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१०० / नए मंदिर : नए पुजारी
में पूछताछ की गई थी। उसे पढ़कर सेटजी के तो होश गुम हो गए। अब तो उन्हें स्वयं मन्दिर निर्माण समिति के अर्थमंत्री के घर जाना पड़ा । अर्थमंत्री ने कहा-सेठजी ! यह काम तो हजारों में नहीं, लाखों में निपटेगा । बदनामी होगी, वह अलग। अतः आप संभल जाइए। सेठजी ने गिड़गिड़ाकर कहा-इसीलिए तुम्हारे पास शाया हूं। यह काम तुम्हारे विभाग का है, किसी तरह मेरी मुक्ति करा दो। इसके बदले में तुम जो भी मांगोगे, वह दूगां । अर्थमंत्री ने सेठजी को झिटकते हुए कहासेठजी ! आपको यह कहते हुए शर्म नहीं आती ! मेरे लिए पाप का पैसा धूल के बराबर है । सेठजी ने संभलते हुए कहा-नहींनहीं, मेरा आशय वह था कि मैं मन्दिर में तुम कहो उतना पैसा
लगा दूँगा। अर्थमंत्र--पर मन्दिर का काम तो अच्छी तरह चल रहा है। सेठजी ----चल रहा है तो उसे और वढाना, पर मेरी मुक्ति करानी होगी।
काफी अनुनय-विनय के बाद आखिर चालिस हजार में सौदा पटा । उस पर सेठजी ने कहा--तुम इस पैसे की चर्चा किसी के पास मत करना । तुम मेरा यह काम निकाल दो मैं तुम्हारा अहसान मानूंगा । अर्थमंत्री मन ही मन अपनी योजना की सफलता से खुश होकर सोच रहा था कि क्या अनेक मन्दिरों की नींवों में ऐसा ही कुछ विवश दान नहीं छिपा हुआ है ?
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