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सार्वजनिक जीवन / १११
काने की दृष्टि से उन्होंने कहा "भवन बने यह तो अच्छा है, पर पैसा कहाँ से आएगा ?"
हेड मास्टर साहब ने कहा - ''वैसे पैसा तो वहीं से आएगा, जहां वह है। मेरे जैसे व्यक्ति तो पैसा दे नहीं सकते, फिर भी हम गांव को बाध्य नहीं करेंगे । जो जितना देगा. उतना सहर्ष स्वीकार कर लेंगे । यदि पैसा कम हुआ तो चंदा करने के लिए बाहर जाएंगे। आखिर इसमें किसी व्यक्ति विशेष का तो स्वार्थ है नहीं, यह तो सारे गांव की भलाई का सवाल है । लोगों को हमारे काम पर विश्वास हो जाएगा तो पैसे की कमी नहीं रहेगी।"
सेठजी को तो आश्वासन मिल गया, पर सरपंच के मन में संदेह उभरने लगा। अक्सर आदमी के मन में वही संदेह उभरता है, जिसमें से वह स्वयं गुजरता है। अतः सरपंच ने सोचा-यहाँ पहले भी कई हेड मास्टर आ चुके हैं। किसी ने भी स्कूल के भवन में इतनी दिलचस्पी नहीं ली। यह हेड मास्टर इतनी दिलचस्पी दिखाता है, इसका कोई कारण होना चाहिए । शायद यह भी बीच में कुछ हाथ सेंकना चहता होगा। पिछले गांव से इसी मामले में बदनाम होकर आया है । अत: इससे सावधान रहने की आवश्यकता है । इसीलिए उसने भी से पन मिलने की कठिनाई को दोहराया। पर गाँव का बहुमत पक्ष में था, अत: चंदा हुआ । उससे काम चलने वाला नहीं था । अतः हेड मास्टर साहक, सेटजी और सरपंच .. तीन आदमियों की एक समिति इस कार्य के लिए नियुक्त की गयी । हेड मास्टर साहब उसके मुखिया थे। वे होशियार तो थे ही साथ ही कुछ कर गुजरने की क्षमता भी रखते थे। अत: उचित समय पर स्कूल से छुट्टी लेकर दोनों व्यक्तियों के साथ चंदा लाने के लिए बाहर निकल पड़े।
सचमुच लोगों से पैसा निकलवाना बड़ा कठिन काम है, पर हेड मास्टर साहब के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर पन्द्रह दिनों में बीस हजार रुपये दरठे हो गए ' सरपंच को यह बात जरा अखरी, क्योंकि उसकी अपनी बात झूठी होती जा रही थी। एक-दो जगह उसने चंदा देने वालों को गुमराह करने की कोशिश भी की, पर हेड मास्टर के सामने उसकी एक
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