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बचत की आदत / ४३
लगता है कि भगवान इनकी नैया कैसे पार लगायेगा।
पर भाई ! तुम्हारा हरिराम बहुत अच्छा लड़का है । सच पूछो तो हम इसे लाये तो तुम्हारे बाप के मृत्यु-भोज का कर्जा चुकाने के लिए थे, पर इसने न केवल कर्जा ही चुकता कर दिया है अपितु कुछ पैसा जोड़ भी लिया है। यह सौ कमाता था तो पचास बचाता था। हजार कमाता है तो पांच सौ बचाता है। मुझे इसकी आदत बड़ी अच्छी लगती है। क्या तुम्हें भी घर कुछ पैसा भेजता है ? - सेठ जी ! भेजने को तो यह भेज सकता है । एक-दो बार भेजा भी था, पर मैंने मना कर दिया। अभी तक मेरे हाथपांव चलते हैं। दो बेटे मेरे पास हैं ही। हम अपना काम वहाँ चला लेते हैं । हम तो इतने से ही. बहुत प्रसन्न हैं कि इसने मेरा कर्जा उतार दिया । अब यदि यह दो पैसा बचाता है तो आगे सुख पायेगा। मैंने कभी बचाना नहीं सीखा। आपने ठीक ही कहा है कि मैंने बाप के मृत्यु-भोज में बहुत पैसा खर्च कर दिया, पर मेरा यह छोटा लड़का सुपात्र है । इसने मेरा कर्जा उतार दिया, पर यह तो इसकी बचपन की आदत है। मैंने तो इसे खैर क्या दिया है, पर जब भी इसे दो पैसे मिलते तो यह एक पैसा बचाता था। हमको अब इसके पैसे की जरूरत नहीं हैं। यह आराम से कमाये और आराम से खाये । हम तो भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि बाल-बच्चे लायक हो जायें। इसने तो हमारे बड़े बेटे के छोकरों को भी यहाँ बुला कर होशियार कर दिया है। अब हमें इससे बढ़ कर और क्या चाहिए ? फिर आप जैसे लोगों की छत्रछाया है। कमल बाबू ने इसे दो आदमियों के बीच बैठने के लायक बना दिया। यह भी क्या कम बात है ? हम आपके उपकार को जन्म भर नहीं भूलेंगे। मैं तो कमल बाबू और हरिराम दोनों को आशीष देता हूँ कि ये नेकनियती से चलें और अपने बाप-दादों के नाम को रोशन करें। यह कहते-कहते फूसाराम की आँखों में से हर्ष के आँसू उछल आये । सेठ मायाराम को भी आज लम्बे अर्से से दिल
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