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जिनदत्त चरित्र
। ( श्री १०८ प्राचार्य गुएशभद्रस्वामी विरचित)
(ग्रन्थ ७)
अनुवादिका। श्री १०५ गणिनी आयिका रत्न विदूषी सम्यग्ज्ञान शिरोमणी सिद्धान्त विशारद, धर्म प्रभाविका,
थी विजयामती माताजी ( श्री १०८ प्राचार्य महावीर कीतिजी परम्पराय )
प्रबन्ध सम्पादक : जाल जैन "टोंकवाला"
सम्पादक : महेन्द्रकुमार जैन "बड़जात्या"
प्रकाशक: श्री दिगम्बर जैम विजया अन्य प्रकाशन समिति
कार्यालय : जंन भगवती भवन, ११४-शिल्प कॉलोनी,
झोटवाड़ा, जयपुर-३०२०१२
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मन्तव्य
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परम ऋषि प्राचार्य वर्य श्री गुणभद्र स्वामी आत्म-विज्ञान के श्रेष्ठ ज्ञाता प्रतीत होते हैं। प्रात्म परिशोधना के साथ परम दयालु, परोपकार निरत हैं । प्रापकी कृतियों से स्व-पर कल्याण की भावना स्पष्ट झलकती है। समाज कल्याण का स्रोत प्रवाहित है। यतिधर्म की परिपूर्णता व पुष्टता के लिए स्वस्थ एवं पुष्ट श्रावक धर्म भी अपेक्षनीय है। प्रापने प्राध्यात्मिक और नैतिक दृष्टिकोण से सामाजिक जीवन की सफल व्याख्या की है । प्रस्तुत कृति "जिनदत्त चरित्र" भी प्रापकी अपूर्व देन है । एक सामान्य पुरुष अनेक विपत्तियों से आक्रान्त होकर भी किस प्रकार सद्धर्म का पालम्बन लेकर उन प्रापदामों पर विजयी होता है इसके अध्येता इसे ज्ञात कर धैर्य और विवेक प्राप्त कर सकता है। तूफानी सागर में उथल-पुथल, डूबती-उतराती नौका के समान जीवन तरणी को पार करने की कला है इसमें ! एक विवेकी सुबुद्ध जिनभक्त परायण व्यक्ति अपने सहयोग से अनेकों के मिथ्याभिप्रायों का मूलोच्छेदन कर उन्हें सन्मामें प्रदर्शन करता है । अनादि मिथ्यात्व रूपी सपं से इंसा प्राणी जहर से प्राकान्त हो भटकता पा रहा है। नाना प्राधिव्याधि-रोग-संतापों से व्यथित हो असंख्य लेशों का शिकार बना है।
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भोगों को चकाचौंध से चुंधियाया मानव किस प्रकार कर्तव्य च्युत हो दुःख का पात्र होता है यह आज प्रत्यक्ष दिख रहा है। भोग रोग हैं, इनका सेवक पीड़ित क्यों नहीं होगा ? अवश्य प्रशान्त रहेगा। शरीर के प्रसाधक साधनों में भला आत्म की घुटन क्यों न होगी ? प्राज वंज्ञानिक टूटे-फूटे नाकारों से शित हो इन राइ देते हैं विज्ञान ने जल, थल और प्राकाश को बांध लिया है, उसे सर्वत्र गमनागमन की सफलता प्राप्त हो गयी है ।" परन्तु इस विषय को हम प्राध्यात्मिक दृष्टि से विचार करें तो यह कोरी पाशविक शक्ति का थोथा प्रदर्शन है जो त्याग और ध्यान की पवन के एक हलके से झोंके से उड़ जायेगा।
प्रात्मबल बाह्याडम्बर की अपेक्षा नहीं करता। प्रात्म-साधना रत योगी एक निमिषमात्र में न केवल इन जल-थलादि स्थल वस्तुषों की थाह पा ले अपितु मनोलोक (परकीय मन के सूक्ष्म विचार लोक) का भी क्षणभर में परिशीलन करने में समर्थ होजाता है। यही नहीं तीनों लोक और तीनों कालों के अशेष द्रव्यों को गुरण-पर्याय सहित एक साथ एक क्षण में ज्ञात करने में भी समर्थ हो जाता है । प्रस्तु, मनोबल के साथ आत्मिक शक्ति का विकास यथार्थ विकास है।
जीवन के सर्वाङ्गीण क्रमिक विकास के लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ निर्धारित हैं । ये चारों एक-दूसरे के सहायक हैं। इनका पाना और यथोचित प्रयोग करना मानव जीवन की कला है। "इस कला का ज्ञायक किस प्रकार बनता है" यह पाठ इस चरित्र में सम्यक प्रकार अंकित किया गया है । प्राचार्य श्री स्वयं लिखते हैं, "धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ मुक्ताफल-मोतियों के सदश हैं इनको बुद्धि रूपी सूत्र से गूंथ कर जिनदत्त कथा रूपी हार निर्मित करने को मेरा मन चाहता है ।" अर्थात् चारों पुरुषार्थों की सिद्धि एक भव्यात्मा किस प्रकार कर सकता है इस युक्ति का दर्शक यह अन्य है।
__ जीवन कंकरीली, कटीली, टेडी-मेडी, सघन, तमाच्छन्न संकीर्ण पगडण्डी है । इसे पार करना सरल नहीं। तो भी इस दुर्गम, दुरुह पथ को एक सम्यक्त्वी, भव्यप्राणी विवेक ज्योति से, सदाचार के सहारे सुगम, सरल बना लेता है। काम कोपादि कटीली झाड़ियों को सत्य अहिंसा रूपी शस्त्रों के द्वारा काट समता रस से सिंचन करता हुआ
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प्रशस्त मार्ग बनाकर निर्भय बढ़ता चला जाता है । पीछे देखता ही नहीं । क्यों देखे ? आगे प्रकाश है, मार्गे स्वच्छ है, कहीं बाधा नहींसर्वत्र छाया है फिर पीछे घूमने की श्रावश्यकता ही क्या है ? भ्रात्मविश्वास, एटम और अणुबम को अपेक्षा अनन्त गुणी शक्ति रखता है । मनोबल के समक्ष संसार के असंख्य सुभट वराशायी हो जाते हैं !
वर्तमान में मानव, धर्म विमुख होता चला जा रहा है। त्याग, संयमएवं दान की बात सुहाती ही नहीं । ग्रात्म विकास के साधनों -- खिसकते देव, शास्त्र, गुरु एवं इनके उपासक तथा श्रायतनों से हम दूर जा रहे हैं। यही नहीं इनके विपरीत कार्यों - मिथ्यात्व, रात्रि भोजन कन्दमूलादि अभक्ष्य भक्षरण, बिना छना जल पान, नशीली वस्तुओं-तमाखू, पानपराग आदि का सेवन, सौन्दर्य वर्द्धन के नाम से हिंसात्मकपाउडर, लिपिष्टिक आदि का प्रयोग करते हैं । फलतः रोग, भय, शोक, प्रशान्ति, द्वेषादि की वृद्धि होती जा रही है । इस तथ्य का परिज्ञान इस चरित्र के पाठकों को प्राप्त होगा। विलास की दल-दल से निकाल कर प्रशस्त स्वच्छ सद्धर्म मार्ग पर श्रारूढ़ करने के लिए यह टॉर्च के समान है ।
प्रथमानुयोग चारों श्रनुयोगों का सार रूप है। यह अनुयोग प्रन्य अनुयोगों के कपाट उद्धारन की कुञ्जी है । चाबी रहने पर कितना हो मजबूत ताला क्यों न हो ग्रासानी से शीघ्र खुल जाता है । अन्दर प्रवेश हो जाता है तथा वहाँ की गतिविधि वस्तुओं का भी सम्यक् ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार प्रथमानुयोग का अध्येता निर्विघ्न, सफलतापूर्वक अन्य अनुयोगों के हार्ट का ज्ञान-गहन अध्ययन कर भ्रात्म तत्त्व की उपलब्धि करने में समर्थ हो जाता है । पुण्य, पाप क्या है ? उनका बंध किस प्रकार होता है ? श्रात्मा अनन्त शक्ति युक्त होकर भी क्यों परतन्त्र हो जाता है ? कर्म क्या हैं, किस प्रकार प्राते हैं, ठहरते हैं, फल देते हैं ? जड़ होकर भी इनका नाटक किस प्रकार होता है ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान इस अनुयोग के अध्ययन से अनायास हो जाता है। प्रस्तुत चरित्र भी प्रथमानुयोग के अन्तर्गत है । पाठक स्वयं इसे पढ़कर उपर्युक्त प्रश्नों का हल - समाधान प्राप्त कर सकेंगे ऐसा मेरा विश्वास है ।
नारी जीवन जितना सरल है उतना ही कठिन भी है। शील एवं सदाचार नारी का आभूषण है। पति भक्ति उसका कर्त्तव्य है । सद्गृहणी,
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पतिवृत परिरक्षण दक्ष वीराङ्गना किस प्रकार धर्म की छाया मे क्लेश और कष्टों के स्वेद बिन्दुओं को सुखा कर शान्ति का अनुभव करती है यह वतलाता है यह चरित्र । इस कथा की नायिका अनेकों भीषण विपदाओं को अञ्चल में छुपा कर धर्म ध्यान से नाता जोड़ती है। सांसारिक प्रपञ्चों से दूर रह संयमियों की शरण में जा पहुंचती है। कांटों में मुस्कुराते पाटल सुमन की भांति अपने जीवन को समुज्ज्वल बनाती है। वस्तुतः यह कथा मात्र मनोरंजक ही नहीं है अपितु जीवन साधना की कसोटी है। प्रेम, वात्सल्य और एकता की त्रिवेणी है । सम्यग्दर्शन, जान, चारित्र, रूप मुक्ति मार्ग की नसनी है। कायरों के हृदय में भी सच्चे वीरत्व को जाग्रत करने में सक्षम है। एक मात्र पातिव्रत ही नारी की शोभा है।
वर्तमान सुधारकों को यह चुनौती देता है । महिला को (कन्या को) हो विवाह का अधिकार है । एक ही उसका पति हो सकता है यह जन समाजिगर कति है : है और भारी कीवन-आध्यात्मिक जीवन विकास का प्राकाट्य, अटल नियम है। विधवा विवाह और विजातीय विवाह धर्म, समाज और व्यवहार विरुद्ध है इस विषय का इसमें सुस्पष्ट उपास्थान, सबल प्रमाण उपलब्ध है। इसके प्रचार, अध्ययन, मनन, चिन्तन से अवश्य हमारा समाज एक ठोस, उच्चतम नतिक स्तर प्राप्त कर सकेगा यह पूर्ण विश्वास है ।
वैभव की दल-दल मानवता का उत्थान नहीं कर सकती। कोरी सम्पत्ति, ग्रहंकार, स्वच्छंदता, मद एवं उन्मत्तता की हेतू है । धार्मिक संस्कारों से संस्कृत वही विभूति त्याग, दान, संयम से युक्त हो उभय लोक में यश, सुख, शान्ति की कारण हो जाती है। जिनदत्त का जीवन एक समुज्ज्वल डाँचे में ढला है। जहाँ प्रहं की दीवार पा ही नहीं पाती। कषायों की उद्देकता का नामोनिशान नहीं है । सरल, सादा, स्वाभाविक, आडम्बर विहीन जीवन किस प्रकार ज्ञान-विज्ञान, बुद्धि, कला-कौशल का प्रदर्शन करता हुआ विकासोन्मुख होता है यह पाठक स्वयं अनुभव करेंगे।
यद्यपि विषय-कघायों के झटके पाते हैं। जीवनधारा के प्रवाह को एकाएक पलट देते है । यदा तदा विपरीत ही मोड ला देते हैं। तो भी शुद्ध धार्मिक संस्कारों से प्राप्यायित मानव जीवन के उन प्रारम्भिक संस्कारों का मूलोच्छेदन नहीं कर सकत । कच्चे घड़े पर बनाये चित्र
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उसके अग्नि पक्व होने पर भी उसी रूप में बने रहते हैं । ऊपरी धूलमिट्टी से फीके पड़ जायें भले हो परन्तु तनिक से प्रयास से ज्यों के त्यों रहे मिलते हैं। वर्तमान में हमारे माता-पिता अपने बच्चों को सुसंस्कारों से दूर रखते हैं। यही नहीं स्वयं कुसंस्कारों में भी उन्हें डालते हैं, यथा रात्रि भोजन कराना, क्रिश्चियनों के हाथों में पालन-पोषण कराना, वी. डी. मो., टी. बी. दिखाना, रेडियो सुनाना, सिनेमा ले जाना, अभक्ष्य भक्षण कराना इत्यादि । भोग बुरे नहीं यदि उन्हें योग्य सीमा और रीति से सेवन किया जाय । आशक्ति और अमर्याद भोगे भोग अवश्य दुर्गति के कारण होते हैं। जिस प्रकार रोगी रोग की पीड़ा सहन न होने से विरक्त भाव से अत्यन्त कटुक औषधि का सेवन करता है उसी प्रकार विवेकी पुरुष को पञ्चन्द्रिय विषयों को न्यायोचित मांग करना चाहिए । अर्थात् भोग के पीछे त्याग भाव रहना अनिवार्य है ।
अन्त में मैं इतना ही कहूंगी कि यह ग्रन्ध छोटा होकर भी जीवन को महान बनाने में पूर्ण सक्षम है । इसमें श्रावक धर्म और यति धर्म का सुन्दर समन्वय हुना है । हम प्रावक बनकर निर्गन्य मुनि मार्ग पर चलें और आत्मोत्थान करें।
यह ग्रन्थ हमें हिन्दी में देखने को प्राप्त नहीं हुआ । यहाँ पोन्नूरमल में "अन्यलिपि" पढ़ने का प्रयास कर प्रथम इसी चरित्र को पढ़ा । रोचक और शिक्षास्पद होने से मैंने इसे देवनागरी लिपि में उल्था किया। यह संस्कृत भाषा में श्लोकबद्ध है। प्रथम श्लोकों को नागरी लिपि में रूपान्तर कर पुन: हिन्दी भाषान्तर कर आबालवृद्ध की सुलभता के लिए प्रापके सामने उपस्थित करने का प्रयास किया है। इसमें यहां के श्री समन्तभद्र शास्त्री से सहायता प्राप्त हुयी। उन्हें हमारा प्राशीर्वाद है । मूल संस्कृत श्लोक भी साथ में रहेंगे। अतः विद्वज्जन तदनुसार शुद्ध कर अध्ययन करें। भाषान्तर होने से श्लोक एवं हिन्दी भावान्तर में श्रुटि रहना स्वाभाविक है अस्तु, साधुजन सुधार कर पढ़ें और अन्य
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को भी माग दर्शन करें यह मेरी विनम्र प्रार्थना है। अन्य भी विद्वानजन सावधानी से संशोधन करें। यद्यपि हमने पर्याप्त परिश्रम और पूर्ण जागरूकता से यह कार्य किया है तो भी कहीं कुछ कमी रही हो तो उसे सुधार कर लें । इसमें नवरसों का समाहार कर अन्स में शान्त रस की विजय दिखायी है।
इस श्रेष्ठ अन्य के प्राशन का प्राधिक भार धर्म प्रेमी श्री जयचन्दजी, राजकुमारबी एवं श्री महेन्द्र कुमारजी मद्रास वालों ने स्वीकार किया है। प्रकाशन "श्री दि० जैन विजयाग्रन्थ प्रकाशन समिति झोटवाडा जयपुर" से हो रहा है । इस समिति के सम्पादक श्री महेन्द्रकुमार जी बड़जात्या, प्रबन्ध सम्पादक श्री नाथुलाल जी जैन, राजेन्द्रकुमार जी, मुभाष चन्द्र जी आदि सभी कार्यकर्ताओं ने अपना अमूल्य समय दिया है। इन सभी महानुभावों को हमारा पूर्ण प्राशीर्वाद है। इनकी धार्मिक भावना, जिनभक्ति, श्रुत और गुरुभक्ति निरन्तर वृद्धिंगत हो। ज्ञान का क्षयोपशम और चारित्र मोह का उपशम प्राप्त हो यही हमारा पुनः पुनः माशीर्वाद है । इत्यलम् ।।
ग० प्रा० १०५ विजयामती
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परिचय
साघुनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभ्रता हि साधवः ।
कालेन फलते तीर्थ सद्यः साधुसमागमः ॥ साधुओं का दर्शन पुण्यभूत है क्योंकि उनके दर्शन से हमारे पापों का क्षय होता है, परिणामों में निर्मलता प्राती है । साघु स्वयं तीर्थ-स्वरूप हैं क्योंकि वे हमको संसार समुद्र से पार होने का मार्ग बताते हैं। वे संसार के भयंकर दु:खों से उन्मुक्त अनाकुल शाश्वतिक सुख को देने वाले हैं इसलिये भी तीर्थ-स्वरूप हैं। तीर्थ क्षेत्रों को वन्दना तो यथाकाल फल देती है पर साधु संगति हमारे जीवन को तत्काल प्रभावित करती है कहा है -
एक घड़ी माघी घड़ी प्रात्री में भी प्राध ।
मिले साधु को संगति, कटे कोटि अपराम ।। यदि हम चाहते हैं कि हमारा जीवन सुखमय हो तो साषुमों को संगति अवश्य करें और उनकी पवित्र जीवन गाथानों को गहराई से पड़े, अध्ययन करें और तत् रूप बनने का प्रयत्न करें।
अभी मैं आपके सामने नारी जगत की एक महान विभूति, रत्नत्रय की प्रतिमूर्ति स्वरूप परम पूज्या प्रायिका रत्न श्री १०५ गणिनी श्री विजयामती माताजी का संक्षिप्त जीवन परिचय देना आवश्यक समझती हूँ क्योंकि ग्रन्थ को पढ़ने के समय उसका लेखक कौन ? यह प्रश्न सहज ही सबके मानस पटल को छूता है। श्री प्रकलंक देव स्वामी बसे उद्भट् विद्वान ने भी बार-बार यह कहा है कि वक्ता की प्रमागता से वचनों में प्रमागता पाती है इस तथ्य को ध्यान में रखकर, मैं गुरुभक्ति से प्रेरित हुई, टूटे-फूटे शब्दों में, माताजी के जीवन को एक हल्की रूप रेखा याप
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प्रस्तुत कर रही हूँ पर मापके गुणोल्लेख के प्रति मेरा प्रयत्न वैसा ही है जैसे कोई बालक हाथों को फैला - फैला कर समुद्र के विस्तार को कहना चाहे | आपके गुरण समुद्र के समान गम्भीर हैं, मुझ प्रबोध बालिका के लिये प्रापका गुणोल्लेख सर्वथा अशक्य है तो आपकी स्तुति से हमारे कर्मों का क्षय होगा और पाठकों का मार्ग-दर्शन होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं । श्रतः प्रात्म शोधन के लिये मैं आपके पवित्र जीवन को लिखना चाहती हूँ ।
१०५ परम पूज्या अायिका रत्न गरिणनी विजयामती माताजी का जीवन गंगा की जल धारा के समान पवित्र और निर्मल है । आप बालकों के समान सरल, चन्द्रमा के समान शीतल, अमृत के समान मधुर और सुदृढ़ नौका के समान तारक हैं ।
कहावत है 'होनहार वीरवान के होत चीकने पान' सो गर्भ से ही आपके त्याग और वैराग्य की वृत्ति दीखने लगी ।
जब आप गर्भ में ६ महीने को थीं उस समय आपकी माताजी को श्री सम्मेद शिखरजी को वन्दना का दोहला हुम्रा और उन्होंने उस अवस्था में भी पैदल सम्मेद शिकी बना कर ली। इधर आपके पिताजी, प्राचार्य श्री १०८ शान्तिसागर जी महाराज के संघ के साथ पैदल विहार करते हुए सम्मेद शिखरजी पहुँचे । गर्भ से ही आपको गुरुमों का आशीर्वाद मिलता रहा।
आपके जीवन रूपी लता का सिंचन, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्वारित्र रूपी जल से हुग्रा, उसी का प्रतिफल है कि आज प्राप हमारे सामने एक महान तपस्वी के रूप में उपस्थित है ।
आपका जन्म १ मई १६२८ बैशाख शुक्ला द्वादशी विक्रम सम्वत् १६८५ में उत्तरा फाल्गुनी चतुर्थ चरण नक्षत्र में राजस्थान - कामा नगरी में हुआ था । प्रापके पिता का नाम सन्तोषीलाल और माता का नाम चिरोंजी देवी है ।
इस पृथ्वी पर आपका अवतरण प्रातःकालीन उदित हुए सूर्य के समान, भव्य जीवों को प्रफुल्लित करने वाला है । आपका पालन-पोषण विशेष लाड़ प्यार से हुआ था। सभी परिजन पुरुजनों के मन को हरण करने वाली माप अत्यन्त रूपवान और गुणवान थीं। माता-पिता ने
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प्रापका विवाह ८ या १० वर्ष में ही कर दिया था तया १५ दिनों में ही आप विधवा हो गईं । देव का तीव्र प्रकोप देखकर सब लोग शोकाकुल हो उठे। पर आपने अपने को बैराग्य की तरफ ढालकर अपूर्व धैर्य और माहस का परिचय दिया । विवाह के बाद आप ससुराल नहीं गई थीं, मात्र फेरे पड़े, उतना ही समझे, आपको बाल ब्रह्मचारिणी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। नारी का प्राभूषण शील पौर संयम है, ऐसा विचार कर आप अखण्ड ब्रह्मचर्य धारण कर पारा में श्री ब. चन्दाबाईजी के प्राश्रम में पढ़ने लगीं। वहाँ पांचवीं कक्षा में प्रापका नामांकन हुआ था पाश्रम में १६ वर्षों तक रहकर आपने अध्ययन किया। प्रध्ययन काल में अपने से छोटी कक्षा की छात्राओं को पाप पढ़ाती भी थीं। मापकी बुद्धि बहुत प्रखर थी। आप अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करती थीं । आपने बी. ए., बो. एड. कर साहित्य रत्न, विशारद और न्याय तीर्थ की परीक्षायें भी दीं। इसी समय प्राचार्य श्री १०८ महावीर कीर्तिजी महाराज का संघ प्रारा नगरी में पधारा, अब पाएके जीवन में एक नया मोड़ पाया । मैं भी प्रायिका बनूं, तप करू ऐसा भाव बनने लगा । आप गुरू चरणों में शूद्र जल का त्याग कर साधुओं को माहार देने लगी। आपने आचार्य श्री से प्रायिका दीक्षा के लिये भाव प्रगट किया पर महाराज ने कहा कि तुम्हारी दीक्षा मुझसे नहीं होगी पर तुम मेरे पास बाद में अवश्य प्रामोगी। वैसा ही हुआ।
सन् १९६२ में मंत्र बुदी तीज-वि० सं० २०१६ को आगरा में, प्राचार्य श्री १०८ विमलसागर जी महाराज से प्रापने प्रायिका दीक्षा लो उसके बाद सन् १९६४ में सिद्ध क्षेत्र बड़वानी जी में प्राचार्य श्री १०८ महावीर कीर्तिजी महाराज और प्राचार्य श्री १०८ विमलसागरजी महाराज संघ सहित विहार करते हुए पहुँचे। दोनों संघों का चातुर्मास वहीं हुअा । अब भाप गुरु की अनुज्ञा लेकर प्राचार्य श्री १०८ महावीर कीर्तिजी के पास पढ़ने लगी तथा चातुर्मास के बाद प्राचार्य श्री १०८ विमलसागर जी महाराज से अनुमति लेकर माप माचार्य श्री १०८ महावीर कीर्तिजी महाराज के पास ही रहने लगीं।
प्रापको ज्ञान, गरिमा, निर्मल चारित्र और वात्सल्य भाव को देखकर श्री १०८ समाधि सम्राट् प्राचार्य श्री महावीर कीर्तिजी महाराज ने आपको अपनी समाधि के समय-१९७२ में गणिनी पद से विभषित किया था।
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संघस्थ सभी साधु साध्वियों को पढ़ाने-लिखाने का काम विशेष रूप से आप ही करती थीं। अभी भी अध्ययन अध्यापन का कार्य प्रापका उसी क्रम से चल रहा है । पाप ७ वर्षों तक तमिलनाडु में रहीं, यहाँ तमिल भाषा सीखकर आपने तमिल में ही उपदेश करना प्रारम्भ कर दिया था। ग्रन्थ लिपि सीखकर आपने प्राचीन ताड पत्रों के ग्रन्थ भी पढ़े। जो आपकी तत्वरुचि और तीक्ष्ण बुद्धि का परिचायक है । आपके वात्सल्य भाव प्रादि से प्रभावित होकर इन्द्रध्वज विधान के अवसर पर तमिलनाडु जन समाज ने आपको २६-१-८५ को 'जिन धर्म प्रभाविका पद दिया था।
चारित्र और ज्ञान दोनों का समन्वय आपके अन्दर अपने माप में बेजोड़ है। आपने अपने को तप की अग्नि में तपाकर इतना दिव्य कर लिया है कि प्रापका स्मरण भो अन्तःस्थल में व्याप्त विषय वासनामों को दुर्गन्ध का उन्मूलन कर हमें प्रात्मानुभव, प्रात्मचिन्तन और प्रात्ममन्थन के लिये उत्कण्ठित कर देता है।
___ आपकी लेखनी से निकले जो ग्रन्थ, साहित्य व कथाएँ हैं वे जनजन के हृदय में व्याप्त मिथ्यात्व और अचान का निवारण करने में पूर्ण समर्थ है साथ ही युक्ति युक्त और प्रागमानुकूल होने से प्रामाणिक भी है । उनमें कुछ कृतियों का नाम जो मुझे मालूम है वह इस प्रकार है(१) प्रात्मान्वेषण, (२) प्रात्मानुभव, (३) प्रात्म-चिन्तन (४) तजो मान करो ध्यान, (५) महीपाल चरित्र, (६) पुनर्मिलन, (७) तामिल तीर्थ दर्पण (८) कुन्दकुन्द शतक, (६) प्रथमानुयोग दीपिका, (१०) तत्व दर्शन, (११) अमृत वाणी (१२) श्री शीतलनाथ पूजा : विधान का पद्यानुवाद (१३) तत्व दर्शन ।
(१४) यह जिनदत्त चरित्र है । तमिलनाडू में ग्रन्थलिपि में लिखे । ताड़ पत्रों में आपने जिनदत चरित्र पढ़ा था उसका अनुवाद कर यह लिखा है।
आपकी प्रेरणा से तमिलनाडु में जहाँ जिन मन्दिर नहीं थे वहाँ नवीन जिनालय की स्थापना तथा प्राचीन जिन मन्दिरों का जीर्णोद्धार विशेष रूप से हुप्रा है, पांडीचेरी में पंच-कल्याणक प्रतिष्ठा, सेलम व । मद्रास में वेदी प्रतिष्टा विशेष प्रभावना पूर्वक हुई। तमिलनाडू की सोई हुई जैन समाज को जागृत कर उनको धार्मिक कार्यों में सक्रिय कर आपने उन्हें नव जीवन प्रदान किया है।
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मापने अनेकों को नती बनाया, त्याग, व्रत नियम देकर उनके जीवन को पवित्र बनाया है। श्री १०५ कुल भूषणमती जी को आपने कुन्यलगिरि जी में क्षुल्लिका दीक्षा दी थी। संघस्थ क्षु० १०५ जयप्रभा
और क्षु० १०५ विजयप्रभा जी आपसे ही दीक्षित हैं। अापके सान्निध्य में ये लगभग १० वर्षों से अध्ययन कर रही हैं।
आपकी शेली सरल सुबोध है और वचन युक्ति संगत हैं, जिससे बड़े-बड़े विद्वान भी आपके सामने झुक जाते हैं सभी प्रकार की शकामों का समाधान विद्वान लोग आपके पास करते हैं । युग-युग तक प्रापकी सुन्दर देशना हमारा मार्ग-दर्शन करती रहे, ऐसी हमारी भगवान से प्रार्थना है।
अन्त में मैं गुरु चरणों में पुनः पुनः अपनी विनयाञ्जलि प्रस्तुत करती हूँ
"गुरोः भक्ति गुरोक्त: गुरोभक्तिः दिने दिने । सदामेऽस्तु सदामेऽस्तु सदामेऽस्तु भवे भवे ॥
गुरु चरणों में श्रद्धावनत क्षु० १०५ अपप्रभा
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श्री चन्द्र प्रभु जिनेन्द्राय नमः परम् पूज्य समाधि सम्राट चारित्र चक्रवर्ती १०८ प्राचार्य श्री प्रादिसागर जी महाराज, समाधि सम्राट बहुभाषी तीथं भक्त शिरोमणि १०८ प्राचार्य श्री महावीर कीर्तिजी महाराज, चारित्र चूड़ामणि अध्यात्म बालयोगी कठोर तपस्वी १०८ प्राचार्य श्री सन्मतिसागर जी महाराज, निमित्त ज्ञान शिरोमणि १०८ प्राचार्य श्री विमलसागर जी महाराज वात्सल्य रत्नाकर बाल ब्रह्मचारी १०८ गणधराचार्य श्री कुन्यसागर जी महाराज, धर्म प्रभाविका विदुषी रत्न, सम्यग्ज्ञान शिरोमरिण १०८ गरिएनो नायिका श्री विजयामति माताजी एवं लोक के समस्त तपस्वी साधुनों के पावन चरण कमलों में पुनः पुन: नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु करता हुया समिति द्वारा प्रकाशित इस सप्तम् ग्रन्थ "जिनदत्त चरित्र" के प्रकाशन के विषय में दो शब्द पाठकों से निवेदन करता हूँ।
इस शताब्दी के प्रथम चारित्र चक्रवर्ती १०८ प्राचार्य श्री प्रादिसागर जो महाराज "अंकलीकर" ने समाधि से पूर्व अपना आचार्य पद परम् पूज्य १०८ प्राचार्य श्री महावीर कीर्ति जी महाराज को प्रदान
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किया था । परम् पूज्य १०८ प्राचार्य श्री महावीर कीतिजी महाराज बड़े ही विद्वान, मृदुभाषी, बहुभाषी १८ भाषानों के ज्ञाता थे उन्हीं की संघस्थ परम पूज्य १०५ आयिका विजयामतो माताजी ने उनसे शिक्षा ग्रहण की तथा उन्हीं की प्रेरणा से ग्रन्थ लेखन का कार्य प्रारम्भ किया। परम पूज्य १ : कार्य श्री महावीर कीतिक पागज के समाधि से पूर्व अपना प्राचार्य पद पूज्य १०८ प्राचार्य श्री सन्मतिसागर जी महाराज को, गणपर पद पूज्य १०८ गराधराचार्य श्री कुन्थसागर जी महाराज को तथा गणिनी पद परम पूज्य १०५ ग० प्रा० श्री विजयामती माताजी को प्रदान किया । उक्त तीनों ही संघ अपने गुरुषों को परम्परानुसार कठोर तपश्चरण में संलग्न भारत के विभिन्न क्षेत्रों में धर्म की अपूर्व प्रभाबना कर रहे हैं। पूज्य माताजी पिछले कई वर्षों से दक्षिण भारत में धर्म को प्रभावना करते हुए वहाँ उपलब्ध ताड़पत्रों पर हस्तलिखित शास्त्रों का अध्ययन कर रही हैं। बहुत से शास्त्र अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं और न ही उनका हिन्दी अनुवाद ही उपलब्ध है पूज्य माताजी उन शास्त्रों का हिन्दी अनुवाद कर दक्षिण भारत भाषी ग्रन्थों से उत्तरी भारत के जैन समाज को अपने शुभ संस्कार अपने चरित्र निर्माण एवं धार्मिक प्रास्था की ओर प्रेरित कर रही हैं।
जैसा साहित्य हम पढ़ते हैं वैसा ही चरित्र हमारा बनता है, वैसे ही संस्कार हमारे मन, मस्तिष्क पर छा जाते हैं। अपने चरित्र निर्माण के लिए यदि सत् साहित्य पढ़े. किन्हीं महान व्यक्तियों का जीवन चरित्र पड़े तो अवश्य ही हमारे जीवन पर उसका प्रभाव पड़ेगा । पूज्य माताजी ने "महीपाल चरित्र" हमारे समक्ष रखा सभी ओर से उसकी प्रशंसा मुक्त कंठ से हुई।
हमारी समिति से प्रकाशित यह सप्तम् ग्रन्थ "जिनदत्त चरित्र" महान् विद्वान परम पूज्य १०८ प्राचार्य श्री गुरणभद्र स्वामी द्वारा ताड़पत्र पर लिखा गया था, जिसका हिन्दी अनुवाद परम् पूज्य माताजी ने सुबोध शब्दों में एवं रोषक शैली में पाठकों के समक्ष रखा है। श्री जिनदत्त स्वामी के चरित्र को पढ़कर पाठकों में जहाँ गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों का बोध होगा वहीं उन में पितृ भक्ति, गुरु भक्ति एवं धर्म के प्रति आस्था बढ़ेगी ऐसी मुझे प्राशा है । ग्रन्थ जन-जन के उपयोगार्थ प्रकाशन कराने में मद्रास जैन समाज
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के दानवीरों ने प्रार्थिक सहयोग कर शास्त्रदान का प्रक्षय लाभ की प्राप्ति की है, समिति की ओर से उन महानुभावों का धन्यवाद करता हूँ।
__ ग्रन्थ की विषय सामग्री विशेषकर संस्कृत श्लोक मेरे अल्प ज्ञान से अत्यधिक ऊँची है, फिर भी मैने गुरुषों के आशीर्वाद से यह बाल प्रयास किया है, अत: साधुगरण, विद्वजन व पाठकगणों से निवेदन है कि वे त्रुटियों के लिए क्षमा करते हुए उन्हें शुद्ध कर अध्ययन करने का कष्ट करें तथा अपने अमूल्य सुझावों से ग्रन्थ अनुवादिका परम पूज्य माताजी को अवगत करावें ताकि प्रागामी ग्रन्थों में और भी अधिक सुधार मा सके।
पुस्तक प्रकाशन में समिति के सभी कार्यकर्तामों विशेषकर श्री नाथूलाल जी, श्री सुभाषचन्द बसल, श्री हनुमानसहाय शमां का आभारी हूँ जिन्होंने प्रकाशन कार्य को रुचि लेकर सम्पन्न कराया है।
ग्रन्थ में प्रकाशित सभी चित्र एवं मुख पृष्ठ कथा पर आधारित काल्पनिक हैं, यदि कोई विसंगति पाठकों के ध्यान में आये, उससे प्रकाशन समिति को अवगत करायें।
ग्रन्थ की छपाई के लिए कुशल प्रिन्टर्स, जयपुर के संचालकों तथा विशेषकर कम्पोजीटर श्री माधोबिहारीलाल गोस्वामी को धन्यवाद देता हूँ जिनके प्रयत्नों से पुस्तक की छपाई सुन्दर हुई है।
पुनः लोक के समस्त प्राचार्य, गुरुषों एवं पूज्य माताजी के चरणाविन्दों में त्रिबार नमोऽस्तु ३ कर पाशीर्वाद की आकांक्षा लिये हए ।
गुरुभक्त महेन्द्र कुमार जैन "बडजात्या"
सम्पादक
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ॐ नमः सिद्ध म्यो श्री सरस्वती देव्यै नमः परम गुरवे नमः अहंदभ्यो नमः । सशिष्य श्री १०८ प्राचार्य रत्न श्री महावीरकीर्तये नम: !!
