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९६ / नए मंदिर : नए पुजारी
के लिए ऊंचा आसन दिया, ठंडा पानी पिलाया। कुछ इधर-उधर की चर्चा करने के बाद पूछा - आज आप सबने मेरे घर को पवित्र कैसे किया ?
समिति के एक सदस्य ने शान्त भाव से कहा-हम लोग गांव में एक मन्दिर की योजना लेकर आपके सामने उपस्थित हुए हैं। सेठजी—यह तो आपने बहुत ही सुन्दर बात बताई । भला इससे बढ़कर
हमारे लिए और सौभाग्य की क्या बात हो सकती है कि गांव
में मन्दिर बने ? सदस्य---हां, इसीलिए हमने यह बीड़ा उठा लिया है, पर आप जानते हैं
यह काम बहुत बड़ा है। इसे आपके सहयोग से ही पूरा किया जा
सकता है। सेठजी -बहुत अच्छा, पर मैं अकेला क्या कर सकता हूं? यह तो सारे
गांव का काम है । अतः इसमें सहयोग करना तो अपना धर्म है,
पर आपने योजना कैसे बनाई है ? सदस्य----योजना को अन्तिम रूप तो आपकी सहमति से ही दिया जा
सकेगा। आप देख लीजिए, यह योजना है । हमारा अनुमान है
कि खर्चा बीस हजार से ज्यादा ही होगा। सेठजी-आपने जो अनुमान लगाया है वह तो ठीक ही है । पर मन्दिर
का खर्च तो बार-बार नहीं होता। यह किसी एक व्यक्तिका तो है नहीं, सारे गांव का है। इसलिए ऐसा नहीं होना चाहिए कि
हम अपने पड़ोस वाले गांव से कम रह जाएं। सदस्य -- पर इसके लिए तो पैसे का सवाल है ? सेठजी--अरे, आप सब लोग हैं तब पैसे की क्या चिन्ता ? मैं भी अपना
तुच्छ सहयोग प्रदान करूंगा, पर इसके लिए हमें जरा बुद्धिमानी
से काम करना होगा। सदस्य---इसीलिए तो हम आपके पास हाजिर हुए हैं। सेठजी---नहीं, मैं क्या चीज हूँ। मैं तो आप जो कहेंगे वह करने के लिए
तैयार हूं, पर क्या मन्दिर पर किसी दानदाता का नाम लगाना अच्छा नहीं रहेगा?
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