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परिवर्तन | ८३
मैंने माँ के पैर छुए और उस दिन के बाद अपने जीवन का परिवर्तन करने की कसम खाई । माँ ने अपनी बात को पक्का करते हुए कहा, "देख : तू कसम तो खा रहा है, पर किसी दिन मैंने तुम्हें गंदी आदतों में व्यस्त देख लिया तो खैर नहीं होगी । अब से तू मेरे साथ ही काम पर आयेगा । तुझे अपने दोस्तों का संग छोड़ना पड़ेगा। माँ का सब कथन इतने मौके का तथा भावप्रवण था कि मैंने सचमुच ही अपने जीवन की राह बदल दी। यद्यपि कभी-कभी मुझे अभ्यासवश अपनी मित्रमंडली में जाने की ललक उठती, पर माँ के अनुशासन के कारण मैं उधर नहीं जा सका । पहले तो मुझे मेरे दोस्त ललचाते रहे। अवसर आने पर मुझ पर दबाव भी डालते रहे । ढुलमुल कहकर चिढ़ाते भी एक बार वे घर भी आये, पर मेरी माँ ने उन्हें ऐसी फटकार बताई कि वे मेरे घर का रास्ता ही भूल गये। मेरे ऊपर माँ का रंग इतना गहरा चढ़ चुका था कि उस पर दोस्तों का रंग हावी नहीं हो सका। माँ ने भी एक-आध बार मेरी परीक्षा के लिए कुछ जाल फैलाये---- पैसे खुले रखे, पड़ोसी की छोकरी को भी रखकर बाहर चली गई, शराब की बोतल भी रखी, पर मैं संभल चुका था। अत: किसी भी प्रलोभन से फिसला नहीं। ___हमारी आमदनी बहुत थोड़ी थी। पिताजी के क्रियाकर्म में कुछ कर्जा भी हो गया था। यद्यपि खाना अब पहले की अपेक्षा अच्छा मिलता तथा मेरा स्वास्थ्य भी सुधर गया था, पर फिर भी मैं कोई पढ़ा-लिखा तो था नहीं-न कोई धंधा करना जानता था । अंतत: बहुत सलाह-मशविरा के बाद मेरी माँ ने अवैध दारू बनाने का धंधा शुरू कर दिया। धीरे-धीरे हमारी आमदनी बढ़ने लगी। मैं भी इस धंधे में प्रवीण हो गया, पर अपनी मां के कठोर नियंत्रण में मैं दारू की एक बूद भी अपने गले के नीचे नहीं उतार सका । अब मैं वैसे थोड़ा-थोड़ा अपनी परिस्थति तथा संसार को भी समझने लगा था । पैसे के मूल्य तथा उसके महत्व की भी मुझे कुछ पहचान हो चुकी थी।
अपने साथियों की दुर्दशा से भी मुझे कुछ सबक मिला। कुल मिलाकर शराब की गंगा के किनारे बसकर भी मैंने उसमें डुबकी नहीं लगाई। धीरे-धीरे हमारे पास कुछ पैसा इक्कठा हो गया। अब तो बाकायदा मैंने
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