जिनदत्त चरित्रम्
(प्रथम-सर्ग) महा मोह तमश्छन्न भुवनाम्भोज भानवः । सन्तु सिडयंगना संग सुखिमः संपवे जिन: ॥ १ ॥
महा मोह रूपी सघन अन्धकार से परिल्याप्त संसार रूपी सरोज को विकसित करने वाले सूर्य-जिनेन्द्र-अरहन्त. परमेष्ठी, सिद्धि रूपी अंगना-बधू का संयोग पाने वाले स्व-पद में सुखी होवें ॥ १ ॥
यदायत्ता जगवस्तु व्यवस्थेयं नमामिताम । जिनेन्द्र बवनाम्भोज राज हंसो सरस्वतीम् ॥ २॥
संसार में समस्त वस्तुओं का जैसा स्वरूप है उनका उसी प्रकार लक्षरण जिन जिनेन्द्र-सर्वज्ञ भगवान के मुखार-विन्द से निरूपित किया गया है उस राजहंसी के समान सरस्वती-वाग्देवी को मैं (मा. गुरगमद्र) नमस्कार करता हूँ।॥ २ ॥
विशेषार्थ :-संसार में अनन्त पदार्थ प्रपने-अपने स्वभाव में स्थित हैं उनका यथार्थ विवेचन प्रनन्त ज्ञानी ही कर सकता है । उस विवेचना का माध्यम वाणी-सरस्वती है। उसे यहां प्राचार्य श्री ने राजहंसी के समान कहा है क्योंकि राजहंसी कमलवन में क्रीड़ा करती है उसी प्रकार यह स्यावाद वाणी भी जिनेन्द्र प्रभु के बदनारविन्द में रमण करने वाली है, सथा राजहंसी के समान क्षीर-नीर न्यायवत् तत्त्वों के ययावत स्वरूप
का प्रतिपादन करने वाली है । अत: उस सरस्वती को नमस्कार करता E हूँ ऐसा प्राचार्य श्री का. प्रभिप्राय है।
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मिथ्याग्रहाहिनादष्ठं सद्धर्मामृत पानतः । प्राश्वासयन्ति विश्व येतान स्तुवे यतिनायकान् ।। ३ ॥
अनादि मिथ्यत्व रूपी सर्प से डंसे संसारी प्राणी त्रसित हैं । यतियों। में श्रेष्ठ प्राचार्यादि अपने सद्धर्मामृत का पान करा कर उन्हें स्वास्थ्य प्रदान करते हैं अर्थात् मिथ्यात्वगरल से उत्पन भ्रम बुद्धि से रक्षा करते ! हैं, उन यतिपुंगवों की मैं (श्री गुरगभद्र स्वामी) स्तुति करता हूँ ॥ ३ ।।।
विशेषार्थ :-इस श्लोक में प्राचार्य श्री ने श्रेष्ठ जिनेन्द्र के लघु नन्दनों-मुनिराजों की स्तुति रूप से प्रशंसा की है। मोह रूपी सर्प के भयंकर विष का निवारण करने में दिगम्बर साधु ही समर्थ हैं। वे स्वयं वान्त मोह होकर संसार के भव्य प्राणियों को सद्धर्मामृत का पान करा कर उन्हें मोक्ष मार्ग पर प्रारूद करते हैं।
मालिन्यो छोतयो हेतू असत्सन्तो स्वभावतः । गुणानां न सयो निन्टा स्तुति तेन तनो घडप !! ४ । ।
दुर्जन स्वभाव से गुणों का अपवाद करते हैं और सत्पुरुष उनके (गुणों का) प्रकाशन करते हैं । अत: मैं (कर्ता) उनकी निन्दा या प्रशंसा नहीं करता हूं ।।४।।
विशेषार्थ :-इस पद्य में प्राचार्य श्री ने माध्यस्थ भावना का सुन्दर चित्रण किया है, साथ ही साधु स्वभाव का अनुपम प्रदर्शन भी। दुर्जन और सज्जन अपने-अपने स्वभावानुसार गुण और गुरगी की निन्दा व प्रशंसा करते ही हैं उनके विषय की चर्चा करना व्यर्थ है । अपने कार्य की सिद्धि मैं दत्तचित्त होना ही साधु का कर्तव्य है।
मनो मम चतुर्वर्ग मार्ग मुक्ता फलोज्ज्वलाम् । मिमवत्त कथाहार लतिका कर्तु मीहते ॥ ५ ॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ प्रत्यन्त उज्ज्वल मुक्ताफल-मोतियों के समान हैं। इनको गूंथ कर जिनदत्त कथा रूपी हार निर्मित करने को मेरा मन चाहता है ॥५॥
विशेषार्थ :-ग्रन्थ कर्ता ने अपने कर्तव्य का निर्देश किया है । "यारों पुरुषार्थों की सिद्धि एक भव्यारमा किस प्रकार कर सकता है।" इस युक्ति को जिनदत्त के चरित्र वर्णन द्वारा निरूपण करने की प्रतिज्ञा की है।
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कथारम्भ
प्रथास्ति भरत क्षेत्रे जम्ब द्वीपस्य दक्षिणे। भीमानंगामिषो देशो वेवावास वापर: ।। ६ ।।
जम्बूद्वीप के दक्षिण भाग में भरत क्षेत्र है । उस क्षेत्र में एक मानङ्ग नाम का देश है । यह अपनी सुषमा से अमरलोक के समान था।' अर्थात् ऐसा प्रतीत होता था मानों दूसरा स्वर्गलोक ही हो ।। ६ ।।
क्रीका मसामरा यन्त्र कोपयन्ति स्वकामिनीः । उद्यानेषु बिलासावध वनपाल विलोकिन: ।। ७ ।।
इस देश में प्रति रमणीय उद्यान हैं। यहां मनुष्य रति प्रादि कोडामों में उन्मत्त हुए अपनी कामनियों के प्रति कोप प्रदर्शित करते हैं। मन पालक इन विलासियों को निरंतर विलोकते हैं। अर्थात् यहां के | बगीचों में सतत् वन-विहार करने के लिए राजा महाराजादि माते रहते हैं ।। ७॥
सविभ्रमाः सपपारच सर्व सेव्य पयोपरा: । कुटिला या राजन्त नद्यः पण्यागना इव ।। ८ ।।
पयोधर-मेघों को विभ्रम के साथ सेवन करते पे अर्थात् विलास पूर्वक प्रानन्द क्रीडा करते हुए इस देश के पुरुष अपनी प्रियानों के साथ बादलों की घटानों का प्रानन्द लेते हैं । दुसरे अर्थ में पीनस्तनी स्त्रियों के साथ रमण करते थे । यहाँ की नदियाँ टेडी-मेडी बहती हुयी वेश्यामों के समान सुन्दर प्रतीत होती हैं ।। ८ ।।
पन्यानं पथिका कामं नामन्ति समुत्सुकरः । अपि अद्गोपिका कान्त रुपासताः पदे पदे ।।६॥
इस देश में पथिक जन इच्छानुसार नहीं चल सकते हैं-कारण कि यहां यत्र तत्र सर्वत्र सुमनोरम दृश्य हैं प्रतः पग-पग पर उस रूप राशि में पासक्त हो खडे रह जाते हैं। जहां-तहाँ सुन्दर गोपिकाएं विविध प्रकार हाव भाव, शृगार एवं नृत्य गीत वादिष का प्रदर्शन करती है उन्हीं में उलझ कर अपने कार्य को भूल जाते हैं ॥९॥
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भान्ति यत्र भुवो ग्राम्याः सर्वतः खल संकुलाः । समृद्धिभिस्तयाप्युच्चैः
इस अनंग देश के अनेकों ग्राम हैं। इनकी श्री भी अनोखी है । चारों ओर हरियाली, धान्य भरे खांलयान है। इनको समृद्धि सज्जनों के प्रानन्द की हेतु हैं । अभिप्राय यह है कि ग्रामीण जन गांवों में गोधनादि से समृद्धि प्राप्त कर सज्जनों के आनन्द के साधन हैं। सरलता से उच्च आशय धारण करते हैं ।। १० ।।
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सज्जनाभन्द हेतथः ॥ १० ॥
निगमानां न चान्योन्यं यस्मिन् सीमावगम्यते । निष्पन्नैः सर्वत: सर्व सस्यजस्तै निरन्तरं ।। ११ ।।
यहाँ के क्षेत्र एक-दूसरे के प्रति सन्निकट हैं। सभी हरे-भरे और फलेफले हैं, किस की सीमा कहाँ से कहाँ तक है यह प्रतीत ही नहीं होता है । सर्वत्र सदा विविध धान्य निष्पन्न उत्पन्न होते रहते हैं। किसी को किसी प्रकार का प्रभाव नहीं, फिर सीमा का प्रयोजन क्या ? ॥। ११ ॥
सच्छाया: प्रोनता पत्र मार्गस्थाश्व विजातिभिः । सेव्यन्ते पावपा थुक्त मेतन्ननु कुजम्ममाम् ।। १२ ।।
यहाँ के मार्गों में सघन छायादार विशाल और उन्नत वृक्ष हैं। सभी पथिकों द्वारा उनका उपभोग किया जाता है। इससे प्रतीत होता है कि वृक्षों के पाप कर्म का यह फल है। क्योंकि उत्तम वस्तु सर्व सेव्य नहीं होती ॥ १२ ॥
वन्याकर समुत्थानं दधाना बहुधा पनं । जाता वसुमती पत्र यथार्थय
राजते दारिद्रय
४ ]
यहाँ खानों की भी कमी नहीं है। हीरा, माणिक, पता आदि की अनेकों खानें हैं इनसे प्रतीत होता है कि पृथ्वी का सार्थक नाम वसुन्धरा या वसुधा है । 'वसु' का अर्थ धन होता है। इसे जो धारण करे वह वसुधा है । इस देश में सोने-चांदी, हीरा आदि की खानों को देखकर सहज ही 'वसुधा' सार्थक नाम उपस्थित हो जाता है ॥ १३ ॥
समंततः ॥ १३ ॥
जनता यत्र जिनपरता सदा । भीतीतिभिरसंगता ॥ १४ ॥
दुर्नयतिक
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यहाँ की जनता धन-जन समृद्धि के साथ जिन धर्म परायण है । जिन धर्म सेवन से शोभायमान रहती है। धर्मात्मा होने से यहाँ दुर्नय, प्रातङ्क: _इति, भीति आदि व्याधियों का नाम निशान भी नहीं है 11 १४ ॥
विशेषार्थ :- धर्म सुख का कारण है । जहाँ धर्म और धर्मात्मामों का निवास है वहाँ प्राधि-व्याधि शोक-संताप पा नहीं सकते । प्रजा निरन्तर अपने धर्म कार्यों में रत है इसलिए अन्याय और तज्जन्य क्लेशों का भी यहाँ प्रभाव है।
कल्याण भूमयो यत्र जिनानां विहितोत्सवा: । भक्तयागतामरै भति पापापोहन पहिताः ॥१५ ।।
इस देश की पावन भूमि में तीर्थङ्करादि के कल्याणक-(गर्भ-जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष) निरन्तर सम्पादित किये जाते हैं। जिनालयों में हमेशा नाना प्रकार के उत्सव होते रहते हैं। पूजा विधानादि किये जाते हैं। यहाँ न केवल मनुष्य ही पाते हैं अपितु पाप कर्म के नाश करने हेतु देव लोग भी पाते हैं ।। १५॥
विशेषार्थ :-इस पद्य में जिन चैत्य और जिनालय का विशेष महात्म्य वरिणत किया है। जिन बिम्ब दर्शन से अनेक भव के पापकर्म-दुष्कर्म नष्ट हो जाते हैं । नवीन पुण्योपार्जन होता है ।
मध्येस्ति तस्य देशस्य बसन्तादि पुरं पुरम् । निर्भतिस्ता मराषीश मगरं निज शोभया ।। १६ ।।
इस अनंग देश के मध्य में वसन्तपुर नाम का अति रमणीक नगर है। यह अपनी शोभा से अमरपुरी अर्थात् स्वर्ग की नगरियों की रमणीयता को भी तिरस्कृत करता है ।। १६ ।।
मही प्रवेशमाविश्य चौरेजेव पयोषिना। जातिका ध्याजतो वयरन हरणेच्छपाः ।। १७॥
इस नगर में चारों ओर दीर्व खाइयां हैं। अनेकों नदियाँ इनमें प्रविष्ट होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानों इस रत्नगर्भा वसुधा के रत्नों को चुराने की इच्छा से ये खाइयों में प्रविष्ट हो रही हैं । अर्थात् खाइयों के बाहने से समुद्र का जल नदियों के द्वारा एकमेक कर दिया गया है ॥ १७॥
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यत्स दीधिका पक्ष : विकास नाप्यते स्फुटम् । कोटिसंरुद्धा दिवाकर करश्वतः ।। १८ ।।
प्राकार
यहाँ विशाल प्रासाद हैं । इनके चारों ओर प्रफुल्लित कमल बन विस्तृत हैं। चारों ओर मगन चुम्बी कोट है उसकी उन्नत सीमा का उल्लंघन करने में रवि भी असमर्थ हो जाता है । फलत: पद्मों (कमलों) को पूर्ण विकाश पाने में बाधा आती है || १८ ||
विशेषार्थ :- कमल स्वभावतः भास्कर की निर्मल किरणों के स्पर्श से पूर्ण प्रस्फुटित विकसित होते हैं। कोट की विशेष ऊँचाई होने से रवि रश्मियाँ पूर्णरूप से नहीं प्रापातीं। इसलिए बचारं सरसिज भी पूर्ण विकासोन्मुख नहीं हो पाते। वस्तुतः यहाँ इस नगर की सुरक्षा का महत्त्व प्रदर्शित किया है ।
यत्र कामिनी कपोलानां कान्तिं हतुं मितेंदुना । क्षालनाथ कलंकस्य भ्राम्यते सौध सनिधौ ॥ १६ ॥
इस विशाल नगरी के प्रासाद महल, मकान गगनचुम्बी हैं, प्रति उन्नत है। इन महलों के चारों मोर ही चन्द्रमा घूम रहा हो ऐसा प्रतीत होता है । कवि की उत्प्रेक्षा है कि मानों चन्द्र यहाँ की लावण्ययुक्त रमणियों के अनुपम कपोलों की सुन्दरता को चुराने के लिए ही वह (द) भ्रमण करता है। चोर रात्रि में ही चोरी करते हैं और नींद भी निशा में संचार करता दिखलाई पड़ता है। क्यों सुन्दरियों का सौन्दर्य अपहरण करना चाहता है ? तो उत्तर में - मानों वह शशि अपने मध्य में रहने वाले कल को धोना चाहता है । अभिप्राय यह है कि मन्दिरों ( घरों) की ऊंचाई अधिक होने से इनके प्रति निकट निशापति ( चन्द्रमा) घूमता प्रतीत होता है ॥ १६ ॥
सुदर्शन कृतानन्दाः सत्या सक्ताः समाः सबा । प्रद्युम्न मोबिनो यत्र समाना विष्णुना जनाः ॥ २० ॥
सातिशय पुण्य शालिनी इस नगरी में सर्व भव्य जन महान पुण्यवान हैं । देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति के प्रकर्ष को सूचित करने वाला यहां की जनता का रूप लावण्य है । इनके देखने मात्र से प्रानन्द उत्पन्न होता है अर्थात् सभी मनोहर हैं, सुन्दर हैं, दर्शनीय हैं। ये सतत् सत्य
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भाषी हैं मधुरालापी, सदाचारी, सरल और मन्दकषायी है । कामदेव को भी तृप्त करने वाले ये जन विष्णु के समान भोगानुभव करते हैं । अर्थात् धर्म पुरुषार्थ पूर्वक काम पुरुषार्थ का सेवन करते हैं ।। २० 11
यन्नारी नयनापाङ्ग रङ्गनों बल्लता । वासो निः संशयं चके शान्तानामपि मानसे ।।२१।।
प्रमदा जन की रूपराशि-कान्ति अद्वितीय है । इन के नयन कटाक्ष कामदेव को भी उन्मत्त करने वाले हैं। साधारण जन की क्या बात शान्तरित्त साधुजन के मन को भी चञ्चल करने में समर्थ हैं । अर्थात् स्वभाव से काम विजयी जनों के मन में भी प्रवेश कर उन्हें विचलित करने में समर्थ हैं। अभिप्राय यह है कि यहाँ की रणियाँ रति मोर तिलोत्तमा प्रादि को भी तिरस्कृत करने में समर्थ हैं । रागियों की क्या बात त्यागियों का भी धैर्य शिथिल करने में समर्थ है ।। २१ ॥
चित्र विचित्र महाsपि जिन सन परंपरा। मानोन्नतानिहन्त्याशु यस्मिन् पापानिपश्यतां ॥२२॥
इस नगरी के जिनालयों की छटा अनूठी ही है । चित्र-विचित्र कलाओं से अनेकों कूट-शिखर बनाये गये हैं। विशाल और उन्नत जिनालयों के दर्शन करने से ऐसा प्रतीत होता है मानों ये ऊँचाई से शीघ्र ही दर्शकों के पाप पुन को नष्ट करने वाले हैं । अपूर्व पुण्य परमाणुनों से निर्मित समुन्नत जिनालय पाप समूह का नाश करने में पूर्णतः समर्थ हैं । अर्थात् देखते ही दर्शकों के मानसिक कालुष्य को नष्ट कर परम शान्ति प्रदान करते हैं ।। २२ ।।
मालावलम्बी शीतांशु करस्पर्शः सुखावहः । प्रस्योऽपि प्रिय स्त्रिभि रताम्ते यत्र सेव्यते ॥ २३॥
यहाँ यत्र-तत्र क्रीडा गृह बने हुए हैं। उनमें अनेकों झरोले हैं उनसे इन्दु की किरणें रात्रि में प्रविष्ट हो कामियों का स्पर्श कर उन्हें उत्तेजित करती हैं शान्ति प्रदान करती हैं । अपनी-अपनी प्रियानों के साथ रति सुखानुभव कर अमित जन अन्त में विधु (चन्द्रमा) को सुखद-शीतल चन्द्रिका किरणों को सेवन कर श्रम को दूर करते हैं । सुखोत्पादक चन्द्र ज्योत्स्ना एवं शीतल वाय मिएनों की बान्सि और स्लान्ति को दूर कर देती है ॥ २३॥
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यान्तीनां यत्र संकेत निकेतं निशियोषितां । निजाभरण भा भार प्रसरो विघ्न कारकः ॥२४॥
इस नगरी का विलास वैभव अपूर्व है । यत्र-तत्र संकेत गृह बने हुए हैं । रात्रि में पण्यस्त्रियाँ-वेश्याएँ अथवा अन्य भोग स्त्रियाँ इन सांकेतिक निकेतनों में नाना प्राभरणों से सज्जित, अलंकारभार से भरित जाती हैं-पाती हैं। इनके निरंकुश संचार में वह विधु-चन्द्र प्रकाश विश्नकारक प्रतीत होता है । चोर और कुलटानों को निशाकर की चाँदनी प्रिय नहीं लगती अपितु वे उसे अपने गुप्त कार्यों में बाधक ही मानते हैं क्योंकि मन-माना कार्य नहीं कर पाते । अत: अभिसारिकामों को वह विघ्न कारक प्रतीत होता है ।। २४ ।।
नित्यं सत्याग सम्पन्नर जना यत्र विमत्सराः। एकान्त संचित द्रव्यं लज्जयन्ति धनाधिपम् ॥२५॥
इस नगरी के नागरिक धर्म भावना और त्याग भाव से संयुक्त हैं। परस्पर मात्सर्य भाव से रहित हैं फिर ईर्ष्या क्यों ? अपितु स्पहा युक्त हैं । न्याय नीति पूर्वक धनोपार्जन करते हैं । सदाचार के कारण सभी न्यायोपार्जित द्रव्य-अतुल वैभव से कुबेर को भी तिरस्कृत करते हैं। अर्थात् इनकी निरुत्सुक, त्यागमयी विभूति के समक्ष स्वयं घनद कुवेर लज्जानुभव करता है। संसार में कुवेर सर्वोत्तम घनिक माना जाता है, किन्तु इस बसन्तपुर के वैभव के समक्ष उसका भी मान गलित हो गया प्रतीत होता है ॥ २५ ॥
पद्मराग प्रभाजाल लिप्ताङ्गो मरिणकुटिमे । शङ्कते कामिनो यत्र कत्त कुकुम् मानम् ॥ २६॥
यहाँ जहाँ तहाँ पद्मराम मरिण को कान्ति से द्योतित प्रङ्ग वाली मणिमय कृत्रिम पुत्तल्लिकाएँ बनी हैं जिनको देखते ही कामीजन शकाकुल हो जाते हैं। उन्हें यथार्थ कामिनी समझते हैं सोचते हैं ये साक्षात् रमणियाँ कुंकुमार्चन कर अपने मुख की शोभा बढ़ा रही हैं। राज प्रासाद में पपराग मरिणयों से बनायी गई पुत्तलिकाएं साक्षात् प्रमदा का भ्रम उत्पन्न करती हैं ।। २६ ।।
भगः सङ्गतो यस्य न समस्चना शेखरः। बभव भूपति स्तत्र नाम्ना श्रीश्वनाशेखरः॥२७॥
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जिसके गले में सपं है, मस्तक पर-चूडा में चन्द्र लगा है उसे चन्द्रशेखर-महादेव कहा जाता है । उस नगरी में इसे भ्रमति करने वाला चन्द्रशेखर नाम का राजा हुना। वस्तुत: महादेव-शिवजो को भी प्रवहीलन करने वाला यह राजा यथा नाम तथा गुण संपन्न हुभा ॥२७॥
ननं निवेशिता कान्ति स्तनौ विधिनापरा। मध्यादिन्दोः कथं तप कलंक किरण तान्यया ॥२८॥
राजा की शरीर कान्ति विधाता ने अद्वितीय बनायी थी यही नहीं प्रत्येक प्राङ्गोपाङ्ग की रचना करने में मानों चन्द्रमा की समस्त कलात्रों का निचोड लेकर प्रयोग किया था अन्यथा चन्द्र के मध्य में स्थित कला यहाँ भी पा जाता ? किन्तु उस कलङ्क से चन्द्रशेखर नपति सर्वथा रहित था । अभिप्राय यह है कि चन्द्रमा तो कलंक सहित होता है परन्तु नृपति चंद्रशेखर निष्कलङ्क सौंदर्य सम्पन्न था ।। २८ ।।
बभब भुवने यस्य कोतिः कुन्देन्दु निर्मला । विगङ्गना यया रेजुः स हारलतिका इमः ॥२६॥
उस राजा की कीर्ति कुन्द पुष्प की सुवासना एवं निर्मल इन्दु-चन्द्र की चांदनी के समान निर्मल दिग्दिगन्त में व्याप्त थी । संसार में मात्र ज्याप्त ही नहीं थी अपितु दिशा रूपी वधुओं ने उसे अपने गले का सुन्दर हार बनाकर गले में धारण कर लिया था। जिससे वे सुशोभित हो रही पौं। अर्थात् कण्ठहार के समान राजा का यश दिशाओं ने धारण किया ।। २६॥
विच्छिन्न मण्डला भोगा विकला क्षण नाशिमी। यस्यारि संहति जतिा मूर्ति रिन्बो रिवाधिमा ॥३०॥
इस राजा का शत्रु समूह सर्वथा विच्छिन्न था, कहीं भी कोई समूह बना कर राजा के प्रति निन्दा मादि व्यवहार नहीं करते थे। शत्रु सेना स्वयं विकल चिन्न-भिन्न हो जाती, क्षणभर में युद्ध स्थल से भाग खड़ी होती । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार चन्द्र माकाश में भ्रमण करता है परन्तु इस भूपति का शत्रु सैन्यवल मूर्ति के समान स्थित हो गया। पर्थात् राजा के बल-पौरुष के समक्ष शत्रुगण मूर्तिवत् हो गये । कोई भी इसके आगे ठहर नहीं सकता था। देखते ही शत्रु हतप्रभ हो जाते थे ॥३०॥
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तीव्र प्रताप सम्पन्नो यो जगताप नाशनः ।
श्रविग्रहोऽपि सर्वाङ्ग
सौन्दर्य
यद्यपि चन्द्रशेखर नृपति का प्रताप अद्वितीय था किन्तु उस प्रभुता में संताप नहीं था । अर्थात् भ्रातंक रहित प्रभुत्व होने से जगत प्रजा का संताप नष्ट करने वाला था । श्रविग्रह - शत्रुभाव विहीन होने से सौम्य आकृति था । प्रविग्रह अर्थात् विग्रह शरीर रहित भी अर्थ होता है । शरीर रहित घनङ्ग कामदेव को कहते हैं परन्तु यह राजा प्रतनु- श्रनङ्ग होकर भी कामदेव पर विजय करने वाला था । भोमासक्त नहीं था । सर्वाङ्ग सुन्दर होने से कान्तिमान था। इसमें विरोधाभास दिखाया है । शरीर रहित और सर्वाङ्ग सुन्दर परस्पर विरोधी हैं । परन्तु यहाँ भूरति के प्रान्तरिक सौन्दर्य और विषयासक्ति के प्रभाव से यह विरोध प्रतिभासित नहीं होता ।। ३१ ।।
जितमन्मथः ॥ ३१ ॥
कामार्थ योस्तथा नृपोयः कदाऽपि न मोदते । जिनीयिया यमं मार्ग नित्य मतत्रितः ।। ३२ ।।
इस भूपति के काम और अर्थ दोनों पुरुषार्थ होड़ लगाये बढ़ रहे थे किन्तु राजा इनमें मुग्ध न होकर जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित यथार्थं जिन धर्म रूप पुरुषार्थ की सिद्धि में ही सतत सत्पर रहता था । अर्थात् प्रमाद रहित जिन धर्म मार्ग में प्रारूद रहता था - नाना प्रकार धर्म मार्ग का द्योतन करता था ।। ३२ ।।
सेमुशो | विभेव भास्वतो यस्य ककुभः सहसंभवाः ।। ३३ ।।
गज विद्याश्वतत्रोपि भासयामास
चारों राज विद्याएँ - १. प्राविक्षिको (विज्ञान), २. त्रयी (वेद), ३. वार्ता (अर्थशास्त्र), ४. दण्ड नीति (राजनीति) पूर्णतः प्रकाशित हो रही थीं। उसके वैभव रूपी चन्द्र प्रकाश से राज ज्योतिर्मय था जिस प्रकार रात्रि में चन्द्र कान्ति से दिशा मण्डल प्रतिशय शोभायमान होता है उसी प्रकार राजविभूति से प्रजा शोभायमान थी। वह राजनीति के छं गुणों से युक्त था - अर्थात् १ सन्धि ( मेल करना ), २. विग्रह ( युद्ध करना ), ३: यान ( प्राक्रमरण करता ), ४. आसन (घेरा डालना), ५. संश्रय (अन्य राजा का श्राश्रय लेना) और ६. द्वेषीभाव (फुट डालना) ये पद गुण हैं। धर्म, अर्थ और काम रूप पुरुषार्थी के समन्वय स्वरूप को
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मुली प्रकार जानता था एफ: अफ और स्थान वरयाओं का साधारण ज्ञाता था। वह यह भी जानता था कि वचन, मन और देवसिद्धियों में सामंजस्य किस प्रकार किया जाय । चय, उप चय और मिश्र अभ्युदयों का नित्य साधन करता था ।। ३३ ।।
पिप्रिये
प्रणतानन्स सामन्तः शतधातहि ।
यथा स्वयं जगद्वन्द्य सुनोन्द्र पक्ष बन्दमे ।। ३४ ।।
अनेकों बार प्रेमाभिभूत सामन्तों के द्वारा वह नमस्कृत होता था । अर्थात् अनुराग भरे उसके सामन्त निरन्तर विनयावनत होते रहते । ऐसा प्रतीत होता मानों वह राजा निरन्तर श्रेष्ठ मुनिन्द्र वृन्दों के जगद्वन्ध चरणारविन्दों में नमस्कार करने से स्वयं भी वन्दनीय हो गया हो । अभिप्राय यह है कि राजा धर्मानुराग से भक्ति पूर्वक विश्व वन्द्य श्रेष्ठ मुनि पुंगवों को चरण वन्दना करता था। विनय से नमस्कार करता था । मानों इसी के फल स्वरूप उसके सामन्त जन उसे नमस्कार करते थे । अर्थात् वह सबका श्रद्धा और भक्ति पात्र हो गया ।। ३४ ।।
ईर्ष्या स्वभावतः स्त्रोरपांमिति मिथ्या कृतं श्रिया । मेदिनि सुख सक्तऽपि यत्तत्र रसिका स्वयम् ।। ३५ ।।
संसार में यह लोकोक्ति प्रचलित है कि स्त्रियों में स्वभाव से ईर्ष्या होती है अर्थात् एक-दूसरी का उत्कर्ष सहन नहीं कर सकतीं। किन्तु इसकी राज लक्ष्मी ने इस चर्चा को मिथ्या प्रसत्य कर दिया था । क्योंकि पृथ्वीपति के समान समस्त प्रजा वैभवशाली, आनन्द मग्न थी । सभी रसिक जन सुखानुभव करते, सन्तोष से रहते थे ।। ३५ ।।
स्वरूप सम्भवा जिग्ये यया मदम सुन्दरी ।
समभूद वल्लभा तस्य नाम्ना मदन सुन्दरी ॥ ३६ ॥
वल्लभा
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इस राजा की प्रिया मदन सुन्दरी थी । यह राजा की प्रत्यन्त - प्रिय थी । इसने अपनी रूप राशि से कामदेव की पत्नि रतिमदनसुन्दरी को भी जीत लिया था । अर्थात् मदनसुन्दरी यथा नाम तथा गुण थी ।। ३६ ।।
यस्याः सौन्दर्य मालोक्य विस्मिता सुर योषितः । नूनमद्यापि नो जाता: सनिमेष विलोचनाः ।। ३७ ।। ' इसके सौन्दर्य को देखकर नगर की समस्त नारियाँ विश्मित थी।
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निश्चय ही इस प्रकार की अद्भुत सुन्दरी पाज तक नहीं हुयी। जिसके नयन उधर जाते वहीं खसके लावण्य रस में डूब कर रह जाते ऐसा था उसका रूप ।। ३७ ॥
सर्वांग रमणीया याप्यवधान विभूषणः । कोमलाङयाः कृते कान्सेर्यस्याः सारंग चक्षुषः ।। ३ ।
उसका प्रत्येक प्रङ्ग स्वभाव से ही आकर्षक था, आभूषणों के द्वारा उसका सौन्दर्य नहीं बढ़ता अपितु आभूषण उससे शोभित होते थे । उस कोमलाङ्गी की आँखें हिरणी मृगी के नेत्रों की कान्ति से निर्मित थी। अर्थात् मृग लोधिनी होने से मुख की कान्ति अनुपम थी ॥ ३८ ॥
लीला कमल मुल्लिंध्य यस्मा मुख सरोकहे । निपपात महा मोवानिन्दिर परम्परा ॥३६॥
ऐसा प्रतीत होता था मानों कमलों का समूह सरोवर में विहंसनालीला करना छोड़कर इसके मुखरूपी सरोवर में प्रानन्द से प्रा गिरे हैं। पवन से प्रेरित कुमुद जिस प्रकार चंचल होते हैं उसी प्रकार महारानी के नयन कमल कदाक्षवारणों से चन्चल हो रहे थे मानों पानन्द के कोरों से साक्षात् कमल ही झूम रहे हों ऐसा प्रतीत होता या || ३६ ।।
यस्या मुखेन्युना साम्यं मन्ये प्रापयितु शशि । क्रियते कोयते चापि धात्रा भौतान्य पक्षयोः॥४०॥
उसका मुख चन्द्र का कान्ति से बढ़कर था। चन्द्रमा प्रपने भ्रमण से शुक्ल और कृष्णपक्ष करता रहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उस महादेवी के मुख की समानता को पाने के प्रयास में ही वह इस प्रकार घूमता रहता है । क्योंकि प्राज तक भी उसका कृष्ण-शुक्ल पक्ष चलता पा रहा है । रानी का मुख सदा एक समान उज्ज्वल है परन्तु चाँद क्रमशः काला और पुनः शुक्ल होता रहता है॥४०॥
दधाना नव लावण्यं प्रमालावर पल्लया। शृगार वारिषे बेला विधिना विहितेच या ॥४१॥
उसके प्रधर (प्रोठ) प्रवाल के समान अरुण वर्ण नवीन लावण्य युक्त थे। शृगार रूपी सागर में मानों विधाता ने लहरों के रूप रची १२ ]
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यो । प्रभिप्राय यह है कि सागर को तरंगों के समान इसका सौन्दर्य तरल था ।। ४१॥
यया मुताभिरामान्त निर्मला गुग संगता। हृदि हार लतेयोच्च: सन् दृष्ठिर्न दले परा॥ ४२ ॥
इसके उर स्थल पर निर्मल-स्वच्छ बामा में पिरोया हार प्रति अभिराम-सुन्बर प्रतीत हो रहा था। दूसरे पक्ष में उसका पवित्र हृदय सद्गुरगों से युक्त था । अर्थात् हृदय रूपी लता के समान अपने उत्तम पुण रूपी पत्रों से प्रत्येक के मन को प्राकृष्ट करने वाली थी। इसकी दृष्टि अति सरल निर्विकार और मनोहारी थी ।। ४२ ॥
नयनालि न रेमाते तां विहाय महोभतः । स्वभाष सुकुमाराङ्गी माकन्दस्येव मोरी: ॥४३॥
राजा के नयन रूपी भ्रमर इसको-स्वभाव से कोमलाङ्गी, सुकुमारी को प्राप्त कर अन्यत्र जाना ही नहीं चाहते थे । पाम्र-मञ्जरी के समान रानी की रूप राशि के पान करने में मत्त षटपद की भौति राजा की दृष्टि इसी को और लगी रहती थी : ४३ ।।
प्रय तव सद्धर्म नोर निधीस पातकः । जोवदेव इति श्रेष्ठो भवन बरिणजापतिः ॥४४॥
इसी नगरी में जीवदेव नामक श्रेष्ठी था। यह परिणकपति था अर्थात् व्यापारियों में सर्वोत्तम धनाढय था। समर्म रूपी निर्मल जल से इसने अपनी पाप पंक का प्रक्षालन किया था । अर्थात् प्रत्यन्त धर्मात्मा था। निरंतर धर्मध्यान में लीन रहता था। ४४ ।।।
नार्थानां बर मेवानां संख्पानं यस्य वेश्मनि । विजातं वाग्विलासे वा संप्रकाशे महाकवेः ॥ ४५ ॥
इसके शुभोदय से नाना पसंख्य पदार्थों से इसका गृह शोभित था। यह महा कवियों के वाग्विलास का पात्र बना था। अर्थात बडे-बडे कविराज इसकी प्रशंसा कर अपनी काव्यशक्ति को धन्य समझते थे ।।४५॥
पूजया जिन नापामा मतिषीनां विहाय तः । बोनादि रुपया वापि पत समो अनि ना परः ॥ ४६॥
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यह प्रतिदिन श्री जिनेन्द्र भगवान की उत्तम पदार्थों से नाना विव पूजा करता था, उत्तम, मध्यमादि प्रतिथियों साधुयों को विधिवत् दान देता था, वैयावृत्ति प्रादि तो करता ही था, दयादत्ति रूप दान देकर अपने साधर्मी जनों को भो संतुष्ट रखता था। इसके समान अन्य दयालु नहीं था। दोन दुखियों की सेवा, सहाय करने में निरन्तर तत्पर रहता था ।। ४६ ।।
असत्य वचनं लेभे तिमो यस्य ना मानसे वा महासत्य दुराचार बिजू भिरणाम् ।। ४७ ।।
यह सदैव सत्य भाषण करता था। मिथ्या भाषण कभी जिह्वा का स्पर्श ही नहीं कर सका । दुराचारी के साथ भी अनुचित व्यवहार नहीं करता था । मन सदैव स्वच्छ शुभ परिणामों से पवित्र रहता था ॥ ४७ ॥
सदाचार नीर
निरन्तर ववृधे विदुषा येन शश्वत्
धाराभिषेकतः ।
सज्जनता लता ।। ४८ ।।
निरन्तर सदाचार रूपी सलिल की धारा से अभिसिंचित सज्जनता रूपी लता विस्तार को प्राप्त हो गई थी, विद्वानों के मध्य इसकी कीर्ति लता सर्वत्र व्याप्त थी । अर्थात् विद्वज्जन सतत इसके गुणों का कीर्तन करते थे | || ४८ ||
सद्भानि येन जनानि कारितानि विरेजिरे । सुधासीतानि तुङ्गानि मूर्तिमन्ति यशांसिया ॥ ४६ ॥
।। ।।
इस श्रेष्ठी ने विशाल उत्तंग अनेक जिनालयों का निर्माण कराया, ये जिन भवन अत्यन्त शोभा युक्त थे. शुभ्र वां के थ। ऐसा प्रतीत होता । था मानों इसका. ( सेठ) पुण्य से वद्धित यश ही मूर्तिमान रूप धारण कर घटल खड़ा है - व्याप रहा है ।। ४६ ।।
भोग भौमं स्वभोगेल धमदं धन यो जिगाय महाभागो याचकामर
सम्पदा ।
भूः ।। ५० ।।
1
इसने अपने भोगों से भोगभूमि को धन सम्पदा से कुबेर को और याचकों को इच्छित दान देने से कल्पवृक्षों को जीत लिया था । अर्थात् इस महाभाग्यशाली के यहाँ भोगभूमि से भी अधिक भोग्य पदार्थ थे,
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यहाँ तो मांगने पर भोग मामग्री प्राप्त होती है किन्तु इसका घर तो स्वभाव में सदा ही भोग सामग्रियों में भरा पड़ा था । दीन, हीनादि याचकजनी की इच्छित दान दता या ॥ ५ ॥
जीवजसे तिविख्याता तस्यासीत् सहचारिणी। यथा ज्योत्स्ना शशाजुस्य व्यासंयमिनो यथा ।। ५१ ।।
इस सेठ के जीवंजसा THIRTAरम सुन्दरी, अतीव सुन्दरी पत्नी थी। यह चन्द्रमा की चांदनी के समान सुन्दर और संयमीजनों के समान दयालु थी ।। ५१ ।।
विशुद्धो भय पक्षाया राजहंसीव मानसम । मुमोचतस्य न स्वच्छ गंभीरञ्च कदाचन ।। ५२ ।।
राजहंमी के समान इसका हृदय उज्ज्वल था अथवा उभय कुल को विशुद्ध करने वाली शुभ भावनापरा थी । इसके हृदय की गम्भीरता और स्वच्छता अचल थी। अर्थात संकटकाल में भी धर्य को नहीं छोड़ती थीघम से पराङ्गमुख नहीं होती थी ।। ५२ ।।
खानिरौचित्य रक्तानां विनयम मजरी । सतो प्रत पताकेव पश्यतां मोहनौषधिः ।। ५३ ॥
यह औचित्य रूपी रत्नों की खान थी, बिनय रूपी वृक्ष की मंजरी सदृश थी, पतिव्रत धर्म की ध्वजा स्वरूप और देखने वालों को मोहन औषधि थी । अभिप्राय यह है कि धन पाकर प्रायः व्यक्ति मदोन्मत्त, महंकारी और व्यसनी हो जाता है किन्तु इस सेठानी का जीवन इसका पंपवाद था । अतुल वंभव होते हुए भी यह विनम्र थी, सीता समान सती और सर्वजन वल्लभ-प्रिय थी अर्थात् अपने मधुर व्यवहार से सबकी प्रियपात्र थी।। ५३ ॥
फेलिकोपासरायं स भञान: सुखमुसमम् । विनानि गमयामास पार्जिम कोधिवः ॥ ५४ ॥
इस प्रकार यह दम्पत्ति निरन्तर निर्विघ्न नाना भोगों, क्रीड़ानों और मनोरथों के साथ धर्म पुरुषार्थ की वृद्धि करते अर्थोपार्जन सहित समय यापन करने लगे । अत्यन्त चतुर वणिक पति अपना काल सुखपूर्वक यतीत कर रहे थे ।। ५४ ॥
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प्रार्थना
सपरिच्छ्वा ।
जगामासौ प्रातरेव जिनालयं ॥ ५५ ॥
ग्रहोस गंधपुष्पावि अर्थकदा
एक दिन प्रात:काल सेठानी जीथंजसा स्नानादि से निवृत्ति पाकर, शुद्ध गंध, पुष्पादि भ्रष्ट द्रव्य पूजा द्रव्य - सामग्री लेकर सपरिवार जिनालय में गई ।। ५५ ।।
त्रिः परस्य ततः स्तुत्वा जिनों च चतुराशया । संस्थाप्य पूजियित्वा चन्द्रमा यति संसदम् ।। ५६ ।।
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प्रथम त्रिकरण शुद्धि पूर्वक जन्म जरा मरण विनाशक तीन प्रदक्षिणा - परिक्रमा लगाईं । पुनः स्तुति की। स्तवन कर चतुर्मुखी प्रतिमा स्थापन कर साभिषेक भक्ति से पूजा की। सत्पश्चात् यतियों की परि में गई र्थात् में विराजमान मुनिराजों के दर्शनार्थ सभा में गई ।। ५६ ।।
अस्ति यत्र समस्तार्थ भाषी दिव्यावषीक्षणः । गुणचन्द्र गुरुराश्धोशो भव्यांभोरुह
भास्करः ।। ५७ ॥
वहाँ समस्त तत्त्वार्थ के भाषी, दिव्य अवधिज्ञानी श्री गुरणचन्द्र नाम के गरणाधीश श्राचार्य वयं विराजमान थे। ये भव्यरूपी कमलों को प्रमुदित करने वाले भास्कर - सूर्य थे ।। ५७ ।।
तं ससंघं ततो नत्वा निविष्ठा मिकटे कथ्यमानां प्रसङ्गेन कथां पौराणिक
ततः ।
तदा ॥ ५८ ॥
उन यतिराज की ससंघ वन्दना की - नमस्कार किया तथा कुछ निकट ही बैठ गई । धर्मोपदेश चल रहा था, उसी समय प्रसङ्ग के अनुसार प्राचार्य परमेष्ठी एक पौराणिक कथा का वर्णन कर रहे थे । ५८ ॥
I
शुभावतां गृहावतां कृता यस्यां प्रशंसा पुत्रत: स्त्रियाम् ।
पुत्राणां प्रबन्धेन नित्योत्पत्तिरपि ध्रुवम् ।। ५६ ।। युगलम् ।।
उसमें उस कथा में पुत्रवन्ती स्त्रियों की प्रशंसा और पुत्र विहीनों की निन्दा का भी प्रकरण बतलाया । निश्चय ही पुत्र विहीना नारी निन्दा की पात्र होती है ।। ५६ ।।
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श्री १०८ गणाधीन आचार्य गुणा महाराज की सभा में सेठानी जीवनया
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तां निशम्य महाशोक शकुनेव ह्ता हृदि । चिन्तयामास साध्वीति बास्प पूरित विलोचना ।। ६० ।।
इस कथा को सुनकर
सनी का हृद
गया, उसके कमलनयन अधुविगलित हो गये, मुख म्लान हो गया और वह चिन्तातुर हो शोक सागर में डूब गई ।। ६० ।।
प्रशोकस्त के नेव यौवनेन रागिरणाकेवलं किन्तु न यत्र फल
ममासुना । संभवः ।। ६१ ॥
वह विचारने लगी, श्रोह मेरा जीवन प्रशोक वृक्ष के समान हैमात्र सुन्दर पल्लवों का गुच्छा समान यौवन है, यह रागियों को प्रेमोत्पादक है परन्तु फल रहित होने से निस्प्रयोजन है ।। ६१ ।।
वारिधे रिब लावण्यं विरसं मम सर्वथा । न यत्रापत्य पद्यानि तेन कान्स जलेन
किम् ।। ६२ ।।
सर्वथा व्यर्थ है । उस
कमल समूह न खिले
मेरा लावण्य सागर के खारे जल के समान सुन्दर सरोवर के जल से भी क्या प्रयोजन जिसमें हों अर्थात् पुत्र के समान कमल विहीन सरोवर शोभा रहित है उसी प्रकार मेरा सौन्दर्य रस पुत्र न होने से बिरस ही है ।। ६२ ।।
नाममात्रेण सा स्त्रीसिगुरण शून्येन कीर्त्यते । पुत्रोपस्थान या पूसा यथा शक्र वधूटिका ।। ६३ ।।
पुत्रोत्पत्ति नारी का गुण है इसके बिना वह "स्त्री" केवल नाम मात्र की पत्नी है । यथा इन्द्र वधूटी । इन्द्राणी हुयी तो क्या कुल वर्द्धन करने में वह समर्थ नहीं है । अथवा सर्प की बांबी से भी निकलने वाली धूम को शक्रवधूटिका कहते हैं किन्तु उसमें वधु के गुण हैं क्या ? नहीं । नाम मात्र की वधूटिका है ।। ६३ ।।
प्रसादपि न मे भर्तुः शोभायें सूनुना विना । शस्यानु शाशने नंब विद्वत्ताया बिज़भितम् ॥ ६४ ॥
यद्यपि पत्तिदेव का मुझ पर प्रपूर्व प्रसाद है- प्रेम है किन्तु शुनु-पुत्र बिना वह भी मेरी शोभा बढ़ाने वाला नहीं है । केवल शब्दानुशासन में = प्रयुक्त विद्वत्ता व्यापक नहीं हो सकती ।। ६४ ॥
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साहमोह तमाछत्रा निशेषो ग पायिनी। दीयते मवि नो पुत्र प्रकोपः कुल वेरमनि ॥६५॥
में केवल मोह तम से प्राच्छन्न उढग दायिनी ही हूं क्योंकि कुस प्रकाशक दीप स्वरूप पुत्र उत्पन्न नहीं कर सकी । घर का अंधकार पुत्र द्वारा ही नष्ट होता है। मेरा सेवन कर पतिदेव का मात्र उद्वेग हो | बढ़ेगा अतः मेरा जीवन व्यर्थ है ।। ६५ ।।
चिन्तयन्तीति मा बाला कपोल न्यस्त हस्तका। पातयामास सभ्यानां ने अभङ्गात् मुखाम्बुजे ॥६६॥ ।
इस प्रगर नहबासा गरेपोला कर रखकर चिन्तयन करने लगी । उसके सरल सुन्दर नेत्रों से अश्रुधारा कपोलों पर पड़ने लगी। मानों नेत्र रूपी शृगार झारी से पड़ती हुयी धारा उसके मुख कमल पर गिरने लगी।। ६६ ।।
पेतुर्य या यथा तस्याः सुभ्र वो वास्प विववा: । भेजुस्सथा तथा दुःखं मानसानि सभासवाम् ।। ६७ ।।
