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बासी टुकड़ों का पुण्य / ६३ मैं सोच रहा था कि इनके मन में विद्रोह की आग़ क्यों नहीं सुलगती ? ये क्यों नहीं कहते कि हमें भी जीने का अधिकार है ? क्यों नहीं कमजोर कुत्ते अपना संगठन बना लेते ? शायद संख्या की दृष्टि से वे तगड़े कुत्तों की अपेक्षा अधिक थे पर उनको इसका एहसास ही कहां था ? संगठित हित नाम का उनके पास कोई नारा ही नहीं था। वे सब अपने-अपने हित को सेकने की फिकर में रहने वाले प्राणी थे। उन्हें भी अवसर मिलता तो शायद वे भी अपने से कमजोर कुत्तों से रोटी झपटने में कमी नहीं रखते। वास्तव में प्राणी जब तक स्वार्थ से ऊपर नहीं उठता है तब तक उसमें करुणा का स्रोत फूट नहीं सकता । सच तो यह है कि निस्वार्थता ही सबमें वड़ा स्वार्थ है। भला जब बहुत सारे मनुष्यों में भी वह निःस्वार्थ-भाव नहीं आता तो कुत्तों से ऐसी आशा करना तो गधे के सिर पर सींग उगाने जैसा ही है। हां, उन्हें देखकर मालकिन के मन में एक संवेदना की लहर अवश्य उठी । इसलिए उसने शेष रोटियां उनकी ओर फेंकी, पर उनके नसीब में वे कहाँ लिखी थी ? तगडे कुत्ते झपटे और उन्हें भी साफ कर गये । मुझे कुछ लोगों की समाजवादी सहानुभूति याद आयी और मैं सोचने लगा कि -क्या कमजोर प्राणियों की नियति में यही बदा है कि वे सदा कमजोर ही बने रहें।
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