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सीमा विवाद / ५६
उसके पास कोई उपाय नहीं था । हमने आकर बड़ी मुश्किल से उन कुत्तों को भगाया । वे तो शायद इसे मारकर ही विश्राम लेना चाहते थे पर हमने ऊपर से पत्थर बरसाने शुरू कर दिए, कुछ लाठियों के झपाटे भी मारे, पर उनका क्रोध इतना तीव्र था कि कुछ देर तक तो हमारी मार की भी कोई परवाह नहीं की। बल्कि एक बार तो वे पिल्ले को छोड़कर हमारी ओर झपटे। उन्होंने सोचा होगा कि हम कुत्तों की लड़ाई में बीच-बचाव करने वाले ये मनुष्य कौन होते हैं ? पर अन्ततः हमारा गुस्सा भी तेज़ हो गया और वे चारों ओर से आक्रमण से घिर गए। उनका मनोरथ सिद्ध नहीं हो सका और विवश होकर उन्हें पिछले दरवाज़े से भाग जाना
पड़ा ।
भय ने उसे बेचैन
पिल्ले की चें-चें अभी तक चल रही थी । वह बिलकुल अधमरा हो चुका था, बल्कि कहना चाहिए कि वह अन्तिम सांसें गिन रहा था । हमारे मित्र को चिन्ता हुई कि यह कहीं मकान में ही अन्तिम सांस न तोड़ दे | अतः उसे भगाने के लिए लकड़ी दिखाई । पिल्ला अधमरा हो चुका था, फिर भी उसमें कुछ दम शेष था । मार के कर दिया था, पर ज्यों ही वह भागने के लिए उठा दूसरी और लुढ़क गया। फिर उठने की कोशिश की तो इस ओर लुढ़क गया ! उसकी हड्डियों का ढांचा चरमरा गया था और स्थान-स्थान से खून निकल रहा था । अब उसे रोटी का लालच दिखाया गया, पर वह दर्द के मारे इतना पीड़ित था कि उसने रोटी को सूंघा तक नहीं । आखिर उसपर पानी छिड़का गया कि शायद इससे उसके प्राण लौट आएं; पर वह प्रयास भी विफल रहा। अब तो अन्देशा यही था कि वह कहीं मकान में ही प्राण छोड़ दे । अतः हम दोनों ने उसे लकड़ी पर उठा कर रेडक्रास सोसाइटी के स्वयंसेवकों की तरह बाहर गली में फेंक दिया ।
अब हमारा युद्ध का उन्माद ठंडा पड़ चुका था । मौत को अपनी आंखों के सामने देखकर हमारे मन में बैठी करूणा की कच्ची मूरत पिघलने लगी । हम लोग विचार करने लगे कि आखिर उन कुत्तों ने इस पिल्ले को क्यों मारा । आखिर यह भी तो उन्हीं की जाति का ही था । इसकी शिराओं में भी वही रक्त बह रहा था, जो उनकी शिराओं में बहु
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