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विवशता
दरिया किनारे बसे उस गांव में और सब कुछ था पर भगवान के मन्दिर की एक बहुत बड़ी कमी थी । स्कूल, अस्पताल, सड़कें, डाकघर, पानी की टंकी आदि तो यहाँ के जागृत एवं पहुँचवाले लोगों ने अपने प्रभाव से सरकार से बनवा लिये थे, पर मन्दिर के मामले में सरकार से कोई सहकार संभव नहीं था । यद्यपि नौजवानों को मन्दिर जाने में बहुत रस नहीं था, पर जब उनके बूढ़े मां-बाप मौके बेमौके मीलों पैदल चलकर पड़ौस के गांव में दर्शन करने के लिए जाते तो उनका दिल पसीज जाता । कभी-कभी बरसात के दिनों में तो उन्हें भीगते-भीगते बहते नाले से पार होना पड़ता था तब तो बात और भी बेधक बन जाती थी । पिछले वर्ष एक बुढ़िया तो नाले में बह ही गई थी । अनेक लोगों को भीगने से जुकाम हो गया और उनमें से कुछ तो भगवान के दरबार में भी पहुँच गए थे । इसीलिए यह आवश्यकता यहाँ ज्वलंत चर्चा का विषय बनी हुई थी । फिर आसपास के गांवों में सब जगह भव्य मन्दिर बन गये थे । एक गांव के लोगों ने तो उन पर व्यंग्य भी कस दिया था कि सरकार के पास से तुम बहुत कुछ करवा सकते हो, पर अपने गांव में मन्दिर खड़ा कर सको तो हम जानें । सचमुच यह बात यहाँ के लोगों के लिए एक चुभती हुई चुनौती थी । अतः एक सांझ एक अनौपचारिक बातचीत में ही कुछ नौजवानों ने बीड़ा उठा लिया कि वे गांवमें मन्दिर अवश्य बनवायेंगे । इसमें कोई सन्देह नहीं था कि वहाँ के नौजवान शिक्षित, सभ्य एवं कर्मशील थे । सरकार की हर सेवा विभाग में भी यहाँ का कोई न कोई प्रभावशाली सदस्य सेवारत था । यद्यपि आम तौर पर सरकारी सेवा में रहने वाले
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