SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्याय का पैसा | ६७. दिल खोलकर दिया है, तो मुझे भी बाप की अन्तिम इच्छा को पूरा देना चाहिए । अतः आपके जितने रुपये हुए हों उतने जी भर कर ले लीजिएगा। मेरे पास ४ भैसे हैं, ८ गाय हैं २०० भेड़-बकरियां हैं, गुड़ है, अनाज है। आपका जितना पैसा बना हो, उतना ब्याज समेत ले लीजिए। सेठजी जरा विस्मित हुए, पर पैसे की बात सुनकर उनके मुंह में पानी भर आया। उन्होंने किसान को तो अन्दर कमरे में बैठा दिया और पुराने बहीखातों को पलटना शुरू किया। ५०-६० वर्षों के जमा खाते में न तो किसान का नाम आता था और न उसके पिता का। किशन ने सेठ जी से कहा--- सेठजी ! आपने कितने वर्ष पुराने बही-खाते देखे हैं ? सेठ जी ने कहा-.५०-६० वर्ष पुराने बही-खाते तो देख लिए। किशन - आप १०० वर्ष पुराने खाते देखिए। मेरे दादा राजाराम के नाम का कोई लेन-देन होगा। यह तो मुझे पता नहीं उन्होंने कितने रुपये लिए थे। इतना हिसाब न मेरे पिताजी को आता था और न मुझे। इसलिए आपके जितने धर्म के रुपये बनते हों आप खुलकर ले लीजिए। हां, हम गरीब हैं, इस बात का ज़रूर ख्याल रखना।। ___एक बार तो सेठ जी के मन में जरा पत्रिता आई। उन्होंने सोचा, कहाँ यह गरीब किसान और कहां मैं एक भाग्यवान सेठ ! इसके मन में अपने-आप को धोने के लिए कितनी भावना है पर मैं कितना कीचड़ में सना हुआ हूँ ! अत: उन्होंने कहा---किशन जी ! सौ वर्ष की बात अब जाने भी दो। आजकल तो 3 वर्ष बाद ही रुपयों की बात खतम हो जाती है। इसी बात के लिए ही मेरा जाने कितने लोगों से झगड़ा चल रहा है। तुम पहले व्यक्ति हो, जो आज मेरे घर चलकर आए हो । बाकी आज घर पर आकर रुपए देने का तो जैसे रिवाज ही उठ गया हो। मैं तुम्हारी इस ईमानदारी से प्रसन्न हूं। अत: तुम्हारे रुपए हैं भी तो आ गए समझो।। किशन-सेठ जी, आपकी यह कृपा तो बहुत बड़ी है. पर मैं कपूत होना नहीं चाहता। मेरे बाप-दादों का जो कर्ज है वह मेरा ही कर्ज है। न जाने ये रुपए आप हमसे किस जन्म के मांगते हैं ? आज नहीं चुकायेंगे तो न जाने किस जन्म में चुकाने पड़ेंगे? इसलिए मैं नहीं चाहता इस परम्परा को आगे तक बढ़ाया जाय। आप अपने रुपए आज ही ले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003159
Book TitleNaye Mandir Naye Pujari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni
PublisherAkhil Bharatiya Terapanth Yuvak Parishad
Publication Year1981
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy