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________________ ७८ / नए मंदिर : नए पुजारी मैंने मधुर व्यंग करते हुए कहा - अब सावधानी के लिए तुम भी हमारे साथ आ जाओ तो अच्छा रहेगा। _अचला ने संकुचाते हुए कहा-इतने आदमियों के बीच में अच्छी लगूंगी? और फिर हम दोनों कपड़े उतार कर तालाब में नहाने लगे । मैं अत्यंत सतर्क धा । देवदत्त को मैं अपने पास ही रखे हुए था। हम लोग धीरे-धीरे तालाब की चौकियां उतर कर थोड़े पानी में नहाने लगे। तारुण्य की मस्ती में देवदत्त मेरे से थोड़ा आगे उतर गया। मैं उसको मना करता, इतने में एक करुण चीत्कार के साथ देवदत्त पानी मैं गायब हो गया। मैं थोड़ा उसके पीछे दौड़ा, पर मैं भी तैरना नहीं जानता था । अत: आगे. नहीं जा सका। मैं वहीं खड़ा 'बचाओ, बचाओ' की आवाज़ लगाने लगा। थोड़ी दूर पर कुछ लोग नहा रहे थे। उनमें से एक-दो आदमी पानी में कूदे. पर देवदत्त का कोई पता नहीं लग सका। काफी लोग मेरे चारों ओर एकत्र हो गये। मुझे तो काटो तो खून न रहा । मुझे इस बात का तो दुख था ही कि मेरी वजह से आज देवदत्त अचानक इस लोक से बिदा हो गया, पर मुझे अचला की याद कर अत्यंत लज्जा आने लगी। में सोचने लगाअब मैं अचला को कैसे अपना मुंह दिखाऊँगा? कुछ देर तक तो मुझे सूझ ही नहीं पड़ा कि क्या करना चाहिए। लोग मुझे सान्त्वना दे रहे थे, पर मेरा तो जैसे कलेजा फट रहा था । एक क्षण तो मुझे विचार आया कि अब मैं भी पानी में कूद कर जल-समाधि ले लू। पर कुछ तो लोगों ने मुझे घेर रखा था, कुछ जीबन का अव्यक्त मोह था, जिससे आत्महत्या नहीं कर सका। और इतने में मूछित भी हो गया। मुझे फिर कुछ भी पता नहीं रहा कि क्या हुआ । जब मुझे होश आया तो मैंने देखा कि अचला मुझे अपनी गोद में लिटा कर मुझ पर हवा कर रही है। उसकी आंखों में आँसुओं की धारा बह रही है ।मैं तो कुछ बोल भीनहीं सका। अचला ने रोते-रोते कहा-अब जो हुआ सो हुआ, उसको भूलो । चलो अपने घर चलें। ___ मैं अब कर ही क्या सकता था ? मैंने कहा-अचला! मुझे क्षमा करो। मैं तुम्हारे पुत्र का हत्यारा हूँ ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003159
Book TitleNaye Mandir Naye Pujari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni
PublisherAkhil Bharatiya Terapanth Yuvak Parishad
Publication Year1981
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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