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संकेतों की भाषा
सावन का महीना था। आकाश बादलों से भरा था । रिमझिम-रिमझिम वर्षा हो रही थी। प्राकृतिक दृश्य बड़ा ही मनोरम था। एक ओर हरी-भरी पहाड़ी थी, दूसरी ओर कल-कल करती बरसाती नदी बह रही थी। चारों ओर छोटे-छोटे खेल लहलहा रहे थे। किसान बड़े खुश नज़र आ रहे थे । इस साल कई वर्षों बाद भरपूर वर्षा हुई थी। सारे बांध भर गये थे। रबी की फसल का भी अच्छा अन्दाज़ लग रहा था। अभी भी फसलें काफी ऊंची आ गई थी। इसी आश्वासन से सारे लोग सुख की नींद सो रहे थे। कुछ गड़रिये अपनी भेड़ों को लिए नदी के किनारे बैठे थे। उन्हें उस पार जाना था, पर नदी में पानी वढ़ जाने के कारण उन्हें इसी पार रुक जाना पड़ा । इसी बीच रात को 12 बजे अचानक नदी में पानी बढ़ने लगा। गड़रियों ने पहले तो अपनी भेड़ों को सुरक्षित स्थान पर हटाना चाहा, पर पानी का वेग इतना तेज था कि उसके आगे खड़े रहना कठिन हो गया, बल्कि कुछ भेड़ें तो पानी में बह भी गईं। इसीलिए वे पास वाले गांव में सहायता के लिए दौड़े । गांव के लोगों को जगाया और उनसे अपनी भेड़ें बचाने का आग्रह किया, पर इस स्वार्थी दुनिया में कौन किसकी सुनता है ! कुछ लोगों ने तो उनकी बात पर ध्यान ही नहीं दिया। कुछ लोग उनकी दीनता भरी प्रार्थना पर पिघले, पर जब तक वे गांव के बाहर आये तब तक बाढ़ पूरे वेग में आ गई थी। अतः सम्भव नहीं रहा कि भेड़ों को बचाया जा सके । आधे घन्टे में 5000 भेड़ों में से केवल 30-35 भेड़ों को ही बचाया जा सका। यही गनीमत थी कि गड़ रियों की जान वच गई।
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