जैसे-से उसके प्रश्रु विन्दु गिरती वैसे-वैसे वहाँ उपस्थित सभासदों के मानस में दुःखोत्पादन करने लगीं अर्थात् सभा में पारों ओर शोक । का वातावरण फैल गया । सभी उसके दुःख से क्षुभित हो उठे।। ६७ ॥
सभा विस्मम सभ्पना तो दु:स भरालसाम् । प्रथालोक्य जगादासो कृपयेति यतोश्वरः ॥८॥
यह देखकर करुणा मिधान गुरुवर्य मुनिराज कहने लगे अर्थात् प्राश्चर्य चकित सभा मोर दु:ख के भार से पीडित सेवानी को देखकर परम कृपालु यतिराज पाश्वासन देते हुए इस प्रकार दिव्य वाणी में बोले ॥ ६८ ।।
विशुद्ध हवये कार्शी: शोक सागर मम्मनं । मा वर्षव यतः शोनं सफला ते मनोरथाः ॥ ६॥
हे विशुद्ध हृदयेः शोक मत कर । क्यों शोक रूपी सागर में स्नान करती हो ? अर्थात् शोक सागर में मत डूबो, पृथा हो क्लेश मत करो। तुम्हारा मनोरथ शीघ्र ही सफल होने वाला है ||६|| १८ ]
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मिनाकर कराकार कति व्याप्त बपरत्रय:। साम्भीयों का शोणोष्य सौम्व हुलमन्दिरम् ॥ ७ ॥
माचार्य श्री कहने लगे, हे भद्रे तुम्हारा पुत्र चन्द्रमा के समान सुरुप, तीन लोक व्यापी कीतिबाला अर्थात् मुक्तिरमा वरण करने वाला, गाम्भीयं, प्रौदार्य, वीरत्व, प्रादि गुरण मण्हित होगा सौन्दर्य का प्राकार मोर कुल मण्डन-भूषण स्वरुप होगा ।। ७० ॥
त्रिवर्ग रचना सूत्र पारस्तम तनकहः । समग्र पुरण माणिक्य रोहगाडि रिवापरः ॥७१।।
त्रिवर्ग का सूत्र धार होगा । मर्थात् धर्म, अर्थ, भौर काम तीनों वर्ग एक साथ द्धिंगत करने में निपुण होगा, समग्र गुणयुत होगा। साक्षात् मारिणक्य पर्वत के समान तुम्हारा पुत्र रत्न होगा ।। ७१॥
भवं भूयिता भन्यो गगनं भानुमानिया फुलं कतिपयरेष वासरः साषु बरसले ॥७२॥
गगन में जिस प्रकार सूर्य अपने प्रताप से समस्त दिशानों को शोभित करता है उसी प्रकार कुछ ही दिनों में तुम्हारे कुल का भूषण भद्रपरिणामी पुत्र होगा, हे साघु वत्सले तुम शोक मत करो।। ७२ ।।
उल्लासं कमपि प्राप सेन सा वसा यते। षमान्त तोयवोन्मुक्ता तोयोनेव लता ता ।।७३ ।।
इस प्रकार के उत्तम साधु वचनों को सुनकर सेठानी को परमानन्द हुप्रा, मन में उल्लास मडा, मामों घाम-धूप से सूखी लता को शीतल मेष जल मिल गया है । अर्थात् ग्रीष्म ऋतु की भीषण धूप से लताएं कुम्हला जाती हैं वर्षाऋतु पाते ही वृष्टि होने पर जल पाकर प्रफुल्ल हो जाती हैं उसी प्रकार पुवाभाव की पीड़ा से शोकाकुल सेठानी पुत्रोत्पत्ति सुनकर हर्षित हो उठी । संसारी जीवों की यही दशा है ।। ७३ ।।
महा विस्मय सम्पन्ना सा शशस सभा मुनिम्। नत्त्वा ज्ञात या भावी वृत्तान्ता साप्यणान् गहम् ।। ७४ ।।
इस प्रकार मुनीश्वर की भविष्यवाणी सुनकर समस्त समा परमाश्चर्य को प्राप्त हुयी । सभी मुनिराज की शान गरिमा की प्रशंसा करने लगे। क्रमशः सभी नमस्कार कर अपने मपने घर पले गये । सेठानी भी भावी वृतान्त ज्ञात कर निम गृह को लोट मायो ।। ७४ ।।
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कि वदन्त्या तथा चक्र श्रेष्ठिनोऽपि मनस्तदा ।
अनल्प काल सम्पन्न सफलाशेष वाञ्छितम् ॥ ७५ ॥
शनैः शनैः सेठानी को पुत्र प्राप्ति सम्बन्धी किंवदन्ती चारों और फैल गयी। सेठ ने भी सुना, कि अल्प काल में ही हमारा मनोरथ सफल होगा वाञ्छित पदार्थ की प्राप्ति की अभिलाष किसे नहीं होती ? सभी चाहते हैं ।। ७५ ।।
अथ केष्वपि जातेसुवासरेषु बभार सा। गर्भम भुलवचन भानु बिम्ब मिवेन्द्र दिक् ।। ७६ ।।
कुछ दिनों के बाद सेठानी ने गर्भधारण किया। जिस प्रकार मेघों से प्रच्छन्न सूर्य के प्रताप से दिशाएँ शोभित होती हैं उसी प्रकार गर्भस्थ बालक के प्रताप से वह शोभित हुयी ।। ७६ ॥
गुणानामिव भारेण गर्भस्तस्य शिशोस्तदा । मन्दं मन्दं मही पीछे विचक्राम मृगेक्षणा ॥ ७७ ॥
पुत्र रत्न के गुणों के भार से बोझल हुयी वह मृग नयनी मन्द मन्द गमन करने लगी। पृथ्वी पर धीरे धीरे चलती थी ॥ ७७ ॥
मलोमस मुलौ जातो स्तनौ तस्याः समुन्नतौ । समुत्पादादिव स्वस्य मन्य मामा वषः स्थिति ॥ ७८ ॥
उसके दोनों स्तनों का अग्रभाग श्यामवर्ण हो गया, स्तन उन्नत हो गये । उनके उत्थान - पतन से वह पीडा का अनुभव करने लगी ॥७८॥
गर्भस्व यश से वास्याः पाण्डुता अनि गण्डयोः । तेजसेब वोश्चक्रे सोत्क्षेपं वचन क्षणे ॥ ७६ ॥
उसके गण्डस्थल कपोल पीले पड गये मानों गर्भस्थ बालक का यश हो बाहर प्राकर बिखर गया हो। उसकी वचनावली के साथ चमकती fat का क्षेत्र मानों बालक के तेज का द्योतन करता था ।। ७६ ।।
रोमराजिस्तदा तस्था स्तथाभूत् वहिरुद्गता ।
शंकेहं पूर्व सन्ताप शिखिश्रम शिखेव सा ॥ ८० ॥
उसके शरीर की रोमराजी खडी हो गई अर्थात् सम्पूर्ण शरीर रोमाञ्चित हो गया । ऐसा प्रतीत होता था पूर्व में पुत्राभाव कर
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शोक धूम बनकर बाहर निकल रहा हो । अर्थात् प्रथम संतान न होने का संताप मानों अब धंग्रा की शिखा बनकर शरीर पर छा गई है |८०||
भारंभी मुखे तस्या विशेषात् समजायत । उष्मस्य तथा तस्था महाभागस्य तेजसाम् ॥ ८१ ॥ वह बार-बार जंभाई लेने लगी । श्वास भी उष्ण महा भागी पुत्र के तेज से ही वह उष्ण हो गई हों ॥
प्राने लगी ।
मानों
८१ ॥
पूजोत्सवे जिनेन्द्रारणं दौहृदं विदधे यवनाम्भोज बन्धुवर्गे च
सुधीः । सर्वतः ॥
प्रफुल्ल
८२ ॥
जिनेन्द्र भगवान की परम पूजा करू" प्रर्चना करू नाना प्रकार पूजोत्सव मनाऊँ इस प्रकार के दोहले उसे उत्पन्न हुए। समस्त बन्धु वर्गों में सर्वत्र प्रफुल्लता हो सभी के मुख कमल प्रफुल्ल रहें इस प्रकार के मनोरथ जागृत होने लगे ।। ६२ ।।
पूर्णथ समये साध्वी प्रसूता
सुतमुत्तमम् ।
प्राचीव भास्करा कार प्रभाते बाल भास्करम् ।। ८३ ।।
सभी दोहलों की पूर्ति कर उसने गर्भ समय पूर्ण होने पर उत्तम पुत्र रत्न को प्रसन्न किया। जिस प्रकार पूर्व दिशा रवि को उदित करती है उसी प्रकार उसने बाल भास्कर की शोभायुक्त बालक को जन्म दिया बाल सूर्य की लालिमा से जिस प्रकार रात्रि जन्य अंधकार नष्ट हो जाता है सर्व जीव प्रफुल्ल हो जाते हैं उसी प्रकार सबके मनोरथों को सिद्ध करने वाला आमोद वर्द्धक यह शिशु प्रसवित हुना ॥ ८३ ॥
पुलोत्सव
श्रेष्ठिना बाञ्छिता दुच्चेरधिकं सुवितात्मना । वत्तं वक्त्रमनालोक्य पुत्र जन्मनिवेदिताम् ।। ८४ ।। हे श्रेष्ठिन् आपके पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार की सूचना सुनकर सेठ महा मुदित, श्रानन्द गात्र हो गया उसके हर्ष को सीमा न थी । उसने प्रानन्दातिरेक से पुत्र प्रसव की सूचना देने वाले का मुख भी नहीं देखा सुनने के साथ ही वाञ्छा से अधिक प्रचुर बन, उसे प्रदान किया । श्रर्थात् पुत्रोत्पत्ति का समाचार देने वाले को नाना वस्त्रालंकार प्रदान किये। वह इतना प्रानन्द विभोर हो गया कि "क्या देना क्या नहीं" यह सोच भी नहीं पाया जो पाया वही उसे दे दिया। ठीक ही है
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रसायन सेवन सवक सुखकर होता है रोग होने पर तो कहना ही क्या है ? लम्बे समय को प्रतीक्षा के बाद पुत्र प्राप्ति असीम हर्ष को कारण क्यों नहीं होगी ? होगी ही ।। ८४ ।।
नत्य वादिन संगीत मय मायु समन्ततः । तवा इत्याधिनवाशु तदमूव पुरं तदा ।। ८५ ।।
शीन ही सेठ की प्राजानुसार चारों ओर पुत्र-जन्मोत्सव मनाया जाने लगा । यत्र-तत्र नृत्यकार नृत्य करने लगे, वादित्र बज उठे, संगीत होने लगा, कुछ ही क्षरणों में बिना प्रयास के पूरा नगर उत्सवमय हो उठा ॥ २५॥
स न कोऽपि नरस्तत्र यो नानंच भराससः । सममूखाच कोवापि यो न पूर्ण मनोरथः ॥ ६ ॥
उस समय नगरी में एक भी मनुष्य ऐसा नहीं था जो प्रानन्दविभोर न हो, न कोई याचक था जिसका मनोरथ पूर्ण नहीं हुअा हो। भावार्थ सेठ अपने सदाचार से सर्वप्रिय था, उसके हर्ष से सभी झम उठ । याचकों को किमिच्छक दान दिया । अतः सभी सफल मनोरथ हो गये ।। ८६ ।।
जात कर्म कृतं तस्य सोत्सव सफल सरः। यथाक्रम पुनश्चक्रे पूजयित्वा जिनेश्वरान् ॥ ८७ ।। जिनदसामिषा तस्य बन्धु वृध्ये समन्विताः । कृत कुत्यामवात्मानं मेनेसौ नंगमाधिपः ।। १८ ।।
जन्म होते ही उत्सव पूर्वक उस नवजात शिशु का जातकर्म किया गया । पुनः यथाक्रम से श्री जिनेश्वरों देवाधिदेव अर्हन्तों-भगवान की पूजा कर विधिवत् उस बालक का नामकरण सस्कार किया गया। सर्व बन्धू-बान्धवों को समन्वित कर पुरोहित महाराज ने शुभ लग्नादि का विचार कर उस नवजात बालक का नाम "जिनदत्त" घोषित किया और अपने को कृत-कृत्य मनोरथ अनुभव किया । अर्थात् जिनेन्द्र पूजन के दोहले के अनुमार हो यथागुण तथा नाम स्थापित कर ज्योतिषज्ञ को अत्यन्त सन्तोष प्रा ।। ८७ || ८८ ।।
वधे बन्धु पचानामानन्दं विषत परम् । उपविन्दन कलाश्चित्रं सोऽपि बाल विवाकरः ॥ ६ ॥
वह बाल रवि अपने बन्धुवर्ग रूपी कमलों को प्रफुल्लित करता हुमा २२ ।
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नाना चित्रकलाओं के कौशल के साथ वृद्धिगत होने लगा। जिस प्रकार प्रातः उदित होते ही भास्कर अपनी कोमल अरुण किरणों से सरोवर में मुदित कमलों को मुकलित कर देता है विकसित कर देता है उसी प्रकार जिनदत्त वालक ने अपने परिवार के सदस्यों को अपनी बालसुलभ कोढ़ाओं से प्रमुदित कर दिया था ।। ८६ ।।
सत्यजे भाग गर्भामं तनुजा तेन शनैः शनैः सदाचार पुरुषेच शनै: शनै: उसने गर्भ से उत्पन्न होने वाली प्रर्थात् बालावस्था में प्रवेश किया। सदाचारी करता बढ़ने लगा ।। ६० ।।
शंशवं । केतथम् ॥ १० ॥
माभा को त्याग दिया पुरुषों के साथ क्रीड़ा
ततोऽसौ श्रेष्ठिना तेन श्रावकस्य महामतेः । समर्पित: प्रयश्नंन पठनाय
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॥ ६१ ॥
श्रावकोत्तम श्रीमान् सेठ ने अपने सुयोग्य पुत्र को योग्य उपाध्याय को समर्पित किया । यथाविधि पढ़ने को भेजा। महामति ज्ञाभी सेठ ने पुत्र का विद्यारम्भ संस्कार सविधि सम्पन किया । ६१ ।।
वासरंगखितं रेव सवं KITES महार्णवम् । सततार महा वृद्धिनाथा विनय सङ्गतः ।। ६२
।।
कुछ ही दिन व्यतीत होने पर उस कुशाग्र बुद्धि बालक ने सम्पूर्ण शास्त्रों को हृदयस्थ कर लिया। अपनी विनय रूपी मौका द्वारा उस बालकुमार ने सर्व शास्त्र रूपी महासागर को पार कर लिया। प्रर्थात् सम्पूर्ण कलाओं में पारङ्गत हो गया ।। ६२ ।।
शस्त्राण्यपि ततस्तेन विज्ञातानि महात्मना । धनुरादीनि यत्नेन समाराध्याशु तद्विदः ।। ३ ।।
शस्त्र विद्या का भी पारगामी हुआ। शीघ्र ही वह महात्मा धनुविद्या आदि में परमयत्न से निपुण हो गया । धर्षात् समस्त शस्त्र कलामों में नैपुण्य प्राप्त कर लिया ।। ६३ ।।
प्रागस्त्यं किमपि प्राथ व्यवहार विधौ तथा । यथा तातादयस्तस्य माता: प्रज्ञातु शिविमः ॥ ६४ ॥ व्यवहार विधि-लौकिक व्यवहार में भी वरकृष्ट योग्यता प्राप्त की ।
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जिस प्रकार उसके दादा ग्रादि वंश परम्परानुसार प्रज्ञा सम्पन्न थे उसी प्रकार यह भी प्रज्ञाजीवी हुमा ।। ६४ ॥
तनौ तस्य ततश्चक्रे यौवनेन तथा पदम् । अनङ्गन यथा स्त्रीषु संमोहायुध मावषौ । ६५ ॥
अब वह किशोर अवस्था परित्याग कर यौवनावस्था में प्रविष्ट हुप्रा । कामदेव के समान स्त्रियों में सम्मोह उत्पन्न करने वाले साक्षात् कामवारणों को मानों धारण किया ।। ६५ ।।
गगनमिव शीतांशो रश्मिभिः सतपोभि । यतिरिव नर नाघो म्याय मार्ग रूपेतः ॥ ६६ ।।
जिस प्रकार माकाश में चन्द्र शोभित होता है, श्रेष्ठ तप के द्वारा यति और न्याय मार्गानुसार चलने से नृपति शोभित होता है उसी प्रकार यह यौवन भार से अलंकृत हुआ ।। ६६ ॥
तरिव मब पुष्पै. राज हंसः समन्तात् । सर इव शुशुमेऽसौ पिमै सागर ।। 3 ||
नवीन पल्लवों एवं पुरुषों से तरु-वक्ष, राजहंमों से परिवेष्टित सरोवर के समान यह कुमार यौवन रूपी लालित्य से शोभायमान हुप्रा ॥ १७ ॥
सकल सुभगः सीमा माननीयो जनानाम । बिनपति पव भक्तो भव्य वात्सल्य सक्त: ।। कल कमल विवस्वान् कीति चोवी सरस्थान । अनुपम गुरग राशिश्चन्द्र सौम्यो ननन्दः॥ १८ ॥
श्रेष्ठ सून्दर, शोलवती स्त्री समस्त जन-समुदाय को मान्य होती है, जिनेन्द्र प्रभ के चरण कमल का भक्त सभी का वात्सल्यपात्र हो जाता है, सूर्य सरोवरों में पा राजि को विकसित कर कीति भाजन होता है उसी प्रकार जिनदत्त कुमार अपने कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान एवं सरल सौजन्य से सर्वजनों को प्रानन्द उत्पन्न करने में समर्थ हा। अर्थात् सबका स्नेह भाजन बन गया ॥१८॥
इति प्रथमः सर्ग:
२४ ।
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( द्वितीय - सर्व )
दधानस्यापि तस्याथ यौवनं नयनामृतं । बभूव मानसं नित्यं नारी सुख पराङ्गमुखम् ॥ १
यद्यपि जिनदत्त कुमार यौवन की पराकाष्ठा पा चुका । वह नयनों में अमृत घोलता, अङ्ग-प्रत्यङ्ग से सौन्दर्य भरता, किन्तु यह योवन की मादकता उसके मन को विकृत नहीं कर सकी । वह भङ्गना संग से पूर्णतः विरक्त रहा ॥ १
Menge vatra falta muraa |
बाव अल्प वितण्डादि चया चतुरोन्यदा ।। २ ।। वाहनेन सुरङ्गाणां शास्त्राभ्यासेन कर्हिचित् । परोक्षणेन रत्नानां साधूनां सेवयान्यदा ॥ ३ ॥
विनोद भरा वह काव्यामृत का पान करता, कभी वाद-विवाद कर जयशील होता है वितण्डादि चर्चाओं में मनोरंजन करता । श्रश्व-गजादि वाहनों पर आरूढ हो वनविहार आदि करता कभी शास्त्रस्यास में लीन होता एवं इच्छानुसार रत्नपरीक्षा कर अपनी बुद्धि कौशल का प्रयोग करता तथा समयानुसार साधुवर्ग की सेवा वैयावृत्ति, विनयादि द्वारा अपने को धन्य धन्य मान प्रमुदित होता था ।। २-३ ॥
पूजोत्सवं जिनेन्द्राणां राजकायैः कदापि च ।
इत्यादि चारु चेष्टाभि रसक्तो विषयेश्वसौ ॥ ४ ॥
यदातदा श्री जिनेन्द्र देव की विशेष पूजा आदि उत्सव करने में संलग्न होता था । तथा जब कभी राजकार्यों द्वारा समय यापन करता था । इस प्रकार नाना शुभ- चेष्टाओं में रत रहता किन्तु विषयों से सतत लिप्त रहा || ४ ||
समस्तसुख सम्पत्ति समुग्धो बुध वल्लभः | दिनानि गमयामास वयस्यैः सहितो मुदा ।। ५
समस्त सुख सम्पत्ति का भोग करते हुए भी काम भोगों से विरक्त विद्वानों का प्रिय वह अपने समवयस्क मित्रों के साथ सुख पूर्वक जोवन बिताने लगा ।। ५ ।
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विमुखं तं ततो ज्ञात्वा तस्मिन् बार परिग्रहे ।
स बन्धुविधेय तं सूनो रंजयितुं मनः ॥ ६ ॥
यौवन वृद्धि के निविकार कुमार को देखकर पारिवारिक जन उसका मन रंजायमान करने की सोचने लगे। वे सोचने लगे यह स्त्री परिग्रह किस प्रकार स्वीकार करे, इसके लिए कोई उपाय सोचना चाहिए । विवाह करने की ओर इसका तनिक भी भाव नहीं है । श्रतः सभीजन उसे विवाह की ओर भाकर्षित करने का प्रयत्न करने मे ॥ ६ ॥
यत्र चित्र रत कौडा रसिकानि विलासिनाम् । मिथुनानि निशीदन्ति तेषूद्यानेषु नीयते ॥ ७॥
जिन उद्यानों में मिथुन स्त्री-पुरुष क्रीडा करते थे, बैठते थे, ग्रामोदप्रमोद करते उन उद्यानों में उसे ले जाया गया || ७ ||
क्रीडत् कान्ता स्तनाभोगसङ्ग संक्रान्त कु कुमाः । वापी: पद्मानना स्तस्य दर्शयन्ति जना निजाः ॥ ८ ॥
उन उद्यानों में कीडा-संभोगादि करने वाली नारियों के स्नान करने से वापिकाओं का जल कुंकुम से अरुरण हो गया था, स्तनाभोग से संक्रान्त भाराकान्त पद्ममुखी वराङ्गनाओं से व्याप्त वापिकाओं पर ले जाकर कुमार को दिखाया गया ॥ ८ ॥
दर्शनावेय याश्चित्तं मोहयन्ति यतेरपि । स्नानादि विषये तस्य नियुक्ता स्तामृगीदृशः ॥
पण्याङ्गना जना पत्र प्राययन्ति मुखेन्दुभिः । चेतांसि पश्यतामाशु चन्द्रकान्त मरिरिव ॥ १० ॥
ये वापिका देखने मात्र से यतियों के मन को भी आकर्षित करु लेती हैं। वहाँ मृगनयनी स्नानादि विधि इसी प्रकार से करती हैं। उन स्थलों पर ले जाकर उसको रमण कराती हैं । जहाँ श्रंगार रस भरी वेश्याएँ अपने मुख चन्द्रों से भोगियों के मन को द्रवित कर देती हैं । शीघ्र चन्द्रकान्त मरिण के समान पुरुषों का मन साद्र-द्रवित हो जाता है उन्हें देखते ही । धर्थात् मुखचन्द्र समान वेश्याएं जहां विलास कर रही हैं यहाँ पुरुषों का मन चन्द्रकान्त मरिण के समान सजल प्रेमरस पूरित हो
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प्रदान करती नारीयों को देखते हुए- -जिनदत्त
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जाता है उन स्थलों पर कुमार को ले जाकर रमाने का प्रयत्न करते ।। ६-१० ॥
इतस्ततः स्थिताः स्फार श्रृंगाराः स्मरबीवितम् । गमयन्ति गताशंकचे कस्तो नैवतं यथा ।। ११ ।।
उसको चारों मोर काम भोग श्रृंगारादि से जीविका चलाने वाले घेरे रहते । कुमार के मन को विकृत करने में कोई समर्थ नहीं था। सभी को निराशा ही हाथ लगी ।। ११ ॥
विचित्राणि च वस्त्राणि समं मात्यविलेपनैः । विभूषश्च यच्छन्ति प्रत्यहं तस्य ते निजाः ॥ १२ ॥ ताः कथास्तानि गोलानि तानि शास्त्रारिश नम्मंतत् । कुर्वन्ति सुहृवस्तस्य दीप्यते येन मन्मथः ॥ १३ ॥ प्रारभ्यते पुरस्तस्य परं प्रेाकं च तत् । राग सागर कल्लोले प्लाभ्यन्ते येन देहिनः ।। १४ ।।
नाना प्रकार के सुन्दर- श्राकर्षण भरे वस्त्र माभूषण, विभूषा के प्रसाधन माल्य कुसुमादि उसके लिए प्रतिदिन दिये जाते हैं, राम वर्द्धक कथाएँ सुनाते हैं, कामोद्दीपक राग रागनियां-संगीत सुनाये जाते हैं. ऐसे कामतन्त्र शास्त्र सुनाये-पढाये जाते हैं ताकि किसी प्रकार उसके हृदय में काम वासना उछीप्त हो, जागे थे ही प्रयत्न किये जाते हैं किन्तु उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । जिससे प्राणियों के हृदय में राग सागर उमड पडे इसी प्रकार के उसे नाटक दृश्य मादि दिखलाये जाते हैं, ऐसे ही समवयस्कों के साथ उसे रमाने की चेष्टाएँ की जाती हैं, उसी प्रकार की नाट्य शालाभों में ले जाया जाता है किन्तु सब निष्फल ही प्रतीत होता है ।। १२-१३-१४॥
इस प्रकार समय बोलता गया। समय की चाल को कौन रोक सकता है। क्षण-क्षण पल-पल कर उसे तो जाना ही है प्रतीत की घोरः । अस्तु,
अर्थकदा जगामासौ नित्यमण्डित संगीतं ।
वयस्यैः सहितस्तु गं कोटिकूटं जिनालय || १५ ॥
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किसी एक दिन वह अद्ध विकसित कलिका-कुमार अपने मण्डन एवं संगीतकार मित्र मण्डली के साथ जिनालय में गया। यह जिन भवन करोड उत्तुंग शिखरों से युक्त था, नाना विध चित्रकला, शिल्पकला, नक्काशी कला से परिव्याप्त था अति विशाल और उत्तुंग था ।। १५ ॥
सोपान पदवी दिल्यां समारहय ततः स्थितिः । दर्श क्षणमात्रं सद्वार मण्डपमुत्तमम् ॥ १६ ॥ .
इसकी अनुपम कला निरीक्षण करता हुमा कुमार शनै: शानः सोपान सिढीयों पर चढ़ने लगा । द्वार मण्डप पर पहुँचा । उस उत्तम द्वार मण्डप की श्री-शोभा को देख सहसा वहीं स्थित हो गया-खड़ा हो गया ||१६||
यावन्तत्र जगत्सार शिल्पि कल्पित रूपके ।
दत्त दृष्टि रसौ तावद् ईष्टका शालभमिका ।।१७।। विस्मित कुमार क्रमशः उस मण्डप की एक-एक कलात्मक चित्रों को मिनिमेष दृष्टि से देखने लगा शिल्पियों की कल्पना के रूपों के देखते देखते सहसा उसकी सरल निर्विकार दृष्टि एक अनुपम रूप राशि की पुत्तलिका-प्राकृति से जा टकरायी ॥ १७ ॥
तस्यादर्शन मात्रेण पित्तन्यस्त इव स्थितः । पपो रूपामृतं चास्या: स्तिमितायत लोचनः ।। १८ ॥
उस पर दृष्टि पडते ही वह मन्त्र मुग्ध सा प्रचल हो गया मानों उस प्रतिच्छाया को हृदय में प्रविष्ट कराना चाहता हो । वह मुस्कराता हमा उसके रूपामृत का पान करने लगा ॥ १८ ॥
ततस्तस्य सकामस्य पतिता पारपायोः। वृष्टिमृगीव संसक्ता स्पन्दनेपि पराङ्ग-मुखो॥१६॥ उसके चरणकमल मानों कामदेव से सेवित थे दृष्टि साक्षात मृगी के समान चञ्चल थी, उसे देखने वाला हिलने में भी समर्थ नहीं हो । सकता ऐसा उसका लावण्य था। वह देखता रहा और सोचता रहा उसके प्रत्येक अवयव के अतुल राग रस भरे सौन्दर्य के विषय में ॥ १६ ।।
निधाय कसशेनेव नितम्बेन मनोभवः । .. पाटीतट समाकृष्टा संप्राप्ता कम योगतः ॥२०॥
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मन्दिर के द्वार मण्डप के पास प्रतालिका-आकृति को निहारते हुए जिनदत
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क :- आचार्य श्री सुि तर जी पराज
परम पूज्य श्री १०५ ग० आ० विजयामती माताजी एथ श्री १०५ आर्थिका ब्रह्ममती माताजी सल्लिका १०५ श्री जयप्रभा एवं विजयप्रभा के दीक्षा पर केश लवन करते हुए
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अपने नितम्बों रूपी कलशों से इसने मानों साक्षात् कामदेव को ही धारण किया है। कटितट कमर के संयोग से कितनी आकर्षक है ॥२०॥
लावण्यनीरे सम्पूर्ण नाभिकुण्डे ममज्जसा । मदनानल सन्ताय पीडितेय ततश्विरम् ।। २१ ।।
ओह इस की नाभि सरोवर में कितना शीतल जल भरा है, यह काम संताप से सन्तप्त जन को शान्ति प्रदान करने में सक्षम है। इस प्रकार चिन्तन करता हुआ वह कुमार मदनालन - कामदाह से पीडित ETTURA:
तान् जहार
ततस्तस्था: रोमराजिरनुत्तरा । रूपातिशयतोभ्यस्ता प्रशस्ति शिव शंभुना ।। २२ ।।
अहा इसके रोमों की पंक्तियाँ गजब ढाह द्विगुणित कर रही हैं। ऐसा प्रतीत होता मानों पर प्रशस्ति ही लिखकर रक्खी है ।। २२ ।।
प्राचक्राम प्रयासेन प्रस्खलन्ती मध्यमस्थाः कृशोदर्या स्त्रियलिभंग
रही है। रूपराशि को ब्रह्मा अनुतर रूप पट्ट
मुहुर्मुहुः ।
बन्धुरम् ।। २३ ।।
देखो, इसकी चाल किसने प्राकर्षक रूप में प्रतिविम्बित की गई है, प्रयास पूर्वक स्खलति होती हुयी बार-बार मन्द मन्द गमन कर रही हो । उदर अत्यन्त कृश है, कटि सिंहवत् पतली हैं उदर की त्रिवली की कुटिलता सौन्दर्य का श्रृंगार है ।। २३ ।।
ततस्तस्याः सालीना
स्तनान्तरे ययो यथा समस्तांगसंमोहं मुग्ध
:
समयसि ।
मानसः ।। २४ ।।
स्तनों का मध्य स्थान अर्थात् वक्षस्थल विशाल और प्रशस्त है । समान रूप से सभी अङ्ग मन को मुग्ध करने वाले संमोहन मन्त्र है || २४ ॥
प्राललम्बे मनोहारी हारावलिमसौ शनैः । कष्ठं हि यत्नतः प्राप रेखात्रितय सुन्वरम् ।। २५ ।।
इधर यह अपने मनोहर त्रिवलि युक्त कण्ठ में धीरे से रमणीय द्वार- कण्ठमाला को धारण कर रही है । प्रयत्न पूर्वक हार फब कर बैठा है ।। २५ ।।
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पाललम्बेव तत स्सस्या: सा माहु लतिका कमात् । समस्त भूवनभ्रान्त बान्तानंग मृगाश्रयम् ॥ २६ ॥
दोनों दीर्घ बाहू लता के समान लटक रहीं हैं, समस्त भवन-लोक को भ्रान्ति उत्पन्न करने में पूर्ण समर्थ है । कामवाण से श्रमित कामीजनों के श्रम को अपनयन करने में एक मात्र प्राश्रय है ॥ २६ ॥
रति कामपिसा लेने लावण्यातिशयान्धिते । मुखेन्दी मदनादास दाह शान्त्यायनी यया ॥ २७ ।।
किसी भी प्रकार लावण्य के अतिशय से समन्वित होने से रति को प्राप्त किया है उसी प्रकार मुखरूपी चन्द्र पर मदनदाह को शान्त करने वाली अपूर्व शान्ति झलक रही है ।। २७ ।।
शपाले पुनस्तस्याः कामपाश चापरे । बदामृगोच सात्यन्तंगन्तुभन्यत्र नाशकत ॥ २८ ।।
उसके केशपाश मानों काम जाल ही हैं इसके व्यामोह में बद्ध मन अन्यत्र जाने में समर्थ नहीं हो सकता है ।। २८ ।।।
कान्ति लावण्य सप सौभाग्यातिशया इमे । प्रतिच्छन्वेप्यहो यस्माः सा स्वयं ननु कीवृशो ॥ २६ ॥
इसके चित्र में कान्ति, लावण्य श्रेष्ठ रूप, सौभाग्य, उत्तम चिन्ह इस प्रकार आकर्षक चित्रित है वह स्वयं तो न जाने कितनी अनुपम सुन्दरी होगी ।। २६॥
कवापिने संपन्नो विकारो मम चेतसः । एतस्या दर्शनाख्नेयमबस्वा मम तंते ॥ ३० ॥
प्राज तक मेरे मन में कभी भी विकार उत्पन्न नहीं हुमा प्राज इसके देखने मात्र से मेरी यह अवस्था हुई है अन्य की तो बात ही क्या ? ॥ ३० ॥
किमिदं पूर्व सम्बन्ध प्रेम दुषित स्फुटम् । येम बासा ममैवेयमासेममक शंना ॥ ३१ ॥ यह विचारने लगा, क्या इसके साथ मेरा पूर्व भव का प्रेम सम्बन्ध
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है जो श्राज प्रकट हुमा है । अन्यथा इसके दर्शन रूपी तिचन से मेरा मन क्यों याद हो आसक्त होता ? ॥ ३१ ॥
अथवा क्वापि कस्यापि पूर्वकर्म विपाकतः । कटिस्येव मनो याति नूनं तन्मयतामिव ।। ३२ ।।
प्रथवा यही सत्य है, कोइ न कोई पूर्वभव के संचित कर्म का विपाक ही उदय आया है तभी तो शीघ्र ही मेरा जीवन तन्मय हो गया। अर्थात् अचानक ही मन इसमें प्रबल हो गया है ।। ३२ ।।
यदीयं भवितातन्वि मूल प्रकृति बजिता । न प्राणधारणोपायं तदा स्वस्य विलोकये ।। ३३ ।।
वस्तुतः यह तन्वङ्गी साक्षात् न मिलो तो मेरा जीवन दुर्वार है । इतना सातिशायि रूप क्या भला मूल इसके जीवन बिना हो सकता है ? अर्थात् श्रवश्य ही कोई जीवित कलिका का यह प्रतिच्छन्द चित्र है ।। ३३०० सचेतनंवेयं कापि काम
ननं
चोरयामासनश्श्विस
चन्द्रास्था
निश्चय से यही चेतना सहित सी प्रतीत हो रही है। अथवा किसी कामलता का रूप है | यदि ऐसा न होता तो किस प्रकार यह चन्द्रमुखी मेरे मन को चुराती ? अवश्य ही कोई अनुपम विद्या है यह ।। ३४ ।।
लतायया ।
कथमन्यथा ।। ३४ ।।
प्रचेतने यतो रूपं शोभायकिल केवलम् । सम्बन्धेन बिना चेत्थं नानुराग बिभितम् ।। ३५ ।।
मात्र शोभा के लिए चित्रित किया गया यह अचेतन चित्र इतना अनुराग उत्पन्न कर रहा है क्या यह बिना आधार के हो सकता है? नहीं अवश्य ही यह जीवन्त कलिका है तभी बिना सम्बन्ध के मुझे अनुरंजित कर रही है ।। ३५ ।।
भुज्यते यदि संसारे सौख्यं विषय गोचरम् । तवानन्दनिषामेन सामेवं विषेन हि ।। ३६ ।।
यदि संसार का सुख भोगना ही हो तो इसी के साथ भोगना सार्थक है अन्यथा विषय जन्य भोगों से कोई प्रयोजन नहीं है । अन्यत्र भोगानन्द - की प्राप्ति नहीं हो सकती ।। ३६ ।।
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योतयासमं नैवभजे भोगाननारतम् । हिम लानांबजे नेव यौवनेनापि कि मम ।। ३७ ॥
इस प्रकार कामोद्दीप से पातुर कुमार का मन उसमें अडिग हो गया । वह पुनः विचारने लगा, इस अनिंद्य सौन्दर्य का अनारत भोग नहीं किया तो मेरे यौवन का क्या प्रयोजन है ? इस रूप राशि के साथ महनिश भोग करने से ही मेरा यौवन सफल है अन्यथा निस्सार जीवन है। इसके बिना मेरा जीवन हिम-तुषार से म्लान कमल की भाँति व्यर्थ है। निष्प्रयोजनीय है ।। ३७ ।।
करे करोति कि चापमस्यां सत्यां मनोभुवः । इयमेव यतो विश्व वशीकरण सन्मरिणः ।। ३८ ।।
धनुष बाण हाथ में धारण करने का क्या प्रयोजन यह स्वयं कामदेव स्वरूप है । यह एक मात्र विश्व को वशी करने में सम्यक् मणि के समान है। अन्यत्र क्या ? ॥ ३८ ॥
एवं विधायतः सन्ति संसारे रति भूमयः । विरज्यते सतो नातोज्ञात सत्त्वरपि ध्र वम् ।। ३६ ॥
यद्यपि कुमार पूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता स्वरूप है तो भी इस ससार भूमि की रति के प्रवाहरूप प्रेम से अपने को विरक्त करने में समर्थ नहीं हा। निश्चयत: तत्त्वज्ञ भो विषयासक्त हो जाते हैं ।। ३६ ।।
रूदावयोप्यहो यातां दृष्टिपातोप जोविनः।। मावृशां स्मर मुग्धानां मोहनेतासु का कया ।। ४० ॥
वह सोचने लगा, इसके सौन्दर्य से रूद्रादि भी दृष्टिपात मात्र से काम मुग्ध हो गये तो हमारे जैसे स्मर मुग्धों की उसमें क्या कथा है ? ।। ४० ॥
अधिशामि किमङ्गानि कि स्पृशामि पिबामि कि। नेत्र पात्र रिमामाणु सौन्वर्यामृत वापिकाम् ।। ४१॥
हा ! इस सौन्दर्य अमस की वापिका में किस प्रकार में प्रवेश करू इसके सुकोमल अङ्गों का स्पर्श किस तरह हो, नेत्रों रूपी पात्रों से शीघ्र ही पीना चाहता हूँ ॥४१॥ ३२ }
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इत्यायनेक संकल्प कारिणः सहचारिणा।। विनातं मकरंदेन दृष्ट्या तस्य मनोगतम् ॥ ४२ ॥
इस प्रकार अनेकों संकल्पों में निमग्न कुमार की चेष्टा ज्ञात कर उसके सहबर ने ताड लिया। उसकी दृष्टि से उसके मनोगत भावों को जानकर उसे अत्यन्त प्रसन्नता हुयी। क्योंकि कुटुम्बीजन तो यही चाहते थे ॥ ४२ ॥
विबद्धञ्च घिरादेते फलिता में मनोरथाः। सिक्तश्चायं सुधासेकः श्रेष्ठ संतान पाइप: ।। ४३ ।।
वह मित्र सोचता है, कि, चिरकाल के बाद मेरे मनोरथ फलित हुए हैं । यह श्रेष्ठि पुत्ररूपी पादप-वृक्ष प्राज प्रेमामृत सीकरों से अभिसिंचित हुमा प्रतीत हो रहा है ।। ४३ ॥
स्मित्वा स्वरमुवाचे मे तयंब सले मनः । कि हतं भवतो येन स्तम्भितो वा व्यवस्थितः ॥४४॥
प्रानन्द से गद्गद् हो वह कहने लगा, कुमार, पाप हँसकर अपने भावों को स्वच्छंदता पूर्वक बतलानों-कहो, हे सखे किसने आपके मन को हरा हैं जिससे कि इस प्रकार प्राप स्तम्भित हो गये व खड़े रह गये ? ।। ४४।।
भवानेव विजानातो त्युक्त्वावाय करेण तं । स विवेश जिनापोश मन्दिरं तन् गताशयः ॥ ४५ ॥
"पाप ही जानते हैं" क्या हुमा, इस प्रकार उत्तर देकर उसको हाथ से पकड़ कर, कुमार उस कन्यारूप में आसक्त हुया जिनालय में प्रविष्ट हुमा ॥ ४५ ॥
ततः प्रदक्षिणी कृत्य स्तुत्वा स्तोत्र रनेकशः । जिनां जगाम तां पश्यन्नाकृष्टी क्रममालयं ॥ ४६॥
सावधान हो कुमार ने जिनालय में श्री जिनेन्द्र प्रभु की भक्ति से प्रदक्षिणा कर नाना प्रकार सुन्दर स्तोत्रों से स्तुति की। तदनन्तर नमस्कार कर अपने घर को लौटने लगा, बार-बार उस चित्राम के लिए देखता हा घर आया ॥ ४६ ।।
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स्थितस्तत्र समुद्रत सोव्र वेग हमर स तल्पे कल्पिता नहथ पद्म पल्लव
नाशनाय भवत्तस्य नो वन्या सह विनोवेन न केनापि स रेमे तां तदा
ज्वरः । संस्तरे ॥ ४७ ॥
निद्रया । स्मरत् ।। ४८ ।।
गृह में स्थित होते ही काम ज्वर तीव्रता से उग्र होने लगा । अनेक कमल पत्रों से शीतल शंच्या उसे तैयार की गई अर्थात् काम वेग ज्वर की शान्ति के लिये पद्मपल्लव तल्प शैय्या भी समर्थ नहीं हुई । निद्रा ने मानों रूठ कर उसका साथ छोड़ दिया वह विनोद से भी किसी के साथ हास - विलास करने में समर्थ नहीं हुमा । उसी का चिन्तन करने
लगा ।। ४७-४८ ॥
जलाई श्वन्दन इवन्द्रः कर्पूर: शिशिरंपयः । ज्वलित कामानलस्यास्य संजाता धृत विप्लुषः ॥ ४६ ॥
मलयागिर चन्दन मिश्रित शीतल जल, चन्द्र रश्मियाँ, कपूर लेपन, वर्फ का पानी यादि पदार्थ इस कामदाह से ज्वलित कुमार को कामाग्नि जलाने में घी का काम करने लगे । अर्थात् जितमा शीतोपचार किया जाता उतना ही उसका काम ज्वर अधिक होता जाता ॥ ४६ ॥
वरं मरण मेवास्तु मा बियोगः प्रियैः सह । समाप्यन्ते समस्तानि येन दुःखानि सर्वतः ॥ ५० ॥
प्रहृष्टापि मनो मोहं या ममेत्थं पुष्पेश कुरुषे किं न शरसं हृति इत्यादिकं जजल्पा सा बसं बन्धं एकयापि तथा मेने व्याप्तामिव
वह विचारने लगा, उस कामिनी के वियोग की अपेक्षा मरण ही मेरे लिए श्रेयस्कर है । क्योंकि प्रियजनों के वियोग से उत्पन्न समस्त दुःख मरा से ही समाप्त हो जाते है ।। ५० ।।
ततान तां ।
जर्जराम् ।। ५१ ।।
प्रबन्धसः । जगत्रयीम् ।। ५२ ।।
अदृष्ट भी वह इस प्रकार मुझे संताप दे रही है, जर्जरित कमलो को सरोवर में सूर्यास्त होने पर क्या नष्ट नहीं करता ? करता ही है । इत्यादि प्रकार से वह उस सुन्दरी के वस हुआ नाना प्रकार प्रलाप करने
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लगा। उसे लगता मानों वह तीनों लोकों में व्याप्त है अर्यात हर क्षरण प्रत्येक प्रोर उसे वही सुन्दरी दिखलायी पड़ती ॥ ५१-५२ ।।
जिगासा तस्तदा सस्य पञ्चमेन निवारिताः । हंकाराः सन्ततश्वासः प्रमलानाधर पल्लवः ॥ ५३॥ समन गुण सम्पूर्ण कर्ण शूल करं परम् । गीतं तेन तवा मेने मनोमं ज्यार वोपमम् ।। ५४ ॥
अब उस काम द्वारा यह हुंकार भरता, सतत दीर्घ श्वासों से उसके अधर पल्लव सूख गये-म्लान हो गये। उसे गुण पूर्ण मधुर संगीत करशूल के समान प्रतीत होते । वह कामदेव से उत्पन्ना है उसी का स्वर यथार्थ स्वर है वही सुनना चाहिए। शेष सब करणों को कष्टदायी ही हैं ।। ५३-५४ ।।
किञ्च प्रसार यामास भूयो भूयो भजश्चयं । मलिङ्गितु मिय योम भूमि माशा स्तयंव च ।। ५५ ॥
कुमार की चेष्टा उग्रतर विपरीत होने लगी, वह शनैः शनैः बार-बार अपनी भुजाओं को फैलाता, कभी प्राकाश को मालिङ्गित करना चाहता तो कभी भूमि को और कभी दिशापों को । अभिप्राय यह है कि उसे चारों पोर, ऊपर-नीचे सर्वत्र वही रूप सुन्दरी प्रतीत होती पौर वह उसी छाया के पीछे दौड़ने को प्रातुर हो उठता ।। ५५ ।।
मूर्छा प्रलाप वर्ण्य स्वेद रोमाञ्चकंपितं । तस्यासोत् सततं गात्रं सन्निपात ज्वराविव ।। ५६ ।।
उसे रह-रहकर मूर्छा आ घेरती, मनमाना प्रलाप करता, मुख कान्ति कोण हो गयी-पसीना छूटने लगा, शरीर रोमाञ्चित होने लगा, कांपने भी लगा वपु, जिस प्रकार समिपात ज्वर (त्रिदोष से उत्पन्न वर) के कारण पादमी हिता-हित विवेक शून्य, ज्ञान हीन होकर यदा-तहा पाचरण करने लगता है उसी प्रकार उस कुमार की दशा हो गयी ।। ५६ ॥
इत्यालोच्य ततस्तस्य सुहाः स्मर संभावाम् । वशामावेदयामासु राशु ताताप तत्पराः॥५७ ॥
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इस प्रकार कुमार को काम के वारणों से विद्ध और उसके दश अवस्थाओं को देखकर उसके मित्र ने उसे कामासक्त जाना । शीघ्र ही उसके पिता के पास जाकर सकल वृतान्त कह सुनाया ।। ५७ ।।
यावन्मानधनो धापि न याति दशमी मयम् । दशां कन्तो कुमारस्य कुछ तावत् समीहितम् ॥ ५८ ॥
मित्र कहने लगा, हे मान्यवर ! आपके पुत्र की दयनीय दशा है । वह काम वेदना से अत्यन्त पीडित हो चुका है इसकी दसमी दशा जब तक प्राण घातक न हो उसके पूर्व ही शीघ्र उपाय करना चाहिए। हे मानधन ! शीघ्र ही उसके समीहित की सिद्धि करिये । अन्यथा मरण ही है ॥ ५८ ॥
उदन्तं तं समाकर्ण्य रोमाञ्च कवचाचितः । सशस्यं
मित्रों की बार्ता सुन सेठ हर्ष से झूम उठा, शरीर रोमाञ्चितहो गया, उसका मुख मण्डल हास्यमय हो गया और उन्हें वह बार-बार देखने लगा ।। ५६ ।
॥ ५६ ॥
कुण्ठी भवन्त्यहो यस्य चेतसो वा सूचयः । तस्थापि भवने शक्ता: कटाक्षाः किल योषिताम् ॥ ६० ॥
वह विचारने लगा हो। जिसके चित्त को भेदन करने में वज्र सूचि भी भौंथरी हो गई, उसी के मन को योषिता कटाक्षों ने भेदित कर डाला ।। ६० ।।
संचिन्तयेति ततस्तांश्च संविभज्य जगामासौ
ताम्बूलांवर भूषः ।
यत्रास्ते
३६ ]
बेहसंभवः ॥ ६१ ॥
इस प्रकार विचार कर और सूचित करने वाले जनों को ताम्बूल, वस्त्र एवं प्राभूषणादि प्रदान कर वह अपने पुत्र के पास गया ।। ६१ ॥
तं विलोक्य तथा नूतं श्रेष्ठिनेति विचिन्तितम् ।
दुः साध्या कार्य संसिद्धिः कुमारः पुनरीवृशः ।। ६२ ।।
