आज तक कोई उनके पैसे नहीं पचा सका । यदि किसी के पास पैसा नहीं होता है तो वे सोना-चांदी, जमीन जायदाद, गाय-भैंस और यहां तक कि भांड़े बर्तन और कपड़े-लत्ते तक लेकर भी अपना पैसा चुकता कर लेते थे । यद्यपि उनके व्याज का दर सबसे ऊँचा रहता था, पर फिर भी जरूरत मंद को झक मारकर उनके सामने नाक रगड़ना पड़ता था । एक बार उनका काम निकल जाता तो वे समझते कि सेठजी बड़े दयालु हैं, पर असल में जो आदमी सेठ जी के जाल में फंस गया वह वापिस कभी नहीं निकल सका । वह क्या उसकी पीढ़ियां भी सेठ जी के जाल में छटपटाकर मर जाती हैं। सेठजी इसमें ही अपनी कुशलता समझते । उनकी अपनी समझ से ब्याज का धंधा बिल्कुल अहिंसक है, क्योंकि उसमें किसी भी जीव की हिंसा नहीं होती । पर, अप्रत्यक्ष रूप से खून पी-पीकर वे जितने मोटे होते जाते थे, इसका उन्हें कोई अंदाज नहीं था । यद्यपि इमर्जेंसी के समय जब थोड़े दिनों के लिए ब्याज का धंधा बन्द हो गया तथा सरकार गरीब लोगों को उनकी बन्धकें मुफ्त में दिलबाने लगी थी तो सेठजी को थोड़ा असमंजस जरूर हुआ था । कुछ बदमाश लोग अपनी बन्धक लेने के लिए उसके पास आये भी थे । कुछ बेईमान आदमी झूठे भी आये थे, पर
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