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संकेतों की भाषा | ११
रहे थे। पास-पास हर जगह लाशों से अटी पड़ी थी। रह-रह कर कोई कर्ण-भेदी चीत्कार कलेजा चीर जाती थी।
सारा गांव खंडहर बन गया था। सिर्फ दो-तीन पक्के मकान और मंदिर ही बचे थे। उन्हीं में सब लोग कांपते हुए शरण पा रहे थे। कुछ लोग जो पहाड़ी की ओर भाग जाने में सफल हो गये, वे तो अलबत्ता आश्वस्त थे, पर जो मकानों और मंदिरों की शरण लिये हुए थे, पल-पल उनका खतरा बढ़ता जा रहा था। कभी उनकी कोई दीवार ढहती थी, तो कभी कोई गोखड़ा । उन्हें लग रहा था कि आज बचने की कोई आशा नहीं है। सब एक-दूसरे से क्षमा मांग रहे थे। सभी लोग तन्मय होकर भगवान से प्रार्थना कर रहे थे। प्रभो ! हमें आज-आज बचा दो, इतने दिन हमने अनेक अन्याय किए हैं । आपका भजन नहीं किया। इस बार बच गये तो आपकी भक्ति करेगे। जीवन को नये सिरे से न्यायपूर्वक जीएंगे। कुछ लोग मन-ही-मन अपने पापों को याद कर उनका प्रायश्चित्त कर रहे थे। सारा वातावरण धर्ममय हो रहा था । पक्के नास्तिक भी पक्के आस्तिक नज़र आने लगे थे, पर उनका ध्यान फिरफिर कर भगवान से हटकर अपने प्राण पर आ टिकता था। सेठ फतहलाल जी के घर में भी आठ फुट पानी बढ़ चुका था। एक मंजिल पूरी पानी में डूब चुकी थी। दूसरी मंजिल पर उनके अपने परिवार तथा आस-पास के 30-35 स्त्री-पुरुष 'जाति-पांति का भेद-भाव भूलकर कन्धे से कन्धा सटाकर एक ही कमरे में खड़े हुए थे। कुछ लोग मौन थे और कुछ प्रलय की कल्पना को सत्य बता रहे थे। चारों ओर पानी के सिवाय और कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था । लगता था कि बस आज ही प्रलय हो जाएगी।
इसी बीच लगभग तीन बजे एक कबूतर भीगता हुआ सेठ जी के कमरे में घुसा। घुसते ही वह अचेत हो गया और सेठ जी के पैरों में आ गिरा । सेठ जी के दया हृदय पर एक मार्मिक चोट लगी। चारों ओर मौत के इस नंगे दृश्य में भी यदि कोई हृदय पिघलता नहीं है,तो उसे मनुष्य नहीं यम ही समझना चाहिए । यद्यपि सेठ जी स्वयं मौत से जूझ रहे थे, पर न जाने उस अनजान पंछी के प्रति कौन से जन्म की ममता उभर आई। उन्हें आभास हुआ यह कबूतर कोई सामान्य कबूतर नहीं है। कोई देवदूत
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