पुत्र
की दयनीय एवं प्रत्यन्त क्षीरण दशा को देखकर वह चिन्तित
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हो गया, विचारने लगा इसकी कार्य सिद्धि अत्यन्त दुःसाध्य है, कुमार की दशा भी इस प्रकार की हो चुकी है ।। ६२ ॥
विधेशन नो जाने कार्य स्यादिह कीदृशम् । तथाप्याश्वा सयामीति सं जगाद सुतं ततः ॥ ६३ ॥
विधाता ही जाने इसका कार्य किस प्रकार का होगा, न जाने साध्य है या प्रसाध्य, जो हो इस समय इसे पाश्वासन ही देना उचित है। विश्वास दिलाता हूँ। इस प्रकार मन में विमृश्य, वह पुत्र से कहते लगा ।। ६३ ।।
मुञ्च खेदं महाबुद्ध मानसं सकला: क्रियाः ।। कुरू स्नानादिकाः शीघ्र पूरयेतव वाञ्छितम् ॥ ६४ ॥
हे महा माग ! खेद का परित्याग करो, प्रसन्न हो अपनी स्नानादि समस्त क्रियाओं को यथा विधि करो, हे मनोहर ! शीघ्र तुम्हारे मनोवाञ्छित कार्य को पूरा करूगा ।। ६४ ॥
यवोह राज कन्यापि खेचरी वापि सुन्दरी । उत्संग सङ्गता पुत्र करिष्यामि तथाऽपि ते ।। ६५ ।।
जिस पर तुम्हारा मन मुग्ध हया है वह राजकन्या हो, अथवा विद्याधर कन्या रहे या अन्य सुन्दरी कन्या हो, हे प्रिय, शीघ्र ही में तुम्हारा उसके साथ सङ्गम कराऊंगा । अर्थात विधिवत् भागमानुकूल विवाह कराऊँगा॥ ६५ ॥
कार्यान्तरं परित्यज्य तथा यस विषास्यते । मया यत्नो यथा तथ्यो निष्पत्यैव भविष्यति ॥६६॥
हे पुत्र ! मन्य समस्त कार्यों का त्याग कर प्रथम वह कार्य करूंगा जिससे तुम्हारे मनोरथ की सिद्धि होगी ।। ६६ ।।
समाश्वास्येति तं श्रेष्ठो स जगाम तवालयम् । तो पिलोक्य ततस्तेन विस्मितेन धूतं शिरः ॥ ६७ ।।
इस प्रकार पुत्र को प्राश्वासन देकर तथा कहाँ उसका मन अड़ा है यह वृतान्त ज्ञात कर श्रेष्ठी प्रानन्द से जिनालय में गया और उस
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साक्षात् रति स्वरूप चित्रिता को देख पाश्चर्य से सिर हिलाने लगा। विस्मय से वह हतप्रभ सा हो गया और विचारने लगा ।। ६७ ।।
मिएकातिक्षाविनी कामियम विमोहकम् । लउजाकरमिदं चास्य लावण्यं विश्व योषिताम् ॥ ६८ ॥
विश्व की कान्ति को तिरस्कृत करने वाली इसकी सौम्य कान्ति है, विश्व-संसार मोहक रूप राशि है, अतिशय लज्जापूर्ण मनोहर मुख है, समस्त लोक की ललनामों का लावण्य स्वरूप है यह ।। ६८ ॥
प्रति बिम्बमिदं यस्या सास्ति काचन सुन्दरी। प्रदृष्टमीवृशं रूपं निर्मातुं न हि शक्यते ॥६६॥
इसका प्रतिबिम्ब इतना मोहक एवं प्राकर्षक है तो साक्षात् कितनी मनोहर न होगी ? इस प्रकार का रूप अदृष्ट निर्मित नहीं हो सकता । अर्थात् मात्र काल्पनिक प्राकृति इस प्रकार उत्कीर्य नहीं की जा सकती। अवश्य ही कोई सुन्दरी कन्या होना चाहिए ।। ६६ ।।
युक्तं यत्र पुत्रस्य मनोलीनम जायत । यवस्या दर्शनान्तेऽपि नूनं मुश्यन्ति नाकिनः ॥ ७० ॥
मेरे पुत्र का मन इसमें लीन हुअा है यह युक्ति युक्त ही है । क्योंकि इसके देखने मात्र से मनुष्य क्या देव भी मुग्ध हो जायेंगे । अर्थात् देवों का मन भी चुराने वाली है यह ।। ७० ॥
एवं विधेऽपि यच्चित्रं नानुराग भरालसम् । समग्र रस शून्यात्मा नरः पाषाण एव सः ।। ७१॥
इस प्रकार का समस्त रसों का सामंजस्य अद्भुत चित्र देख कर यदि किसी मनुष्य का चित्त द्रवित नहीं हो तो वह मनुष्य नहीं शून्यात्मा पाषाण ही है ॥ ७१ ।।
संभाग्येति समाहूत स्तेनाऽसौ येन शिल्पिना। कृता सा सोऽपि संपृष्टः केयं क्यास्से व कोशी ।। ७२ ॥
इस प्रकार नाना तों से विमृश्य-विचार कर उस सेठ ने इस चित्र | को चित्रित करने वाले शिल्पी को बुलवाया तथा "यह कन्या कौन है ? कहाँ है और कैसी है" प्रश्न पूछे ।। ७२ ॥ ३८ ]
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तेनामाणि महाभाग चम्पायर्या विमलात्मनः । श्रेष्ठिनो विमला स्येयं विमलादि मतिः सुता ।। ७३ ॥
प्रश्नानुसार उस चित्रकार ने सरल, स्पष्ट, यथार्थ परिचय देते हुए कहा, महाभाग ! यह चम्पानगरी के धर्मात्मा-पुण्यात्मा; निमंलात्मा श्रेष्ठी की सेठानी विमला से उत्पन्न "विमलामती' नाम की कन्या है। पुत्री है ।। ७३ ।।
वेणी बलय विसृस्ता पुष्प भ्राम्यन् मधुवृता। कपोल फलकोदभुत स्वेद बिन्तु चितानना ।। ७४ ॥
इसकी नागिन सी वेणी विस्तृत पुष्पमालाओं से गूंपी गई है जिस पर मधुकर समूह मंडरा रहे हैं । कपोलों पर ढलकते स्वेद विन्दु अद्भुत रूप से अंकित हैं । इससे प्रानन-मुख अत्यन्त शोभायमान है ।। ७४ ।।
चेलाञ्चल तथा चार हारावलिम सौ शनैः । संयम्य सर्वतो बद्ध लक्षा मण्डल बारिणी ॥ ७५ ।।
इसके वस्त्र का अंचल चंचल हो रहा है । सुन्दर हार घारण की है, शनैः शन: चारों ओर से अपने को संयमित कर अपने निर्दिष्ट कार्य की प्रोर सखियों सहित गमन करती हुयी चित्रित हुयी है ।। ७५ ॥
कन्यका कमनीयोगी कीडन्ति कन्टुकेन सा। समें सखोभि रालोकि विस्मितेन मया चिरम् ॥ ७६ ।।
यह अत्यन्त कमनीय कन्या मेंद से अपनी सखियों के साथ खेल रही थी। उस समय मैंने बड़े आश्चर्य से उसे चिर काल तक निहारा ।। ७६ ।।
प्रागत्येवं ततः साधो मत्वात्यन्तं मनोहरम । अत्र तप माकल्पि शतांशादिय किचन ।। ७७ ।।
सत्पश्चात् यहाँ प्राकर, हे साधो ! यह मित्र मैंने अङ्कित किया है वस्तुतः यह तो उसका पातांशवां भाग भी नहीं है । उसका पयाय लावण्य अनुपम है ।। ७७ ॥
ततो वितीयं हृष्टात्मा सा तस्मै पारितोषिकम् । जिनवस प्रतिच्छन्द लेखयामास तत् पटे ।। ७८ ।।
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इस कलाकार ने परिचय दिया । जिसे सुनकर सेठ को संतोष हुआ । तथा उस कलाकार को समयोचित पारितोषिक भी दिया एवं इसी प्रकार का सुन्दर चित्र जिनदत्त कुमार का तैयार करो ऐसा श्रादेश देकर विदा किया ॥ ७८ ॥
तं समर्प्य ततस्तत्र प्रेशिता वरणाय ताम् । परिष्टाः श्रेष्ठिना वक्तु चम्पायां नर सत्तमाः ॥ ७६ ॥
चित्र तैयार हो गया | जिनदत्त का चित्रपट लेकर एक सुयोग्य व्यक्ति को चम्पानगरी में भेजा । तथा कन्या का अपने पुत्र के साथ वरण करने का संदेश दिया ।। ७६ ।।
तैर्गत्वा दर्शितो लेख : श्रेष्ठिनः स पटस्तदा । मेने तेनाऽपि संसिद्ध तद् दृष्ट्वाशु समीहितम् ॥ ८० ॥
उधर चम्पानगरी में वह बुद्धिमान द्रुतगति से जा पहुंचा एवं श्रेष्ठी से चित्रपट के साथ जीवदेव का वृतान्त भी कह सुनाया । श्रर्थात् " वणिक् शिरोमणि जीवदेव अपने सुपुत्र जिनदत्त के साथ श्रापकी विमला कन्या का विवाह मंगल करना चाहते हैं" यह शुभ संदेश सुनाया । इस प्रति समाचार को सुनकर विमलचन्द्र श्रेष्ठी मन ही मन फूला न समाया | पर देखा, पत्र पढ़ा और अपने सभीहित इच्छित कार्य की संसिद्धि ज्ञात कर परमानन्द को प्राप्त हुआ ॥ ८० ॥
सागरः ॥ ६१ ॥
स्वास्मै कन्यकामेतां कृत कृत्यो भवाम्यहम् । सभाव्येति चकारेषां गौरवं गुण तातो पान्त गता साऽपि तमनाक्षीत् पटं सुता । दर्शनादेव चास्याभूत् मनोनू शर शल्लिता ॥ ८२ ॥
विचारने लगा, इसको कन्या प्रदान कर मैं कृत कृत्य हो वह जाऊँगा । वस्तुतः मेरी कन्या के योग्य ही यह वर है । गुणसागर और गौरव की राशि स्वरूप है। इन विचारों से युक्त सेठ विराजमान था उसी समय वह कन्यारत्न वहाँ आयी। पिता के कर कमलों में स्थित उस चित्रपट के दृष्टिगत होते ही वह हतप्रभ हो गई । काम वाण से विद्ध हो श्रलब्ध रूप को निहारने लगी ।। ८१-८२ ॥
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सान्त मिद तद्रूपं तदा तस्या हृवि ध्रवम् । यत्तस्य दर्शनात्सापि समभुनिश्चला खिला ॥ ६३ ।।
निश्चय ही वह पटस्थ रूपाभा उसके हृदय में संक्रान्त कर गई क्योंकि उसके दर्शन मात्र से ही वह निश्चल खडी रह गयी ।। ८३ ।।
सखो वसन्त लेखास्या जग्राहाचलमुत्सुका। अन्तरेत्र तथा सापि हुं कृत्यैव निवारिता ।। ८४ ॥
उसी समय उसकी सखी वसंत लेखा ने उसका प्रांचल खींच कर पो से सावधान दिया और कह कर उसे गिनारित किया ॥४॥
सा ववर्श या लब्ध लक्षं शून्यं जहास छ। अस्फुटार्थ अजल्पात स्तानेता ज्ञायो तन्मनः ।। ८५॥
उस कन्या को लक्ष्य विद्ध, संज्ञाशून्य, अस्पष्टालाप मादि चेष्टामों से उस चित्र पट पर मुग्ध हुयी ज्ञात कर पिता ने उसके मनोनुकल कार्य करने का निश्चय किया ॥ २५॥
मालोच्य बन्धुभिः सार्ट कार्य मार्य मनोचितम् । संविभक्ता गतास्तेपि सलेखाः श्रेष्ठिना सतः ॥८६ ।।
लोक व्यवहार कुशल विमल श्रेष्ठी ने अपने बन्धुवर्ग, मित्र जन एवं म्य सम्बन्धी जनों को समन्वित कर इस (विवाह) सम्बन्ध में विचार विमर्श किया । यही आर्य जनों को पद्धति है-कुल धर्म की रक्षा करते
हुए कार्य करें । सभी का अनुमोदन प्राप्त कर उसने सुन्दर पत्र के साथ । उस चित्रपट वाहक को विदा किया। अर्थात हम अपनी परम सुन्दरी
कन्या को प्राप श्री के पुत्ररत्न को प्रदान करने में सहर्ष तैयार हैं ॥६॥ है साथ ही कुछ अपने लोगों को समाचार के साथ भेजा । भनङ्गदेश के वसंत तिलक इस नगर में पाकर उन्होंने अपना वृत्तान्त जिनदत्त के पिता को कह सुनाया एवं पत्र-लेख भी अर्पण किया। चिन्तित मनोकामना फलित होने पर किसे हर्ष नहीं होता? अपनी कार्य सिद्धि में कौन मानन्दानुभव नहीं करता? सभी करते हैं।
लेखार्थ मष निश्चित्य जिनदत्तपिता स्वयम् । कृत्वा यथोचितां तत्र सामग्री प्राहिरणोत्सुतम् ।। ७ ।।
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लेख-पत्र द्वारा स्वीकृति पाते ही सेठ ने चम्पानगरी की प्रोर प्रस्थान करने का निर्णय लिया। विवाहोत्सव के अनुकूल समस्त सामग्री संचय की । बन्धु-बांधवों को आमन्त्रित कर समन्वित किया । साज-धाज के साथ पुत्र को लेकर चल दिये ।। ८७ ।।
प्राप्ताः सोऽपि ततश्चम्पा मकस्यां तर्जयन्तीं ध्यम प्रातः पुरन्दर
रिपुसंहतेः । पुरोमिव ॥ ८८ ॥
अविलम्ब जहाज चम्पा नगरी के तट पर जा पहुँचे । वह शोभिनीम चम्पापुरी शत्रुगण रहित प्रकम्पसी प्रतीत हो रही थी। फहराती वाओं का समूह मानों रिपुगरणों को तर्जना कर रहा था। वह अमरपुरी के समान प्रतीत होती थी ॥ ८८ ॥
तदुद्याने स्थितस्तेन विहितोचित सत् क्रियाः । तत्काल मंगलारम्भ व्यग्रा शेष परिग्रहः ॥ ८६ ॥
चम्पा के उद्यान में डेरा लगाया । वहीं सम्पूर्ण क्रिया-कलापों का प्रारम्भ किया। विवाह के योग्य समस्त विधि-विधान की तैयारी कर शीघ्र ही मङ्गल कार्य प्रारम्भ किया गया । समस्त जम इस उसम वर - वधु संयोग की प्रतीक्षा में व्याकुल हो रहे थे ॥ ८६ ॥
जाते प समये तत्र समुत्सव ममताञ्चिते । संस्मात कल्पितामहप माध्यांबर विभूषणः ॥ ६० ॥
तत्काल सैंकडों उत्सव प्रारम्भ हो गये, स्नान मङ्गल, वस्त्रालंकार मण्डन मङ्गल, मालारोपण प्रादि, ताम्बूल प्रदानादि क्रियाएँ होने लगीं ।। ६० ।।
गोस नृत्य समालका नन्त सोमन्तनी जनः । चतुविध महाबाध बधिरी कृत विङ्गमुखः ।। ६१ ।।
सौभाग्यवती स्त्रियाँ गीत नृत्य, वादित्र, संगीत आदि करने लगीं । तत, वितत्, शिविर, धन चार प्रकार के वादित्रों से दशों दिशाएँ बधिर सी हो गई गूंजने लगी ।। ६१ ।।
चाह पौराङ्गना नेत्र शतपत्र
वलाञ्चितः ।
दीनानाथ जनतम्बन् कृत कृत्यान् समन्ततः ।। ६२ ।।
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तरकालोचित यानेन वयस्यः सहितो मुवा । प्रवृत्तः प्रेम संभार: भारितो बल्लमा मभ ॥१३ ।।
कमल नयनी सैंकड़ों पुरस्त्रियाँ धूम-धाम से अपने-अपने कार्य में संलग्न थी । दीन अनाथों को मनोवाञ्छित दान देकर उन्हें कृतकृत्य किया गया। चारों और मधुर वातावरण छा गया। उसी समय कुमार विवाह योग्य पालकी में सवार अपने समवयस्कों के साथ प्रानन्द से प्रेम संभार से भरा प्रिया मिलन की आश में डूब गया ॥ ६२-६३॥
या क्रम कृता शेषं विवाह विधि मङ्गला। सत्रासौ बीक्षिता तेन पताकेव मनोभुवः ॥ १४ ॥
यथाक्रम से गृहस्थ धर्मानुसार समस्त विवाह-पाणिग्रहण संस्कारादि क्रियाएं समाप्त हुयीं, उसी समय कुमार ने उस साक्षात् कामदेव स्वरूप कमनीय काम्ता का अवलोकन किया। वस्तुतः वह साक्षात् कामदेव की पताका ही थी ।। ६४ ॥
तदर्शनाम्भसासिक्त स्तथास्य प्रेम पादपः । ववृधे शत शाखा स यथा मान्न मनो बनौ ।। ६५ ॥
उसी समय उसे लगा मानों इस सुन्दरी के दर्शन रूपी जल से उसका प्रेम रूपी पादप-वृक्ष अभिसिंचित हो गया । उसके मन रूप क्षेत्र में सैंकडों मनोरथ रूपी शाखाओं से बढ़ गया जिस प्रकार वन में वट वृक्ष वृद्धिंगत होता है ।। ६५ ।।
चित्त भूरिति मिष्यासि दा रेषा सवास्मरे । यत्तदा लोकनासस्य सर्वाङ्गभ्यः समुदययों ।। ६६ ॥
उसको चित्त भूमि में यह दृढ़ हो गई, कामदेव अचल हो गया और उसने भूमिपने को मिथ्या कर दिया क्योंकि भूमि कोमल होती है पर इसके मन में यह कठोर हो गई जिस समय उसके सर्व अङ्गों का निरीक्षण किया इसका सर्वाङ्ग स्मर पीड़ा से पार हो गया ।। ६६ ।।
यतो यतस्तदंगेषु वक्षः क्षिप्तं समुत्सुकम् । ततस्ततः समाकृष्टं चापेनापि मनोभुवः ॥ ७ ॥ वयों कि कुमारी के जिस-जिस अङ्ग पर इसको दृष्टि जाती वहीं
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वहीं से कामदेव वाण द्वारा आकर्षित करली जाती । प्रर्थात् जिस जिस अङ्ग का अवलोकन करता अपलक नयन मधुकर वहीं प्रेमरस में मत्त हो जाते ॥ ६७ ॥
कारयामास चंतस्याः पुरोधा पाणि पीडनम् । सलज्जा लिखदेषाऽपि परदागुडष्ठेन भूतलम् ॥ १८ ॥
इसी समय विवाह विधि कारक पुरोहित ने "पारिए पीडन " क्रिया की अर्थात् कन्या का हाथ वर के हाथ में दिया। उस समय वह कन्या लज्जाभार से नम्रीभूत हो अपने पैर के अंगूठे से जमीन कुरचने लगी। ठीक ही है श्रेष्ठ कुल ललनामों का लज्जा और विनय ही आभूषण है । उस समय लगता था मानों अंगूठे से कुछ लिख ही रही हो ॥ ६८ ॥
साल से
यस ते
शिवविभ्रमे । गाढोरकष्ठे सलज्जे चान्तराले बलिले सदा ॥ ६६ ॥
भूमितन्मुखयोर्मध्यं चक्रतु स्तद्विलोचने । शङ्खसि ता सितानेक नीलोत्पल दलाकुलम् ॥१००॥
आलस्य में, मद, प्रमोद, स्नेह एवं स्वाभाविक विभ्रम में वे वर-वधू बेथे, गाढा लिङ्गरण में सलज्जा वेदी- विवाह मण्डप में शोभित हो रहे थे । भूमि पर उनके मुखाम्बुज पर चञ्चल नयनों की रमणीय छटा से प्रतीत होता था कि अनेकों नील कमलों के दल ही हों ।। ६६-१०० ॥
सार्द्धं समा ततस्तत्र परोयाय हुताशनं । संगमास्थिर होम्बूत सन्तापं वा वहिः स्थितम् ॥ १०१ ॥
उस मनोहरी के साथ पाणिग्रहण करने के लिए यह अग्नि के चारों ओर घूमने लगा । श्रग्निशिखा के संताप से ऐसा प्रतीत होता था कि मानों संगम के विरह का संताप ही बाहिर आकर स्थित हो गया है । अभिप्राय यह है कि थोडा भी विलम्ब असह्य था ।। १०१ ।।
जुह्वतस्तस्य तथाभू ल्लाका शब्दोग्नि योगजः । जानेहं योग्य सम्बन्धात् साधुकारं शिलि वद ।। १०२ ।।
पिरोहित द्वारा लाजा धान की खील हवन में डाली जा रही थीं । अग्नि के संयोग से उनमें से चट-पट शब्द निकल रहे थे वे ऐसे प्रतीत
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जिनदत का विमला मतां के साथ पाणिग्रहण संस्कार ।
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होले थे मानों यह "रति-कामदेव के समान योग्य सम्बन्ध है" इस प्रकार अग्नि साधुवाद-पाशीर्वाद ही दे रही है । मैं (भाचार्य) समझता हूं कि धर्म विधिपूर्वक योग्य वर-बधू होने से अग्नि भी उनका यश गान कर रही है ॥ १०२॥
धूमदान क्षणोभवूता स्ते तयो बास्प बिन्दवः । निर्गता वा मनोमान्तः करणा: प्रेम रसोमवाः ॥ १०३ ॥
होम की धूम से उनके नयनों से अश्रु बिन्दु झलकने लगे। वे ऐसे प्रसीत होते थे मानों उनके अन्तःकरण का प्रेमरस उमड़ पड़ा हो ॥१०॥
तदासौ मौक्तिकोहाम माला लंकृत तोरणाम् । तयामावेदिकां प्राप्य भद्रासन उपाविशत् ।। १०४ ।।
तदातर वे, मोतियों को काला ही तोर कारों में लटक रही हैं ऐसे सुन्दर मण्डप के वेदी में प्रविष्ट हो सपत्नीक भद्रासन पर विराजमान हुा । अर्थात् सुन्दर-शुभ प्रासनारूढ़ हुप्रा ।। १०४ ।।
यान्यक्षतानि नार्योर्यः ददिरे मस्तके तयोः। कुसुमानीवसौभाग्य मञ्जर्या स्तामि रेजिरे ।। १०५॥
सौभाग्यवती सीमन्तिनियों के द्वारा तथा सत्पुरुषों द्वारा सुन्दर सुवासित प्रक्षत उन दोनों के मस्तक परं क्षेपण किये गये, वे भूमि पर कुसुम की मजरियों की भांति शोभा को प्राप्त हो रहे थे । मानों इनकी सौभाग्य सम्पत्ति बिखर रही हो ॥ १०५।।
गीत नत्याविक तत्र प्रारब्धं प्रमका जनः । पश्यन्तौ यावदानन्द धाधमग्नी स्थिती तदा ॥ १०६ ।।
उत्तम प्रमदानों-सुभासिनी नारियों द्वारा नाना प्रकार के गीत एवं नृत्यादि प्रस्तुत किये जा रहे थे। उस मिथुन को देखने मानों आनन्द सागर ही उमड़ पड़ा हो ऐसा प्रतीत होता था ।। १०६ ।। निशा विलास संपर्को जायतामेतयोरिह । इतीव मन्य मानेन भानुना स्तादि राश्रितः ।। १०७ ।। शनैः शनैः भानुराज प्रस्ताचल की ओर प्रस्थान करने लगे, मानों
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इन दम्पत्ति के प्रेम मिलन की बेला पा रही है--विलास काल शीघ्र पाना चाहता है यही सोचकर मानों रवि छिपना चाहता हो—शीघ्र जाना चाहता हो ।। १०७ ।।
निमि मोलत दाम्भोज लोचनानि सरोजिनी । दुःख भारात् प्रियस्यैव तो दशामुपाजग्मुषः ॥ १० ॥
सरोज रवि वियोग से बन्द हुए, कुमुदिनियाँ विहँसने लगी प्रिय वियोग का भार और संयोग की प्राशा इसी प्रकार हर्ष विषाद को कारण होती हैं । १०६ ।।
निशा संभोग श्रृंगार तत्परा हरीणीदृशः । प्रासन गृहे गृहे दूति संल्लाप व्याकुसास्तदा ॥ १०६॥
प्रत्येक घर में निशा संभोग की क्रियाएँ होने लगी सर्वत्र सेविकाएँ शृंगार रस में निमग्न हो मृगनयनी प्रासनादि की व्यवस्था में कोलाहल कर रहीं थी । अर्थात् सर्वत्र सुहाग रात्रि की चर्चा एवं तज्जन्य क्रियाओं को वार्ता चल रही थी । सेविकानों को इसी विषय की प्राकुलता हो रही थी ।। १.६॥
प्रससार नभो मूमौ सन्ध्यावल्लोष बारूणा। काले भोत् खातात द्रक्त फन्दाभो भास्करोभवत् ।। ११०॥
संध्यारूपी वल्ली के वध से प्रारक्त नभोमण्डल हो गया, चारों पोर प्राकाश में लाली छा गई । सूर्य भी रक्ताम्भ हो गया अर्थात् मानों रक्तकन्द भक्षण कर प्रभाहीन हो गया ।। ११० ।।
प्रकाशितं स्वयं विश्व भाकारतं तिमिरारिणा। कयं न शक्यते दृष्टुमिति भास्वान स्तिरोवधे ।। १११॥
चन्द्र की उज्ज्वल ज्योत्स्ना विश्व में व्याप्त हो गई स्वयं सर्वत्र प्रकाश फैल गया। इसके वैभव को कैसे देखना मानों इसी ईर्ष्या से सूर्य अस्त हो गया ।। १११ ।।
प्रयोधितास्ततो दीपा: प्रति वेश्म तमच्छिा । स स्नेहाः सवृशो पेताः पात्रस्पा: सुजना इ ।। ११२ ।।
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अन्धकार के भेदन करने वाले प्रदीप घर-घर में जल गये। ये स्नेह से भरे प्रदीप ऐसे प्रतीत होते थे मानों अपने स्नेही के प्रेम मिलन की बधाई देने आये हो । क्योंकि उस नव दम्पत्ति में प्रेम रूपी स्नेह था और इनमें स्नेह-तैल भरा हुप्रा था। ठीक ही है समान स्वभाव वालों में ही स्नेहाधिक्य मंत्री होती है ।। ११२ ।।
कौतुकादिवतं दृष्ट वधूवर युगं तदा। निशा नारी समायाता तारा मौक्तिक भूषणा ॥ ११३ ॥
उस समय कौतुक से इठलाती निशानारी तारागरणों रूपी मोतियों के प्राभूषण धारण कर पाई । क्योंकि वर-वधु को देखने के लिए वह लालायित हो रही थी ।। ११३ ॥
तमा स्तंबेर मेरणेवं मत्वा कान्तं जगज्जवात् । दियाय नमार चन्द्र सिहांशु केशरः ॥ ११४ ॥
कहीं मेरी मृत्यु न हो जाय इस भय से तम अंधकार शीघ्र भाग निकला । क्यों कि प्राकाश रूपी रण में चन्द्र रूपी सिंह सुकेशरी वाणा धारण कर उदय को प्राप्त हो गया ।। ११४ ।।
मन्द मन्द तमस्तोमं व्योमसो मकर रभात् । चन्दन ममेव लिप्तं स्मर नपाङ्गगम् ।। ११५ ॥
शनैः शनै सघन अंधकार मन्द-मन्द गति से प्राकाश से विलीन हुमा चन्द्र की निर्मल वेगशाली किरणों द्वारा कामदेव नृपति का मांगन चन्दन रूपी मद के द्वारा लीपा गया । अर्थात चारों ओर कामदेव को उद्दीप्त करने वाला वातावरण विस्तृत हो गया ।। ११५ ॥
तस क्षीरावस्येव कल्लोलैः सकला विशा। क्षालिता इस भाश्चकैश्चके कुमुद बान्धवः ॥ ११६ ॥
तस समय चन्द्र को शुभ निर्मल-उज्ज्वल किरणें दूध की मांति बिखर गई। ऐसा प्रतीत होने लगा मानों क्षीर सागर को कल्लोलों से समस्त दिशाएं प्रक्षामित हो गई हों, प्रामा व्याप्त हो गई। कुमुददांध व चन्द्र मुस्कुराने लगा ॥ ११६ ।।
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दवशं त्यक्त हारापि मुग्धा कापि रतोत्सुका । स्तनाभोग लसञ्चारमन्वान्शु कृत तदभ्रमा ।। ११७ ॥
कोई कामिनी उस समय हारादि छोडकर रति क्रीडा को उत्सुक हो रही दिखाई पड़ती थी, कोई अपने स्तन मण्डल के मध्य चन्दन चित कर भ्रमित सी हो रही थी। अर्थात् चन्दन है या कंचुकी यही उसे भान नहीं रहा ।। ११७ ।।
दूतोधिगंम्मा लापा: सकतात कौतुक: । मुग्धानिधेशिता: शय्यो त्संगे धीशां हादिव ॥ ११ ॥
दुतियों के द्वारा मन्मथोन्माद की कथाएँ सुन कामभोग के लिए प्रातुर हो गई । शरीर कांपने लगा, ऐसा लगता था मानों कोई मुग्धा बलात् शय्या पर प्रासीन करदी हो प्रेम संयोग के लिए ॥ ११८ ।।
अमृतरिय निघौते करिरि पूरिते। जाते तदा करै रिन्दो रम्ये भुवन मण्डपे ।। ११९ ॥
भुवन मण्डप में चन्द्र किरणें अमृत से अभिसिंचत, कर्पूरादि से प्रपूरित के समान हो गईं ।। ११६ ।।
उद्दण्ड काम को दण्ड चण्डो माकान्त विष्टपे । सङ्कत मन्दिर द्वार निषीदद भितारके ॥ १२० ।।
चारों ओर भूमण्डल पर उद्दण्ड-प्रचण्ड काम का राज्य छा गया। अभिसारिकाएँ अपने-प्रपने संकेतित भवनों के द्वार पर सप्रतीक्षा स्थित हो गई ।। १२० ।।
मानिनी मान निशि विधि व्यासक्त वल्लभे । विचित्र रत समदं कथित नवांगने ॥ १२१ ॥
नाना प्रकार रति संमदन से माननीयों का मान मर्दन हो गया, वल्लभा में प्रासक्त कामी विचित्र रति क्रीडा से क्रिया करते हैं। नव यौवन का प्रथम मिलन अनोखा ही होता है ।। १२१॥
स्वत: स्वरूप सम्पत्ति वनिता सक्त योगिनि । दक्ष पण्यांगना लोक वञ्चितग्रामभोगिमि॥ १२२ ॥
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स्वभाव से रूप सम्पत्ति से समन्वित माननीयों में प्रासक्त जन भरत होने लगे किन्तु पण्यङ्गना-वेश्याओं से भागी जन विशेष रूप से बञ्चित किये जाते हैं ।। १२२ ।।
केतकी कुसुमोद्दाम गठ मुग्ध मधुपते । वियोगिनी मनः कुण्ड प्रज्मलत् विरहानले ।। १२३ ॥
चारों ओर ग्रामोद-प्रमोद का वातावरण छा गया। सभी अपनीअपनी प्रिय-प्रियाओं के मिलन की आशा मैं झूम उठे किन्तु इस मनोरम दृश्य से जबकि केतकी कुसुम विहंस रहे हैं, उछाम मुग्ध-उन्मत्त भौरे उनपर मंडरा रहे हैं उस समय वियोगिनियों-जिनके पतिदेव परदेश चले गये हैं-उनका मन रूपी सरोवर भयंकर विरह ज्वाला से जलने लगा ।। १२३ ।।
इत्याधनेक चेष्टाभिः प्रवृद्ध मदनोत्सवे । समये तत्र तो नौती जनर्मात गृहं गतौ ॥ १२४ ॥
इस प्रकार उस मदनोत्सव में नाना प्रकार की चेष्टाएँ हो रही थीं उसी समय उन दोनों नव दम्पत्तियों को मातृगह में प्रवेश कराया गया। तदनन्तर उन्हें शयनागार में विधामार्थ ले गये ।। १२४ ॥
निर्मले सुकुमारे च स ननं मुनि मानसे । पथा तथा स्थितौ तल्पे तो तवा मुदिताशयो ।। १२५ ॥
वह कुमार प्रत्यन्त निर्मल, सुकुमार और मुनिमन सम सरल चित्त था। दोनों ही शुभ परिणामों से युक्त यथा तथा शंया पर भासीन हुए ॥ १२५ ॥
लज्जा लोलं विलसवतुल प्रेम संभार मुग्धम् । गाहात कण्ठ रति रस वशं कौतुकोत् कम्पिचित्तं ॥ व नित्येवदन निहिता धीर विस्तारि नेत्राम् । रात्रि साम्यत्तरल हृदय प्रोषितां तत्तदानीम् ।। १२६ ।।
इस समय उस सुन्दरी के कपोल लज्जा से मरूण हो गये, उसने भी उस अनुपम रूप राशि में मुग्ध हो उसका गाढालिङ्गन किया। उस सुकूमारी का शरीर कम्पित होने लगा विस्फारित नेत्र वाली उसके मुख
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से 'द्वपति निकल नही सस गई पो को अधीर सी अनुभव करने लगी । श्रमित हुए दम्पत्ति ने उस तरल रात्रि को तरल हृदय से अन्त को प्राप्त कराया ।। १२६ ।।
प्राची कुमकुम् मण्डनं किमथवा राश्यंगना विस्मृतम् । रक्ताम्भोज मयो मनोज तपते रक्तातपत्रं किम् ॥ व ध्वान्त विभेवक युवमिता मांगल्य कुम्भ किमु । इत्थं शांकिस मम्बरे स्फुटमभूम्दानो स्तदा मण्डलम् ।। १२७ ।।
मन्द मन्द गति से निशा रानी प्रयाग करने लगी। चारों ओर कुमकुम सो लाली फैल गई हो अथवा रात्रि अंगना विस्मृत सी हो गई हो अथवा लाल कमल पत्रों का छत्र कामदेव नृपति पर धारण किया गया हो अथवा अंधकार समूह का भेदन कर दिवस वनिता मङ्गल कुम्भ सजाकर आयी है क्या ? प्राची में लाल-लाल गोल-गोला (सूर्य) उदय होने को है मानों दिनांगना कुंकुम मण्डन कर उपस्थित हुयी है अथवा मंगल रूप स्वर्णकुम्भ धारण कर मायी है। इस प्रकार मन में नाना शंकाओं का उद्भव करने वाला बालरवि गगन मण्डल में अत्यन्त रमणीय क्रीडा करता हुमा उदयाचल पर आरूढ़ हुआ । उस समय मानों इन दम्पत्ति को बधाई देने ही सज कर ऊषा रानी उपस्थित हुयी ॥ १२७ ।।
इति श्री भगवद् गुगभद्राचार्य विरचिते जिनदत्त चरित्रे द्वितीय सर्ग समाप्त हुआ।
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( तृतीय-सर्ग ) स्थिस्था व कतिविमा विनानि मुदितम्या ! समं विज्ञापयामास स्वसुरं गुण मन्दिरम् ॥ १ ।।
कुमार जिनदत्त अपनी नवोढा परम सुन्दरी पत्नी के साथ मनोवाञ्छित भोग भोगता हुआ कुछ समय प्रपने ससुराल में ही रहा । कुछ दिनोपरान्त एक दिन उसने अपने श्वसुर से निवेदन किया कि यद्यपि मैं यहाँ अति प्रमुदित हूँ तो भी मेरे माता-पिता मेरी प्रतीक्षा में पलक पांवडे बिछाये बाट जोह रहे हैं । मतः हे गुणभूषण मुझे प्राज्ञा दें ॥ १ ॥
यथा तातायो माम मवागमन मञ्जसा । मृगयन्तोव तिष्ठन्ते ततः प्रेषय मां लघु ॥ २॥
मेरे परिजन मेरे प्रागमन की वेला खोज रहे हैं, इसलिए माप शीघ्र ही हमारी विदाई करने की कृपा करें ॥ २॥
अनुशातस्त तस्तेन स दुःखेन कम्पन । भरिणत्वेति यथा पुत्र विच्छेव स्तब कुः सहः ॥ ३ ॥
जवाई की विज्ञप्ति सुनकर वणिक् पति को दुस्सह कष्ट हुमा, फिर भी किसी प्रकार लौकिक व्यवहारानुसार वह कहने लगा--पापका वियोग अत्यन्त दुःसह है फिर भी जाना उचित है ।। ३॥
वत्वा परिकरं सर्व वासी यानादि संयुता।। पुत्री समपिता तस्मै श्री वत्स्यायेष गोमिनी ।। ४ ।।
पुत्री को योग्य दास-दासी, सवारी, वस्त्राभूषणादि सहित उसे समर्पित किया। अर्थात् साक्षात् लक्ष्मी स्वरूप पुत्री दामाद को साथ देकर विदा किया ॥ ४॥ ततस्तमनु यातु मे वेलुः श्रेष्ठयादयो जनाः । मागत्य ते स्थिताः सर्वे बालोधान जिनालये ।। ५ ॥
तथा पुत्री को पहुँचाने के लिए सेठ-सेठानी, कुटुम्ब-परिवार जन भी चल पडे। नगर के बाहर उद्यान में सब लोग समन्वित हो गये। वहाँ शोभनीय जिनालय में सब समूह मानन्द से प्रविष्ट हुआ ।। ५॥
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तत्र पूजादिकं कृत्वा शिरस्या प्राय वेहमाम् । शिक्षया मास गंभीर मिति तो निती पिता ।। ६ ॥ सुसनो मा कृथा जातु क्रौर्य वौजन्य चापलम् । अन्यथास्या: समस्तानां विष वल्लोष भगा ।। ७ ।।
सर्वप्रथम श्री जिनेन्द्र प्रभु की पूजा की, भक्ति से नमस्कारादि। कर पुन: पुत्री को हृदय से लगाया, प्रेमाश्रमों से उमड़ते प्रवाह को यांमार पुत्री को सुयोग्य, यशवर्द्धक शिक्षा देने लगा "हे पुत्रि ! कभी भी किसी के साथ क्रूर व्यवहार नहीं करना, कठोर वचन नहीं बोलना, दुर्जनता को चपलता नहीं करना । क्योंकि इस प्रकार के कर व्यवहार से । विषवल्ली के समान नहीं बनना । दुर्भाग्य की पात्र नहीं होना ।। ६-७॥
पत्युश्छायेय भूयास्त्वं सर्वदानुगता सती । समान सुख दुःखा च दुर्वताचार दूरगा ॥ ८ ॥
अर्थात् सबके साथ प्रेम का व्यवहार कर सबकी प्रीतिपात्र बनना कुलजानों की सनीति है । हे पुत्री ! तुम पति को छाया बनकर रहो, सर्बदा पतिदेव की प्राज्ञानुसार प्रवृत्ति करो। उनके सुख में सुख और दुःख में दुःख समझना, कुत्सिताचार से निरन्तर दूर रहना ।। ८ ॥
धर्म कार्य रता नित्यं गुरु देव नता सुते । निज वंश पताकेव मूयाः कि बहभाषितः ॥ ६ ॥
सतत धर्म कायों में रत रहना, हे सुते ! नित्य ही देव, शास्त्र, गुरु | की भक्ति में तत्पर रहना, विनम्र बनना, अधिक क्या कहूँ तुम अपने वंश | की की ति वजा समान यशस्विनी बनो ।। ६ ।।
इस प्रकार पिता ने नाना नीतियुक्त एवं धर्मयुक्त वचनों से अपनी पुत्री को सम्बोधित किया ।
गाठ मालिगम तत्रंब बाष्प 'पूर्ण बिलोपना। रूदन्ती तां जगावेति मातापि प्रोति पूर्वकम् ।। १० ।।
उसी प्रकार प्रश्रपूर्ण लोचनों से माता ने भी गाढ प्रालिंगन-गले "लगाया। प्रीति पूर्वक रुवन करती हुई उससे कहने लगी। विलपती पुत्री से बोली ।। १०॥ ५२ ]
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विमल श्रेष्ठी अपनी पुती शिमलामती को विदा के समय सुयोग्य यत्र वईक शिक्षा देते हुए
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परम पूज्य १०५ श्री गणिनी आ० विजयामती माताजी संध
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विराजे हुए (बायें से दायें) १०५ सु० श्री विजय प्रभा, १०५ ० श्री जय प्रभः १०५ श्री आ० व्रह्ममती माताज एवं १०५ श्री गणिनी आ० विदुषीरत्न विजयामती माताजी ।
30 नई बस बाजे, म० पद्मप्रभा ट
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विलास हास सज्जल्प तल्प माल्य बिभूषणम् । गतागत ञ्च सर्वेण माकषि रूदहं सुते ॥ ११ ॥
हे बेटी ! श्रृंगार, हास्य, वार्तालाप, शयन, माला भूषा, थानाजाना प्रादि क्रियाएँ कभी भी स्वच्छन्दता से नहीं करना । अर्थात् शीलाचार, सदाचार और कुलाचार को दृष्टि में रखना ॥ ११ ॥
चित्त पत्यु र विज्ञाय माकृथा मान मायतम् । उत्कण्ठिताच मा भूस्त्वं महमभ्यं शुभ दर्शने ।। १२ ।।
हे शोभने हमेशा अपने पतिदेव के अभिप्रायानुसार चलना । अहंकार नहीं करना । हम लोगों के प्रति भी उत्कण्ठा दर्शित नहीं करना किसी प्रकार अपमानित होना पड़े इस प्रकार का कोई भी कार्य नहीं करना ।। १२ ।।
ज्येष्ठ चैवर तद्रामा श्वश्रूषुः विनता भवेः । नर्माचिकसंवद्ध येन केनापि मा कृपाः ॥ १३ ॥
जेठ, देवर एवं जिठानी, देवरानी तथा सास-ससुर के साथ सतत विना रहना अर्थात् विनयपूर्वक व्यवहार करना। किसी के भी साथ हँसी मजाक नही करना । श्रथवा किसी को पराभव करने वाला व्यवहार नहीं करना ।। १३ ।
श्वश्रू मातरिति ग्रहितावेति श्वसुरं नता । प्राणनाथं प्रियेशेति त्वं सुतेति च देवरम् ॥ १४ ॥
विनम्रतापूर्वक सास को माता और वसुर को पिता एवं पति को प्राणनाथ तथा देवर को पुत्र कहकर सम्बोधन करना अर्थात्
कहना ।। १४ ।।
प्राभूतानिसुते
तुभ्यं प्रहेष्यामि सहस्रशः । शिक्षयिस्येति तां माता विरराम सु दुःखता ।। १५ ।।
हे पुत्री तुम्हारी यशोवल्ली बढ़े। मैं हजारों पारितोषिक- वस्तुएँ तुम्हारे लिए यथा समय भेजती रहूंगी। इस प्रकार अत्यन्त दुःख से माँ ने अपनी प्राण प्यारी पुत्री को शिक्षा दे विदा ली ।। १५ ।।
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प्रणम्य जिनवत्तेन ततो व्यावय॑ता गृहम् । गतास्ते तो कुमारोऽपि लात्वाप स्व पुरं क्रमात् ॥ १६ ॥
जिनदत्त ने भी सास श्वसुर को यथोचित प्रणामादि किया और अपने घर की भोर प्रस्थान किया। क्रमशः चलकर अपने नगर के निकट पहुँचा उधर वे लोग भी अपने घर वापिस गये ॥ १६ ॥
प्रायातं तं ततो ज्ञात्वा गत्वा तातो महोत्सवः । पुरं प्रवेशया मास सकान्समिव मन्मथम् ॥ १७ ॥
जिनदत्त के माता-पिता अपने पुत्र के आगमन के समाचार प्राप्त कर हर्ष से महा-महोत्सव पूर्वक पुत्र की अगवानी को पाये। नाना शुभ माङ्गल्योत्सव सहित पुत्रवधू सहित पुत्र का पुर प्रवेश कराया । उस समय ऐसा प्रतीत होता था मानों रति सहित साक्षात् कामदेव ही प्रा रहा हो ।। १७ ।।
विशन्तं तं समालाय वामे प्रमवा जनैः । अपितं यामिनी नाथं तरंग रिख वारिधेः ॥ १८ ॥
प्रबेश करते हुए उन नव वर-वधू को देखने के लिए नगर नारियां इस प्रकार उमड़ पड़ी जिस प्रकार चन्द्रोदय होने पर सागर की तरंगे हिलोरों के साथ उमड़ पड़ती है। प्रमदानों के नेत्र जनके सौभाग्य सौन्दर्य का पान कर तृप्त ही नहीं हो रहे थे ।। १८ ।।
मण्डनाविक मुत्सृज्य प्रतिश्श्यं प्रधाविताः । काश्चिदन्या पुनारूढाः प्रासाद शिखरावली: ।। १६ ।।
कोई-कोई तो अपने मण्डन-शृगार को अधूरा ही छोड़कर भाग निकली, कितनी ही अपने-अपने मकानों की छत पर जा चहीं। प्रासादों की शिखरावली भी भर गई ।। १६ ।।
सन्म खाम्भोग संसक्ता लोचना कुच मण्डलम् । काधिच्युतांशुके दृष्टि पातयामास पश्यताम् ।। २० ॥ अंगतो धावमानान्या सुस्त मेखलया स्खलत । टितं हारमप्यन्या गरगयामास नोत्सुका ॥२१॥ उनके मुख कमल को निहारने के उद्वेग में कोई तो कंचुकि बिना ।
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पहने ही उघाड़े प्रा खड़ी हुई। किसी की भागा-दौड़ी में मेखलाकरधनी टूट कर गिर गई। किसी का हार टूट कर बिखर गया किन्तु उस मिथुन के देखने की धुन में उन्हें इनका भान ही नहीं हुभा ॥२०-२१ ।।
मन्या जघानतं धीरा कटाक्षः क्षण भंगना। चित्रेवीयर मालाभि रचयन्तीव भक्तिप्तः ॥ २२ ।। रूपामृतं पिबसस्य नेत्राञ्जलि पुटैः परा।। कौतुकं काम संताप पोडिता जनि मान से ॥ २३ ।।
कोई चित्राम जैसी निर्मिष दृष्टि से कटाक्ष वाए से भेदन की चेष्टा कर रही थी और कोई नेत्र रूपी कमलों का हार अर्पण करती सी चित्राम जैसी खडी रह गई। कितनी ही नेत्र रूपी अञ्जलियों से उनके रूपामृत का पान कर रही थीं। किसी के मन में काम का संताप उत्पन्न हो गया ॥ २२-२३ ।।
प्रयोचवियं धन्या यस्या जातो यमोश्वरः। काचिदूचे स्फुटं काम रति युग्म मदः सखि ।। २४ ।।
कोई कहने लगी यह नारी रत्न धन्य है जिसने ऐसे घर को अपना ईश्वर बनाया । कोई स्पष्ट कहने लगी हे सखि ये वास्तव में काम और रति हैं ।। २४ ।।
समाशतं सतो श्रेष्ठं विलासं सहितामुना। भश्वेति प्ररिपगदयाच्या लाजाअलि मवाकिरत् ॥ २५ ॥
नाना सतियों के चर्चा का विषय उस कुमार पर सौभाग्य शालिनी नारियों ने लाजा (धान की खील) विकीर्ग की । अर्थात् धान की खील प्रमोद की सूचक वर्षायीं । सैंकड़ों विलासों से युक्त तुम नाना भोग भोगो इस प्रकार के प्राशीर्वचन कहने लगीं ॥ २५ ॥
मोट भजनं भालस्य प्रेम जलोब्गमम् । तन्वन् नारी जनस्यैष प्राप स्वं सोस्सयम गहम् ॥ २६ ॥
कोई आलस्य से शरीर को मरोड रही थीं, कोई मटक रही थी, कोई संभाई ले रही थीं, कोई प्रेम रस सिंचन कर रहीं थीं। इस प्रकार
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अनेकों चष्टानों का निरीक्षण करते हुए उन्होंने घर में प्रवेश किया ॥ २६ ॥
