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दूसरा पहलू / ३३ मस्ती कर ले। इसीलिए मैंने इसको ट्रांजिस्टर खरीद दिया है। सुबहशाम सबको ही इसका आनन्द मिल जाता है। भगवान ने जिंदगी दी है तो क्यों रो-बिसुर कर जियें ? आखिर बच्चे ही तो हमारी संपत्ति हैं। इनकी खुशी ही हमारी खुशी है। अपने जमाने में हमने भी यों ही मस्ती की थी। हो सकता है, हमारा जमाना थोड़ा संकोच का रहा हो, पर हमारे बड़े-बूढ़े तो हमें कोसते ही थे। मुझे अपने बाप की फटकार याद है। उसने मुझे कभी सिनेमा नहीं जाने दिया, पर मैं रुकता थोड़े ही था। छुप-छुप कर जाता था। इसीलिए मैंने तो सोच लिया कि बच्चों को रोकना निरर्थक है। समझदारी इसी में है कि हम उनकी खुशी को अपनी खुशी बना लें। तब तो वे अंकुश में भी रहने को तैयार हो जायेंगे। अब देखिये, यह छोकरा मेरी कितनी अदब करता है। दिन भर मेरे साथ मेहनत करता है । मेरी हर सुविधा का ख्याल रखता है। कभी मेरे सामने नहीं बोलता। यह सब इसीलिए है कि मैंने भी इसकी खुशी में ही अपनी खुशी समझ ली है।
यह कहकर कुम्हार इतनी मुक्त हंसी हंसा कि सारा वातावरण मुखरित हो उठा, पर सेठ जी गहरे विचार में पड़ गये। वे उस अशिक्षित कुम्हार की कसौटी पर अपने-आपको कसने में लीन हो गये। सोचने लगेक्या मैं भी रमेश के साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता? क्या मैं भी रमेश की खुशी को अपनी खुशी नहीं बना सकता ? उन्हें लगा, जैसे उस गरीब कुम्हार ने उन्हें एक बहुत मूल्यवान नसीहत दे डाली है।
यह संयोग की बात है कि हमारे सामने घटनाएँ तो हर क्षण घटती रहती हैं, पर कभी-कभी कोई घटना हमारे मन में बहुत गहराई से पैठ जाती है । सेठ जी उस कुम्हार पर बड़े प्रसन्न हुए और गाय को खिलाने के लिये जो पूरियाँ लाये थे, उन्हें देते हुए बोले-लो, थोड़ा प्रसाद लेते जाओ। __ कुम्हार ने वेहिचक अपना अंगोछा सेठ जी के सामने फैला दिया। सेठ जी ने अत्यन्त कृतज्ञता से सारी की सारी पूरियां उसके अंगोछे में डाल दी। कुम्हार सेठ जी को धन्यवाद देता हुआ अपने पुत्र को सम्बोधन करते हुए बोला- "अरे पुनियाँ ! देख सेठ जी ने आज हमें कैसा प्रसाद
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