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१२६ / नए मंदिर : नए पुजारी
इन बड़े लोगों को किसी का ऊपर उठना सुहाता ही नहीं। ये सोचते हैं कि कोई हमसे ऊपर नहीं उठ जाय । खुद तो शादियों में बड़े-बड़े भोज करते हैं, दूसरा छोटा-सा भोज कर लेता है तो उसकी ओर अंगली उठाते हैं, समाज में बदनाम कर देते हैं । खुद तो बड़ा-बड़ा दहेज देते हैं, दूसरा यदि ऐसा कर लेता है तो उस पर टीका-टिप्पणी करने लगते हैं। सचमुच ये बड़े खतरनाक होते हैं। - प्रभात उसकी फुसफुसाहट को समझ गया, पर वह जरा भी विचलित नहीं हुआ। हालांकि परिस्थिति ऐसी थी कि वह उनसे विरत हो सकता था । वह तो उनकी भलाई के लिए ही ऐसा कह रहा था, वे लोग उल्टा उसे ही गलत समझने लगे। ऐसे ही अवसरों पर आदमी की पहचान होती है। प्रभात ने सोचा- उपेक्षा से जो खिन्न नहीं हो जाय और अपेक्षा से फूलकर कुप्पा न हो जाये वही तो सच्चा इन्सान है। उसने अपने हृदय को टटोला । उसके मन में कहीं कोई पाप नहीं था । वह तो एकान्त रूप से उनकी भलाई के लिए ही उनसे आग्रह कर रहा था, पर उसकी दवा का उल्टा असर हो रहा था। वह उनको उनके भाग्य पर छोड़ सकता था । जब रोगी दवा लेना ही नहीं चाहे तो डाक्टर विचारा क्या करे ? जब वे प्रभात की बात मानना ही नहीं चाहते तो वह क्यों उनसे अपना सिर टकराये । लेकिन नहीं, प्रभात इतनी-सी आंच पर पिघलने वाला पदार्थ नहीं था। वह समाज के हर व्यक्ति को अपना ही सम्बन्धी मान रहा था। उसे डर था कि कहीं ये लोग इस कीमती हीरे को यों ही न गंवा दे। इसीलिए उसने कुछ और पूछताछ की। उसे पता लगा कि उनका एक बड़ा भाई यहां और है । वह उसी के पास गया और बोला-भाई साहब ! आपको अपने छोटे भाई को इतने कीमती गहने नहीं पहनाने चाहिए। उसने कहा-पर हमारे पास तो कोई कीमती गहना नहीं है । प्रभात ने अंगूठी की ओर संकेत कर कहा कि यह कितने रुपयों की है ! बड़ा भाई बोला--यह तो कोई बहुत कीमती नहीं है। एक आदमी साठ. सत्तर रुपयों में हमारे पास गिरवी रख गया था। आज दो वर्ष हो गए, वह लौट कर ही नहीं आया । घर पर पड़ी थी, छोटा भाई उसे पहन आया।
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