तत्राध्यास्य च तुष्कं सगोत्र वृद्धांगना कृतम् । प्रतीच्छति स्म माइल्यं कृत पूर्व जिनोत्सवम् ॥ २७ ॥
उस समय द्वार पर सगोत्रीय दादी-बुना प्रादि वृद्ध नारियां मांगलिक द्रव्यों को लिए प्रतीक्षा कर रही थीं। सर्व प्रथम श्री जिनेन्द्र भगवान की पूजा सामग्री ले प्रभु की पूजा की गई ।। २७ ।।
ततो निवतिताशेष विवाहान्त विषि सुधीः । तारेश इव रोहिण्या समं रेमे तया निशम् ॥ २८ ॥
अनन्तर समस्त विवाह को अन्तिम विधि सम्पादित की गई। सम्पूर्ण विधि विधान के बाद कुमार जिस प्रकार रोहिणी के साथ चन्द्रमा शोभित होता है उसी प्रकार शुभ्र ज्योत्सना समान सुन्दरी विमला के साथ भोग करता शोभित हुा । रमन करने लगा ।। २८ ।।
भज्ञानस्य सुखं तस्य पञ्चेन्द्रिय समाश्रयम् । जग्मु धर्माविरोधेन मुहूर्त मिव वासराः ।। २६ ॥
पञ्चेन्द्रियों के नाना विधि भोगों को भोगता था किन्तु धर्म क्रियाओं का उल्लंघन नहीं करता था । अर्थात् धर्मानुकूल गृहस्थ धर्म का सेवन करते हुए उसके दिन मुहूर्त के बराबर बीतने लगे । अर्थात् एक दिन मानों एक मुहूर्त हो ऐसा प्रतिभासित होता था । ठीक ही है सुख-संभोग का काल जाने में देर नहीं लगती ॥ २६ ।।
विमुखो मुख मालोक्य याचकस्तस्य नो यो । सविवेश सतां वित्त विनयेन महामनाः ॥ ३०॥
वह दानियों में सदा अग्रेसर था, उसके द्वार से याचक कभी भी खाली नहीं जाते थे । अपने विनय गुण द्वारा महामना वह सज्जनों के चित्त में प्रविष्ट हो गया । अर्थात् उसकी नम्रता से सत्पुरुष उसे हृदय । से प्यार करते-चाहते ॥ ३० ॥
हवये परमासेतु रस्य पौराणिका कषाः। पर रामा दिलासाहया न जातु विजितारमनः ।। ३१ ॥
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___ पौराणिक महापुरुषों के चरित्र कथाएँ इसके हृदय में स्थान बनाये सापर्थात् सदा ही महापुरुषों की कथा करता था, विषय-भोगों की हमानों से दूर रहता था । पर स्त्री की वाञ्छा तो स्वप्न में भी नहीं थी। हमन पौर इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण रखता था । अर्थात् सन्मार्ग पर पलना ही व्यसन था ॥ ३१ ।। जिनाच्या ध्यानासक्तः प्रभाले मध्यमेहनि । संयतेभ्यः प्रदानेन स्थकाले भोग सेवया ॥ ३२ ॥
प्रभात काल में भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र प्रभु की अभिषेक पूर्वक पूजा करना, पुनः शास्त्र स्वाध्याय, तदन्तर मध्यान्ह में संयमियों को माहार दान करना सायंकाल वैयावृत्ति करना समस्त कार्य समयानुसार विधिवत् करने में तत्पर रहता था ॥ ३२ ।।
यावदास्ते सुखांभोधि मध्यगो बुध वल्लभः । तावदस्यान्यदा जाला शिरोति: सहसा मनाक । ३३ ।।
इस प्रकार धर्मध्यान पूर्वक प्रानन्द से इसका समय जा रहा था कि एक दिन अचानक इसके शिर में दर्द हो गया। यह विद्वानों धर्मात्मानों का प्रिय अपने सुख सागर में मग्न था तो भी अशुभ कर्मोदय ने प्रा घेरा ।। ३३॥ विनोदाय ततस्तस्य वयस्पेन ध्यधीयत । प्रवृत्ताधीश पादात वारणा श्व विमईनम् ॥ ३४ ॥
मस्तिष्क की पीड़ा को शान्त करने हेतु अपने मित्रों के साथ कुछ मनोरञ्जन के लिए चला गया। यह गज एवं अश्व संचालन में पद था। कोड़ा करता हुआ कुछ दूर निकल गया ।। ३४ ।।
देवनं चउरंगानां रणं वास जया अयम | तव सोपि संसक्तः कौतुकात समजायत ॥ ३५ ॥
इसने उस स्थान पर देखा कुछ लोग जुआ खेलने में मस्त हैं । वहीं [ यह भी कौतुक से खड़ा हो गया और कुछ आसक्ति से देखने लगा ।। ३५ ।।
यावत्तत्रैव सज्जाता रति स्तस्य तत: कृतम् । पुतः धूत विशेषेषु कोडनं धन लम्पटे ।। ३६ ॥
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धीरे-धीरे इसे उस कीड़ा से प्रेम हो गया । यह देखकर धन लम्पटी जुआरियों ने अपने बाक जाल में फंसा लिया और प्रेम से उसे जुमा खेलने को तैयार कर लिया ।। ३६ ।।
अत्यासक्तया समारब्ध मधिक सन्ततं ततः । हारिताश्व प्रगल्भेन द्रव्येकाचा कोटयः ।। ३७ ॥
वह कुमार भी कोड़ासक्त हो गया और दाव पर दाव लगाने लगा। इसे द्यूत अभ्यास तो था ही नहीं, मायाचार से भी दूर था अत: ११ करोड़ दीनार चूत में हार गया ।। ३७ ।।
कोषाध्यक्षेन तातस्य वारिता पन याचिकाः । सात कोटयः समाकृष्टा वल्लभा कोगतस्ततः ।। ३ ।।
जिनदत्त ने दीनार लाने के लिए कोषाध्यक्ष के पास उन्हें भेज दिया । किन्तु पिता के कोष रक्षक ने उन्हें प्रताड़ित किया एवं धन देने से इन्कार कर दिया । धन याचक खाली हाथ लौट आये । यह देखकर उसने अपनी प्रियतमा के कोष-खजाने से सात कोटि दीनारें मंगाई ॥३८॥
हारितास्तु निषिध्यास्ते याचकाः कोश पालिना। गत्वा तैः कथितं तस्य यथा स्वं न हि लभ्यते ।। ३६ ।।
उनको भी हार गया । कोष पालक द्वारा रोके गये एवं प्रताड़ित याचकों ने जाकर जिनदत्त को सर्व वृत्तान्त सुनाया कि हमें धन प्राप्त नहीं हुया । कोषाध्यक्ष ने धन देने को मना कर दिया ।। ३६ ।।
वचनेन ततस्तेषां तुहिनेनेव पङ्कजम् । मम्लो वदन मेतस्य संहृतं धूत कर्म च ॥ ४०॥
उनके वचनों को सुनते ही कुमार पर तुषारापात हो गया जिस प्रकार तुषार पात से कमल-सरोज म्लान हो जाते हैं उसी प्रकार इस अपमान से कुमार का मुख पङ्कज भी म्लान हो गया। उसने द्यूत कोड़ा बन्द कर दी और इस प्रकार विचारने लगा ॥ ४० ॥
वामशेष संसार सोल्य सम्पत्ति सालिनी। स्थमनोपाजिता लक्ष्मी न्यास्ते मानशालिनः॥४१॥
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वस्तुतः इस संसार में वे ही पुरुष धन्य हैं, वे ही धनवान हैं, वे ही सुखी हैं जो स्वयं प्रपमे बाहुबल से धनोपार्जन करते हैं। वास्तव में उन्हीं की लक्ष्मी सार्थक है और वे ही मानशाली है ॥ ४१ ॥
भवन्त्येव
नून परिभवरस्पदम् ।
परपुष्टा सहन्ते हि पिकाः काकचयाघात कवर्धनम ।। ४२ ।।
जो पर धन से पुष्ट हैं अर्थात् पराये धन से जीविका चलाते हैं ये इसी प्रकार मेरे समान पराभव- तिरस्कार के पात्र होते हैं । यथा कोयल अपने बच्चे को काक के घोंसले में रख देती है, काकली उसे पालती है परन्तु जब यथार्थता प्रकट होती है तो काकों की चोंचों का श्राधात उसे सहन करना पड़ता है । कोयल समझते ही काकली चोंच से प्रहार कर उसे कदति करती है ।। ४२ ।।
प्रसादेन पितुः सर्वं पूयेते मम वाञ्छितम् । तथापीदं मनः खेद दायकं मान भञ्जकम् ॥ ४३ ॥
यद्यपि पिताजी के प्रासाद से मेरे सकल मनोरथ पूर्ण होते हैं, मुझे किसी भी वस्तु का प्रभाव नहीं है, सभी सुख साधन उपलब्ध हैं तो भी यह मान भङ्ग- अपमान प्रसह्य है मन को दुःखित करने वाला है ॥ ४३ ॥
नोपभोगाय पुंसामुलत चेतसाम् । पुरुषः ॥ ४४ ॥
युज्यते गोमिनी गुरुपत्नीव याजिता पूर्व
उन्नत चित्त वाले मनस्वियों के लिए पूर्व पुरुषों द्वारा संचित राज वैभव, गुरु पत्नी के समान भोगने योग्य नहीं है । अर्थात् जिस प्रकार गुरु पत्नी भोगने योग्य वस्तु नहीं है उसी प्रकार पराजित धन भी सत्पुरुषों द्वारा सेव्य नहीं है ।। ४४ ।।
यत सुतेभ्यः समोहन्ते सन्तः संतान पालनं तत्र हेतु
सर्व प्रकारतः । रर्थार्जनादिभिः ॥ ४५ ॥
बंधूनां
मुख पङ्कजम् ।
उदयेनेव योभानी विकाशि कुरुते नास्य चरितेना पितुः किमु ।। ४६ ।।
उदित होता हुप्रा रवि क्या अपने बन्धुजन पंकजों को विकसित नहीं करता ? करता ही है फिर मेरे इस चरित्र से क्या जो पिता के वैभव की वृद्धि न कर हानि करने वाला हुआ ।। ४५-४६ ।।
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प्रलोक व्यसनासक्त चेतसा मयका पुनः । तथा कृतं यथा नाहं शक्तस्तात मुखेशरणं ।। ४७ ।।
असत्य व्यसन में मासक्त ऐसा कर दिया कि पिता का मुख देखने के योग्य भी न रहा ।। ४७ ॥
एकेतएव जीवन्तु सता मध्ये महोजसः । एषां जन्म न सजातं मानभंग मलीमसम् ।। ४ ।।
महान पुरुषार्थी, पराक्रमी एक मात्र उन्हीं का जीवन संसार में सार है जिनका जन्म कभी भी तिरस्कृत नहीं हुअा हो । मान भंग से मलीमस जो नहीं हुए वे ही जीवित हैं । पराभव सहित जीवन मरण तुल्य है ।।४।।
काले प्रदीयते यच्च बिना प्रार्थनयान च। वीयते याच दुःखेन तवदत्त सम मतम् ॥ ४६॥
वह विचारने लगा, जो वस्तु बिना याचना किये उचित समय पर दी जाती है। वही देला कि पूर्वक, दुःखित होकर कुछ दिया जाय तो वह दत्ति, नहीं देने के ही समान है ।। ४६ ।।
उक्त्वा न दीयते येषा मुक्तवा वभ तथाल्पकम । कालहानिः कृतावाने सन्ति ते प्रेषिता नराः ॥ ५० ॥
"दान देता हूँ" इस प्रकार कह कर यदि न देवे तो यह कुछ अल्प रूप में दान है अर्थात् कहावत है "दे नहीं तो मोठा बोले" तो ग्राश्वासन तो दिया । समय चुका कर कोई उन याचकों को भेज देता है । अर्थात अभी नहीं कुछ समय बाद पाना। इस प्रकार याचक मान भंग का काट सहना पड़ता है ॥ ५० ॥
तायवेव नरो लोके सुरादि शिखरोपमः । कस्यापि पुरतो याषन देहीति प्रजल्पति ।। ५१ ॥
संसार में मनुष्य तब तक ही सुमेरु के समान उन्नत रहता है जब तक कि वह किसी के सम्मुख "मुझे दो" इस प्रकार नहीं कहता । अर्थात् अयाचक पुरुष सुमेरु पर्वत की शिखा के समान महान और पूज्य माना जाता है।॥ ३१॥
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विनाथनेन नार्धन्ति विम्लाः सकलाः क्रियाः । विहीना यौवनेनेव सभूषाः पण्य योषिताः ।। ५२ ।।
बिना धन के सम्पूर्ण उत्तम क्रियाएँ शोभनीय या महत्त्वपूर्ण नहीं होती हैं। जिस प्रकार यौवन विहीन वैश्या सुन्दर वेष-भूषा सहित होने पर भी शोभायमान नहीं होती ।। ५२ ।।
कृत मेतेन तातावि घनेन मम साम्प्रतम् । क्यापि करोम्येष धनोपार्जनमुत्तमम् ।। ५३ ।।
गत्या
अब तक पिता के घन द्वारा मैंने जीवन यापन किया किन्तु इस समय मुझे कहीं भी जाकर स्वयं उत्तम धनोपार्जन करना चाहिए। पुनः सोचने लगा प्रिया का क्या होगा उसे भी यहाँ रखना उचित नहीं ।। ५३ ।।
प्रिया मे तां विश्रायातु मन्दिरेतुि सुकः उपायं तं विवास्यामि येन स्यात् कमलामला || ५४ ॥
तब क्या करना ? ठीक है वल्लभा को उसके पिता के घर शीघ्र भेज देता हूँ, अर्थात् विमला को पोहर छोड़ दूंगा और मैं स्वयं वंसा उपाय करूंगा जिससे निर्मल सम्पदा अर्जित हो सकेगी ।। ५४ ।।
विचिन्येति ततो लक्ष्य वृत्तिरेष व्यवस्थितः । कुतोऽपि ज्ञात वृत्तान्तस्तमाहूय पिता व्रवीत ।। ५५ ।।
इस प्रकार योजना बनाकर वह आस्वस्थ हुआ और शीघ्र ही प्रमाण की तैयारी करने लगा । अपने लक्ष्य को व्यवस्था में दत्तचित्त हो गया। किसी भी प्रकार उसके पिता ने इसके लिया। उसी समय अपने एकलौते लाड़ले प्रिय इस प्रकार दुलार से कहने लगा ।। ५५ ।।
विषण्णोऽसि वृथा वत्स किमेषं कुरु धर्नरेभिरहं पुत्र माने बंधा
अभिप्राय को ज्ञात कर पुत्र को बुलाया श्रीर
वाञ्छितम् । मवोश्वराः ।। ५६ ।।
हे वत्स, तुम क्यों वृथा दुखी होते हो, तुम्हें जो प्रिय हो वही करो इच्छानुसार क्रीड़ा करो, इस धन पर तुम्हारा ही अधिकार है मैं तो नाम के लिए इसका स्वामी हूँ ।। ५६ ।।
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नित्सितो मया वस कोषाध्यक्षः सहस्रशः। यवन्यथा महायुद्ध स्पृशमि तय मस्तक.म् ॥५७ ।।
कोषाध्यक्ष को मैने बहत डाटा है, हजारों बार उसे तिरस्कृत किया है, हे पुत्र मैं तुम्हारे सिर पर हाथ रखकर शपथ पूर्वक कहता हूं कि वह अब आगे कभी भी ऐसाई इनेमा !
विनोदेनामुना किन्तु कुलकेतो न शोभसे । कृतं हि प्रथमं पुसो महायापनियन्धनम् ॥ ५८ ॥
परन्तु हे शुभे, महाबुद्धिमन ! यह विनोद तुम्हें शोभा नहीं देता तुम कुल की पताका हो, जिन महापुरुषों ने द्यूत खेला है वह उन्हें महा पाप का कारण ही सिद्ध हुपा है यथा युधिष्ठिर आदि ॥ ५८ ।।
कार्यासु जिनेन्द्राणां भवनानि महामते । सुवर्ण रुप्य रत्नेशच प्रतिमाः पापनाशनाः ॥ ५ ॥
अतः हे पुत्र पुण्यवर्द्धक, पाप भञ्जक महान विशाल जिनालय बनवाओ, हे महामते सुवर्ण, चाँदी, रत्नमयी प्रतिमाएं बनवाकर प्रतिष्ठा. कराम्रो, जिससे पाप कमों का नाश होगा ।। ५६ ।।
गीत बावित्र नत्यादि तव च विवानिशम् । चतुर्विषाय संघाय देहि दानं यथा विधि ॥ ६० ॥
उन जिनालयों में ग्रहनिश भजन गान नृत्यादि कर उत्सव करो। चतुर्विध संघ के लिये यथाविधि दान देयो ।। ६० ।।
सिद्धान्ततर्क साहित्य शब्द विधादि पुस्तकः । लेखयित्वा मुनीनाञ्च दत्तं पुण्यं समर्जय ॥ ६१ ॥
यही नहीं सिद्धान्त, तर्फ साहित्य, शब्दकोष प्रादि उत्तम ग्रन्थ लिखवाकर मुनिजनों को दान कर श्रेष्ठ पुण्यार्जन करो।। ६१ ।।
कपवापोतडागामि प्रमाधि बनानि च। पुत्र सर्वाणि चित्राणि यथाकामं विधाय ।। ६२॥
करूगादान करना भी उत्तम और प्रावश्यक है क्यों कि व्यवहार धर्म भी चलाना कर्तव्य है । अतः तुम स्वेच्छानुसार कूप, तडाग. उद्यान, ६२ ]
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मनोहर क्रीडागृह श्रादि का कलापूर्ण निर्माण कराओ। अन्य भी विचित्र कार्य जो कुछ करना चाहते हो, वे रोक टोक करो। तुम्हारे मनोरथ में कोई भी बाधा नहीं श्रायेगी। यह सब अपरिमित वैभव तुम्हारा ही है ।। ६२ ।।
विवेश मानसे तस्य न सा शिक्षा विलासिनी । यतेरिव परं तेन शुश्रूवे श्रघो विलोकिना ।। ६३ ।।
पिता द्वारा श्रनेक प्रकार समझाने पर भी उसके चित्त पर कुछ भी उस शिक्षा का प्रभाव नहीं हुआ। वह एक मौनी यति-साधु की भांति निश्चल बना, मुख नीचे किये सब कुछ सुनता ही रहा पर मन तनिक भी नहीं पसीजा ।। ६३ ।।
चिन्तितं च पुनस्तेन नोपलम्भो भविष्यति । यथा तथा विषास्यामि कि मे बहुविकल्पनैः ॥ ६४ ॥
पुनः उसने कृत दृढ निश्चयानुसार यही विचारा कि इस प्रकार मुझे यथोचित उपलब्धि नहीं होगी । अनेकों विकल्पों से क्या प्रयोजन ? मैं वही करूंगा जिसे कि सोचा है ।। ६४ ।।
अनुमन्ये च तां तात भारतीमेव मस्त्वेति । प्रणम्य तं जगामासी प्रेयसी सदनं
ततः ।। ६५ ।।
यह विचार कर बोला, तात, मैं मानता हूँ आपकी वारणी मुझे "भारती सरस्वती के समान मान्य है ।" इस प्रकार कह पिता को नमस्कार कर वह उद्योग शील महामना अपनी प्रेयसी के प्रासाद में गया ।। ६५ ।।
अभ्यु स्थानादिकं कृत्वा तया ज्ञातं मनोगतम् । व्यासकमानसं चक्रे सविलास कथान्तरे ।। ६६ ।।
पतिदेव को आया हुआ ज्ञात कर वह पतिव्रता शीघ्र ही उठ खड़ी हुयो | यथोचित बासन प्रदानादि कर स्वागत किया, एवं पतिदेव के मनोगत अभिलसत को ज्ञात कर कुछ अन्यमनस्क हुयी परन्तु पतिदेव के मनोरंजनार्थ पुराण पुरूषों की कथा वार्ता प्रारम्भ की। विलास पूर्वक उसके उदास मन को प्रातन्वित करने वाले उपाख्यान सुनाये ॥ ६६ ॥
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क्षणान्तरं ततः स्थित्या तयेति किल चिन्तितम् । नयामि किल वेश्म स्वमेतं वैचित्यहानये ॥ ६७ ॥
इस प्रकार कुछ क्षण स्थित रहकर उस पतिव्रता ने विचार किया, इनके मन विषाद को दूर करने के लिए कुछ समय के लिए अपने पिता के घर ले जाना उचित होगा । क्योंकि वहाँ जाने से स्वयं इनका व्यथित चित्त शान्त हो जायेगा ।। ६७ ।।
ऊचे तयार्य पुत्राच मया मा भरतो मम । पित्रा सु-प्रहोता लातु' तन कि क्रियतामिति ॥ ६८ ।।
इस प्रकार तर्कणा कर वह बिनम्रा कहने लगी हे प्रार्य पुत्र प्राज मेरे पिता के यहाँ से प्रापके साथ मुझे ले जाने का समाचार प्राया है इसमें माप ही प्रमाण है जैसा उचित समझ करें। ठीक ही है श्रेष्ठ कुलीन घराने की पुत्रीयाँ-पुत्रबधू छाया समान पति का अनुकरण करती हैं ।। ६८ ।।
प्रापयामि पितुर्गेहमतएव मिषाविमाम् । विभाव्येति बभागोमा युक्तमेवं वरानने ।। ६६ ॥
समयोचित वार्ता को सुनकर वह भी विचारने लगा, "ठीक ही होगा इसी बहाने से इसे इसके पिता के घर रख कर मैं स्वतन्त्र अपने कार्य को सिद्ध कर सबूगा।" वह बोला, हे चन्द्रमुखी ! वस्तुत: यही युक्ति संगत है। हमें चम्पानगरी चलना चाहिए ।। ६६॥
प्रापृच्छ येति ततस्तातमनुज्ञातौ गतौ सुखम् । परां जनेन संप्राप्तौ चम्पां चारू रुगोपुराम् ।। ७० ।।
तदनन्तर वह अपने पिता के समीप गया एवं ससुराल जाने के लिए पूछा । पिताजी ने भी उसके मन बहलाव के उद्देश्य से जाने की प्राज्ञा देदी । पिता की अनुमति प्राप्त कर उसे परम सुख हुप्रा । कुछ श्रेष्ठ जनों के साथ प्रस्थान किया और शीघ्र ही विशाल सुन्दर गोपुरों से शोभित चम्पापुर में जा पहुँचे ।। ७० ।।
ज्ञातवृत्त स्ततो थेष्ठि विमलामुक्तिो गृहम् ।
निभ्ये स्वयं परं प्रोत्या तत्रास्थादिनपञ्चकम् ।। ७१ ।। ६४ ।
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जवाई का प्रागमन ज्ञात कर श्रेष्ठी विमल अति प्रानन्दित हा । स्वयं जाकर प्रागवानी की । प्रादर पूर्वक घर प्रवेश कराया, पर प्रीति से उसे अपने प्रालय में रहने की अनुमति दी। इस प्रकार वह कुमार जिनदत्त भी वहाँ अपनी प्रिया सहित पांच दिन तक ठहरा-विश्राम किया ।। ७१।।
अन्येचुर्गतवानेष कोडितु प्रियया सह ।
प्रमदोद्यानमुद्दाम कामविश्राम मन्दिरम् ।। ७२ ॥ । एक दिन वह अपनी प्राणप्यारी के साथ प्रमद उद्यान में क्रीडार्थ गया। यह मनोहर, विस्तृत एवं सुसज्जित बाग साक्षात् कामदेव के मन्दिर के सदृश था ।। ७२ ।।
मंजु गुञ्जलिमात बद्धतोरणमालिके । मन्दगन्धवहोद्भूत कामिनीकुन्तलाल के ।। ७३ ॥
वहाँ मति रमणीक विश्राम गृह था। जिसमें तोरण मालाएँ लटक रहीं थी, पुष्प मालाएँ बंधी थी, जिन पर गुञ्जन करते मधुकर मानों नृत्य कर रहे थे । मन्द-मन्द हवा बहने लगी मानों कामिनियों के कुन्तल घुघराले बालों से क्रीड़ा करना चाहती हो ।। ७३ ।।
सुगन्धकुसुमामोद मत्त कोकिल कोमले। भनल्प फल संभार नम्र सर्वमहोरूहे ॥ ७४ ।।
सुगन्धित कुसुम खिल रहे थे । उनको सुगन्ध से मत्त कोकिला समूह, अनेकों फलों से भरे पादपों में कामोद्दीपक राग अलाप रही थीं ॥७४ ।।
चिरं चिक्कोडतत्रासौ सर्वेन्द्रिय सुखामहे । कीडाद्रि दीपिका वल्ली विटयादि मनोहरे ।। ७५ ।।
इस सर्व इस्त्रियों को सुख देने वाले रम्य उद्यान में चिरकाल तक नाना प्रकार की क्रीडाएँ की। कभी दीर्घ वापिकानों में जलकेलि की तो कभी दुमच्छाया में विश्राम एवं वल्लिमण्डपों में प्रामोद-प्रमोद करते रहे ॥ ७५ ॥
भ्राम्यता थतत स्तेन तत्रापशी महौषषिः । शिस्त्रायां पारितादृश्यं या करोति नरं क्षरणात् ।। ७६ ।।
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इस प्रकार कीड़ा करते हुए भ्रमण कर रहे थे कि सहसा वहां उस विद्याभूषरण कुमार ने एक प्रौषधि देखो जिसको शिखा में धारण करने से वह मनुष्य को अदृश्य कर देने में समर्थ थी । अर्थात् इस औषधि को शिखा में धारण करे तो क्षणभर में वह अदृश्य हो जाये ।। ७६ ।।
प्रति यद्यपि सर्वाङ्ग सौख्यं मम निकेतनम् । तथापि पितुस्तु सृज्य स्थातुमत्र न युज्यते ।। ७७ ।।
औषधि ले ली। अब वह विचारने लगा, “यद्यपि यहाँ ससुराल में मुझे सर्व प्रकार की सुख-सुविधा है, तो भी पितृगृह को छोड़कर यहाँ माता-पिता विहीन होकर रहना उचित नहीं ॥ ७७ ॥
अक्षमेयं वियोगं च सोढुं यद्यपि मामकम् । दन्दह्यते तथाप्येय मानभंगो मनोनिशम् ।। ७८ ।।
हाँ, यह अवश्य है कि इस छाया समान प्रिया का वियोग सहना श्रशक्य होगा तो भी मानभङ्ग का कष्ट उससे भी अधिक है यह अग्नि समान मेरे हृदय को रात-दिन जला रहा है ॥ ७८ ॥
पद्मानया व दद्यापि विहिता वश लायबेसे विषायन्ते विषया 저
दर्शिनी ।
सर्वषा ॥ ७६ ॥
इस पद्मानना के साथ सेवित विषय भोग महा रम्य हैं तो भी पमानित होकर भोगे भोग विषम विष के सदृश हैं ॥ ७६ ॥
तिष्ठन्तामन मां मरम कोशं किल मुध्यते । इत्यादि बहुसंभाव्य तेनादायि महौषधिः ॥ ८० ॥
यहाँ रहने से मुझे सब क्या समझते हैं, केवल जवांई ही तो कहेंगे । प्रिया का त्याग ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार नाना ऊहापोह कर उसने उस महौषधि को उठा लिया ।। ८० ।।
शिखा तां ततो ववा सूत्वादृश्य स्ततो नृणाम् । जगाम क्वापि साध्येवं बिललाय तदुज्झिता ।। ८१ ॥
तत्क्षण उसने उस श्रौषधि को शिला में बांध लिया और उसी समय अदृश्य हो उपस्थित जनों के देखते-देखते ही अन्यत्र कहीं चला
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गया। यह देख परित्यक्ता एकाकी वह सती विलाप करने लगी ।। ८१ ।।
प्राणनाथ अपश्यन्ती साउदर्श दिसोडिला । तप्ता लन्त ससेनेव चक्रवाकीव केवला ॥ ८२ ॥
प्राणनाथ विहीन वह चहुँप्रोर दिशाओं को देखने लगी। मानों सन्तप्त चक्रवाकू विहीन चकित चकवी ही विह्वल हो दिशावलोकन कर रही हो ॥ ८२ ॥
त्यवृष्टि जीविता नाथ त्वत्पाव कुलदेवता । स्वभाव प्रेम संसक्ता हा मुक्त्वास्मि कथञ्चन ॥ ८३ ॥
एकाकी अबला विमला प्रलाप करने लगी, हे नाथ ! आपकी दृष्टि मेरा जीवन है, आप ही मेरे कुल देवता हैं, भापके चरणों की सेवा ही मेरे प्रेम का प्रसाधन है, स्वभाव से में आपके प्रेम में प्राशक्त हूँ। किसी प्रकार श्राज में त्यक्ता हो गई। नहीं ! प्राणनाथ मुझे कभी नहीं छोड़ सकते, सम्भवतः यह मात्र कौतुहल कर रहे हैं ॥
८३ ॥
केलि लोखां विहायाशु मुख चन्द्रं मनः कुमुब माग्लान मार्च पुत्र
प्रदर्शय । विक्राशय ।। ६४ ।
हे प्रभो ! भविक क्रीड़ा उचित नहीं परिहास छोड़कर अपना मुखचन्द्र प्रकट कीजिये, हे प्रार्य पुत्र मेरे कुम्लाये मन कुमुद को विकसित करो ॥ ८४ ॥
मनो मे नयनोतरभं तप्तं विरह वन्हिना । विलीन सिंग हा पश्चात् किमागत्य करिष्यसि ॥ ८५ ॥
हे प्रभो ! नवनीत के समान मेरा मन विरह रूपी अग्नि से पिघल गया, यदि यह तरल हुआ नवनीत भू प्रदेश पर बिखर जायेगा तो फिर श्राकर क्या करियेगा ? ॥ ८५ ॥
तालतास्तर वस्ते ते क्रोडागास्ते न जानामि गतः क्वापि दृष्टि मध्व
विहंगमाः । वषत्रभः ।। ८६ ।।
हे देव, वे लताएँ, वे वृक्ष समूह, वे क्रीड़ा सरोवर में चहकते पक्षी
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समूह आदि न जाने कहाँ चले गये। मुझे कुछ भी दृष्टिगत नहीं हो रहा है । मैं तो केवल मात्र आपके मुखचन्द्र की ओर ही दृष्टिबद्ध हूँ ।। ८६ ॥
स स्नेह स्तावशी प्रोति चाटकाराश्च ते प्रभो। विभः स च वाक्षिण्यं सदा सकलं गतम् ।। ८७ ॥
आपका वह स्नेह कहाँ गया ? उस प्रकार की प्रीति एवं चाटु कारता मनवाद न जाने किधर गई ! हे प्रभो वह आयास, दाक्षिण्य चातुर्यादि आज सब विलीन हो गये ।। ८७ ।।
प्राश्वासयति मामत्र को विना भवताधुना। विरहार्ता विभावग्याँ भानु नेव सरोजिनीम् ।। ८ ।।
हे देव ! प्राज आपके बिना यहाँ मुझे कौन आश्वासन देगा। रात्रि में विरह से पीडित कमलिनी के समान मुझे कौन सान्त्वना देगा ? भानु विना कमलिनी की पीडा प्रसह्य होती है उसी प्रकार आपके प्रभाव में मै व्यथित हो रही हूं ।। ८८ ।।
यत्पुरा विहितं नूनं संयुक्तानां वियोजनम् । कुः सहोयं समायातो विपाकस्तस्य कर्मणः ॥ ६ ॥
मालूम होता है निश्चय ही मैंने किन्हीं संयोगी प्रेमियों का वियोग कराया होगा वही कर्म का विपाक फल भाज दुस्सह रूप में उदय आया है ॥ ८६ ॥
जन्मान्तरेपि संभूति: स्त्रीत्वेन भविता यदि । तदा जननो रेवास्तु मा वियोगः प्रिय रमा ।। ६० ॥
हे भगवन यदि जामांतर में कदा च पुन: स्त्री पर्याय मिले भी तो प्रिय का वियोग कभी नहीं होना । जननी ही रहो। वियोगिनी नारी न हो ।। ६० ।।
दीयतां दर्शनं पत्पुः समस्ता बन देवताः । दु.ख सागर मनाया उद्धारः क्रियता मम ।। ६१ ॥
हे समस्त वन देवता गण ! माप मेरी सहायता करो किसी प्रकार मुझे मेरे पतिदेव का दर्शन कराओ, दुःख रूपी विशाल सागर में निमग्न मेरा उद्धार करो।। ६१ || ६८ ]
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श्रेष्ठी पुती को पुज्य आर्यिका माताजी के पास लाते हुए
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बिलापमिति कुर्वाणा सानीता पितुरन्तिकम् । सखो जनेन वाष्पांभः स्नापित स्तन मण्डलम् ॥ ६२ ॥
इस प्रकार विलाप करती हुयी को सखिजनों ने प्राश्वासन दिया, प्रांसूत्रों से सिंचित स्तन मण्डल को पोंछा और किसी प्रकार उसे रूदन करती हुयी को उसके पिता के पास ले गई ।। ६२ ॥
बासा निशम्य तां तात स्तामा श्वास्यायोवदः । धर्म वान रता पुत्रो तिष्ठाय जिनालये ॥६३ ॥
धर्मज्ञ, तत्त्वज्ञ पिता ने सर्व वार्ता सुनी । स्नेह से उसे समझाया, सावधान किया एवं जिनालय में ले जाकर जिनेन्द्र प्रभ के दर्शन करा साधु परिषद् में ले गया तथा कहा हे प्रिय पुत्रि ! तुम यहीं जिनालय में रहो एवं दान पूजा में मन लगायो ।। ६३ ।।
साद्धमार्याभि राभिः सखीभिः स्वजन ता। तावसिष्ठ सुते यावत्तदन्धेषण मारमे ।। ६४ ॥
हे पुत्री मैं तुम्हारे पति का पूर्ण तत्परता से अन्वेषण करता हूं। वह जब तक नहीं मिले तब तक तुम प्रायिका नासाजी के 17 में रहो, तुम्हारी सखियाँ साथ रहेंगी, परिजन भी रहेंगे ॥ १४ ॥
स्थापयामास तत्रतां सान्त्वयित्वा समुद्यताम् । दाने श्रुते जिनायां वैय्यावृत्ये योचिते ।। ६५ ।।
इस प्रकार सम्बुद्ध कर पुत्री को सेठ ने दान, पूजा, स्वाध्याय, वैयावृत्ति प्रादि यथोचित कार्य में संलग्न कर जिनालय में रख दिया । क्या आज के माता-पिता ऐसा करते हैं ? उन्हें शिक्षा लेना चाहिए ।। ६५ ।।
गवेषितश्च यत्नेन पक्षद्वय जनरयम् । सर्वतोऽपि च नालोकी ततस्तस्थे यथायथम ।। ६६ ।।
जवांई की खोज में चारों ओर अन्वेषक भेजे परन्तु सफलता नहीं मिली । दो पक्ष एक माह निकल गया सब वापिस लौट आये अपने-अपने स्थान पर ।। ६६ ।।
ठीक ही है पुरूषार्थ करना अपना कर्तव्य है फल कर्मानुसार प्राप्त होता है।
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प्रथासौ निवतोऽपि दृष्ट्रा प्रविशता तत्र
उधर प्रज्ञात विचरता जिनदत्त कुमार दधिपुर नामक नगर में पहुँचा । नगर प्रवेश करने के पूर्व मार्ग में उसने एक मनोहर उद्यान देखा ॥ ६७ ॥
प्रापदभिपुरं पुरम् । तेनोद्यानं मनोहरम् ।। ६७ ।।
तस्थ मध्ये विवेशासौ विश्रामाय ददर्श छ । गुल्म वल्ली द्रुमा स्तन समलिप्य अकेशिनः ।। 8 ।।
वह श्रमित हो चुका था श्रतः विश्रामार्थं उसने सुन्दर बगीचे में प्रवेश किया उसके मध्य में जाकर देखा कि उसकी बल्ली, सब मुरझाई हैं सूखी पड़ी हैं ॥ ६८ ॥
गुल्म, लताएं
ग्रहो वनमिदं केन हेतुना भववोबुशम् । क्रियमाणेऽपि सेकादी या विस्थमचिन्त्यत् ॥ ६६ ॥
इस प्रकार की दशा देखकर वह विचारने लगा, ग्रहो ! यह बाग सतत सींचा जा रहा है तो भी क्यों इस दुर्दशा को प्राप्त है ? ।। ६६ ।
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साबरात्र समायातः परितः पक्षिभिः पुरत् । जंपानस्थ: समुद्राख्यः सार्थवाही बनाधिपः ॥ १०० ॥
वह इस प्रकार आश्चर्य से सोच रहा था कि उसी समय नगर से परिकर सहित एक धनाढ्य समृद्रदत्त नामक व्यापारी वहाँ ना पहुँचा यही इस उद्यान का पालक था ।। १०० ।।
श्रयमप्राकृताकार: कोऽपि पान्य विनिया बाधि तेना सौ कुतो यूयं
इतिक्षरणम् । समागताः ।। १०१ ।।
अज्ञात पुरुष को उद्यान में देखकर उसने विनय से पूछा (यद्यपि यह अस्वाभाविक प्राकृति में था ) । तो भी, हे भद्र आप कौन हैं और इस समय कहाँ से या रहे हैं ।। १०१ ।।
भक्तिञ्च कुमारेण भ्राम्यन् भूमिमितस्ततः । क्षेमादिकं परिपृच्छय शात्त्वोत्तम गुणञ्च तम् ।। १०२ ।। उसके प्रश्नानुसार कुमार ने उत्तर दिया, हे भाई मैं भूमि पर इधर
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उघर विचरण करता हुमा यहाँ पाया हूँ। यह सुनकर उसे उत्तम कुलीन एवं गुणवान ज्ञात कर कुशल क्षेम पूछी ॥ १०२ ।।
उक्त तेन ततो भद्र दृष्टं वन भिवं त्वया । अस्ति कश्चिदुपायो वा येनेदं फल वन्दवेत् ॥ १०३ ।।
कुशल समाचार पूछकर बोला हे भद्र ! आपने इस उद्यान को देखा, क्या कोई उपाय है जिससे कि यह फलबान हो सके ? ॥ १०३ ।।
विज्ञाताशेष यक्षाय बंदोषाचीवशावबः । नन्दनाभं करोम्येष विलम्बेन विमा वनम् ॥ १०४ ।।
सार्थवाही का प्रश्न सुनकर कुमार ने वृक्ष-वनस्पति विज्ञान द्वारा वृक्षों को प्रायु आदि का विज्ञान लगाया, यह वनस्पति शास्त्र में निष्णात था । अतः कहने लगा, मैं अतिशीघ्र इस वन को नन्दन वन के समान रमणीक कर दूंगा ॥ १०४ il
हष्टात्मना ततस्तेन सामग्री सकला कुता। दोहवाविकमादाय कुमारेगाऽपि तत्कृतम् ।। १०५ ॥
यह सुनकर उसे परमानन्द प्रापौर कुमार के कथनानूसार समस्त साधन सामग्री लाकर उपस्थित कर दी। कुमार ने भी अविलम्ब उस सामग्री को लेकर उपवन की काया पलट कर दी ।। १०५॥
पुलके रिव रागस्य स्तबकः क्वाऽपि रेजिरे । अशोकाः कामिनी पाद ताडनेन समुद्गतः ॥ १०६ ।।
उपवन में कहीं पुलकित के समान अरुण स्तवक गुच्छे शोभित हो गये, अशोक वृक्ष कामनियों के पाद प्रहार से प्रमुदित हो झूमने लगे ॥ १.६॥
विभेवस्थाऽपि बाणेम बाणेनेव मनोभवः । पुष्प पुख भृता तत्र वियुक्तानां ममो भशम् ॥ १०७॥
पुस्ख वृक्ष वारण के बिना ही कामियों को काम बाण से विद्ध करने लगे । पूष्पों से भरा उद्यान वियोगियों को बार-बार खिन्न मान करने लगा ।। १०७ ।।
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कटाक्षेर्स क्षितः पूर्वं पुरंध्रीणां यदावशत् । उपाहि तिलक स्तेन तिलकत्त्वं वन श्रियः ।। १०८ ।।
तिलक वृक्षों की शोभा अनोखी हो गई, अत्यन्त प्रादर से सौभाग्यवती नारियों ने उन्हें अपने अपने कटाक्ष वारणों से देखा, मानों उन्हें यथार्थं तिलक नाम प्राप्त हुआ। उस वन ने अनुपम शोभा धारण की ।। १०८ ।।
विचकास कुचाभोग सङ्गात् कुरबकः स्त्रियः । यथा तथा कृता सोपि भृङ्गः कुरवकरतदा ।। १०६ ॥
प्रमदाओं के कुचाभोग से कुरबक कुसुम विकसित हो जायँ इस प्रकार की रचना कर दी। अर्थात् कुरवक के सुमनों पर भ्रमर गूंजने लगे || १०६ ॥
प्रमदा मच गण्डूषो वकुलैर्यः पपे पुरा । प्रवृद्ध कुसुमामोदं रुदगी इ
शोभितः ॥ ११० ॥
प्रमदात्रों के मय के गंडूषों (कुल्लाभों ) से जो वकुल म्लान हो गये थे वे फूलों से झूम उठे उन पर मधुकर समूह श्रा गये । मानों कुसुमावली उत्सव मनाने भायी है ।। ११० ।।
कृता शक्तिक माङ्गल्य दोषकं रिव चम्पकः । विशतो रति नाथस्य तत्र पुष्पं विराजितम् ।। १११ ।।
चम्पा सुमनों को मङ्गल दीप के समान द्योतित कर दिया। मालूम
पड़ने लगा साक्षात् रति पति कामदेव प्रा गया हो ॥ १११ ॥
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उत्कर्षो गुण
सम्पर्क जातेनाशुचि जन्मना । यदाप्तं कुकुमेनोच्चं कामिनो मुख मण्डनम् ।। ११२ ।।
उत्कृष्ट गुणों के सम्पर्क से नीच भी श्रेष्ठ हो जाता है जैसे कुंकुम से मण्डित कामिनी का मुख शोभित हो जाता है । उसी प्रकार यह उद्यान हो गया ।। ११२ ।।
चक्रं कण्टकिभिस्तत्र सर जस्के: सुगन्ध गुण योगेन केतर्फ मस्तके
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खरिव ।
पदम् ॥ ११३ ॥
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I
यत्र तत्र दुर्जनों की भांति कष्टक भी उत्पन्न हो गये । केतकी श्रादि प्रपनें सर्वोपरि गुणों से सुगन्ध से परिव्याप्त हो गये ।। ११३ ।।
सेक धूपन पूजादि योग्यं यद्यस्य मुरूहः । विषाय तत्तदा तस्य सेनाकारि विदोच्चता ॥
११४ ॥
जिन-जिन पादपों को जिस प्रकार सांचना चाहिए, धूपादि देना, पूजादि करना, क्या-क्या विधि विधान कर वे सब यथाविधि सम्पादित किये गये ।। ११४ ॥
सविभ्रमाकृता तत्र जात पुष्प समस्तापि कुमारेण वनस्पति
फलोभ्ववा । नितम्बिनी ।। ११५ ।।
सभी यथोचित अनुष्ठानों द्वारा समस्त बाग फूल - फलों से व्याप्त हो गया । कुमार के द्वारा सम्पूर्ण वनस्पति रूपी नारी सुसज्जित करदी गई ।। ११५ ।।
माकन्द कलिका स्वाद कल कूजित कोकिलम् । सुगन्धी कुसुमा मोद सुख लग्ध मधुघृतम् ॥ ११६ ॥
प्रात्र वृक्ष मञ्चरियों से श्रृंगारित हो गये। उन कलिकाओं का याश्वादन करने कोकिलाएँ गूंजने लगीं - कुह- कुह नाद गूंज उठा । सुगन्धित पुष्पों के विकसित होने से मत्त मधुकर समूह सुख प्राप्त कर हर्षातिरेक से मधुर गान गाने लगे ।। ११६ ।।
मावि मण्डपो पान्त कोडत् कामुक युग्मकम् । नाग बहली कृता श्लेष सफल क्रमुक ब्रुमम् ॥ ११७ ॥
मनोहर सघन माघवी लतानों के सुखद मण्डपों में कामक्रीड़ा विलासी मिथुन क्रीड़ा करने लगे । सुपारियों के उन्नत पादपों से नागवल्ली लताएँ लिपट गईं ।। ११७ ।।
नभोषतो संभ्रान्त किनरो कल गोसिभिः ।
त्यक्त पूर्वाङ्करा स्वाद कुरङ्ग क कदम्बकम् ।। ११८ ।। किरियाँ नभोमण्डल से इस भू-प्रदेश पर आकर कल-कल निनाद से मान गाने लगीं। उनके वीणा वादन के साथ गाये जाने वाले मधुर गान मुग्ध हुए हिरण समूह दुर्वा अक्षरा छोड़कर स्थिर खड़े हो गये ।। ११८ ॥
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लतान्तर बलाचारू सारिका शुक जल्पनैः । उत्कर्ण किसानेक सङ्कत स्ताभिसारिकम् ।। ११६ ॥
लतापल्लवों में छुपी सारिकाएँ (मैंनाएँ) सुन्दर गान गाने लगीबहकने लगीं, तोता-तोतियाँ भी उनके स्वर से होड़ लगाने लगे । अनेकों अभिसारिकामों के संकेत से चकित हो गये। सावधान हो कान उठा कर सुनने लगे ॥ ११ ॥
सरुमूल समासन ध्यानासक्त तपोषनम् । तभक्ति भाविता यात खेचरामर मानवम् ।। १२० ।।
अनेक वृक्षों के मूल में श्रेष्ठ तपोधन साधुराज ध्यानलीन विराज गये । उनकी भक्ति से अभिभूत अनेकों, देव, विद्याधर एवं भूमिगोचरी मानव समन्वित हो गये ।। १२० ।।
नितान्त फलसंभार भज्यमान महीरूहम् । रतान्त श्रम संहार कारि चारू प्रभजनम् ॥ १२१ ॥
अत्यन्त फलों के भार से वृक्षावली झूम गयी मानों टूट कर गिर जायेंगे । मिथुनों के रति क्रीड़ा के श्रम को दूर करने वाली शीतल वायु प्रवाहित होने लगी ॥ १२१ ॥
तथा विघं तदालोक्य चक्र चत्रोत्सवानसौ। पूजयामास सद वस्त्र भूषणाद्यैश्च तं सदा ॥ १२२ ॥
इस प्रकार चैत्र मास-बसंत समान राग रंग से पल्लवित, पुष्पित एवं फलित रमणीक मनोहारी उपवन को देखकर उस सार्थवाह को परमानन्द हुमा । उसने अनेकों वस्त्राभूषणों से उस कुमार की पूजा की अर्थात सत्कार किया ॥ १२२ ।।
राजादि जन विख्यातो नारी नेत्रालि पशुजः । जिनवत्तो भवत्तत्र जिम धर्म परायणः ॥ १२३ ।।
यही नहीं स्वयं उस नगरी के राजा ने भी उसे पुरस्कृत किया। ठीक ही है धर्म परायण पुरुष का कहाँ कौन सम्मान नहीं करता। वह राजा, रामी, पुरजन आदि सबकी आँखों का तारा हो गया अर्थात् सबके नेत्र रूपी भ्रमरों को पा समान प्रानन्द दायक हो गया ॥ १२३ ।। ७४ ]
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ततो महात्मा वन नायकेन, पुत्रः स मेने मदनोपमानः । धुराः स्वगेहे गुरण रक्त कोश सर्वज्ञ धर्मामृत पानपुष्टः ।। १२४ ।।
ततः सर्वज्ञ प्रभु - जिनेन्द्र भगवान के धर्मामृत से पुष्ट, गुणरत्नों का भण्डार, धर्मशील उस कुमार को वन नायक ने पुत्रवत् अपने घर में स्थान दिया । उसने समझा मेरे घर में साक्षात् कामदेव अवतरित हुआ है ।। १२४ ।।
यहाँ वह नाना सुखों का अनुभव करने लगा तथा अपनी धर्मध्यान साधना में तत्पर रहा। परन्तु पराश्रित वृत्ति मनस्त्रियों को भला कैसे भाती ?
