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११२ / नए मंदिर : नए पुजारी
नहीं चल सकी । अब तो सरपंच के लिए हेड मास्टर को बदनाम कराना और भी आवश्यक हो गया। चंदे का सारा पैसा हेड मास्टर के पास ही था। उनका हिसाब-किताब इतना साफ था कि उसमें उन्हें बदनाम करने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी । फिर भी सेठजी को भड़काने के लिए उसने हेड मास्टर साहब की पिछली बदनामी का जिक्र किया। सेठजी भी होशियार थे । अतः उन्होंने सोचा - चलो, हेड मास्टर और सरपंच दोनों की ही परीक्षा कर लें । इसी उद्व ेश्य से उन्होंने एक दिन अवसर देखकर हेडमास्टर साहबकी जेब में से हजार रुपये निकाल लिए। फिर सरपंच से कहा " आपका अनुमान ठीक निकला । हैडमास्टर साहब ने हज़ार रुपये मुझे दिए हैं, हज़ार रुपए खुद लेंगे और ये हज़ार रुपए आप लीजिए । तीन हज़ार रुपयों की चोरी की घोषणा करनी पड़ेगी । चलो, अपने को भी इस दौड़धूप का कुछ पारिश्रमिक मिल जाएगा ।'
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सरपंच ने अपनी बात की पुष्टि करते हुए कहा'मैंने आपसे पहले ही कहा था । खैर, आपकी बात को मैं कैसे टाल सकता हूं ?" यह कहते हुए उसने रुपए अपनी जेब के हवाले किए । घर लौटते समय उसके पास काफी सामान हो गया था ।
गांव में पहुँचने पर सरपंच को बड़ा आश्चर्य हुआ, जब हेड मास्टर साहब ने बीस हजार रुपयों के चंदे की घोषणा की। उसने सेठजी की ओर अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा तो वे बोले- -"अभी नाटक समाप्त थोड़े हो गया है ? अभी तो कई दृश्य सामने आयेंगे । चुपचाप देखते रहो ।"
घर आकर हेड मास्टर साहब ने रुपए गिने तो एक हज़ार रुपए कम निकले । उनका सिर ठनक गया । सोचने लगे, अब बदनाम होने में कोई कसर नहीं रहेगी । पहले वाली बात भी सत्य साबित हो जाएगी, पर अब क्या किया जा सकता था ? परिस्थिति बड़ी जटिल थी, पर हेड मास्टर साहब ने धैर्य नहीं खोया । उन्होंने सारी बात अपनी पत्नी से कही । पत्नी ने उसी समय अपना हार निकालते हुए कहा - "हार बाद में हैं इज्जत पहले है । इज्जत रहेगी तो हार के बिना भी काम चल जाएगा। इज्जत नहीं रहेगी, तो यह भी चुभने लगेगा | अतः आप इसे बेचकर रुपयों का पूरा हिसाब सेठजी को दे दीजिए । "
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