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७६ / नए मंदिर : नए पुजारी पड़ जाता है, पर श्रद्धा का रंग कभी फीका नहीं पड़ता । इसीलिए तब से हर वर्ष हम यहां आते और विनम्र भाव से प्रतिमा के चरणों में अपनेआपको समर्पित करते। देवदत्त भी सदा हमारे साथ रहता । कभी-कभी किसी वजह से यदि हम छुट्टियों में न आ पाते तो बाद में आते, पर यहाँ हर वर्ष आने का हमारा संकल्प कभी खंडित नहीं हुआ।
पर पिछले पांच वर्ष में मेरे यहां आने की प्रेरणा में परिवर्तन हो गया है। अब न तो वह पर्यटन की रही और न श्रद्धा की, अपितु मातम मनाना मात्र रह गयी हो। उस दिन भी हमारा छोटा-सा परिवार--- मैं अचला और देवदत्त यहाँ घूमने तथा देव दर्शन के लिए आये थे। देवदत्त उस समय १५ वर्ष का हो गया था। हमारा उस पर अतिशय प्रेम था। अचला के तो वह प्राणों में अटका रहता था। वह तो उसे बाहर खेलने के लिए भी नहीं जाने देती थी। कभी वह स्कूल से आने में थोड़ी देर कर देता तो अचला उसको लेने पहुंच जाती थी। कभी उसे थोड़ा-सा जुकाम भी हो जाता, तो अचला की नींद हराम हो जाती। मुझे अचला का यह अतिशय पुत्र-प्रेम कुछ पागलपन-सा लगता, पर देवदत्त के प्रति मेरी ममता भी कम नहीं थी । मैं उसे एक योग्य व्यक्ति बनाना चाहता था। मैं नहीं चाहता था कि वह भी मेरी ही तरह शिक्षक बनकर एक छोटी-सी जगह में उलझ जाये।
___मैं उसे बड़ा आदमी बनाना चाहता था। मेरा विचार था कि अचला अतिशय प्रेम में पालकर उसे कायर और कमजोर बना रही है। इसीलिए तो उस दिन जब देवदत्त बांध में नहाने की जिद करने लगा तो अचला ने उसको जाने नहीं दिया। उसने कहा था--तुम्हें नहाना है तो, इधर नल पर नहा लो, पानी में नहीं जाने दूंगी। पर देवदत्त तालाब में नहाने का आग्रह कर रहा था। तालाब में और लोग भी नहा रहे थे। कुछ बच्चे तैर भी रहे थे। उन्हें देखकर ही देवदत्त के मन में नहाने का भाव जागा था । यदि देवदत्त किसी अन्य चीज या खाने-पीने का आग्रह करता तो अचला उसकी बात को कभी नहीं टालती, पर पानी के निकट जाने में उसकी ममता को कुछ खतरा-सा दिखाई दे रहा था। अतः उसने कडाई से देवदत्त को रोक दिया। वैसे देवदत्त अपनी मां के लाड़ को
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