अथान्यदा चिन्तितवानितीयं स्थातु ं न मे सपनि युज्यतेस्य । नयाव दाप्य भिसारिकेव कृताभ्रमंती स्व वशो मय श्रीः ॥ १२५ ॥
एक दिन वह विचारने लगा। मुझे इसके घर में रहना उचित नहीं श्रभिसारिका समान पराई लक्ष्मी का उपभोग, क्या महापुरुषों को करना योग्य है ? मेरे द्वारा उपार्जित लक्ष्मी ही मेरे वश रह सकेगी ।। १२५ ।।
विना न दानेन समस्त धर्मः सु पुष्कलेनापि घनेन काम: । विना धनं नो व्यवसायलोस्ति, श्रिवर्ग मूलं तदिदं स्वमेव ॥ १२६ ॥
वह आगे सोचने लगा — दान के बिना धर्म की स्थिति नहीं रह सकती, पुष्कल धन बिना दान भी तो नहीं कर सकता, धर्म बिना काम नहीं, धन बिना व्यवसाय भी नहीं चल सकता । अतः तीनों वर्गों का मूल धन ही है || १२६ ॥
प्रवोचिते नेसि ततः स तातः प्रयच्छ भाण्डं जलमात्र यानः । यामो यदा दाय विचित्र रहनं द्वीपं जवात् सिहल शब्द पूर्व ॥ १२७॥
इस प्रकार विचार कर उसने व्यापार करने का दृढ़ निश्चय किया और परम स्नेह पात्र उसने पिता सदृश उस सार्थवाह ( व्यापारी) से कहा - हे तात मैं व्यापार करने रत्नद्वीप जाना चाहता हूं। इसलिए मुझे व्यापार योग्य, नौका जहाज एवं बर्तन आदि सामग्री दीजिये । जलयान द्वारा मैं शीघ्र ही सिंहल द्वीप जो विचित्र रत्नों का भण्डार है जाना चाहता हूं ।। १२७ ॥
[ ५०.५
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निशम्य तदु दीरितं भगति साथ बाहोमुवा, । मयैव सह गम्यतां यदि समस्ति बुद्धिने ।।
ततः प्रमुरिता खिलोचित विचित्र भाण्डेः समम् । जनै र्बहु विधैरिमो मुक्ति मानसौ प्रस्थितौ ॥ १२८ ॥ उसके इस अभिप्राय को सुनकर सार्थवाह बोला, "हे वत्स, मेरे ही साथ चलो, हे बुद्धिधन तुम्हारे साथ रहने से मुझे विशेष लाभ होगा । अस्तु, दोनों अनेकों उचित विचित्र भाण्डों के साथ एवं अनेकों जन समूहों के साथ प्रति श्रानन्द से दोनों व्यापार के लिए जहाजों द्वारा प्रस्थान करने को उद्यत हुने । १२५ ।।
इस प्रकार श्री गुरणभद्र स्वामी विरचित जिनदत्त चरित्र का तीसरा सर्ग समाप्त हुआ ।
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( चतुर्थ - सगं )
श्रथ
प्राप्तौ
पोराशेः रूपान्तं
क्रमयोगतः ।
ताव प्रास्त श्रमौ शोत वेला वन समीरणौ ॥ १ ॥ कृत्वा पुजादिकं तत्रारूढौ पोतं शुभे दिने प्राप वेगान्तटं सोऽपि प्रेरितः शुभ वायुना ।। २ ।।
शीघ्र ही समस्त साधनों सहित सागर के किनारे जा पहुँचे । जहाज ठहर गये । इधर कुमार पिता के साथ श्रम दूर करने तट पर उतर गया । शीतल वायु के धीमे भोकों ने उनकी थकान दूर की। नित्य नियमानुसार जिन पूजनादि की । पुनः शुभ बेला में जहाज पर आरूढ हुए । अनुकूल पवन होने से शीघ्र ही दूसरे तट को जा पहुँचे ॥ १-२ ॥
ततो यतीर्थ हृष्टौ तौ झगित्येव समागमस् । प्रविष्टौ च तते द्वीपं पूर्वोदित ममा
जनः ॥ ३ ॥
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दोनों श्रानन्द से शीघ्र ही जहाज से उतर पड़े द्वीप में प्रवेश किया। इन लोगों द्वारा पूर्व देखा गया || ३ |
और उस सिंहल निर्दिष्ट द्वीप को
प्रावासिता जनास्तत्र बहिरन्त यथा यथम् । कुमारः आवकं मन्ये बृध्येकस्या ग्रहे स्थितः ॥ ४ ॥
उस द्वीप में सर्व सार्थवाह के साथी यत्र तत्र यथा स्थान ठहर गये अर्थात् पडाव डाल दिया किन्तु कुमार को एक बृद्धा माँ ने उत्तम श्रावक समझ कर अपने घर में बड़े प्रेम से ठहराया ॥ ४ ॥
विविक्ताहार पानादि बुध्या सार्थेश सम्मता: 1
क्रियादिकं ततः कर्त्त प्रवृत्ताः सकला जनाः ॥ ५ ॥
क्षुधा तृषा से संतप्त सभी जन सार्थवाह की आज्ञानुसार स्नानादि क्रियाओं में संलग्न हो गये || ५ |
योग्य राजा पुरस्तस्या मेघवाहन संज्ञितः । विजया कुक्षि संभूता तस्सुता श्रीमतोत्यभूत् ॥ ६ ॥
इस नगरी का राजा मेघवाहन था। उसकी महिषी रानी का नाम विजया या विजया के उदर से प्रसूत श्रीमती नामकी कन्या थी ।। ६३
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प्राप्तापि यौवनं कामा मोधास्तं सौम्य दर्शना । सेन्दु मूति रिवांकन रोगेणाति कथिता ॥ ७ ॥
यह कन्या अपने सौन्दर्य से तिलोत्तमा और रम्भा को भी तिरस्कृत करने वाली थी । पूर्ण यौवन को धारण कर चुकी थी। चन्द्रकला सी सौम्य और मूर्तिमान रति के समान सुकुमारी थी। किन्तु अशुभोदय से किसी भयङ्कर रोग से पीडित थी ।। ७ ।।
यथा यः सन्निधौ तस्याः कोपि श्वापति याति सः । यम से ततस्ता पिविलः कामयः : ॥
कारण यह था कि जो भी कोई उस कन्या के साथ रात्रि में सोता था वही मृत्यु का भाजन हो जाता था। इस कारण उसके माता-पिता आदि परिजन उससे विरक्त हो गये थे । दु:खी थे॥८॥
प्रासादे सुन्दरे साध्वी सा बहिः स्थापिता ततः । अथित श्च भूपेन पौरलोकः स गौरवम् ।। ६ ।
एक सुन्दर उच्च महल बनवा कर उसे अलग ही रख छोडा था। राजा द्वारा सभी पुर वासीयों को सूचित कर दिया गया कि कोई भी इसे निरोग कर मेरे गौरव का पात्र बने ||६||
केनापि पूर्व पापेन ममेयं देहनाजनि । मा नमामि ततो पावत् कुतोऽपि भिषजो जनाः ॥ १० ॥
किसी पाप कर्म के उदय से मेरी इस पुत्री की यह दशा हुयी है । मैं प्रयत्न पूर्वक कहीं से भी उपचार करूं इसलिए आप सब भी उचित वैद्य खोज कर लामो ॥ १० ॥
प्रति सम ततो यातु प्रत्यहं चक मानवः । वस्तु मस्या गृहे चैवं सामेने अनता खिला ॥ ११ ॥
जनता क्षुब्ध हो गई कोई उपाय न देख, सबने निर्णय किया प्रत्येक घर से एक-एक पुरुष इसे प्रदान किया जाय सभी जनता ने यही स्वीकार किया ।। ११ ।।
मथान्ये घुः समागत्य नापितेमेति भाषिता। कुमार सन्निधौ वृद्धा तबाधा अनि बारक: ॥ १२॥
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पारी पारी से प्रत्येक घर से एक-एक मनुष्य जाता। एक दिन नापिता नाई उस वृद्धा के आया, जिसके कुमार ठहरा हुआ था, वह नौकर बोला "हे माता श्राज तुम्हारी पारी है।" उस समय कुमार भी के पास बैठा हुआ था || १२ ॥
उस वृद्धा
सानिशम्य
वचस्तस्य रूररेव करूणं तथा । वयसां शल्यितं चेतो यथाङ्गरण फरमादिताम् ।। १३ ।।
वृद्धा उस वचोहर के बचन सुनते ही बिलख उठी, करुण रूदन करने लगी। उसका हृदय अंकुश से वेधित के समान चीत्कार कर उठा । श्रांगन में सर्प देखकर जैसे भय होता है उसी प्रकार वह भयातुर हो दन करने लगी। १२॥
हे धातर्भतं शून्याहं हताशः दुःख पूरिता । सन्दर्शनेन जीवामि सुत वक्त्रस्य केवलम् ।। १४ ।।
हे भगवन ! मैं पति विहीन हूं, मेरी आशाएँ निराश में परिणत हो चुकी हैं, दुःख से पीडित हूँ तो भी केवल पुत्र का मुख देखने मात्र से जीवित हूँ ।। १४ ।।
सह तेन तदप्येष विधाता विदधे किमु । इत्यादि विलपन्ती सा तेनावाचि महात्मना ।। १५ ।।
इस समय कुटिल भाग्य ने उस पुत्र के साथ भी यह क्या स्वांग रचा, आज वह भी काल कवलित हो जायेगा । इस प्रकार करुणा जनक रुदन सुनकर वह महामना कुमार इसका कारण पूछने लगा || १५ ॥
समग्र दुःख संभार लोला मातर्मध्यपि सत्येवं पुत्रे किमिति
वह बोला, हे माते मैं तुम्हारे समस्त दुःखों को नष्ट करने में समर्थ हूँ, मेरे रहते हुए अपने पुत्र के लिए क्यों इस प्रकार विलाप करती हो ।। १६ ।।
लुष्टनसंपटे । शेदिषि ।। १६ ।"
श्रहं तत्र गमिष्यामि त्वं तिष्ठ सुखिताम्बके । तयाभारि युवां पुत्र वाम दक्षिण चक्षुषि ।। १७ ।।
तत् कस्य सह्यतां नाशः किञ्चकामा कृतिर्भवान् । कुल केतु महा सत्यो मत् प्राणरपि जीवतु ॥ १८ ॥
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बिके ! तुम यहाँ सुख पूर्वक निवास करो पुत्र के साथ, मैं स्वयं वहाँ जाऊँगा । यह सुनकर वृद्धा कहने लगी हे वत्स तुम दोनों ही मेरे लिए समान पुत्र हो, भला बाई चक्षु श्रोर दांयी चक्षु में से किसका नाश सह्य हो सकता है । तुम कामदेव की प्राकृति घारी अपने कुल की पताका स्वरूप हो, महासत्त्व मेरे प्राणों के लिए सतत जीवन्त रहो ।। १७-१८ ।।
चिन्तितं च कुमारेण जातेनाऽपि हितेन किम् । येनापत् कर्दमे मग्ना नोढताः प्राणधारिणः ।। १६ ।।
इधर कुमार विचारता है "उस मानव के जीवन से क्या प्रयोजन जो इस प्रकार की प्रतिरूपी को में पड़ी हुई मला का उद्धार न करे" ।। १६ ।।
स्वफलः प्रीणयन्त्येव पाण्थ सार्थान् हमा प्रपि । यत्र तत्रोपकाराय यतनीयं न कि तुभिः ॥ २० ॥
मार्ग चारी पथिकों को अपने मधुर रसीले फल प्रदान कर द्रुम गरण भी उन्हें संतुष्ट करते हैं तो क्या मनुष्यों के द्वारा मनुष्य का उपकार नहीं किया जाय ? अवश्य ही करना चाहिए ।। २० ।।
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प्राण नाशोपि कर्तव्यं परेभ्यः सुधिया हितम् । प्राशाः सुगन्धयत्येव दह्यमानोऽपि चन्वनः ।। २१ ।।
मागे सोचता है "प्राण नाश होने पर भी बुद्धिमान सत्पुरुषों को परोपकार करना चाहिए जिस प्रकार चन्दन जलाये जाने पर भी दिशाओं को सुगन्धित ही करता है ।। २१ ।।
स्व वाचा प्रतिपक्षा च जरतीयं मयाम्बिका । अपेक्षितुं न युक्तातः सु दुःखा सुत जीविता ।। २२ ।।
अपने वचनों द्वारा यह माता स्व रूप ज्ञात हुयी है। इस जरा श्रवस्था में क्या माँ को उपेक्षित करना उचित होगा ? पुत्र के जीवित रहते माँ व्यथित रहे क्या ? नहीं यह कदापि सम्भव नहीं । इसने मुझे पुत्र कहा है मुझे भी तदनुसार मातृ भक्ति का निर्वाह करना चाहिए ।। २२ ।।
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इत्यालोच्याप रोधेन महता जननी तदा । भरिता तेन सावादीत् महा सत्त्वंव मस्त्विति ।। २३ ।।
इस प्रकार तर्कणा कर उसे स्वयं जाने का प्राग्रह किया उस वृद्धा माँ ने बहुत कुछ रोकने को वेष्टा की किन्तु उसे दृढ़ निश्चय देख उसे कहना पड़ा कि "हे महासत्व ऐसा ही हो" अर्थात् जाश्रो ।। २३ ।।
ततः स्नातोनु लिप्सश्च सर्वाभरण भूषितः । पुष्ट तांबूल सद्गन्ध दिव्य वस्त्र विराजितः ।। २४ ।।
तदनन्तर कुमार ने स्नान कर चन्दनादि सुगंधित द्रव्यों का लेप किया, वस्त्राभूषण धारण किये, ताम्बूल भक्षरण किया, दिव्य सुगन्धित वस्त्रों से सुसज्जित हुआ || २४ ।।
व सुनन्द कृपारणाभ्यां भ्राजमान भुजं द्वया । विद्याधर कुमारो वा प्रतस्थे राजवर्त्मनः ।। २५ ।।
दोनों भुजाओं में कृपाण धारण की, नारायण के समान शोभाधारी श्रथवा विद्याधर कुमार के समान प्रसन्न चित्त वह निर्भय कुमार राज मार्ग में चल पड़ा ।। २५ ।।
कौ तुकाक्षिप्त चेतोभिदं दुसौ सकलैर्जनः । प्रासाद शिखरा हट नारी भिश्व यथास्मराः ॥ २६ ॥
वह मार्ग में नाना प्रकार कौतुक करता बढ़ रहा था, उसे देखने नर-नारियों की भीड़ लग गयी। महिलाएँ अपने-अपने प्रासादों-मकानों की छतों पर जा चढ़ी, शिखरों पर चढ़ कर देख रही थीं मानों कामदेव हो क्रीड़ा कर रहा हो ।। २६ ।।
राज्ञाप्यसु समालोक्ध प्राकृताकार बारिम् । पारस्थाः गदिताः कोऽयं क्व चायाति महाद्युतिः ।। २७ ।।
कुमार्याः सदने वस्तुमिति तैः समुदीरितम् । निशम्य स्व शुशोचासौ धिगस्तु मम जीवितम् ॥ २८ ॥
स्वयं राजा भी इसके स्वाभाविक रम्य रूप को देखकर अपने निकट वतियों से कहने लगा "यह कौन है, महा कान्ति पुञ्ज कहाँ से श्राया
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है ?" निकटस्थ जन-समूह ने राजा से कहा, हे नृपति यह मापकी राज कुमारी के सदन में जाने के लिए पाया है !" यह सुनते ही स्वयं राजा चिन्तातुर हो गया कहने लगा धिक्कर है मेरे जीवन को ।।२७-२८।।
सगुना पासता से कास सत्रियो म । अजनिष्ठ अगष्ट नररत्न विनाशिनी ॥ २६ ॥
यह परिताप करने लगा, प्राज मेरी पुत्री के बहाने इसे काल रात्रि पाई है, इस विश्व श्रेष्ठ नर रत्न का घात करने वाली विभावरी क्या यह कन्या जन्मी है॥ २६ ॥
प्रहो प्रकृति चापल्यमीदृशं मानुषायुषः । येनेषोऽपि महावीरो रात्रावेव विरक्ष्यति ॥ ३० ॥
हाय, हाय, कितना चपल है यह मायूष्मन् महावीर है तो भी अाज रात्रि में ही विनाश को प्राप्त हो जायेगा ॥ ३० ॥
महोश्लाघ्यं कथं राज्यं माहशां पापकर्मणाम् । ईहशामपराधेन बिना यन्त्र विनाशनम् ।। ३१ ।।
मेरे जैसे पापी का राज्य किस प्रकार प्रशंसनीय हो सकता है, हा हा, बिना अपराध के इस प्रकार का प्रारणी घात जहाँ हो भला वह राज्य किस प्रकार योग्य हो सकता है ? ।। ३१ ॥
रक्षरमानं महाभाम निज माहात्म्य योगतः । त्वाह शो हि महासत्वो दुर्लभो भवले यतः ।। ३२ ।।
वह सोचता है यह महा पुण्य शाली है, कहता है-हे महाभाग तुम स्वयं तुम्हारी रक्षा करो, अपने माहात्म्य से जीवन धारण करो, क्यों कि आपके समान महा धीर-वीर संसार में दुर्लभ है ।। ३२ ।।
इत्थं संभावितो राज्ञा दृष्टिगोचरमाप सः । कुमारी भवनं भव्यो भूतसंघात भौतिदम् ।। ३३ ॥
इस प्रकार संभावना कर भूपति कुमार के सामने आया और बोला, हे भज्य यह कुमारी का सदन भूतों का डेरा है । भय का स्थान है ॥३३।।
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प्रारु रोह ततस्तत्र प्रथमां मूमिमुन्नताम् । मातुलोके स तत्रासो दिक्चतुष्क शमैः शनैः ।। ३४ ॥
उसी समय वह प्रासाद के उन्नत प्रथम भाग में प्रविष्ट हुआ और शनैः शनैः चारों पोर दृष्टि प्रसार कर निरीक्षण किया ॥ ३४ ॥ द्वितीयस्यामसौ वृष्टा घार पल्यंक सङ्गता। सबिकाशभिक्षाविभ्याम् दृग्म्यां द्वारा व लोकिनी ॥ ३५ ॥
पुन: द्वितीय पंजिल में पहुँचा वहाँ उसने पलङ्ग पर प्रासीन सुन्दराकृति रमणी देखी जो भोजन भिक्षा के लिए मानों पाँखें द्वार पर लगाये हुयी थी ।। ३५ ॥
तत्रालोक्य दिशः सर्वास्तदासनव्यवस्थितः । स तल्पेनल्प कल्यारणा मा जनस्थामुनाच सः ॥ ३६ ।।
वहाँ भी उस कुमार ने चारों ओर दिशामों का अवलोकन किया, पुनः उसके सन्निकट व्यवस्थित रूप में जा बैठा उसकी चैय्या एवं उसे देखा, बोला कल्याण भाजा सुनो ।। ३६ ॥
सापि संभाषणा तस्या मस्तात्मानं मृगेक्षणा। कृत कृस्यमिवात्मानं हृष्टः सोऽपि तरीक्षणात् ।। ३७ ।।
उस कन्या ने भी इस अनुपम लावण्य धारी को देखकर अपने को कृत्य-कृत्य माना, हर्ष से रोमाञ्चित हो उठी, वह मृगनयनी उसके साथ मधुरालाप करने लगी ।। ३७ ॥
ताम्बूलादिकमावाय तया पत्त' विचक्षणा । पृष्ठा प्रारब्धवानेष कथां करां सुषास्पदाम् ॥ ३८ ॥
उसी समय उसने कुमार को ताम्बूलादि अर्पण किया। तथा विचक्षण कन्या ने कुमार से कर्ण प्रिय सुधारस भरी कथा पूछी, कुमार भी कथा सुनाने लगा ।। ३८ ।।
यावत्तस्या: समायाता निद्रामुद्रित चेतसा। हुंकारस्थ विरामेण सुप्तां ज्ञात्योस्थिताश्च सः ॥ ३६॥ रात्रि पा चुकी थी । कथालाप सुनते-सुनते वह मन्या निद्रा देवी
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की गोद में जा मचली धीरे-धीरे खर्राटा भरने लगी, कुमार भी उसे सोई हुयी जानकर कथा बन्द कर उठा, विचारने लगा || ३६ ॥
चितितं च किमत्राहो मरणे कारणं नरणाम् । किमेषा पूतना प्रायः किं वा रक्षो निम्भितम् ॥ ४० ।।
क्या आश्चर्य है ? मनुष्यों के मरने का कारण क्या हो सकता है ? कोई पूतना-राक्षसी है अथवा अन्य कुछ है जो हो रक्षा का उपाय करना चाहिए ॥ ४० ।।
प्रत्यवास्तु यथा काम-मप्रमत्तो भवाम्यहम् । जागरूकानयो लोके तस्करमुष्यते ध्रुवम् ॥ ४१ ॥
अब मुझे यथा शीघ्न सावधान हो जाना चाहिए । प्रमाद त्याग कर सजग रहना होगा, क्योंकि जो जागरूक नहीं रहते उन्हें चोर-डांकू निश्चित रूप से ठग लेते हैं, उसका धन चुराते हैं ।। ४१ ।।
इत्यालोच्य समानीय मृतकं पृष्ठभूमित: । प्रारोच्य शयनीचे च प्रच्छाय घर बाससा ।। ४२ ॥
इस प्रकार विचार कर शीघ्र ही श्मशान से एक मृतक को पीठ | पर लाद कर ले प्राया, उसे अपने स्थान पर सुला दिया और सुन्दर ! वस्त्र उसे उड़ा दिया। यह शैया कन्या के बगल ही में थी।। ४२ ।।
प्रवीप छायया तस्थौ स्तंभान्तरिस विग्रहा। उद्घात पौस खगोडसो दत्त दृष्टि रितस्ततः ।। ४३ ।।
स्वयं दीपक की छाया में खम्भे की प्राड में छुप कर बैठ गया। उसने अपना चमकता खड्ग-तलवार निकाली, हाथ में ले इधर-उधर दृष्टि चलाने लगा ।। ४३ ।।
यावत्तावन्मुखे तस्या जिह वाञ्चित यमुगलम् । कम्पमानं ज्वसद वल्हि शिखाभ भय दायकम् ।। ४४ ।।
कुमार पूर्ण सावधान था, सतर्क था उसी समय राजकुमारी के मुख से भयंकर जिह्वा लपलपाता, अग्नि शिखा समान जाज्वल्यमान, भयावना, सबको कंपाता सा प्राकार निकला ।। ४४ ।।
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राजकुमारी के मुख से निकला सपं जैसे ही अव पर फण मारने लगा कुमार उर्स मारते हुए
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तदालोक्य स्मितं तेन मनाम् विदित हेतुना । निजंगाम ततो मन्दं व दनाद्भटाफरणा ॥ ४५ ॥
उसे देख कुमार मुस्कुराया कुछ हेतु उसे विदित हो गया इसी से प्रसन्न हुआ, उसी क्षण विशाल फणधारी नागराज धीरे-धीरे उसके मह से बाहर निकला ।। ४५ ।।
क्रमेण च तत: काले काल दण्ड इवापसः। निष्चकाम महाभोगो भुञ्जाक्षो भीषणफर्णा ॥ ४६॥
उस समय वह साक्षात् दूसरा यमराज ही था वह क्रमशः भीषण नाग भोजन के लिए इधर-उधर संचार करने लगा ॥ ४६ ॥
तत्तरूपतः समुत्तीर्य समारहयापरे शनैः । दशतिस्म शिरोदेशे यावन्तत्र स्थित शवम ॥४७॥ ताववागत्य बेगेन निहतो हिर्दयोभितः । तथा यथा पपातार सा बष्ट खण्डो महीतले ।। ४८ ।।
धीरे से कुमारी की शय्या से उतरा और दूसरी शय्या पर जा चढ़ा, उस पर स्थित शव के शिर पर जैसे ही उसने फरा मारा कि उसी समय सचेत सावधान कुमार ने तलवार की तीक्षग धार से निर्दय हो उसे मार डाला, पाठ टुकड़ों में विभक्त हसा वह सर्पराज भी भमि पर जा गिरा । अर्थात् उसके ८ टुकड़े कर डाले ।। ४७-४८ ॥
भूषा करडिका मध्य यतिनं से विधाय सः। अपनीय शबं कोशस्थापितासी: सुखं स्थितः ।। ४६ ।।
उसने कुमारी के आभूषणों का पिटाग उठाया और उसमें उन सप खण्डों को बन्द कर रख दिया । शव को वहाँ से हटा दिया । तलवार को म्यान में रख दिया । स्वयं कृत कर्म सुख से विराजमान हो गया अर्थात् पाराम से सो गया ।। ४६ ।।
कन्यकापि गते व्याधौ सुखिताभूत् कृशोदरी। सुष्वाप च समुद्स निराकुल तनुस्तदा ॥ ५० ॥ व्याधिविहीन कन्या भी सुख निद्रा में निमग्न हो गई। वह कृशोदरी
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प्रानन्द से सोती रही क्योंकि वेदना का शमन हो चुका था अत: गहरी निद्रा में निराकुल हो सोतो रही ।। ५० ।।
प्रयद्धाथ तत: प्रातः पबनेन धुतांशुका। नीलाम्ज रेण गभग रस क्लय मुषा स्त्रियाम् ।। ५१ ॥
प्रभात काल हा । शीतल पवन से उसके वस्त्र पताका से उड़ने लगे मानों उसे जगा रही हो पवन । नील कमलों की पराग वायू में मिश्रित हो स्त्रियों के श्रम को अपनय कर रही थी ।। ५१ ॥
उत्थिता चिन्तयामास किमिदं ननु कारणम् । सुखितानि ममाङ्गानि येनामूदुदरं लघ॥ १२ ॥
उसी समय राजकुमारी को निद्रा भंग हुयी। आज उसे तन्द्रा नहीं थी अपितु स्फति थी वह विचारने लगी या कारण मेर समस्त अङ्गों में सुख संचार हो रहा है, उदर भी हल्का हो गया-पतला हो गया ।। ५२ ।।
उत्साह कोऽपि सम्पन्नो गतो व्याधि दुरन्तकः । दुःखान्त दायको नून मयमात्र महाभुतः ॥ ५३ ॥
प्राह ! यह पुरुष कोई उत्साह सम्पन्न है, इसी के प्रभाव से मेरी व्याधि नष्ट हुयी है । दुरन्त, दुखान्त मेरा रोग दूर करने वाला निश्चय से यही अद्भुत महानुभाव है ।। ५३ ।।
सत्येव नत्व सामान्ये केचिदेवं विधा भवि। परोपकारिणः सन्ति ग्रहार भानुमानिव || ५४ ।।
संसार में इस प्रकार के पराक्रमी परोपकारी कुछ ही जन होते हैं । वे रवि किरणों के समान अपने गृहों का उद्योतन करते हैं ।। ५४ ।।
किचास्य वर्शनादेव ममानन्द स्तधामनि । यथामृत रसेनेल संसिक्ता सर्वतस्तनुः ।। ५५ ।।
वस्तुतः इस विभूतिरूप मानव को देखते ही मुझे इतना नानाद हुमा मानों अमृत रस से ही मेरा सम्पूर्ण शरीर अभिसिचित कर दिया गया हो । ५५ ।।
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विचिन्त्यति प्रपच्छासो प्राञ्जलि र्जन बल्लभम् । स स्मिता तं स लज्जा व प्रसन्नाधीर लोचना ।। ५६ ।।
कुमार वहीं चुपचाप बैठा उसकी चेष्टानों को निहारता रहा । उसी समय कौतुक भरी विचार निमग्ना कुमारी ने हाथ जोड उस विश्व प्रिय कुमार से पूछा । उस समय उसका मुख लज्जा से अरुण हो गया, अधीर हो गयी, सस्मित कुमार ने उसे देखा ॥ ५६॥
नाथानुमान तो ज्ञातोऽनुभावस्तब यद्यपि । कि वृत्तमद्य यामिन्यां तपापोदं निवेदय ।। ५७ ।।
साहस कर बोली "हे नाथ यद्यपि अनुमान से रात्रि का वृत्तान्त मुझे ज्ञात हो गया है तो भी आप कृपा कर स्पष्ट बतलाइये" ॥ ५७ ।।
तेनावाचि स्वमेवात्र विज्ञासु तनु कि वे। जानामि किन्तु पत्रात ओतु चेतः समुत्तुकम् ।। ५६ ॥
कुमार बोला, मैं क्या बताऊँ ? अापका शरीर ही जता रहा है, मैं समझता हूँ आपका स्वास्थ्य इस समय पूर्ण लाभ प्राप्त कर चुका है जिसे तुम्हारा मुख कमल कह रहा है। फिर भी तुम सुनने को उत्सुक हो तो सुनो ।। ५८ ।।
यवं दायतां मुग्धे स्वालंकार कर खिका। सामुद घाटयते यावतावदृष्टो भुजंगमः ।। ५६ ।।
यदि रात्रि की घटना ज्ञात करना चाहती हो तो हे मुग्धे ! अपने अलंकारों का पिटारा खोलकर देख लो, जैसे ही उसने करण्ड को उघाडा कि भयंकर विषधर दिखाई पड़ा॥ ५६ ।।
सर्प सपंति जरूपन्तो सा ततोऽपसता जवात् । माभंषी रिति तेनोक्त विशालाक्षी विचेतनः ।। ६० ।।
निरीक्षण करते ही प्रोह, सर्प-सर्प इस प्रकार चीखती उससे शीघ्र ही दर भागी। विहंस कर कुमार ने कहा हे विशाल नयने भय मत करो, डरो मत वह तो अचेतन है मरा पड़ा है ।। ६० ।।
विषया यास्ततस्तस्या स्तेना कथियधा विधि । वृत्तान्तं स्तिमिताक्षी सा श्रौषी विधुवती शिरः ॥ ६१ ॥
ो
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इस प्रकार सुनकर बहु विश्वस्त हो गई भय मधुर हास में परिगात हो गया । पुनः यथाविधि समस्त वृत्तान्त कुमार ने उसे सुनाया । बहुभी शिर धुनती मुस्कुराने लगी। दोनों ही प्रसन्न हुए ।। ६१ ।।
श्रन्तरेऽत्र
तदध्यक्ष
समायातः तदुदन्त तथालोक्य समुवाच
इसी समय उसका रक्षक भूख से व्याकुल वहाँ आ पहुँचा, किन्तु कुमारी को निरोग देख दौड़ता हुमा राजा के पास गया और नृपति से बोला ।। ६२ ।
बुभुत्सया । महीपतिम् ॥ ६२ ॥
यथा वर्द्धस्थ राजेन्द्र दिष्या दोष विवजिता ।
प्रभूत सुता महाबोर : कुशली सा च तिष्ठति ।। ६३ ।।
हे राजेन्द्र ! आप वृद्धि को प्राप्त हों, राजधी बढ़े, देखो भापकी सुकुमारी कम्मा मन्तिोष रहित हो गई है। महावीर के साथ सकुशल विराज रही है ।। ६३ ।।
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इत्याकर्ण्य अगश्मासौ चत्वात् प्रचुरं प्रारुह्य हस्तिनं वेगां ज्जनः कतिपये
यह सुसमाचार सुन राजा परम प्रमोद से उछल पडा । वह शीघ्र ही गज पर सवार हुआ । अपने कुछ लोगों के साथ वहाँ प्राया और यथा समाचार पुत्री को शान्त एवं सुखी पाया । उसी समय कुमार को 'प्रचुर धन राशि प्रदान कर सम्मानित किया ।। ६४ ।।
धनम् । रतौ ॥ ६४ ॥
अभ्युत्तस्थे भूपस्तेनाऽपि हृष्टेन सप्रसादं
कुमारेण दृष्टि गोचरमागतः । बिलोकितः ।। ६५ ॥
कुमार ने भी सम्मुख भाकर नृपति का स्वागत किया । श्रानन्द से राजा को निहारा ।। ६५ ।।
उपविष्टस्ततो राजा तां ददर्श स्व बेहजाम् । राहुनुनेय निभुक्तां पार्थखेन्दु तनुं
यथा ।। ६६ ।।
संतुष्ट एवं प्रमुदित राजा माराम से यथा स्थान बैठा और अपनी देहजा-पुत्री को देखा मानों राहु के ग्रास से बच कर पूर्णिमा का चाँद ही उदित हुआ हो ।। ६६ ।।
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मुहमुखं तनूजाया मुहस्तस्य महामतेः । अप्ति जगाम नो पश्य स्तदानो नरनायकः ॥ ६७ ।। वह विस्मय से स्फारित नेत्रों द्वारा कभी पुत्री को और कभी कुमार को बार-बार देखने लगा। उस महात्मा कुमार को बारम्बार निहार कर उसे तृप्ति ही नहीं हो रही थी। वह नर नायक हतप्रभ सा सतृष्ण नेत्रों से उन्हें देखता ही रह गया ।। ६७ ।।
पप्रच्छ च महा बुद्ध किमयाजनि चेष्ठितम् । रात्रावत्र कुमारेण दशितं पन्नगाविकम् ॥ ६८ ॥
विस्मय से आतुर राजा ने प्राश्वस्त हो कुमार से निवेदन किया, हे महा बुद्धिमन् ! आज रात्रि को क्या घटना हुयी, किस प्रकार प्राप जयशील हुए, कन्या रोगमुक्त किस प्रकार की इत्यादि प्रश्न पूछे । उत्तर में विनम्र कुमार ने भी रात्रि में घटित घटना के साथ करण्डी में स्थापित नागराज को दिखलाया, शव को दिखाया एवं किस प्रकार तलवार के वार से उसे प्रारण विहीन किया इत्यादि वृत्तान्त नामराया ॥६.!।
कथितञ्च ततः सर्व कुमार्या जनकाय तत् । महो चित्रम संभाव्यं विधे बिलसितं भवि ।। ६६ ।।
उस समय सभी जनपद राजा से कहने लगे अहो संसार में भाग्य की लीला बड़ी विचित्र है शुभ रूप भाग्योदय होने पर असम्भव कार्य भी सुलभता से सम्भव हो जाते हैं ।। ६६ ।।
उपकारः कृतोऽनेन सोयं मम महात्मना । कुल कोति: प्रतापी में राज्यं येनाशु वोषितम् ॥ ७० ॥
इस महा पुण्यशाली सत्पुरुष ने मेरा महान उपकार किया है, मेरी कूलकीति, प्रताप और राज्य की रक्षा की है । आज मेरा राज्य वैभव और जीवन इसके द्वारा दीपित हुआ है ॥ ७० ॥
ददाम्यस्मै सुतामेनां बल्लोमिव मनोभवः । अतोऽपि गुण संभार भूषितः को भविष्यति ॥७१ ॥ उपयुक्त भावों से अभिव्याप्त राजा विचार करता है "यह मेरी
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कन्या कामदेव को लता समान है इसे इस कुमार को ही देना चाहिए। भला इससे बढ़कर इस पुत्री की शोभा बढाने वाला और कौन गुणों का भण्डार नर रत्न होगा" ? ।। ७१ ।।
कुमारस्य मुखे न्यस्थ संहृता तरला स्थिरा । झलक प्रसरा दृष्टि यथास्याश्च विकासिनी ॥ ७२ ॥
यह सोचकर उसने कुमार को अपलक दृष्टि से देखा, अहो कितनी सुन्दर तरल इसकी दृष्टि है, स्थिर चित्त है, मुखकमल विकासिनी है, लक्ष प्रसारिखी है, सरल है ।। ७२ ।।
यथा गण्डस्थलोस्ता मन्वाः स्वेदोद विन्दवः । स्लाम रागाः समुच्छ्वासौ यथा बाधर पल्लवः ।। ७३ ।।
गंडस्थल पर श्रदूत स्वेद विन्दु कितने प्रिय हैं, उच्छवासो से मानों कोमल अधर पल्लब इसके म्लान हो गये हैं। लाली फीकी सी हो गई है ।। ७३ ।।
वान्वृति: स्ललिताकम्प रोमाञ्चो सावधानता । सखीस्यास्तथा व्यक्त कुमारे अनि मानसम् ।। ७४ ।।
वचन प्रणाली स्खलित सी है। शरीर पर रोम राजि-रोमाञ्चित तनुरूह मानों इसकी सावधानता के प्रतीक हैं । यह कन्या इसके मानस में सखिवत् प्रीति प्राप्त करेगी ॥ ७४ ॥
यथा चिन्तित मेवेदं संपन मम साम्प्रतम् । समाकृष्टोऽथवा पुण्येरथम स्याः समागतः ।। ७५ ।।
