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दूसरा पहलू / ३१
है । बूढ़ी बीमार पड़ी है और बहू अभी तक उठी भी नहीं है । राजाराम - अरे सेठ जी ! आजकल के लोगों की कुछ न पूछिए । मेरा भी छोकरा ऐसा ही है । बहू तो उससे भी आगे है । मेरी औरत को उनको चाय बनाकर पिलानी पड़ती है । जल्दी उठने को कहते हैं, तो उत्तर दे देती है- मुझसे जल्दी नहीं उठा जाता । तुमसे काम होता हो तो करो, नहीं तो नौकरानी रख लो ।
सेठ – अरे भाई ! आजकल जमाना ऐसा ही आ तुम्हारी यह स्थिति है कि तुम नौकरानी रख लो ? पर आजकल की छोकरियां तो महारानियां बनकर आती हैं । बी० ए०, एम० ए० पढ़ जरूर जाती हैं, पर उन्हें रसोई बनाना नहीं आता । रमेश की बहू को ही देखो । घर पर मेहमान आए हुए थे । उनके लिए रसोई बनानी थी, पर बहु तो सज-धज कर सिनेमा के लिए तैयार हो गई । आखिर उसे जबरदस्ती रोकना पड़ा । पर बिना मन कहीं रसोई होती है? उसने पूरियां बनायी तो जैसे घी में तलकर रख दीं । ( गौमाता को खिलाने का पुण्य लूटने के लिये सेठ जी उन पूरियों को अपने पास लिए बैठे थे) राजाराम को बताते हुए बोले- देखो ! घी तो खराब हुआ सो हुआ ही, पर वे सिककर इतनी आकरी हो गई हैं कि हमसे तो खाई ही नहीं गई । मैंने उसे थोड़ा उलहना दे दिया तो मुंह फुलाकर बैठ गई ।
इतने में पीछे से रमेश निकल आया । वह गरज कर बोलापिता जी ! आपको यही काम है या और कुछ भी ? आपको एक बेटाबहू है, उनका सुख भी आपसे नहीं सहा जाता । इतना ही नहीं, गांव में हमारी बदनामी करते फिरते हैं । सचमुच आपने हमारा जीवन नरक बना दिया है, पर है भगवान ! अब जायें भी तो कहाँ ?
सेट जी – कहाँ क्या, दुकान में जाओ । यों घर में बैठे-बैठे काम नहीं चलेगा। आज तक गधे की तरह खट-खट कर मैंने दुकान चलाई है । अब थोड़ी तुम भी संभालो ।
रमेश - पर आपको कौन कहता है कि आप दुकान पर बैठो । आपसे खुद ही रहा नहीं जाता। रोज सुबह आठ बजे जाकर बैठते हो । अब इतना जल्दी दुकान जाना जरूरी है ? कौन ग्राहक इतनी जल्दी आता
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गया है । अब क्या करें ?
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