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मा फलेषु कदाचन | ११७ मिश्रित आश्चर्य से एक बार मेरी ओर देखा और फिर घास की ढेरी की ओर देखा । बिना किसी प्रयत्न के उसे सोप के रेंगने से तत्काल बनी टेढ़ी -- मेढ़ी रेखा दिखाई दे गयी । अब उसे विश्वास हो गया कि सांप अभी-अभी: ढेर के अन्दर घुसा है ।
अच्छा होता, मेरी बात सुनकर वह लौट जाती या ढेरी के दूसरे किनारे से घास लेकर चली जाती, पर होनहार कुछ और ही थी । युवती के मन में साहस मिश्रित कुतूहल की एक लहर उठी और उसने उसी जगह जेवा को घास में घुसेड़ा, जहाँ सांप छिपा बैठा था। मैंने उसे बहुत मना किया कि ऐसा मत करो, सांप किसी का दोस्त नहीं होता । उसका तो बच्चा भी खराब होता है । फिर यह तो मोटा-ताजा काला भुजंग है, पर युवती ने मेरी बात नहीं मानी । वह मेरी संदेहासिक्त कायरता पर मुसकराई और बोली क्या सांप मुझे काटने के लिए ही बैठा है ? मैंने बहुत सांप खिलाएं हैं । हम बनिया नहीं, किसान हैं। हम ऐसे खतरों से नहीं डरते । मुझे उसके कोमल चेहरे ने फिर दयार्द्र किया । और मैं फिर गिड़गिड़ाया- अरे ! जाने भी दो । क्यों जानबूझकर मौत के मुह में हाथ डालती हो ? पर वह तो मानी ही नहीं । उसने बलपूर्वक जेवा को घास की ढेरी में घुसेड़ा और बड़ी ताकत से ऊपर उठाया । संयोग ऐसा हुआ कि साँप जेवा में उलझ गया। ज्यों ही युवती ने अपने हाथों को आकाश में उछाला, सांप भी घास के साथ आकाश में उछल गया। अब तो वह बहुत क्रुद्ध हो चुका था । आकाश से वह ठीक युवती के पास ही गिरा । उससे पहले कि युवती संभलती क्रुद्ध सांप ने अपनी लपलपाती जिह्वा से उसे डस लिया । एक करुण चीत्कार के साथ युवती उछलकर नीचे गिर पड़ी ।
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इतने में राह चलते कुछ और लोग भी इकट्ठे हो गए । सबने स्थिति का जायजा लिया। कोई तुनककर बोला - इसने जान-बूझकर क्यों काल के गाल में हाथ डाला ? कोई बोला - होनहार ही ऐसी थी । काल ही इसे खींचकर यहाँ लाया था। कोई बोला - भगवान की ऐसी ही मरजी थी, नहीं तो भला यह क्यों जान-बूझकर ऐसा खेल खेलती ? कोई बोला - यह तो सांप ने अपना पिछला बैर लिया है । इसी प्रकार की अनेक आवाजें मेरे कानौं से टकराती रहीं। मैंने सोचा जो होना था, वह हो चुका। अब
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