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हिंसा की तस्वीर : अहिंसा का फ्रेम | १०७ थे। हाथ में एक टूटी हुई लकड़ी थी । उसी के सहारे धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए सिर पर खड़िया मिट्टी का बर्तन रखे वह आँगन की देहरी तक ऊपर चढ़ आई थी। छाया में खड़ी होकर उसने अपना पसीना पोंछा। ___एक मिनट के लिए मेरे मन में प्रश्न उठा--संगमरमर के इस महल में आखिर खड़िया मिट्टी की क्या आवश्यकता होगी? पर दूसरे ही क्षण इसका समाधान भी मिल गया। राजस्थान के आम रिवाज़ के अनुसार दीपावली के अवसर पर मकान के कुछ हिस्से को मिट्टी से पोतकर उस पर हिरमिच से भांति-भांति के चित्र उकेरे जाते हैं। हालांकि गोबर से लिपे मकानों के फर्श पर वे चित्र ज्यादा खिलते हैं, पर फिर भी परम्परा के अनुसार हर घर में उस प्रथा को निभाया जाता है । चूंकि अब दीपावली निकट आ गयी थी, इसीलिए बुढ़िया मिट्टी लेकर उसे बेचने निकली थी। भले ही साग घी और मसालों से स्वादिष्ट बनता है, पर उसमें नमक का भी अपना एक स्थान है । उसी प्रकार सेठ जी के इस देवोपम मकान में खड़िया मिट्टी का भी अपना एक उपयोग था। इसी आशा से बुढ़िया वहाँ पहुँची। न जाने उसके कितने अरमान जमी हुई मिट्टी की तहों के बीच कुलबुला रहे थे । शायद लक्ष्मी-पूजा के लिए सामग्री जुटाने हेतु ही वह इतना कठिन परिश्रम कर रही । न जाने इसने कितनी बार लक्ष्मी की पूजा की होगी, फिर भी अभी तक लक्ष्मी इस पर प्रसन्न नहीं हई। देश का दुर्भाग्य है कि कहीं सदा दीपावली मनायी जाती है, तो कहीं दीपावली के दिन भी मिठाई हाथ नहीं आती।
मैं इस विचार-प्रवाह में बहा जा रहा था कि इतने में एक नौकरानी उधर आ निकली। आंगन की देहरी पर बुढ़िया को खड़ी देखकर उसे एकदम गुस्सा हो पाया। गरजती हुई बोली-“अरे चोटी! ऊपर क्यों आई ?” बुढ़िया ने गिड़गिड़ाते स्वर में कहा - "बाई जी ! दीपावली के दिन हैं, जरूरत हो तो थोड़ी मिट्टी ले लीजिए।" उसके स्वरों में व्यापारिक कौशल न होकर एक दीन याचना थी। मैंने देखा, भूख ने उसके स्वाभिमान को ही मार दिया । पर, भला सेठजी की नौकरानी को यह उत्तर कहां से पचता ? वह और भी तेज होकर बोली-नीचे उतरती है कि नहीं ? देती हूं धक्का ! आयी है मिट्टी बेचने कहीं ? आँगन सूना
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