मैं जो चाहता था प्राज वही इस समय मेरे सामने उपस्थित है । अथवा इस पुत्री के पुण्य से प्राकर्षित हुम्रा यह स्वयं श्रा उपस्थित हुआ है ।। ७५ ।।
तथा प्रत्युप कारोयमेसे नास्य भविष्यति ।
कन्या रत्न मियं चैतत् सम्बन्धेनंय बम्धुरम् ॥ ७६ ॥ मैं समझता हूं इसके उपकार का प्रत्युपकार अन्य किसी प्रकार नहीं हो सकता, कन्या रत्न समर्पण करने से ही हो सकता है । फिर यह युग्म सुन्दर भी है ।। ७६ ।।
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विधिरेवायवा विश्व धियं विस्मयावहम् । विदधाति नरस्तत्र केवलं याति साक्षी साम् ॥ ७७ ॥
अधिक क्या, भाग्य ही संसार में प्रलौकिक विचित्र पाश्चर्य जनक क्रियानों को सम्पादन किया करता है मनुष्य तो केवल मात्र उसमें निमित्त होता है, साक्षी बन जाता है ।। ७७ ।।
इत्यादि वह संभाव्य कुमाराय कृपावरी । वितीर्ण भूभजा तस्मै सोप्यमं स्तोपरोषतः ।। ७८ ॥
इस प्रकार अनेकों तर्क-वितों से निश्चय कर राजा ने उस कृशोदरी पुत्री को सानुरोध कुमार को देने का निश्चय कर लिया ।।७।।
विषाय विधिना तस्याः कुमार: पाणी पीडनम् । पञ्चेन्द्रिय सुखं तस्थौ भुनानः सहितस्तया ।। ७६ ॥
शुभ मुहूर्त, लग्न मोर दिन में नृपति ने अपनी कन्या का उस बुद्धिमान, गुगशाली, रूपयौवन सम्पन्न कुमार के साथ सोल्लास पाणिग्रहण संस्कार किया । कुमार भी उस अद्भुत सुन्दरी राजकुमारी को पाकर परम संतुष्ट हुआ । राज प्रासाद में ही उसके साथ पञ्चेन्द्रिय जन्य सुन्दर भोगों को भोगने लगा ।। ७९ ।।
छायेष सापि तस्याभूद विभिन्ना मनस्विनः । चक्रेते नापि विज्ञात जैन धर्म क्रमादिति ॥८०॥
जिनदत्त श्रेष्ठ श्रावक था, जिनधर्म पर उसकी अकाट्य श्रद्धा थी किन्तू नपति वैष्णव धर्मी था। अतः कन्या भी उसी धर्म की अनुयायी श्री। परन्तु पतिभक्ता होने से छायावत् उसका अनुकरण करती थी। पति के अभिप्रायानुसार उसकी क्रियाएँ थीं। एक दिन कुमार ने कहा प्रिय, जैन धर्मानुसार चलना योग्य है । उसने कुमार से जैन तत्त्वों को ज्ञात किया ॥ ५० ॥
मिथ्यात्वं त्यज तन्वंगी संसारार्णव पातकम् । भन भव्य जनाभीष्टं सम्यवस्वं मुक्ति हेतुकम् ।। १ ।।
एक दिन कुमार समझाने लगा, हे तनुदरी, तुम मिध्यात्व का त्याग करो, यह मिथ्यात्य संसार रूपी सागर में डुबोने वाला है। सम्यग्दर्शन
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भव्य जीवों को मुक्ति दिलाने वाला है उसे स्वीकार कर सेवन करो समस्त अष्टों की सिद्धि कराने वाला है, तुम इसे धारण करो ॥८१॥
सम्मतिः ।
प्रदे देवता बुद्धिरगुरो गुरु प्रतस्वे तस्व संस्था च तथा वादी जिनेश्वरः ॥ ८२ ॥
प्रदेव में देव बुद्धि रखना, अर्थात् रागी द्वेषी को देव मानना, कुगुरु या प्रगुरु को गुरु मानना, प्रतत्त्व में तत्त्व श्रद्धा करना यह मिथ्यात्त्व है । ऐसा जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया ॥ ८२ ॥
सुभ्र विभ्रांत वेतस्का देहिनो देवता दिषु । वासयन्ति हि सप्तापि नरकारिण निरन्तरम् ॥ ८३ ॥
संसार में जो प्राणि देवता आदि के विषय में इस प्रकार भ्रान्त चित्त हैं अर्थात् विपरीत मानता रखते हैं, वे निरन्तर सात नरकों के पात्र होते हैं, नरक पर्याय में जाते हैं ॥ ८३ ॥
लोकद्वयेऽपि यानीह सन्ति दुःखानि सुन्दरी । जायते भाजनं जन्तु स्तेषां मिथ्यात्व मोहितः ॥ ८४ ॥
हे सुन्दरी उभय लोक दह लोक और परलोक में जितने भी दुःख हैं विपत्ति हैं वे सर्व संकट प्राणियों को मिथ्यात्व के उदय से प्राप्त होते हैं ॥ ८४ ॥
मियात्व से मोहित जीव चारों गतियों के अपार दुखों के भाजन होते हैं ।
निःशेष दोष निर्मुक्तो मुक्ति कान्ता स्वयम्बरः । लोका लोको हलसानो देवोस्तीह जिनेश्वरः ।। ८५ ।।
हे प्रिय ! सुनो, जिनमें जन्म मरणादि दोष नहीं हैं, जो सम्पूर्ण दोषों से रहित हैं, अपने पूर्णज्ञान- केवलज्ञान द्वारा लोकालोक को युगपत देखते - जानते हैं एवं मुक्ति रमा के स्वयंबर मण्डप - समवशरण में विराजमान हैं, वे ही यथार्थ - सच्चे देव हैं ।। ८५ ।।
श्रम्ये ततो विशालाक्षी राग द्वेषादि कल्मषः । दूषिता न भक्त्याप्ताः कृतकृत्या विरागिणः ।। ८६ ।।
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हे कान्ते वीतराग सर्वज्ञ प्रभु के अतिरिक्त जो राग-द्वेष कल्मष से मलीमष हैं, गदा दण्डादि धारण किये हैं. रमा भी अर्द्धांगिनी है, जो राज्यविहीन है वे कभी भी देव नहीं होते हे विशाल नेत्रे तुम दृढतापूर्वक इसे समझो ।। ८६ ।।
तस्त्रिधा प्रतीहि देवानमधिदेवतम् । चराचर जगज्जन्तु कारुण्यं स्वामिनं जिनम् ॥ ८७ ॥
त्वं
हे वरानने ! मन वचन काय से देवाधिदेव प्ररहंत भगवान को देव समझो, वे समस्त तीन लोक के चराचर प्राणियों का कल्याण करने वाले करूणा निधान हैं, सबके स्वामी हैं, इस प्रकार दृढ प्रतीति करो ॥ ८७ ॥
धर्म स्तद्वचनाम्भोज निर्गतः सुगति प्रदः । यस्य मूलं समस्तार्थ साधिका करुणा मता ॥ ८८ ॥
उन्हीं के मुखारविन्द से निकला हुआ उत्तम धर्म है, सुगति को देने वाला है । इस धर्म का मूल दया कहा है । यह धर्म समस्त श्रर्थों का सफल साधक है ॥ ८८ ॥
कृतं किमपि पूर्खेन्दु वदने दयया समम् । विद्ध रसेन वा तात्र सर्व कल्याण
कारकम् ॥ ८६ ॥
जिस प्रकार रसायन के योग से तांबा भी कल्याण अर्थात् सुवर्ण हो जाता है उसी प्रकार जिन प्ररणीत धर्म-करुणामयी धर्म से हे पूर्णेन्दु वदने ( चन्द्रमुखी) सर्व कल्याण प्राप्त होते हैं । संसार में कुछ भी सार नहीं जो धर्म से प्राप्त न हो ॥ ८६ ॥
उद्देशाद्देवतादीनां कृतोऽपि प्राणिनां नरकाय गुडोन्मिश्रं विषं मारयते न
चत्रम् | किम् ।। ६० ।।
हे देवि ! सुनो, देवता आदि के उद्देश्य से किया हुआ प्राणिवध भी प्राणियों को नरक का कारण होता है । क्यों कि विष मिश्रित गुड क्या प्रारण नाशक नही होता ? प्राण घातक ही होता है । उसी प्रकार धर्म के नाम पर की गई हिंसा भी दारुण नरक यातना देने वाली होती है ॥ ६० ॥
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जायते येन येनेह हेतुनाऽसुमता हतिः । तत दर्जये बाले रवं येन स्थानिष्तुषो वृषः ॥ ११ ॥
हे बाले ! संसार में जिन जिन हेतुओं से जीवों का घात होता है उन-उन समस्त काररणों का त्याग करो जिससे तुम्हें निर्दोष अहिंसा धर्म को प्राप्ति हो । यही धर्म निर्दोष है ।। ६१ ।।
पत्र चामुत्र सौख्यानि भुञ्जते मानि देहिनः । कृपा कल्प लता तानि सूते सर्वाणि सेविता ॥२॥
तीनों लोकों में जीवों को जो भी सुख भोग मिलते हैं या हो सकते हैं उन समस्त सुखों को यह धर्म रूपी कल्पलता सेवकों को प्रदान करती है। अहिंसामयी धर्म से समस्त सांसारिक सुख उत्पन्न होते हैं ॥१२॥
विनायः सीप भातु न भू रंगुलरियम् । शक्याः सुमुखि संख्यातुन गुणाः करूणा श्रया: ।। ६३ ॥
हे प्रिय, कदाच मुविस्तृत गगन को एवं भूमि-मण्डल को अंगुलियों से मापा जा सकता है किन्तु करुणा के पाश्रय से प्रसूत मुरखों की गणना करना अशक्य है । अभिप्राय यह है कि क्वचिद कदाचित असीम प्रकाश भू को माप कर ससीम किया जा सके परन्तु अहिंसामयी धर्म के निमित्त से उत्पन्न गुणों की गणना करना शक्य नहीं है ।। ६३ ।।
करभोर परित्यज्य प्राणि त्राणं न विद्यते । धर्मः शर्मकरः प्रोक्ताः न च सोन्मंजिनेन्द्रत: ॥१४॥
हे दीर्घ उरु ! संसार में प्रारिण रक्षा से बढ़कर शान्ति देने वाला कोई भी अन्य धर्म नहीं है। इस धर्म का प्रतिपादन जिनेन्द्र देव के सिवाय अन्य किसी ने भी नहीं किया ।। ६४ ॥
नानानुष्ठान युक्तापि नादया शस्यते किया। कामिनीव धृताशेष भूषणा कुलटा फिल ।। ६५ ।।
कितने जप तप व्रत नियमादि अनुष्ठान क्यों न हों यदि दया रहित हैं तो प्रशंसनीय नहीं हो सकते । क्या कुलटा नारी पलिब्रता कामिनी के समान वेशभूषा धारण कर गोभा पा सकती है ? कभी नहीं । उसी प्रकार जीव दया विहीन व्रतादि अनुष्ठानों का कोई महत्व नहीं ।। ६५ ।।
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श्रतः जितेन्द्र देव ही सच्चे देव हैं और उनके द्वारा प्रणीत अहिंसा
धर्म ही उपादेय-ग्राह्य है ।
भव भोग शरीराला प्रसारत्वं सत्यज्य ऋण बरुलक्ष्मी नेग्रन्थ्य व्रस
विबुद्धयये । माश्रिताः ।। ६६ ।।
इसी प्रकार सच्चे गुरु वे ही हैं जो संसार शरीर और भोगों से सर्वथा विरक्त हैं, इनके प्रसार स्वभाव को जानकर जिन्होंने सर्वथा ममत्व का त्याग कर दिया है। सम्यक् प्रकार करण के समान लक्ष्मी का परित्याग कर दिया एवं निर्ग्रन्थ भेष धारण किया है ।। ६६ ।।
प्राणात्ययेऽपि नो येषा जोव हिसा बचो नृतं । चुरा रामा रिरंसा वा जिघृक्षा हृदि जायते ।। ६७ ।।
जिनके स्वप्न में भी, प्रारण नाश होने पर भी हिंसाभाव, असत्य वचम, परवस्तु ग्रहण चोरी, मैथुन भाव हृदय में नहीं होता वे ही महाव्रती परम गुरु हैं । अर्थात् अहिंसा, सत्य, श्रीचर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रतों का सतत पालन करने वाले दिगम्बर मुनिराज हो सद्गुरु हैं ।। ६७ ।।
लाभा लाभारि मित्रेषु लोष्ठ काञ्चनयो रपि । समभावाः सुखे दुःखे निस्पृहाः स्वतनावपि ॥ ६८ ॥
जो लाभ-लाभ, शत्रु-मित्र, पाषाण- सुव, सुख-दुःख में समभाव धारण करते हैं। अपने शरीर में भी ममत्व नहीं करते वे यथार्थ गुरु हैं ॥ ६८ ॥
अनेक जन्म संभूतं पाप पङ्क शरीरिभिः । यत् पाद पद्म सतोष सेवा क्षात्यते क्षणात् ॥ ६६ ॥
जिनके पादपङ्कज रूपी तीर्थ के सेवन करने से प्राणियों के अनेक जन्मों में संचित पाप पङ्क क्षणभर में बुल जाती है ॥ ६६ ॥
भुञ्जते पाणि परत्रेण शेरते भुवि भासते । वनादौ विधि यद्ध संध्यानेनाध्ययनेन च ।। १०० ।।
वे द्विविध परिग्रह त्यागी गुरुदेव, पाणि पात्र में आहार भोजन-पान
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करते हैं, शुद्ध भूमि पर शयन करते हैं, चनादि निर्जन प्रदेश में निवास करते हैं, सतत ध्यान और अध्ययन में बद्धचित रहते हैं ।। १०० ॥
सम्यक
येकरालंबनं संसारार्णव मज्मतां । जगतां जात रूपास्ते गुरवो गजगामिनि ।। १०१ ॥
जो संसार सागर में डूबते प्राणियों को सम्यक् करावलम्बन देते हैं, संसार में जातरूप धारो महा साधु हो सच्चे गुरु हैं । हे गजगामिनी । उन्हीं की उपासना करा, सेना-भक्ति करो ॥ १०१ ॥
काम क्रोध मदोन्माव मोहात्या विषयाधिकाः । यान्तो नयन्ति भक्तां स्तु गुरुवस्वेना पयेहि ।। १०२ ।।
इन श्री गुरुषों के पद कमलों में नमन करने से काम, क्रोध, मद, उन्माद, मोह, विषय मूर्च्छा आदि नष्ट हो जाते हैं। जो भक्तिपूर्वक परम सद्गुरुत्रों को उपासना करता है वह उन्हीं के समान, काम कोपादि से रहित हो गुरणशाली हो जाता है इसीलिए उन्हें "गुरु" इस सायंक नाम से सम्बोधित किया जाता है। कहा भी है जो शिष्यों के दोषों को निगल जाय-पत्रा जाय वह गुरु कहलाता है ॥ १०२ ॥
मनस्थिनि ।
sपि सौख्यानां भाजनं भविता सदा ॥ १०३ ॥
देव धर्म गुरुनित्थं मन्यमाना
लोक
हे मनस्विन ! जो इस प्रकार देव, धर्म और गुरु को यथार्थ समझता है, उन्हीं में भक्ति श्रद्धा रखता है वह इस लोक और परलोक दोनों ही लोकों में सदा समस्त सुखों का भाजन होता है ।। १०३ ।।
निबन्धनमिदं सर्व वृत्तानां दर्शनं प्रिये । विनतेन बिमूलः स्यात् समस्त नियमद्रुमः ॥
१०४ ॥
ये समस्त लक्षण जो तुम्हें कहे सम्यग्दशन के कारण हैं । हे प्रिये इस प्रकार को श्रद्धा बिना किये गये सकल यम नियम निर्मूल हैं । यम नियम पादप हैं तो सम्यक्त्व उसकी जड । जिस प्रकार जड के बिना वृक्ष का अस्तित्व संभव है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन रहित ज्ञान-चारित्र निरर्थक हैं ।। १०४ ॥
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विशेषतस्तु नातव्यं मदिरा मांस माक्षिकम् । अनन्त जीव संहारकारि पापेक साक्षिकम् ॥ १०५।।
हे प्रिय ! तीन मकार-मदिरा, मांस और मधु का सर्वथा त्याग करना चाहिए अर्थात् प्राणान्त होने पर भी इनको नहीं खाना चाहिए। ये अनन्त जीवों के पिण्ड होने से उनके नाश के कारण प्रत्यक्ष हैं। एक मात्र पाप के मूल हैं । पाप वर्द्धक हैं ॥ १०५ ।।
जोव योनि समुत्थानं फलानामपि पञ्चकम् । मुञ्च भुक्ति निशायाश्च वरैतानि ब्रतानि च ॥ १०६ ।।
पाँच उदम्बर फल जीव योनि के उत्पत्ति स्थान हैं। प्रस्तु बड, पिप्पलफल, ऊमर, कठूमर और पाकर फल (अंजीर) का सर्वथा त्याग करो-भक्षण नहीं करने का सट ग्रहण करो। साथ ही रात्रि भक्ति का भी त्याग करो। ये श्रावक के चिन्ह हैं । रात्रि भोजन से अहिंसा व्रत का नाश होता है, दया धर्म भ्रष्ट होता है पापास्रय होता है । प्रस्तु, रात्रि में कभी भी चारों प्रकार का माहार नहीं करना चाहिए । इस प्रकार तुम श्रद्धा से इन व्रतों का प्राचरण करो।। १०६॥
जीव घासा नसस्तेय पुरूषान्तर सेवनम् । परिग्रह ममान स्यन राशीष लोधने ।। १०७ ॥
हे कमल नयनी ! हिंसा, झूठ, चोरी, परपुरुष सेवन (प्रश्नह्न) का त्याग करो । परिग्रह संचय की अनावश्यक प्राकांक्षा का त्याग-प्रत धारण करो। ये पांच अणुव्रत अमूल्य रत्न हैं इनकी रक्षा सावधानी से करनी चाहिए ।। १०७॥
पात्रं सर्व शियां पात्र दान भोगीप भोगगाम । संख्यामसंख्य दुर्भाव मेदिनी धेहि मानसे ॥ १०८ ॥
सर्व प्रकार के भोगों-पभोगों की प्राप्ति के कारण भूत उत्तम पात्र दान को प्रतिदिन करो। भोगी-पभोग प्रमाण भी करो। दान पसंख्य दुर्भावों का भेदन करने वाला है । लोभ का नाशक है ऐसा मन में निश्चय करो।। १०८ ॥
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सर्व संगं परित्यज्य संस्मृत्य गुरु पञ्चकम 1 प्राराधना विधानेन प्रान्ते प्राणोभनं मतम् ॥ १०६ ॥
इस प्रकार व्रतों का पालन कर अन्त काल में सकल वाह्य आभ्यन्तर चौबीस प्रकार के परिग्रह का त्याग कर पंच परमेष्ठी का श्राराधन - स्मरण करते हुए विधिवत् सल्लेखना पूर्वक प्राण छोडना चाहिए। इसे प्राराधना व्रत कहते हैं ।। १०६ ॥
दिग्देश नियमं दुष्टा नथं वण्डोञ्झनं कुरु । सामायिक हताघौघं प्रोबधं दुःख नाशकम् ॥ ११० ॥
इन पाँच व्रतों के समान अन्य तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रत हैं । जीवन्त पर्यन्त दशों दिशाओं में गमनागमन की सोमा करना दिग्नत है । काल की मर्यादा कर दिनत में संकोच करना प्रर्थात कुछ समय के लिए प्रतिदिन आने-जाने का नियम करना देशव्रत है । प्रयोजनीय श्रनुपयोगी व्यर्थ के कार्यों का त्याग करना मनर्थदण्डव्रत है । इन तीनों दिग्व्रतों को भी धारण करो । प्रनन्त पाप समूह का घातक सामायिक शिक्षा व्रत स्वीकार करो, सम्पूर्ण दुःखों का नाशक प्रोषध या प्रोषधोप वास करना चाहिए ।। ११० ।।
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द्वादश व्रतम् ।
एतेषु गुण शिक्षाथा नियमा पञ्च त्रयश्च चत्वारो गृहस्थानां जिनोदिताः ।। १११ ।।
इस प्रकार इसमें पांच प्रणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारह व्रत श्रावकों को जिनेन्द्र भगवान ने उपदिष्ट किये हैं । अर्थात् १२ व्रतों का पालक ही श्रावक कहलाता है | १११ ॥
गुरुणां वचनायेते त्तवा वादी मया पश्चात दापयिष्यामि विशेषा
प्रिये ।
गुरु सन्निधौ ॥ ११२ ॥
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हे प्रिय गुरुदेव के वचनानुसार मैंने तुम्हें ये व्रत बतलाये । इस समय इन्हें धारण करो बाद में गुरु साक्षी में उनके सान्निध्य में विशेष रूप से धारण कराऊँगा ।। ११२ ।।
इत्यादि सा कुमारेण जिनधर्म विशुद्ध षोः ।
ग्राहिता सापि जग्राह तं तथेति त्रिषा तथा ।। ११३ ।।
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इस प्रकार विशुद्ध मुनि कुमार ने जि- धर्मपानी पत्नी-राजकुमारी को समझाया । उसने भी परम प्रीति से "इसी प्रकार है" कह कर त्रिकरण शुद्धि पूर्वक धारण किये ।। ११३ ॥
इत्थं तथा निखिल सौख्य निधान घाश्या । धन्यः समं कुतुक कोप कुता स्तरायम् ।। सोल्यं स निविशति यावदितः कृतार्थ । स्तावच्चचाल सकलो वणिजा समूहः ।। ११४ ।।
इस प्रकार सम्पूर्ण सुख के निधान धर्म के धारक ही धन्य हैं । निरन्तराय वे दोनों अनुपम सुख अनुभव करने लगे। भाग्य से सर्व सम्पदा माता के समान सेवा करती है। इधर यह बड़भागी धर्म पुरुषार्ष पूर्वक पञ्चेन्द्रिय जन्य भोगों का अनुभव कर रहा था कि उसी समय' सार्थवाह वरिणक् जनों ने प्रस्थान की घोषणा की। चल पड़े ॥ ११४।।
ज्ञात्वापि तेन भरिणतो नपतिः सहेतु । लोकः प्रयालि सकसोऽपि मम स्वचेशाम् ।। मां प्रेषयेति वचनेन नुपः स दुःख । स्तम्मै समयं तनयो स परिच्दा ताम् ॥ ११५ ।।
कुमार को भी यह समाचार ज्ञात हुआ। उसने राजा से प्रार्थना की कि "मेरे साथी वरिपक जन-समूह अपने देश को वापिस जा रहे हैं अतः मुझे भी भेजिये अर्थात् जाने की प्राज्ञा दीजिये" । कुमार की कामना सुनकर राजा को अतीव दुःख हुआ तो भी लोक पद्धति के अनुसार उसे अनुमति प्रदान की। अपनी सुन्दर पुत्री को उसे समर्पण की । नाना पदार्थ एवं परिकर के साथ उन्हें विदा किया ।। ११५ ॥
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षट् त्रिशस्ति भुवि यस्य सुबरा कोट्यामूल्यं । तवस्य फिल काठविभूषणं च ।। वत्त्वा नपेण बहुधा पसनावि जात । मालिङय साश्रु नयनेन ततो विमुक्तः ॥ ११६ ।।
छत्तीस करोड़ दीनार जिसका मूल्य है । ऐसे सुन्दर हार से पुत्री का कण्ठ शोभित किया । अर्थात् संसार में अनुपम हाय उसे पहनाया। अन्य
[ ६६
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नाना वस्त्रालङ्कार दिये । स्नेह पूरित हृदय से पुत्री का श्रालिङ्गन किया । प्रभुविगलित नयनों से किसी प्रकार विदा दी ।। ११६ ॥
प्रयोश्च
रत्नः पुरेण च
राज्य
प्रापृच्छ सूपति प्रापत्तरं
परिवार जनः समग्र ।
कृताप चितिः
कुमारः ॥
सर्व
पुरस्सर
लोकम् ।
जल निधेः स्वजनानिव ॥ ११७ ॥
राज परिवार के अन्य जन प्रेम भरे उन्हें विदा करने को साथ-साथ चले । कुछ जन राजा की आज्ञा ले सागर तट पर श्राये । हमारे रहनसंचयपुर को त्याग कर सूना कर कुमार जा रहे हैं । इस प्रकार प्रीतिभरे जन-समूह समन्वित हो गया ११७ ॥
माङ्गल्यं सकल विद्याथ विधिनात्यानं पाचकम् । पूर्णेच्छ शुभ बासरे सह जर्नस्ते सार्थं वरहाविभिः ॥ आठो धन बद्धकेतु निकरं पोतं सपुण्ये जवात् ।
मुक्ताः सोऽपि चचाल वारिधि जले मन्वानिल प्रेरितः ।। ११८ ।।
१०० ]
समस्त माङ्गल्य विधि सम्पन्न हुयी । नाना आशीर्वाद साधुवाद एवं स्नेह मिलन के बाद कुमार ने याचकों को इच्छित वस्तु प्रदान कीं । शुभ दिन में अपने सार्थवाह साथियों के साथ जहाज में सप्रिया प्रारूढ़ हुआ। उस पोत के शिखर पर सुन्दर ध्वजा फहराने लगी। देखते ही देखते मन्द मन्द पवन से प्रेरित यान सागर की लहरों के साथ भागे बढ़ने लगा ।। ११८ ॥
इति श्रीमद् भगवद् गुणभद्र स्वामी विरचित श्री जिनदत्त चरित्र का चतुर्थ सर्ग समाप्त हुआ ।
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ग
( पञ्चम-सर्ग )
श्रय ते यान्ति पश्यन्तो यान पात्रेण वारिधिम् । क्वचित्वेत्र लता विद्ध द्वारं भूमिभूतामिव ॥ १ ॥
नौका बढ रही है । सागर का जल उछल रहा है। वे यात्री यान पात्रों द्वारा समुद्र की शोभा देखते हुए जा रहे हैं। कहीं-कहीं प्रचुर देवाल समूह नेपलाके समान प्रतीत होता था । उछलता जल भूधर सा मालूम पडता ॥ १ ॥
न्यायोपेत नरेन्द्राभं क्वचित् समकरं क्वचित् । तिमिराजित मत्यर्थं मुनीनामिव मानसम् ॥ २ ॥
तो कहीं समरूप होकर न्यायी राजा की शोभा को धारण कर रहा था | कहीं अंधकार का भेदन कर मुनिराज के मानस समान स्वच्छ प्रतीत हो रहा था ॥ २॥
अनेकान्तमिवात्यन्स
बहुभंगो समाकुलम् । स मुक्ताहार मन्यत्र कान्ता स्तन तोपमम् ॥ ३ ॥
नाना तरंगों के उत्थान पतन से अनेकान्त सिद्धान्त का प्रतिपादन कर रहा हो ऐसा प्रतीत हो रहा था। अर्थात् अनेकान्त सिद्धान्त मुख्य गौरा कर वस्तु तत्त्व को यथार्थ प्रतिपादन करता है या प्रतिपादक की विवक्षा व प्रविवक्षानुसार वस्तु में रहने वाले अनेक धर्मों में से किसी को मुख्य और किसी धर्म को गौरा कर प्रतिपादन करता है । उसी प्रकार यह सागर भी ज्वार भाटे फेन, बबूले शादि द्वारा नाना स्वभावों को यथाक्रम से प्रदर्शित कर रहा था। कहीं जल करणों का समूह रत्नहार मोतियों की माला सा जान पडता तो कहीं कान्ता के स्तनरूपी तट सा दिखलाई पडता ॥ ३ ॥
मधः स्थित महा मूल्य माणिक्यं शंखकादिकम् दर्शयन्तं वहिर्भीत्या कृपणं बाधिनां पवचित् ॥ ४ ॥
जल के मध्यस्तल भाग में प्रसंख्य रत्न, महा मूल्यवान माणिक्य शङ्ख प्रादि भरे पड़े थे । वह उन्हें कृपण के समान कभी-कभी बाहर दिखला रहा था । प्रभिप्राय यह है कि जिस प्रकार कोई कंजूस व्यक्ति । १०१
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अपने अपरिमित धन को छिपा कर रखता है उसी प्रकार सागर भी अमल्य रत्नों को अपनी कोड में छुपाये था। भयभीत सा यदा कदा उन्हें दर्शा रहा हो, ऐसा जान पड़ता था ।। ४ ।।
निर्माया गिरा स्थाणि मई जनं दाचित । कपूरादि ब्रुमस्पर्शी सुगन्धायास मास्तम ॥ ५ ॥
कभी निर्यापक ध्वनि पाती, कभी उत्सुक करने वाला श्वर सुनायो देता । उधर वायु के मन्द-मन्द झोंकों से कपूर आदि वृक्षों से स्पर्शित सुगन्ध पाने लगी । अर्थात् शीतल सुरभित अगर तगर, कपूर चन्दनादि पादपों का स्पर्श कर पवन अनन्दमय सुरभि विखेरने लगी ।। ५॥
एवं यापद मृत्तावत सार्थवाहः स्मरातुरः । जिनदत्त प्रिया रूपं समालोक्य समाकुलम् ॥ ६ ॥
ज्यों-ज्यों यान बढ़ता जाता, चारों ओर भनोखा दृश्य दिखलाई देता। इस प्रकार का उन्मादक वातावरण कामियों को उत्तेजित करने लगा उसी समय सार्थवाह की दृष्टि जिनदत्त की रमणी पर जा पड़ी। क्या था नयनपात मात्र से वह उसके रूप- लावण्य पर मुग्ध हो गया। स्मर वेग से उसे पाने को मातुर हो उठा ।। ६ ।।
भोजनं शयनं पानं वचनं कार्य चिन्तनम । तन्मुखाम्भोज सक्तस्य सकले ज्वलनायितम् ॥ ७ ॥
कामबाण से बिंध सार्थवाह श्रीमती के मुखाब्ज पर प्राशक्त हो सब सघ-बघ भुल गया । उसे भोजन पान, शयन, वार्तालाप करना, कुछ भी कार्य विचारना अग्नि ज्वाला की दाह के समान पीड़ा कारक हो गये । अर्थात् समस्त दैनिक क्रियाएं कष्ट दायक हो गयीं। किसी भी कार्य में उसे शान्ति या चैन नहीं पड़ता 1 लगता मानों चारों ओर धनञ्जय ही प्रज्वलित हो रही है ।। ७ ।।
समोरयन्ति कामाग्निं वेला वन समोरणा: । तस्य तां ध्याय मानस्थ शून्यस्येव दिवानिशम ।। ८ ।।
वह रात-दिन उसी का ध्यान करने लगा। उसकी कामाग्नि को सागर की शीतल वायु-वेलावन को सुगन्धी भरा पवन मौर अधिक से १०२ ]
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अधिक दहकाने का काम कर रहा था। उसे सर्वत्र उसका प्रभाव शून्यता का प्रामास दिखाने लगा ॥ ८ ॥
दृष्टं सहस्रशो रूपं प्रबलानां मया भुवि । तदस्याश्चरणा गुष्ठं लावण्येनापि नो समम् ।। ६ ।।
कि कर्त्तव्यविमूढ़ सा विचारने लगा, "मैंने संसार में हजारों एक से एक बढ़कर सुन्दरियों को देखा है किन्तु उन सबका रूप इस परम नयनाभिराम रमणी के पैर के अंगूठे की शोभा के समान भी नहीं है ॥ ६ ॥ ॥
धन्यः स एव संसारे सालसायत बलिया वीक्षते विश्व सुभगं यमीयं
लोखना । स्वयम् ।। १० ।।
वस्तुतः संसार में वही पुरुष धन्य है जो अलसाये नेत्रों से इस सुभम नारी रत्न का अवलोकन करता है, गलबाहें डालकर स्वयं इसकी रूपराशि का उपभोग करता है" || १० !
ममेयं केनोपायेन जायेत
यश
वर्तनी |
अगवानन्व दामिनी जीवितथ्य फलं लघु ॥ ११ ॥
आगे विचारता है "किस उपाय से यह जगत को प्रानन्द देने वाली मेरे वश में हो सकती है ? इसके वश में होने पर मेरा जीवन शीघ्र ही फलवत होगा अन्यथा निस्सार जीवन से भी क्या प्रयोजन ? ॥। ११ ॥
श्रथवा विद्यते यावत् कुमारो वीर सत्तमः । ताववस्याः सुखालोकं न कृतं भुख पङ्कजम् ॥ १२ ॥
अथवा यह विचार ही व्यर्थ हैं क्योंकि यह कुमार महान है, वीर और नरोत्तम है इसके जीते जी यह मेरे वश कदापि नहीं हो सकती । इसके रहते इस नारी रत्न के श्राननपज का सुखावलोकन नहीं हो सकता | अतः इस कांटे को निकालना होगा ॥ १२ ॥
निक्षिप्य तं वुशलोकं क्रूर न का कुले जले । निश्चितं मानयिष्यामि संसार सुख मेतया ॥। १३ ।।
हाँ, इसे बिना किसी के जाने चुपके से क्रूर नरकों से भरे सागर के जल में दूर फेंक कर निश्चिन्त हो इसके साथ संसार सार सुख का अनुभव करूंगा, अपने को सुखी मानूंगा" ।। १३ ।।
[ १०.३
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चिन्तयित्वेति तेनोक्ताः कुमारावपरे जनाः । कार्य किमपि भाण्डादौ युष्माभिः पतितेन हि ॥ १४ ॥
इस प्रकार सोच कर कृत निश्चय हुआ । उसी समय कुमार के यतिरिक्त अन्य जनों को बुलाया और आदेश दिया कि शीघ्र ही भाण्डादि को समुद्र में डालो कुछ विशेष कार्य है ।। १४॥
विभिद्येति समस्यां एतत् क्षितिम पारि उदासीनेषु सर्वेषु कुमारोऽबत तार सः ।। १५ ।।
भयातुर हो सबने कुछ-कुछ पानी में फेंकना शुरू किया। सबको खिन्न और उदासीन देख कुमार सागर में क्या है, ज्ञात करने को
उतरा ।। १५ ।।
ततशिन्ना
वस्त्रातं वेगतो गतवान सौ |
यथागाध जले पोतो वाहित श्च क्षणात् ॥ १६ ॥
उसी क्षरण उन लोगों के द्वारा जहाज छोड़ दिया गया और कुमार अगाध सागर तरंगों में जा हिलोरे लेने लगा। लंगर कट गया, यान चल पड़ा कुमार प्रथाह जल में क्रीड़ा करने लगा ।। १६ ।।
कुमार पात संज्ञात शोक शकुताहृदि । अजलाश्रु प्रवाहेण प्लावित स्तन मण्डला ॥ १७॥
कुमार उत्ताल तरंगों की क्रोष्ठ में जा छुपा यह ज्ञात होते ही कुमारी का हृदय अंकुश से छिन हो गया। मानों उसके उर को वस्त्र ने भेवन कर दिया । नयनों से अविरल प्रश्रुधारा बह चली ! ॥ १७ ॥
1
सा कि कर्त्तव्यता मूढा यावत्तिष्ठति सुन्दरी । तावदम्येत्य सावादी सार्थ वाहेन दुःखिता ॥ १८ ॥
इधर यह कि कर्त्तव्यविमूढ़ सी होकर बैठ गई, क्या करूँ क्या नहीं, कुछ भी सूझ नहीं रही, हतप्रभ सी रह गई उसी समय वह लंपटी सार्थवाह वहाँ प्रा धमका और असफल प्रयास करता बोला ॥ १८ ॥
शशाङ्क मुखी माकार्षीः शोकं संताप कारणम् । सर्वाः सर्व प्रकारेख तवाशाः पूरयाम्यहम् ।। १६ ।।
१०४ ]
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"हे चन्द्रमुखी ! संताप कारक शोक मत करो। तुम्हारी जो भी इच्छा, कामनाएँ हैं, मैं उन सबको सर्व प्रकार से पूर्ण करूंगा ।। १६ ।।
मयि तिष्ठति तन्यति त्वदावेश विधायिनि । प्रायसव समग क न निषो !
