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विवशता / ६५
लोगों का अपना एक बंधा-बंधाया रुटीन बन जाता है । अक्सर वे लोग घर से दफ्तर और दफ्तर से घर का रास्ता ही जानते हैं । बहुत हुआ तो छुट्टी के दिन अपने परिवार या मित्रों के साथ इधर-उधर मनोरंजन कर लेते हैं। इसके सिवा दूसरों के सुख-दुःख में भागी बनना या सार्वजनिक कामों के प्रति दिलचस्पी रखना उनके स्वभाव में नहीं होता, पर यहाँ के नौजवान इस बात के अपवाद थे। इसीलिए वे किसी कठिन कार्य को भी अपने हाथ में ले लेते थे और अपने बुजर्गों के आशीर्वाद से उसे पार भी लगा देते थे । इसीलिए उन्होंने मन्दिरके निर्माण की बात को भी अपने हाथ में ले लिया।
पर कठिनाई तो यह थी कि इसके लिए अर्थ कहाँ से जुटाया जाए ? यह बहुत कम संभव था कि नौकरी-पेशे वाले आदमी बहुत अधिक आर्थिक सहयोग कर सकें, क्योंकि उन्हें जो कुछ वेतन मिलता है वह तो प्रायः दैनिक आवश्यकताओं में ही पूरा हो जाता है। पारिवारिक जीवन से सम्बन्धित या तीज-त्यौहार से सम्बन्धित जो अतिरिक्त खर्च उन पर आ पड़ता है उसके लिए तो उनका बजट पहले से ही धाटे में चलता है। फिर जो लोग स्वाभिमानी हों, उनके लिए भ्रष्ट तरीकों का दरवाज़ा भी बन्द रहता है। अतः उसके लिए बहुत अधिक खर्च कर पाना संभव नहीं था। इसी दृष्टि से कुछ उत्साही व्यक्तियों की एक सीमित बना ली गई जो सारे कार्य को अन्जाम दे सके । उसे सम्पूर्ण अधिकार दे दिये गए कि वह जो कुछ करेगी उसे सब लोग सहर्ष स्वीकार कर लेंगे।
फिर भी अर्थ की दृष्टि से सभी लोगों का ध्यान सेठ धनसुख भाई पर टिका हुआ था । यद्यपि उनके पास धन तो काफी था, पर सामान्य लोगों के साथ उनका सम्पर्क बहुत ओछा था । सार्वजनिक भलाई की दष्टि से भी उन्हें अब तक पैसा खर्च करने का अवसर नहीं मिला था। उनमें स्वयं में तो यह प्रवृत्ति थी ही नहीं गांव के लोग भी उनकी गुलामी करने की अपेक्षा अब तक सारा कार्य सरकारी स्तर पर करवा लेना अच्छा समझते थे । पर अब भारी खर्चा सामने था। अत: एक रविवार के दिन मन्दिर समिति के सभी सदस्य अपनी योजना लेकर सेठजी के घर पर उपस्थित हुए । चतुर सेठ ने बड़े मीठे शब्दों में उनका स्वागत किया, बैठने
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