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कमीशस | २६ जो बेधड़क ले जा रही हो?" औरतें कुछ बोली नहीं । लब पुलिसवाला बहुत तेज बोलने लगा, तो पौढ़ाओं के चेहरे पर एक अर्थपूर्ण हंसी फैल गई। पुलिसवाला अपने-आप नरम पड़ गया। मैं उस दिन तो आगे निकल गया, परअब आये दिन पौढ़ाओं तथा पुलिसवालों में रहयस्यपूर्ण फुसफुसाहट होती रहती, बल्कि वे उनके पास बैठकर पान-तम्बाकू खाती और बातें भी करती रहतीं। कभी-कभी उनके हाथों में नोट भी चमकते रहते । कभी जब कोई नया पुलिसवाला आता, तो वह जरा तेज बोलता। मैं समझ गया कि उसका वह झगड़ा केवल रौब जमाने वाला होता था। थोड़े दिनों में जब वह यहां की हवा पानी में रम जाता तो उसमें भी एक पालतूपन आ जाता और उनमें आपस में पारिवारिक सलाह-मशविरा का सा क्रम शुरू हो जाता।
हालांकि गरीब औरतों की गरीबी पर मुझे तरस आता और मैं पिघल जाता, फिर भी नुझे ड्राइवर, खलासी तथा पुलिसवालों की बेईमानी अखरती रहती। कई बार मैंने उनकी शिकायत करने की बात भी सोची, पर एक बार तो मैंने देखा कि एक पुलिस अफसर भी उधर आया और अपना कमीशन बटोरने लगा। मैं समझ गया इस धन्धे की जड़ें काफी गहराई तक फैली हुई हैं। मैंने ऊपर तक जाने की बात भी सोची, पर जब मुझे अपने आफिस की याद आ गयी तो मैं सोचने लगा कि आदमी सब जगह एक सा ही होता है । यद्यपि मेरे लिए बेईमानी का कोई अवसर नहीं है, पर मैं कह नहीं सकता, यदि मुझे अवसर मिलता तो अपने स्थान पर कितना ईमानदार रहता। सचमुच में तो बेईमानी का यह धन्धा ऊपर के आफिसर से चपरासी तक चलता है। इस मामले में पिसते हैं तो बेचारे गरीब ही पिसते हैं। इसलिए मैंने इस ओर ध्यान देना हो बन्द कर दिया। अब रोज मेरी आंखों के सामने यह धन्धा होता है । मैं मौन-दर्शक की भांति उसे देखता रहता हूँ। मैं नहीं जानता कि यह उचित कर रहा हूं या अनुचित ? पर इतना तय है कि मेरे सारे तर्क चुक गये हैं । मैं अब एक महात्मा की तरह उदासीन भाव से घर से आता हूं और दफ्तर चला जाता हूं।
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