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परिवर्तन
उस बच्चे को शराब की दुकान पर देखकर मुझे अपना बचपन याद आ गया। मैं भी एक दिन इतनी ही उम्र में अपने बाप के साथ पहली बार ऐसी ही दुकान पर पाया था। मेरा बाप शराबी था। पता नहीं, उसे यह आदत कब लगी थी, पर जब से मैंने होश संभाला, वह खूब छककर पीता था। दारूखाने में तो पीता ही था, पर घर पर भी उसे परहेज नहीं था। मेरी माँ पहले-पहले थोड़ा विरोध करती थी, पर जिस दिन विरोध करती उस दिन उस पर मार पड़ती। इसलिए धीरे धीरे माँ ने तो विरोध करना ही छोड़ दिया। फिर भी कभी मेरा बाप जब ज्यादा पी लेता था, तो बिना किसी वजह ही गालियाँ बकने लगता । साधारणतः मेरी माँ नहीं बोलती, पर जब कभी वह मुंह खोल लेती तो उसकी पिटाई हो जाया करती थी। घर में भयंकर गरीबी थी। बाप कड़ी मेहनत करता था। अत: अपनी थकान उतारने के लिए उसे पीना जरूरी था । माँ भी मेहनत करती थी पर वह पीती नहीं थी। वह यथासंभव पिताजी को अपनी अपेक्षा अच्छा खाना देती थी। कभी-कभी तो जब शराब नहीं मिलती, तो पिताजी इतने नर्वस हो जाते थे कि ने निढाल होकर घर आकर पड़ जाते । माँ को उन पर दया आती और वह अपने बचाये हुए पैसों से शराब लाकर पिलाया करती थी। बल्कि कभी कभी तो शराब के लिए पिताजी माँ को इतना पीटते थे कि बेचारी अधमरी हो जाती । इसलिए मार की अपेक्षा उसे यही अच्छा लगता था कि पहले ही शराब की व्यवस्था कर दी जाय, पर मै देखता था कि मार खाने पर भी उसकी आँखों में दया की छाया ज्यादा दिखाई देती थी। पतिव्रत धर्म की भावना उसमें कूट कूट कर भरी हुई थी।
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