________________
११६ / नए मन्दिर : नए पुजारी
है। असल में अच्छा और बुरा कुछ नहीं होता। यह केवल हमारा भ्रम है ।
मैंने उससे पूछा-आज अचानक तुम्हें यह सम्यक्त कैसे मिल गया ? रोज तो तुम मुझसे इस बात पर बहस किया करते थे। उसने कहा -- आज प्रातःकाल मैं शोच-निवृत्ति के लिए जंगल जा रहा था। रात-भर की गर्मी के बाद ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। इतने में साढ़े तीन हाथ का 'एक काला भुजंग मेरी दायीं ओर से निकलकर बायीं ओर घास के ढेर में घुस गया। एक क्षण के लिए मैं स्तंभित रह गया। मुझे लगा, जैसे मेरे सामने से साक्षात् मृत्यु का जुलूस निकल गया है। मेरे कदम बड़े संभलसंभलकर पड़ रहे थे। एक क्षण पहले मैं जिस उन्मुक्तता से चल रहा था, वह अब संदेहों से भर गयी थी। अब मुझे हर झाड़ी से साँप की सरसराहट सुनाई दे रही थी; वल्कि मुझे लग रहा था कि जैसे आकाश से भी साँप झर रहे हैं। फिर भी मैं साँप के चलने से बनी टेढ़ी-मेढ़ी लकीर की लांघ कर आगे बढ़ गया। यद्यपि मैं तेजी से आगे जा रहा था, पर मेरा ध्यान बराबर पीछे रहे घास के ढेर की ओर ही मुड़ रहा था।
थोड़ी दूर आगे जाकर मैं शौच से निवृत्त होकर लौट आया । अब भी तरह-तरह की आशंकाएं मेरे मन में उमर रही थीं। इतने में मैं देखता हूं एक नवयुवती हाथ में एक टोकरी लेकर बेधड़क उसी घास की ढेरी की ओर आ रही है, जिसमें वह साँप छिपकर बैठा था। अचानक मेरे सामने जैसे बिजली कौंध गयी। मुझे लगा कि बस अभी साँप निकला और इस युवती को काटा। न जाने इसकी आँखों में कितने सपने तैर रहे होंगे। न जाने इसने क्या-क्या योजनाएं बना रखी होंगी, पर अगले क्षण वह सारी ताश के पत्तों से बने महल की भांति ढह जाएंगी। एक क्षण के लिए मुझे यह भी लगा कि हमारे जीवन में अज्ञान की भी कितनी आवश्यकता है। यदि हम हर क्षण तमाम परिवेश से परिचित रहें तो शायद एक क्षण के लिए भी भय से मुक्त न हो सकें। न जाने मृत्यु हम पर कितने हाथों से प्रहार कर रही है। हम उन सब प्रहारों से जानकार नहीं है । यदि जानकार होते तो त जाने अपने चारों ओर हमें कितने साँप लहराते नजर आते । और अचानक मेरे मुँह से करुणा का स्रोत फ़ट पड़ा - अरे जरा संभलना । अभी-अभी एक साँप इस घास की ढेरी में घुसा है। उसने संदेह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org