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११८ / नए मंदिर : नए पुजारी
तो इसके प्राण बचाने का कोई उपाय करना चाहिए। सभी लोगों की राय लेकर मैंने उसे एक वाहन पर बिठाया और उसे उसके घर छोड़ आया । घर वालों ने उसे बचाने के अनेक प्रयास किए। उसे घी पिलाया, नीम के पत्ते खिलाए, मंत्रवादी को बुलाया, विष खींचने वाले ओझा को बुलाया रामदेव जी के देहरे भोपों का नृत्य करवाया, पर उसका विष नहीं उतरा ।
शाम को मैं फिर उसके घर गया। उसके मुँह से बराबर खून निकला जा रहा था । धीरे-धीरे वह नीली पड़ती जा रही थी । उसका सुन्दर चेहरा डरावना बन चुका था । परिवारिक लोक बुरी तरह से रो-पीट रहे थे। अपने माता-पिता की वह इकलौती लड़की थी। उन्होंने उसे बड़े लाड़• प्यार से पाला-पोसा था। बड़े उल्लास से साथ उसकी शादी की थी। वर्षों तक बड़ी सावधानी से पाला-पोसा पर वह वृक्ष मृत्यु के एक ही झोंके से ध्वस्त हो गया । उसका पति भी निरुपाय उसकी ओर टकटकी लगाए देख रहा था । मैं सोचने लगा - यदि मैं उसे सांप की बात नहीं बताता तो क्या उसकी मृत्यु होती ? शायद नहीं । और मुझे अपनी ही अनुकम्पा पर तरस आने लगा । मुझे लगा, जैसे यह पाप मैंने ही किया है, पर दूसरे ही क्षण मैंने सोचा - मैंने तो उसे बचाने का ही उपाय किया था, फिर भी अब मैं समझ गया हूं कि हमारी क्रियाएं केवल अच्छी प्रतिक्रियाओं से ही जुड़ी हुई नहीं हैं, उसके साथ बहुत-सी बुरी प्रतिक्रियाएं भी जुड़ी हुई हैं । असल में कर्म को परिणाम नहीं, भावना में आंकना चाहिए ।
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