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कानून की मौत
सुबह ही सुबह, जब कि पूर्व ओर पश्चिम का भेद स्पष्ट हो गया था, पूर्व में थोड़ा-थोड़ा उजाला दिखाई दे रहा था तथा पश्चिम दिशा काली स्याह पडी हुई थी, चार मित्र - अशोक बियाणी, पांडुरंग कुलकर्णी, हरीश खन्ना एवं प्रफुल्ल चक्रवर्ती - रेलवे लाईन को क्रास कर आगे घूमने को जा रहे थे । इतने में उन्हें रेल की पटरी की ओर से एक आदमी मालगाड़ी से कुछ माल चुराकर भागता हुआ दिखाई दिया। मित्रों में आपस में चर्चा चल पड़ी ।
बियाणी बौला - देखो रेल विभाग कितना भ्रष्ट हो गया है । वह आदमी रेलवे की चोरी कर भाग रहा है। सामने पुलिस वालाखड़ा है, पर इसे रोक नहीं रहा ।
कुलकर्णी ने कहा- एक रेलवे क्या, आज तो सारा सरकारी तंत्र ही भ्रष्ट हो गया है । ऐसा लगता है, जैसे शासन नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई है ।
बियाणी - लोग व्यापारियों को बदनाम करते हैं, पर आजकल सरकारी तंत्र इतना निरंकुश और भ्रष्ट हो गया है कि कुछ मत पूछो ! कर्मचारियों व्यापारी अगर कुछ गड़बड़ करता भी है, तो सरकार के अफसरो और की सांठ गांठ से ही कर पाता है । यदि सरकारी तंत्र स्वस्थ हो तो मजाल है कि कोई व्यापारी बेईमानी कर पाये ?
खन्ना- वास्तव में सरकार को कड़ाई से काम लेना चाहिए। वह ज्यों ज्योंढील देती है, त्यों त्यों बदमाशों के हौसले बढ़ते जा रहे हैं। मैं तो सोचता हूँ, इस संबंध में कड़े से कड़ा कानून भी बनाना पड़े, तो सरकार को हिच -
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