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दूसरा पहलू
सुबह से ही सेठ हीरालालजी के घर का वातावरण तनावपूर्ण हो गया था। यद्यपि यह आज कोई नई बात नहीं थी। महीने में पचीस दिन इस घर में ऐसा ही वातावरण रहता है । सेठजी प्रातः चार बजे ही उठ गए थे। माला-मनका तथा संध्या-पूजा से निवृत्त हो जाने के बाद वे अपने घर के बाहर की चौकी पर बैठकर तमाखू से दांत घिस रहे थे। यह भी उनका रोज का नित्यकर्म था । उनके लिए रोटी छूट जाना फिर भी संभव हो सकता था, पर दिन में तीन बार तम्बाखू से दांत घिसे बिना रहना असंभव था । आधे घंटे तक बैठे-बैठे वे दांत भी घिसते जाते थे तथा इधर-उधर की गप-शप भी करते जाते थे। इस सिलसिले में जो कोई भी उधर से गुजरता, उसे बिना कुछ-कहे-सुने गुजरना मुश्किल था। आज भी उन्होंने राजाराम को पकड़ लिया। उसे कह रहे थे--देखो, कैसा जमाना आ गया है। दो घंटा दिन चढ़ने को आया है, पर अभीतक मेरा बेटा रमेश उठा नहीं है। सचमुच आजकल कलियुग आ गया है। हसारे जमाने में तो हम अपने बाप से पहले उठते थे। सेठानी सुबह-सुबह उठकर घर की सफाई करती थी, आटा पीसती थी, दही बिलोती थी, कुएं से पानी लाती थी, फिर भी मजाल है कि कभी चाचा जी के नाश्ते में देरी हो जाय । पर आज स्थिति यह है कि रमेश की बहू अभी तक उठी ही नहीं है । घर का सारा काम बिचारी बूढ़ी को करना पड़ता है। अब उसके कोई काम करने के दिन हैं ? पर क्या करे ? कहे किसको ? अपनी जांघ उघाड़ने में खुद को ही शर्म आती है। हमने तो सोचा था कि इस छोकरे की शादी हो जायेगी तो बूढ़ी को जरा आराम मिलेगा, पर अब तो उल्टा काम हो गया
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