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४२ / नए मंदिर : नए पुजारी
से मृत्यु-भोज करने की राय ली थी तो मैने तो यही कहा था -~~-माँ-बाप का कर्जा चुकाना जरूरी है, अत: थोड़े बहुत ब्राह्मणों को भोज करवादो, थोड़े गांव के प्रमुख लोगों को बुलालो । पर तुमने कहा था कि सेठजी ! बाप कोई बार बार थोड़े ही मरता है ? इस वर्ष भगवान् की हम पर मेहरबानी हो गई हैं, तो मुझे भी दिल खोलकर अपन बाप का मृत्यु-भोज करना है । तुमने बात नहीं मानी और जो फसल हुई थी, उसे दाव पर लगा दिया। उल्टे मेरे से हजार रूपये कर्ज भी लिये। मैं तुम्हारी ना समझी पर हंसा था । पर जब सारा गांव तुम्हारे दरवाजे पर इकट्ठा हुआ। ब्राह्मणों ने तुम्हारे किलक निकाला । पंचों ने तुम्हें पगड़ी पहनाई तो एक बार तो मेरे मन में भी आया कि मैं भी अपने बाप का मृत्यु-भोज कर दं, पर में वैसा नहीं कर सका। फिर उस साल फसल से जो पैसा मिला उसे लेकर कमलकुमार बम्बई आ गया। पर भाई ! सच पूछो तो आज जो मेरी हालत हैं उसका श्री गणेश उसी साल हुआ था। उन्हीं रुपयों से कमल कुमार ने अम्बिका फर्नीनर का काम शुरू किया था। उसके बाद मेरे पो-बारह पच्चीस हो गए। देख,मेरे घर का फ्लेट हो गया, कार हो गई, कारखाना हो गया। भगवान की मर्जी से सब कुछ चल ठीक रहा है, पर पूसाराम ! एक बात कहता हूँ कि कमल के छोकरों में किफायत-सारी नहीं है। यद्यपि कमल तो फिर भी कुछ किफायत करता है । इसके छोकरों में तो बिल्कुल ही किफायत सारी नहीं है। रोज इतना ब्यर्थ का खर्च करते हैं कि कहने की बात नहीं । अब तुम ही देखो, १००-१५० रुपये तो इनका जेबखर्च है। यह ठीक है कि आज उनकी कमाई है, पर सदा दिन एक सरीखे नहीं रह सकते। आदमी धनवान् होता है तो कमाने से नहीं बचाने से होता है। मैं इन छोकरों को कहूं तो उल्टे मेरी ही मजाक उड़ाते हैं। कहते हैं कि दादा जी ! तुम पुराने जमाने के आदमी हो। हमें अपनी सोसाइटी देखनी पड़ती है। इस सोसाइटी के पीछे इनमें अनेक गंदी आदतें आ गई हैं। मुझे डर
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