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सार्वजनिक जीवन / ११३
हेड मास्टर को यह अच्छा तो नहीं लगा, पर इसके सिवा और कोई विकल्प भी तो नहीं था । अतः उन्होंने सोचा-चलो अपनी ओर से स्कूल को हज़ार रुपए का गुप्तदान ही सही। और वे उसी वक्त हार लेकर सेठजी के पास आए। सेठजी ने हार देखकर कहा--- "यह क्या ?"
हेड मास्टर साहब ने कहा- "मुझे इसी समय रुपयों की आवश्यकता है। आप उचित दाम लगाकर यह हार खरीद लीजिए।"
सेठजी सारी बात समझ तो गए थे, पर फिर भी उन्होंने हेड मास्टर साहब से सारी बात कहलवाई । सेठजी ने देखा, हैडमास्टर साहब के चेहरे पर एक उदासी तो आई, पर उनके शब्दों में दृढ़ता थी। वे बार-बार कह रहे थे, "रुपए चले गए पर मुझे अपना विश्वास नहीं गंवाना है।"
सेठजी ने कहा--"तो इसमें आपको पैसे भुगतने की क्या बात है, आखिर कार्यकर्ता परमेश्वर तो नहीं है। रुपए चले गए तो चोरी की बात कहकर मामला समाप्त कर देंगे।"
पर हैडमास्टर साहब करीब-करीब चीखकर बोले--- “नहीं, ऐसा नाम भी मत लीजिए । जो कुछ हो गया उसे भूल जाइए और यह हार आप खरीद लीजिए।" | __सेठजी ने हैड मास्टर साहब का यह त्याग देखा तो अपने पर लज्जित होने लगे। सोचने लगे-."मैं पैसेवाला होकर भी पैसे के लिए रोता हूँ और यह व्यक्ति कितना ईमानदार है कि चोरी चले गए रुपयों के बदले भी अपना हार दे रहा है।' उसी समय सेठजी ने सरपंच को बुलाया और सारा रहस्य प्रकट करते हुए कहा - "हेड मास्टर साहब तो आग में तप कर खरे सोने की तरह निकल गए। अब बताइए, आप सीधे रुपए देते हैं या गांव को इकट्ठा करना पड़ेगा ?" सरपंच के सामने और कोई विकल्प नहीं था; क्योंकि बात इतनी स्पष्ट और नियोजित ढंग से की गई थी कि आखिर सरपंच को वे हज़ार रुपये उगलने पड़े । सेठजी ने उसे डांटते हुए आगे ऐसा काम नहीं करने की प्रतिज्ञा करवाई । दूसरे दिन मारे गांव की मीटिंग बुलाई गई । सेठजी ने अपने दौरे का विवरण देते हुए बताया कि हेड मास्टर साहब ने आपको बीस हजार रुपए चंदे की बात बताई थी, पर मैं आपको सूचना देता हूं कि अब वह रकम
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