हे तन्वंगि ! मेरे रहते तुम्हें क्या कष्ट है, मैं तुम्हारे मादेश का अनुयायी हूँ। सभी अर्थों का विधायक तुम्हारी प्राज्ञा की प्रतीक्षा करता हूँ फिर व्यर्थ क्यों व्यथित होती हो ॥ २०॥
अम्बराणि विचित्राणि भूषणानि यथाषि। प्रहाण मद्गृहे सर्व स्वामित्वं च शुमे कुरु ।। २१॥
नाना चित्र विचित्र वस्त्र और अनेक प्रकार के प्राभूषण मेरे घर में भरे पड़े हैं उन सबको ग्रहण करो, और हे शुभे स्वामित्व स्वीकार करो। प्रर्यात् घर मालिकिनी बन कर सब पर प्राज्ञा चलाभो मेरी गृहणी बनों ।। २१ ।।
भकश्य भोगान मया साम बाले वाञ्छति रेकता। सम्पन्न सर्व सामग्यं सफली कुरु यौवनम् ॥ २२ ॥
हे बाले मेरे साथ मनोवाञ्छित भोगों को भोगो, समन सामग्री से सम्पन्न कर अपने यौवन को सफल करो। क्योंकि भोग्य योग्य प्रशेष सामग्री मेरे पास है॥२२॥
प्रतएव मया मुग्धे जिनश्त्तः प्रपञ्चतः। पयोनिधो परिक्षिप्तस्त्व संगहित चेतसा ॥ २३ ॥
हे मुग्धे ! तुम जिनदत्त का स्नेह छोड़ो, मैंने तुम्हारे सुख सौभाग्य के लिए उसे प्रपञ्च रचकर अगाध सागर में डाल दिया है । तुम्हारे संगम की लालसा से ही मैंने यह कार्य किया है ।। २३॥
प्रतः कान्ते गता शडा सविलासं समं मया । रत सौख्यं भजाजन्म सर्व बाधा विजितम् ।। २४ ॥
प्रतएव हे सुकान्ते, शोक का त्याग कर प्रानन्द पूर्वक मेरे साथ रतिक्रीड़ा करो, निशंक होमो, विलास पूर्वक प्राजन्म निर्बाध रति सुखानुभव करो॥ २४ ॥
[ १०५
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तनिशम्य मराधीश सुतया विधुतं शिरः । चिन्तितञ्च क्षतेनेन कोणः क्षारोति दुःसहः ।। २५ ॥
इस प्रकार उसे श्रेष्ठी-सार्थवाह ने अनेकों मधुर किन्तु कुत्सित वचनों से फुसलाने का असफल प्रयास किया । जिसे सुनते ही राजपुत्री का मन अधीर हो गया वह माथा धुनने लगी और सोचने लगी मोह इसने न केवल मुझे अत-विक्षत ही किया है, अपितु क्षार जल सींच कर दुस्सह पाया यातना पत्र में पाया है ।। २५ ।।
कृत्याकृत्यम विज्ञाय कामान्धेन कथं था। नीलोत्पलरलैः कष्टं कुकूलं किल कल्पितम् ॥ २६ ॥
कर्तव्याकर्तव्य विवेक शून्य इस कामान्ध दुराचारी ने व्यर्थ ही मुझे प्रापद ग्रस्त किया है। सुन्दर कोमल नीलकमल के पत्तों द्वारा कष्ट कारक कुकूल समान कष्ट कल्पित किया है । अर्थात् जो कुमुद जिनदत्त रूपी चन्द्र दर्शन से विकसित होते थे क्या उसके छप जाने पर प्रफुल्ल रह सकते हैं ? कभी नहीं। यह महा अविवेकी है । मैं कुमुदनी और मेरे प्रिय पतिदेव चन्द्र थे। भला उनके वियोग में यह मुझे सुखी करना चाहता है ये कैसे सम्भव हो सकता है ? नहीं हो सकता है ।। २६ ।।
जिनदत्त निशानाथं कुर्वतो मे तिरोहितम् । केन वा होपिशाचस्य मुखमेतस्य दृश्यते ।। २७ ।।
मेरे पतिदेव रूप राकापति (चन्द्र) को इस दुष्ट ते तिरोहित कर दिया, मेरे नयनों से दूर किया । किस प्रकार इस पिशाच का मुख देखें । प्रर्थात् यह साक्षात् पिशाच राक्षस प्रतीत हो रहा है ।। २७ ।।
अथवा सर्व पापानामहमेव निबन्धनम् । मा पासक्त चिसन यदनेन स माशित: ।। २८ ।।
अथवा न जाने वह किसके मुख का ग्रास बना होगा। पुनः वह विचार करती है इन समस्त दुष्कमो का हेतू-निमित्त मैं ही हूँ क्योंकि मेरे इस रूप लावण्य पर भासक्त होकर ही इसने मेरे प्राणनाथ का जीवन हरग किया है ।। २८ ।।
सायित्वा हि बिह्वां वत्त्वोत्फालं जलेथवा। प्रसि पुत्रिकया हत्वा किमारमा नमहं म्रिये ॥ २६ ॥
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इस भाषण जलधि में प्राणनाय का जीवन रह नहीं सकता, क्योंकि अनेकों दुष्ट पक्षियों ने अपनी ती चोंचों द्वारा उन्हें सच कर दिया होगा, अथवा जल-जन्तुनों ने भक्षण कर लिया होगा या जल में ऊब-डूब कर प्राण त्याग दिया होगा ? हाय अब मैं क्या करूँ ! मेरे जीवन से क्या प्रयोजन ? अब मुझे मरण ही शरण है, (कुछ सोचकर) हाँ यही अच्छा होगा कि तलवार से घात कर मैं मर जाऊँ ? नहीं "यह योग्य नहीं" मानों उसके हृदय से एक अज्ञात ध्वनि हुयी ।। २६ ॥
अथवा धिगिर्म तेन धर्मज्ञेम निवारिता। आत्मघातं बिलम्बे वा मा कदाचित्तवागमः ॥ ३० ।। शोलं पालयतां सम्यक् स्थिराणामिह वाञ्छितं । भयोपि संभवत्येव सीतादीनामिव ध्र वम् ॥ ३१ ॥
इस तरह चिन्तातुर वह कमनीय कान्ता प्रात्मघात का विचार कर ही रही थी कि उसे अपने पतिदेव द्वारा उपदिष्ट सद्धर्मबोध जापत हो कहने लगा, धिक्कार है इस कुत्सित नोच विचार को। उन धर्मज्ञ पतिदेव ने कहा था जिनागम में प्रात्मघात सबसे बड़ा पाप है। उसे लगा जैसे अन्तध्वनि पा रही है। कोई धर्मशील सत्पुरुष उसे निबारण कर रहा है, हे देवि खोटा विचार छोड शीलरल का सम्यक प्रकार पालन कर, यह शीलवत सकल मनोवाञ्छित्तों का प्रदाता है । सीता महासती ग्रादि सतियों के समान तुम्हें भी पुनः पति संयोग की शुभ बेला प्राप्त हो सकती है । यह ध्रुव अटल सत्य है कि धर्म सबका रक्षक निष्कारण बन्धु है । अतः हताश नहीं होना चाहिए ॥ ३०-३१ ॥
"मानों उसकी तन्द्रा टूटी, निद्रा से जागी, आत्म-सत्त्व उद्बद्ध हुआ । वह पूर्ण दृढ़ता से सोचने लगी वस्तुतः मेरे पतिदेव ने मुझे सम्यक्त्व ग्रहण कराया है मैं उसे नहीं छोड़ सकती, आत्मघात मिथ्यात्व है, इसे कभी नहीं करूंगी 1 शीलवत का पालन करते हुए जीवन यापन करूंगी। किन्तु इस समय मैं पूर्ण असहाय एकाफी हूँ | यह कामान्ध राक्षस मेरे धर्म रत्न को चुराने पर उतारू है। इस दशा में क्या उपाय करूं ? किस प्रकार बच्चू ? कौन सहायी होगा ? इत्यादि तर्कणानों में झूलने लगी । सोच-विचार कर उसने निम्न प्रकार निर्णय लिया--
विधामि तयेतस्य कामात्तं स्याशु बञ्चमम् । भावि भद्रं प्रिय प्राप्तावन्यथा स्यात्तपोयने ।। ३२ ।।
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इस समय मैं शीघ्र ही इस कामविह्वल को वञ्चना से वश करती हूँ । इस लुब्धक को ठगने में दोष नहीं। इसे आश्वासन देकर शान्त करना चाहिए। यदि निकट भविष्य में प्रिय पतिदेव का समागम मिल गया तो ठीक है अन्यथा तपोवन की शरण ग्रहण करूँगी प्रर्थात् प्राथिका व्रत धारण कर, जीवन साधना द्वारा इस स्त्रीपर्याय का ही उन्मूलन करूँगी ।। ३२ ।।
संभाव्येति तयाभारिण सूक्त
वज्र श्रृंखल तुल्यन्तु वाचा
मेतत्तवोदितम् । बन्धन मस्तिते ॥ ३३ ॥
।
तो भी प्रथम इसे समझाती हूँ। इस प्रकार संभावना कर वह प्रार्तनाद करती बोली, आपकी सूक्तियाँ सत्य है तो भी मेरे लिए बज्रश्रृंखला की भांति बन्धन स्वरूप ही हैं अर्थात् प्रापके वचन मुझे वज्र की सांकल के समान पीड़ा कारक हैं। किन्तु तुम्हें भी ये पाप बन्धन में जकड़ने वाले हैं। पर नारी पर कुदृष्टि डालने पर संकट रूपी वज्रपात होता है ।। ३३ ।।
प्रवसुरोयं तवेद्युक्त
त्वस्पुत्रेण पुरो मम । प्रतोति तात तुझ्याय रन्तु मे जायते घृा ।। ३४ ।।
आप मेरे श्वसुर के समान हैं। भापके पुत्र ने मेरे सामने श्रापको पिता कहा था इस दृष्टि से मेरे भी पिता हो, पिता तुल्य आपके साथ रमण करने में मुझे घृणा होती है ।। ३४ ।।
प्रतिपन्नं न मुञ्चन्ति प्राण त्यागेऽपि सन्नशः । यथा सागर एवायं मर्यादां विजहाति किम् ॥
३५ ॥
सत्पुरुष प्राणन्तेपि न्याय नीति का श्रीचित्य का त्याग नहीं करते । क्या रत्नाकर कभी अपनी मर्यादा सीमा का उल्लंघन करता है ? ॥ ३५ ॥
स्वकुले विमले सम्यक् हेयायी विजानता । सम्पर्करण परस्त्रीणां कलङ्कः क्रियते
कथम् ॥ ३६ ॥
फिर आप अपने निर्मल कुल में प्रसूत हैं, सम्यक् प्रकार हेय और उपादेय के ज्ञाता हैं, अर्थात् क्या करने योग्य है और क्या नहीं इसे प्राप भलीभांति जानते हैं तो भी परनारी के सम्पर्क से उस उज्ज्वल कुल को क्यों कलङ्कित कर रहे हैं ? ।। ३६ ।।
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मा
मकर्त्तव्ये कथं चित्त मीदृशे भजतां मम । उत्साहं ताशे जन्म स्मरन्त्याः स्थ कुले धुना ॥ ३७ ॥
मैं श्रेष्ठ कुल प्रसूत, इस प्रकार के प्रकरणीय - अनुचित कार्य को भला किस प्रकार कर सकती हूँ । उच्चकुलीन महिला का चित्त नीच कार्य में उत्साहित नहीं होता। इस समय मैं अपनी मर्यादा का स्मरण कर इस घृणित कार्य को किस प्रकार कर सकती हूँ भला ॥ ३७ ॥
सार्थवाहस्तदाकर्ण्य लामुवाच मनस्थिति । जानाम्येव तथाप्युच्च ममिभि द्रवति स्मरः ।। ३८ ।।
इस प्रकार युक्ति युक्त, नीति वाक्य सुनकर वह मोहान्ध सार्थवाह विवेक होन कहने लगा 'हे मनस्विनि' आपका कथन सर्वथा सत्य है । मैं इसे सम्यक् प्रकार जानता हूं फिर भी यह दुर्वार काम मुझे अतिशय पीड़ा दे रहा है ॥ ३८ ॥
मामयं मोहयामास तथा कामो यथा शुभे । लज्जा यशो विवेकाद्याः स्पृश्यन्ते मनसा न मे ॥ ३६ ॥
हे शुभे इस समय यह कामज्वर का वेग इतनी तीव्रता प्राप्त कर चुका है कि इससे अभिभूत मेरे मन को, लज्जा, यश, विवेक आदि स्पर्श भी नहीं कर सकते हैं। मैं मोहान्ध हो चुका हूं ॥ ३६ ॥
कन्दर्प सर्प वष्टस्य मूच्र्छतो मे मुहुर्मुहुः । समस्तोपाय मुस्तस्य वीयतां सुरता मृतम् ।। ४० ।।
हे कल्याण, कदर्प रूपी भुजंग से डसा मैं बार-बार उस विष से मूच्छित हो रहा हूँ । इस मूर्च्छा के शमन का एक मात्र उपाय तुम्हारे ही पास है । अत: प्रतिशीघ्र सुरतामृत-रति रूपी अमृत प्रदान कर मुझे इस पीडा से मुक्त करो। तुम्हारा प्रेम रस ही मेरा जीवन उपाय है ।। ४० ।।
एकान्तेन न चाकार्य मेतत्तव श्रूयते हि पुरागंषु श्रुतौ खेव
तनुवरी । सहस्रशः ॥ ४१ ॥
फिर हे तनुदरी - हे कृशोदरी सुनो ! प्राप जो कह रही हो वह
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एकान्त रूप से सत्य भी नहीं है क्योंकि एकान्त से प्रकार्य होता तो श्रुति पुराणों में ये कथानक किस प्रकार मिलते । हजारों उपाख्यान इस प्रकार के उपलब्ध होते हैं ।। ४१ ।।
द्रौपदी मुदिता भ्रात पञ्चकं जगमुत्तमम् । तातादि विदिता चके कृतार्थ काम के लिभिः ॥ ४२ ॥
सुनो मैं तुम्हें उदाहरण सुनाता हूँ "द्रौपदी अपने जेठ देवर पांचों उत्तम भाईयों पर मुग्ध हुयी पञ्च भारी कहलायी। वह सभी के साथ स्नेह से काम लीला में रत हुयी । पाँचों को रति प्रदान कर कृतार्थ किया ।। ४२ ॥
समस्त स्मृति शास्त्रज्ञो नरामर नमस्कृतः । भारद्वाज तपासातो नैव कि भ्रात जायया ।। ४३ ।।
भारद्वाज तपस्वी, समस्त शास्त्र और स्मृतियों का ज्ञाता था, मनुष्य क्या देवों से भी नमस्करणीय था तो भी अपनी भौजाई पर प्रासक्त हो गया । क्या तुम नहीं जानती ? ॥ ४३ ।।
स्त्रियं वा पुरुषं वापि स्वयमेव समागतम् । भजते यो न तस्यास्ति ब्रह्महत्या निशंसयम् ।। ४४ ।।
जो स्त्री या पुरुष स्वयं प्राये हुए पुरुष या स्त्री का सेवन नहीं करता वह निश्चय ही ब्रह्महत्या पाप का भाजन होता है । अर्थात पुरुष के सामने स्त्री और स्त्री के समक्ष कोई भी पुरुष प्राकर भोग भिक्षा याचना करे तो उसे अस्वीकार नहीं करना चाहिए क्यों कि उसके साथ भोग न करने से उसे ब्रह्मघात का पाप लगता है इसमें संशय नहीं है ।। ४४ ।।
तयावाचि महायुद्ध वक्त मेवं न युज्यते । शस्यते नहि केनापि स्नुषा श्वसुर सङ्गमः ॥ ४५ ॥
इस प्रकार के अधर्म युक्त पाप कारी सेठ के बचनों को सुनकर वह . पतिव्रता, परम धैर्य से कहने लगी। हे बुद्धिमन्, प्रापको ये वचन कहना युक्तियुक्त नहीं हैं, शोभनीय या उचित नहीं हैं पुत्रवधू श्वसुर के साथ सङ्गम करे यह किसी के द्वारा भी प्रशंसनीय-मान्य नहीं हो सकता ॥ ४५ ॥
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द्रौपद्याद्या महासत्याः विषयान्धेन केनापि
पवित्रोकृत ពន្ធ ត
भूतलाः ।
कृतमन्यथा ।। ४६
द्रौपदी आदि महासतियाँ थीं उनके शीलधर्म के प्रभाव से समस्त जगतित पावन हो गया, उन्होंने अपने निर्दोष पतिव्रत धर्म से भूमण्डल को मण्डित किया था । किन्हीं विषयान्ध पुरूषों ने इस प्रकार का विपरीत कथन किया है । महासती भला पञ्चभतरी कसे हो सकती है ? यह सर्वथा सत्य है ।। ४६ ।।
भारद्वाजादि दृष्टान्ताः प्रभा न हि भवावृषा दुराचाराः पुराध्यासन्न
ते । किंनराः ।। ४७ ।।
रही बात भारद्वाज आदि की ये भी कोई प्रमाणित नहीं हैं क्यों कि पहले भी आपके जैसे दुराचारी क्या नहीं थे ? ऐसे ही नरों में से यह भी होगा कोई || ४७ ॥
पोडशोऽपि न चाकृत्यं यत्किञ्चिदेव किं सिंहः
।
स्वयमेवागते त्यादि युक्त यदि सुभाषितम् । पारदारिक लोकस्य शिरच्छेदादिकं
कृतम् ।। ४८ ।।
आपने कहा कि स्वयं प्राये पुरुष का सेवन करना दोष युक्त नहीं यह भी किसी प्रकार से मान्य नहीं क्यों कि इसके विरोधी सुभाषित हैं कि परदार सेवी का शिरच्छेद किया जाना चाहिए। अन्य भी योग्य दण्ड देना उचित है ॥ ४८ ॥
कुरुते जातु सात्विकः । क्षषाक्षीखोपि खावति ।। ४६ ।।
हे तात् ! थाप सत्पुरुष है, सज्जन व्यथित-पीडित होने पर भी अनुचितकार्य को नहीं करता क्या कभी सिंह क्षुधा से क्षीण होने पर भी चाहे जो खाता है क्या ? नहीं ।। ४६ ।।
भिन्दन्ति हृवयं यस्य कटाक्षे रभिसारिका । तमी
पेक्ष मुञ्चन्ति लोक द्वितय सम्पदः ।। ५० ।।
जिस पुरुष का हृदय परस्त्री-व्यभिचारिणी के कटाक्ष वाणों से विद्ध होता है उसे उभय लोक की सम्पदा ईर्ष्या से त्याग देती है ।
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स्त्रियों में स्वाभाविक असूया होती है-सपत्नी अन्य सपत्नी को सहन नहीं कर सकती। इसी कारण मानों परदार सेवी को लक्ष्मी रूपी नारी तिरस्कृत कर छोड़ देती है ।।५।।
अन्यस्त्री भ्र धनुर्मुक्ता कटाक्ष शर पंक्तिभिः । न शोल फवचं भिन्नं येषां तेभ्यो नमो नमः ।। ५१।।
संसार में वे पुरुष पूज्य होते हैं जिनके हृदय परनारी द्वारा विमुक्त कटाक्ष रूपी बाणों से विद्ध नहीं होता है । वासना रूपी कटाक्ष वारणों से जिनका शील रूपी कवच भेदित हो जाता है वे पुरुष संसार में अपकीति के पात्र होते हैं। जो अपने शील रत्न का रक्षण करते हैं वे पूज्य और मान्य होते हैं ।। ५१ ॥
मालिन्यं स्व कुले येन जायते दूष्यते यशः। तत्कृत्यं क्रियते केन स्वस्य सौख्य समोहया ॥ ५२ ।।
परनारी सेवन द्वारा स्व कुल मलिन होता है, यश अपयश रूप हो जाता है, भला कौन है जिसके हित के लिए यह कार्य हुमा है ? अर्थात् परनारी सेवन से कभी भी सुख नहीं हो सकता ॥ ५२ ।।
कलत्र संग्रह: पुसा सतां सन्तान बद्धये। तत्रवान्ये समासज्य नरके निपतन्ति हि ।। ५३ ॥
सज्जन संतान-परम्परा वृद्धि के लिए कलत्र-पत्नी रूप में स्त्री को स्वीकार करते हैं उसमें भी यदि (उसमें भी) प्रत्यासक्ति रखते हैं तो नियम से नरक में पड़ते हैं। फिर पराई स्त्री सेवी की क्या-कथा ? आप इस पाप से अपनी रक्षा करो ।। ५३ ।।
सन्तोन्यव नितां वीक्ष्य प्रयान्या नत मस्तकाः । वृषभास्तीयवोन्मुक्त नोरधारा हता इव ॥ ५४ ॥
जो दुर्जन अन्य वनिता को देखकर, चापलूसी करता है, नत मस्तक होता है, उसकी विनय करता है वह धर्मरूपी क्षीर से उन्मुक्त हो-छोड़कर जलधारा के प्रवाह से पाहत के समान होता है ।। ५४ ॥
प्रकामिता ल कामेपि फलो न्यस्य यन्नरणाम । महायसमिदं नाम न परस्पादि धारणम ।। ५५ ।।
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यदि स्त्री चाहती भी हो तो उसे भी नहीं चाहना पुरुष के लिए उत्तम है महावत समान है। न कि परस्त्री प्रादि को धारण करना ? प्रतः परनारी नरक दुःख का द्वार हे ॥ ५५ ।।
रामामम्बा मिवान्यस्य कचारमिव काञ्चनम् । पश्यन्ति ये जगत्तेषामशेष गाहते यशः ॥ ५६ ॥
जी महापुरुष पराई वनिता को न्याय के समान समझता है और पर धन-कञ्चन को कचार के समान देखता है, उसके शुभ्र निर्मल यश से संसार व्याप्त हो जाता है।॥ ५६ ।।
पाताल बन्ध भूलोपि मेरू: स्खलति कहिधित् । प्रारणात्ययेऽपि दुर्वत सतीनां न पुनमनः ।। ५७ ।।
पाताल के मूल-जड़ को कदाचित बांधा जा सकता है, मेरू पर्वत सम्भतः कदाच चलायमान हो जाये, किन्तु सतियों-साध्वियों का मन प्राणान्त होने पर भी दुवति-नीच कार्य में रत नहीं हो सकता ॥५७ ।।
नान्यं जातुनियेहं परिस्पज्य निजं पतिम् । चन्द्रमन्तरिते सूर्ये पश्यत्यपि न पगिनी ।। ५८ ।।
परम शीलवती नारी अपने पतिदेव को छोड़कर अन्य पुरुष का सेवन कभी नहीं कर सकती। क्या सूर्य से प्राच्छादित चन्द्रमा के होने पर भी कुमुदनी रवि का स्वागत करती है, प्रफुल्ल होती है क्या ? नहीं। सूर्योदय होने से चन्द्र तिरोहित हो जाता है उसके साथ ही कुमुदनी भी मुरझा जाती है । चन्द्रोदय होने पर ही विहँसती है । उसके प्रभाव में सूर्य से प्रीति नहीं करती।। ५८ ॥
शेष शोर्षभरिणमध्ये सिंहामा केसरस्छटा । केनाऽपि स्पृश्यते क्यापि सतीनां न पुनस्तनुः ॥ ५६ ॥
नाग के मस्तक में गरुडमरिण रहती है, सिंह के शरीर पर केशर छटा होती है ये किसी के द्वारा स्पर्शित नहीं होती अर्थात् क्या कभी किसी ने इनका स्पर्श किया है ? नहीं किया। उसी प्रकार सती महिला का शरीर पर पुरुष द्वारा कभी भी स्पर्शित नहीं हो सकता ।। ५६ ।।
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अतः शुद्ध मनः सम्यक् स्वं विधेहि महामते । गोषयन्तीति सा तेन श्रेष्ठिना भगिता पुन: ।। ६० ।।
अतः हे महामते ! बुद्धिमन ! अपने मन को शुद्ध करो, भले प्रकार मन से कानुष्य को निकाला, पति नारी के प्रति दस दुष्ट विचार को छोड़ो। इस प्रकार उस महासती ने इसे सम्बोधित किया किन्तु उस काली कमरिया पर कुछ भी असर नहीं पड़ा, वह मोहा-ध उसी धुन में उसे कहने लगा ।। ६०॥
पाषाए हृदया जाने सत्यं त्वं बाल पण्डिता। निदाक्षिण्यतया स्माकं संतापायव निमिता ॥ ६१॥
प्रोह, तुम सचमुच बाल पण्डिता हो, पाषाण हृदया हो ऐसा मुझे प्रतीत होता है । तुम्हारी चतुराई, दाक्षिण्य सम्भवतः हमारे संताप के लिए ही निर्मित हुआ है ।। ६१।।
बहिहल्लासि लावण्यं प्रसन्नानन बन्नमाः । अन्तर्दष्टासि दुबद्ध विष बालोव किं वृथा ॥ ६२ ।।
बाह्य में तुम्हारा लावण्य उल्लास भरा है, प्रसन्न मानन चन्द्रमा ही है किन्तु हे दुर्बुद्ध ! क्यों अंतस को वृथा ही अहिवत् दंश रही हो। विषवल्ली समान व्यर्थ ही प्रारण संहार करती हो ।। ६२ ।।
त्वं विधेहि पयाभीष्टं संङ्गरोयं पुनर्मम । त्वन्मुखालोकनादन्यत करिष्यामि न किञ्चन ।। ६३ ।।
शीघ्र ही तुम मेरे अभीष्ट की सिद्धि करो, तुम्हारे साथ मेरा संगम हो यही तुम्हें करना चाहिए । तुम्हारे मुखाब्ज अवलोकन के अतिरिक्त मै अन्य क्या करूँगा ? अर्थात् प्रापका मुखपंकज निहारने के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं करूंगा ।। ६३ ।।
परमेवं विध प्रेमासक्तः सर्वजनप्रियः । भक्तरप दिन देवानां प्राणान् प्रोन्झामिते पुरः ।। ६४ ॥
तुम्हीं मेरे प्रेम की पुतली हो, सर्व जनप्रिय तुम्हारा ही प्रसाद है, भक्ति और आराधना का फल क्या मैं अपने प्राणों को भी प्रभी मापके सामने विसर्जित कर दूंगा ।। ६४ ॥ ११४ ]
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निबन्धं तस्य त ज्ञात्वा समुवाच नपास्मजा। यद्याग्रह सस्पूच्चैः पृण ( शलपारि ।। ६५ ।।
श्रेष्ठी का इस प्रकार कठोर दुराग्रह देखकर, श्रीमती राजकुमारी सावधान होकर, निर्भय इस प्रकार बोली, यदि आपका ऐसा दृढ़ संकल्प है, महान कदाग्रह है तो ठीक है किन्तु में जो कुछ कहती हूँ उसे ध्यान से सुनिये और तदनुसार करिये ॥ ६५ ॥
तापत प्रतीक्षतां मास षटकं कान्तस्य कारये । नाम्ना तस्यैव कृत्यानि यावत् पश्चात् स्वदौहतम् ॥ ६६ ॥
मैं छ: महीने पर्यन्त पतिदेव की प्रतीक्षा करूगी और उन्हीं के नाम से क्रियाकाण्डादि भी करती रहेंगी। यदि इस अवधि में उनका समागम नहीं हुआ तो प्रापके अभिप्रायानुसार चलना मुझे स्वीकृत है ।। ६६ ॥
पतोऽधुना परित्यज्य भवन्तंगत भस का । बिना वाच्य तयाशक्ता नेतु जन्म किमेकका ।। ६७ ॥
प्रतएव इस समय प्रापके बिना भलाप्रिय भर्ता के बिना मैं एकाकी जीवन यापन किस प्रकार कर सकूँगी ।। ६७ ।।
युस्तायुक्त विचारशी भवानेव हि भूतले। प्रसस्वतचनादेवं कर्तव्यं मम का अतिः ॥ ६ ॥
फिर संसार में युक्त और प्रयुक्त का विचार करने वाले प्रापही एक विशेषज्ञ हैं। फिर भला पापके वचनानुसार कार्य करने में मेरी क्या क्षति है ? प्रापका परामर्श ही मान्य है ।। ६८ ॥
एवं श्रुत्वा वदत् सोऽपि वीर्घ निश्वास्य सुन्दरी। एवमस्तु परं मूथान् विक्षेप: काल गोचरः ।। ६६ ॥ स्ववीयानन शीतान्शु स्वद्वाचामृत निझरैः । मन्द मम्मथ सन्ताप स्तपापि स्थितिमादधे ॥७॥
इस प्रकार राजसुता का कथन सुनकर यह दीर्घ निश्वास लेने लगा। किसी प्रकार बोला, हे सुन्दरी ! ऐसा ही करो, परन्तु पुनःकाल विक्षेप नहीं करना । मैं तुम्हारे मुखरूपी शीतान्शु-चन्द्रमा के निहारने से मौर
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तुम्हारे वचनरूपी शीतल अमिय झरने के जल से अभिसिंचित होकर ही जीवन धारण कर सकंगा, किस प्रकार मेरा कामदाह शान्त हो सकेगा। किस प्रकार स्थिति धारण कर सकूँगा॥ ६९-७० ।।
एवं कृते ततः प्राप्तं वासरे गणीतैस्तदम् । यान पात्रं परिज्ञाय तया प्रोक्ताजना निमाः ।। ७१ ॥
इस प्रकार निर्णय कर एक-एक दिन गिन कर निकालने लगा, धीरे-धीरे यान सागर के तट पर प्रा पहुँचा। तटस्थ पाये जहाज को देखकर नृपसुता ने अपने समस्त परिकर को बुलाया और कहा ।। ७१ ॥
उदत्त्यास्म्यहम घंव तीर द्रम तलेतसः ।। स्थास्थामीति के वक्तव्यं श्रेष्ठिनो यदि प्रच्छति ।। ७२ ।।
मैं अभी पानी के बाहर तट पर स्थित वृक्षों के समूह तले निवास करती हूँ। यदि श्रेष्ठी पूछे तो उसे कह देना कि मैं लता गुल्मों में रहूँगी॥७२॥
अथ से सोतसावागर्दै अमुलीला माल । प्रादाय प्राभृतं श्रेष्ठो जगाम च नृपान्तिकम् ॥ ७३ ॥
यह सुनते ही सर्वजन सोत्साह प्रमोद से वहाँ उत्तर पड़े। पड़ाव । डाल दिया । उधर श्रेष्ठी भी प्राभूत-भेंट लेकर उस नगरी के नृपति के पास जाने को उद्यत हुमा ।। ७३ ।।
तस्यास्तु रक्षका बसा श्रेण्ठिना यान लीलया । अपाकुलास्ते भवन्सापि स्वं जग्राहाखिलं जनम् ।। ७४ ॥ समाशृत्य परिचारा स्नाम व्याजेन सा ततः। विनिर्गता लघु प्राप सार्थ चम्पापुरागतम् ॥ ७५ ॥
श्रेष्ठी ने उसे क्रीड़ार्थ साथी दिये एवं यानादि के संरक्षक दिये । सभी उसकी अवस्था से चिन्तित ५। उसी समय वह उन शेष लोगों से कहने लगी। माप यहीं विश्राम करें में स्नान करने जा रही हैं। इस प्रकार स्नान का बहाना कर वह दूर चली गई वे लोग भी आश्वस्त हो बैठ गये । बस, क्या था वह अवसर पाकर नगर में-चम्पापुरी में प्रविष्ट हो गई। ७४-७५ ।।
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उक्त वृत्ता प्रधानेन तत्राग्राहि सुता मम । भरिणश्या भवतीत्येवं नि: शङ्का गच्छ पुत्रिके ।। ७६ ।।
चम्पानगरी में प्रवेश करते ही उसे उसके प्रधान रक्षक से भेंट हयी । बहुत सज्जन और धर्मात्मा था। उस प्रालित राजपूत्री ने अपना अशेष वृत्तान्त उसे सुनाया। सुनकर प्रधान ने कहा, तुम मेरी पुत्री हो। शंका मत करो, निर्भय हो अन्दर प्रवेश करो। ७६ ।।
प्राप्ता चकमतश्चम्पोद्यान मानन्द वायकम् । तत्राशितया जैनं सन पद्मानिकेतनम् ॥ ७७ ॥
नगर में प्रवेश कर कुछ चलने पर प्रानन्द दायक रमणीक फल पुष्प पत्र से प्रपूरित उद्यान प्राप्त हुना। वहाँ उसने एक विशाल शोभनीय, निकेतन-जिनालय देखा। जो ध्वजा पद्यादि का निकेतन था ।। ७७ ।।
प्रविशन्तो छ तत्रासौ निशखा शब्द पूर्वकम् । वटा विमलमत्या च वासी सेवक संयुता ॥७८ ॥
परमालाद और भक्ति से नि: सहि नि: साह शब्द उच्चारण कर जिनालय में प्रवेश किया। बहाँ उसने "विमलमती" (जिनदत्त की प्रथम पत्नी) को दास-दासी सहित देखा ।। ७८ ।।
तत: कृस जिनाधोश संस्तवा वन्वितायिका। प्रासनावि विधि कृत्या विश्रान्ता वादि सावरम् ।। ७६ ।।
प्रथम ही उसने श्री जिनेन्द्र प्रभु की भक्ति, स्तुति कर दर्शन किये, पुनः जिनालयस्थ श्री १०५ मार्यिका संघ को वदामि किया। उचित प्रासनादि ग्रहण किया। तत्पश्चात् विमला देवी ने सखियों सहित पूछा ।। ७६॥
कुतः साध्वी समायाता सुन्दराधारकारिणि । क्षेमं . ते समस्तानां तातादीनां तथा शुमे ।। ८० ।।
तुम्हारी कुशल तो है ? हे सति ! कहाँ से पायो हो ? हे सुन्दराकार धारिणि ! आपके माता-पितादि क्षेम पूर्वक हैं न ? ॥ ८० ।।
विस्मिताभि स्सतस्ताभि बहुधा प्रतियोषिता । प्रवादीसखि विस्तीर्णा कथा मे दुःख दायिनी ॥१॥
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वे सभी प्रत्याश्चर्य से चकित हो रहीं थीं। क्योंकि एक सुन्दरी राजकुमारी का इस प्रकार एकाकी प्रागमन प्राश्चर्य का विषय ही था। उन्होंने बार-बार उसे प्रतिबोधित किया-स्नेहपूर्वक उसका वृत्तांत पूछा। यह भी उनके वात्सल्य से प्रभिभूत हो कहने लगी, देवियो, मेरी कथा बहुत ही दुःखप्रद है-करुण कथा है ॥ ८१ ॥
देहिनां स्नेह बढामा संतापोऽस्ति पदे पदे । पश्य स्नेहोज्झित कुंकुभ में हिंसापयत् ।। २ ।।
हे सुबुद्ध, संसार में स्नेह से जकड़े प्राणियों को पद-पद पर संताप उत्पन्न होता है। देखो, स्नेह चिकनाई से रहित कुंकुम भी ताप का कारण नहीं होता। अर्थात् कंकूम में तेल डालकर बिद् लगाने पर वह भी कष्ट से छुटती है अन्य की क्या कथा? प्रेमियों का प्रेम भी कब वियोग रूप में परिणित हो जाय इसे कौन जाने ॥१२॥
वळ शृखल बद्धानां मुक्ति रस्ति कयञ्चन । स्नेह पाश परोतालां बन्धनं च पदे पदे ॥३॥
जो व्यक्ति वज्र की शृखला से प्रापाद मस्तक बंधा है—जकड़ा है उसे तो कदाचन बन्धन रहित किया जा सकता है परन्तु स्नेह-मोहरूपी पाश से जकड़े मनुष्य को पग-पग पर बन्धन ही प्राप्त होता है ।। ६३ ।।
कषितानीह कर्माणि भव भ्रमण कारणम् । तेषां हेतु तया ख्यातो बन्ष एव शरीरिणाम् ।। ८४ ॥
मह मोह पास ही संसार भ्रमरण का कारण है, मोह से कर्म पाते हैं और कर्मों से संसार भ्रमरण होता है । इस प्रकार चक्र का हेतू यह बन्ध का कारण मोह ही है ॥ ८४ ॥
तस्यापि हेतवः सन्ति विषया विश्व मोहिमः । विमुक्ता स्तः परं सौख्यं भुञ्जते भोग निस्पृहाः ।। ८५॥
इस मोह जाल के भी हेतू-निमित्त है, संसारी मोही जीवों की विषय वासना । ये विषय जीवों को मुग्ध करने वाले हैं अर्थात् पर परिगति के कारण हैं। जो जीव इन विषय-कषायों से मुक्त होते हैं वे ही निस्पृही प्राणी धन्य पुरुष परम सुख के भोक्ता होते हैं ।। ६५ ।। ११८ ]
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प्रमादृशा सुमुह्यन्ति केवलं
विषयाशया ।
यथा मधुरया पूर्व मधु विग्धासि धारया ॥ ८६ ॥
हमारे समान प्रज्ञानी जीव इन विषयों में ही मुग्ध होते हैं। जिस प्रकार तलवार पर सहद-मधु लपेटने से वह मधुर हो जाती है पर चाटने वाले की जिह्वा च्छेदन कर उसे पीड़ित करती है तो भी विमूढ उसे ही चाटना चाहता है, उसी प्रकार हमारी भी दशा है ।। ८६ ।।
ववन्तीमिति तां दुःखभार भंगुर एवमाश्वासयामास विमलावि
मानसाम् । मतिस्तदा ॥ ८७ ॥
इस प्रकार दुःखाकुलित, विरह ताप से संतप्त हृदया वह कह रही थी । इसका मानस दुःखभार से क्षार-क्षार हो रहा था। उसकी इस दशा को देखकर विमलामति आदि ने प्राश्वासन दिया एवं तत्त्वबुद्धि पूर्वक समझाने लगी ।। ८७ ।।
यथा येरजितं पूर्व दुःखं वा यदि वा सुखम् । मिरोद्ध प्रसरस्तस्य शरपि न शक्यते ।। ८८ ।।
हे बहिन जीव जैसा शुभ या अशुभ कर्म उपार्जित करता है उसे तदनुसार सुख व दुःख प्राप्त होता है। विपाक काल में प्राप्त कर्म फल के प्रसार को रोकने में इन्द्र भी समर्थ नहीं हो सकता है | ८८ ॥
पूर्व कर्मानुसारेण स्नेह द्वेषौ च सुन्दरि । जायेते तौ च बद्ध से विन्ध्यमानो दिवानिशम् ॥ ८ ॥
हे सुन्दरी ! पूर्वाजित कर्मानुसार ही राग-द्वेष उत्पन्न होता है अर्थात् मित्र और शत्रु जीव को मिलते हैं। उसी प्रकार अहर्निश चिन्तवन करने से ये राग-द्वेष, मैत्री - शत्रुता बढ़ते हैं ।। ८६ ।।
क्षणात् सुखं क्षरणात् दुःखं क्षणाद्दासः क्षरणात्पतिः । प्रनिष्टाभोष्टयोः सङ्ग वियोगों च अस्तावपि ॥ ६० ॥
यह संसार स्वयं क्षणभंगुर है। इसमें प्राप्त समस्त पदार्थ प्रतिक्षण परिणमन शील हैं । इसीलिए एक क्षण में सुख माता है दूसरे ही समय दुःख र घमकता है, किसी क्षण में जीव राजा होता है तो वहीं कभी
में
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सेवक । कभी अनिष्ट का संयोग तो कभी इष्ट का वियोग समान रूप से बदल जाता है ।। ६० ।।
रूप लावण्य सौभाग्य भंगोयत्र मुहर्ततः। तत्रास्ति सखि कि क्यापि संसारे सुख संभवः ॥ १ ॥
हे सखी ! जिस संसार में रूप, लावण्य, सुख, सौभाग्यावि एक अन्तर्मुहूर्त में नष्ट हो जाता है उस लोक में भला सुख कहाँ सम्भव
। ।
भावा हर्ष विषावाझानि मेषमपि चक्षषः । विजित्य यत्र वर्तन्ते कुतस्तत्र भवेति: ।। ६२॥
हर्ष-विषादादि भाव जहाँ नेत्र की टिमकारमात्र समय में परिणमित हो जाते हैं-बदलते देखे जाते हैं वहां भला प्रीति किस प्रकार की जा सकती है ।। ६२ ॥
इदं होगतमं घात्र जन्म स्त्रीणां सुलोचने । सातावयोप्यहो यत्र परेभ्यः पालयन्ति ताः ॥ ६३ ।।
हे सुलोचने ! यह स्त्री पर्याय महा हीनतम है माता-पिता के अधीन पालित होता है पुनः वे भी अन्य के आश्रित कर देते हैं अर्थात् पाणिग्रहण संस्कार कर कन्या को वर के प्राधीन करते हैं ।। ६३ ॥
प्रवाप्य च महानर्थ कारिकि नव यौवनम । मोहिता रति सोल्येषु जायन्ते कान्त बीविताः ।। ६४ ॥
नारी जन्म मिला फिर नव यौवन का प्रादुर्भाव और भी दुःखदायी है क्योंकि इस मनर्थकारि रूप यौवन के कारण पति के जीवित रहते उसके साथ महा मोहविमूढ हो रति सौख्य में विमुग्ध हो जाती हैं अर्थात् विवेक हीन हो पात्म स्वरूप को भूल कर विषय भोगों में ही लीन हो जाती है ।।१४॥
वियोगे सति कान्तस्य सर्वसो म्लान मूर्तयः । अन्तः शुष्यन्ति सन्तापं रंभोजिन्यो हि में रिव ॥ १५ ॥ यदि पापोदय से पति वियोग हो गया तो सर्व प्रकार मलिन हो
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जाती है। जिस प्रकार हिमपात होने से कमलिनी म्लान हो जाती है, रवि वियोग से कमल पुरझा जाता है उसी प्रकार वियोगिनी पतिवियोग के संताप रूप दाह में शुष्क हो जाती है। हृदय में संतप्त होती रहती है ।। ६५ ।।
संजात रस भंडास्ता बहिर्वर्ण मनोहराः । मलकार विनिमुक्ताः सुनत्ता अपि शङ्किताः ।। ६६ ॥
वह वाह्य में मनोहर रहते हुए भी रस विहीन हो जाती है। अलङ्कार रहित होने पर भी, उत्तम चारित्र पालने पर भी लोगों के बारा शंकित दृष्टि से देखी आती है। अर्थात् पातिव्रत पालती हुयी भी शंका का विषय बन जाती है ।। ६६ ॥
जीवन्ति क्लेशतो नित्यं प्रसावादि गुणोझिता:। निरीक्षितापशवास्तु कृतयः कुकवे रिव ॥ ७ ॥
वह प्रसन्नतादि गुणों से विहीन होकर बड़ी कठिनता से क्लेशयुक्त जीवन को बिताती है । जो देखता है वही नाना अपशब्दों से सम्बोधित करता है जैसे कुकवियों की कृतियाँ-कविताएँ निन्दा की विषय बन जाती है ॥ ६७ ॥
हवमेव परं सर्व सम्पदा मास्पवं ध्र वम । शाशने यजिनेन्त्राणां भक्तिरेव शुभानने ।। ६८ ॥
हे सुमुखि ! इसलिए इस समय सर्वोत्तम यही है कि सम्पूर्ण सम्पदामों की स्थानभूत जिनेन्द्र भक्ति करो। निश्चय ही जिन शाशन भक्ति ही श्रेष्ठतम उपाय है क्लेश-संतापों को शान्ति के लिए ॥ ६ ॥
साधारणे च सर्वेषो सुख दु.खे तनुभृताम् । प्रतश्चित्त समाधानं कृत्वा भुक्ष्व पुराजितम् ।। ६६ ।।
सामान्य से जिनेन्द्र भगवान की भक्ति सभी मानवों को सुख दुःखादि सभी अवस्थामों में करनी चाहिए । अतः हे बुद्धिमति ! अब स्थिर चित्त हो समता से धैर्य पूर्वक पूर्वाजित कर्मों का भोग करो ॥ ६ ॥
इत्थं सम्बोधिता वादीत स्व वृत्तान्त मशेषतः। वयोवेष बाचेष्टाः सापि पप्रज्छसावरं ।। १००॥
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इस प्रकार वात्सल्य भरे मधुर शब्दों से सम्बोधित किया। तथा अपना भी प्रशेष चरित्र सुनाया तथा उसके पति की प्रायु, वेषभूषा, वचनालाप प्रणाली, चेष्टा मादि के विषय में आदर पूर्वक जानने की इच्छा प्रकट की। उसने भी सर्व अवस्थाएं स्पष्ट वर्णन की ।। १०० ।।
प्रक्रियता : कातो का बैग यति । अथवा घिगिमं दृष्ट संकल्पम शुभाशुभम् ॥ १०१ ॥
पति सम्बन्धी क्रिया कलापों-गुण धर्मो को सुनकर विमलामती भी विचार करने लगी "क्या मेरा भी पति वही हो सकता है ? मेरा पति होगा क्या" ? पुनः सोचती है छि, ऐसे प्रदृष्ट संकल्प-विकल्पों को धिक्कार है। क्यों शुभाशुभ विकल्पों को करू ? ॥ १०१॥
सत्यनेक यतो रूप चेष्टितः सदशा नराः । अन्यः कोपि तयाभूतो भवितायं महामनाः ॥१०२ ।।
संसार में अनेकों पुरुष समान गुरग धर्म, वय स्वभाव, रंगरूप वाले हैं। वह भी कोई महानुभाव मेरे पतिदेव सदृश गुण-गरिमा वाला होगा। मैं क्यों व्यर्थ तत्सम्बन्ध में अन्यथा कल्पना करू ? || १०२ ।।
तस्ये जगाव सा सर्व निज वत्त विचक्षणा । मूवा समान दु.खा च सस्नेहं समुवाचताम् ।। १०३ ।।
इस प्रकार विचार कर विमलामती ने भी अपना सकल वृत्तान्त सुनाया। दोनों समान दुखानुभव कर अन्योन्य के प्रति प्रीति भाजन हुयीं ॥ १०३ ॥
जिन धर्म रते नित्यं तपः स्वाध्याय तरपरे । कियन्तमपि तिष्ठावः काल भगिनि सकते ॥ १०४।।
तथा कहने लगी हे भगिनि ! नित्य ही जिन धर्म में रत होकर, तप स्वाध्याय में तल्लीन हो यहीं कुछ काल तक हम लोग रहें ॥ १०४।।
पश्चात् ज्ञात यथा वृत्तं सर्व दुःख विनाशनम् । करिष्यावो महा मोह मयनं तिर्मलं तपः ।।१०५ ॥
पश्चात् पतिदेव सम्बन्धी निश्चित वृत्तान्त ज्ञात कर, समस्त दुःख १२२ ]
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विनाशक महामोह मल्ल का मंथन करने वाले निर्मल सुतप को स्वीकार करेंगी ॥ १०५॥
प्रत्रान्तरे समाज्ञाय वार्ता तां वत्सलः सताम् । समाजगाम सत्रव श्रेष्ठी विमल संश कः ।। १०६ ।।
इसी बीच में विमल श्रेष्ठी को ज्ञात हुआ कि कोई शील शिरोमणि प्रज्ञात रमणी जिनालय में पधारी है। वह भी उसकी पुत्री के समान पति वियोग से दुःखित है। वह शीघ्र ही जिन मन्दिर में प्राया। उसका हृदय परम वात्सल्य से प्राप्लावित था। सहर्ष चैत्यालय में प्रवेश किया ।। १०६ ।।
ततः स्तुत्या जिनाषीशं निविष्टो निकटे तया। चक्रस्तुते समुत्थाय प्रणामं तस्य सावरम् ॥ १०७ ।।
उस जिनेन्दभक्त विमल श्रेष्ठी वे जिनेन्द्र प्रभु का दर्शन कर स्तुति की। नमस्कारादि कर पुत्री के निकट पाया और यथास्थान उसके पास बंठ गये । पुत्री ने भी उस प्रागत सखि के साथ उठकर पिता को उचित प्रादर से प्रणामादि किया ।। १०७ ॥
अभिनन्ध ततो प्राक्षीत कुशलं नप देहणाम् । स लज्जा लोकयामास भगिन्या वदनं च सा ।। १० ।।
राजकुमारी का अभिनन्दन कर श्रेष्ठी ने उसकी कुशलता पूछी। वह भी लज्जा से अपनी बहिन (विमला) का मुख देखने लगी ।।१०८ ॥
जाताकता च सा तातं बुद्ध त त त विस्तरम् । चकार मस्तक पुत्वा चिन्तयामास सोप्ययः ।। १०६ ।।
उसके अभिप्रायानुसार विमला ने बताया कि "ये मेरे पिताजी हैं" तथा अपने पिता को भी उस विपदापन्न राजकुमारी का वृत्तान्त सुनाया जिसे सुनकर सेठ शोकाभिभूत हो शिर धुनने लगा एवं विचारने लगा ॥ १०६ ।।
क्येदं त्रिभवनानन्वि वयो" स्याः शुभ सूचकम् । सर्वस्वं स्मर राजस्य · दशा धेयं कब दारूणा ॥ ११०॥
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ओह ! कहाँ तो यह तीनों लोकों को मोहने वाला अद्वितीय वययौवन है । सर्व को कामदेव से पीड़ित कराने वाला रूप है और कहाँ यह इसकी दारूण दशा है ॥ ११० ।।
तदिहैव विनिक्षिप्य व्यसने विधिना घुना। चकऽमृते कथं तत्र कालकूट विमित्ररणम् ॥ ११ ॥
हे भगवन ! यह क्या भाग्य की विडम्बना है, जो इस समय इस सुन्दरी को इस प्रकार की दारुण दशा में डाला है। मालूम होता है दुर्वार विधि ने अमृत में विष घोल दिया है । इस प्रकार क्यों किया यह समझ में नहीं पाता ।। १११ ।।
अथवा प्राकृतासात प्रबन्ध वश यत्तिनः । एवं हन्त प्रजायन्ते जन्तपो दुःख भागतम् ॥ ११२!।
अथवा पूजित असाता वेदनीय कर्म के उदय के वशवति हो इसे यह दुःख हुमा है। क्योंकि प्राणियों को निजार्जित कर्मानुसार व्याधि व्यसन पीड़ा सहन करना पड़ता है ॥ ११२॥
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उवाच च सुते शोक विमुच्य सकलं सुखम् । तिष्ठात्र धर्म तनिष्ठा भगिन्या सहितानया ॥ ११३ ॥
इस प्रकार कुछ सण विचार कर सेठ उससे बोला, हे पुत्रि! चिन्ता मत करो, शोक छोड़ो, हर प्रकार सुख से इस (विमला) अपनी बहिन के साथ धर्म सेवन करते हुए रहो । सर्व सुविधा यहाँ समझो। ११३ ।।
नूनं य एष नाथस्ते पतिरस्थाः स एव हि । केनाऽपि हेतुना ते सफला वां मनोरथाः ।। ११४ ।।
पुनः वह कहने लगा, निश्चय ही जो तुम्हारा पति है वही मेरी पुत्री का भी होना चाहिए किसी भी उपाय से प्राप लोगों का मनोरथ सिद्ध हो ॥ ११४॥
युषयो स्तस्य वात्राऽपि साकृति: शुभ दर्शने । यया भवन्ति निः शेष कल्याणानि निरन्तरम ॥ ११५॥
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हे शुभदर्शने ! तुम दोनों यहाँ वे ही शुभ त्रियाएँ करो जिमसे समस्त कल्याण निरन्तर प्राप्त होते हैं ।। ११५ ।।
प्रतो यावत् कुत्तोप्येति तस्योदातोदया वत्ति । तावत् प्रतीक्ष्यता भने सदनेऽप्रेम मयतः ।। ११६ ।।
अतः जब तक कहीं से भी किसी भी प्रकार प्रापके पति का वृत्तान्त प्राप्त न होवे तब तक श्राप यहीं इसी जिनालय में सुख से निवास करो ।। ११६ ॥
इत्थमाश्यास्यते श्रेष्ठी जगाम निज मन्दिरम । प्रोते परस्परं तत्र तिष्ठतस्ते यथा सुखम ॥ ११७ ।।
इस प्रकार शान्त्वना देकर सेठजी अपने घर चले गये । वे दोनों प्रीति पूर्वक-स्नेह से सुख पूर्वक वहाँ रहने लगीं ॥ ११७ ॥
जिनेन्द्र पूजा यतिदानं जन श्रुतान्यास ध्यया विमान शक्त। जितेन्द्रियेते जनताविलोक्य चकार धर्म बहुधा प्रयत्नं ।।११॥
ठीक ही है जो धर्मनिष्ठ, जितेन्द्रिय हैं उनके सम्पर्क में उन्हें देखकर धर्म में अनायास मन स्थिर हो जाता है। वे दोनों जिन पूजा, दान, स्वाध्याय, ध्यानादि पूर्वक जीवन यापन करने लगीं। यति दान और जिन पूजा आदि श्रावक धर्म हैं ।। ११८ ।।
भुक्तावली प्रति चित्र विधि प्रसक्त। सम्यक्रव मौक्तिक शुभा भरणाभिरामे ॥ तत्रस्पिते भव मुपागत कीर्ति लक्ष्मी । यत् प्रसन्न वबने मवनाति मुक्त ।। ११९ ।।
जिसके पास मुक्तावली प्रादि उपवास हैं, विधिवत् इन व्रतों को जो धारण करता है, सम्यक् दर्शन रूपी मरिणयों का शुभ सुन्दर आभरण जिसने धारण किया है, उसके पास संसार का यश और वैभव स्वयं
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प्राप्त होता है। इसी प्रकार काम-मदन बैग से रहित मनुष्य का मुख कमल प्रसन्नता से विकसित रहता है । अभिप्राय यह है कि काम विजयी उत्तम पुरुष या महिला का प्रानन (मुख) पङ्कज ब्रह्म तेज से देदीप्यमान प्रासुर होता है उसी प्रकार धर्मात्मा के पास कीति और लक्ष्मी घोभित होती है । संसार में वस्त्रालङ्कार से प्रलंकृत रमणी जैसे शोभायमान मानी जाती है परन्तु यह यथार्थ नहीं, जो व्रतोपवासादि रूप अलङ्कार और सम्यक्त्वरूपी मणिमाला धारण करता है वही वस्तुतः सुन्दर
इति श्री गुगभद्राचार्य विरचित जिनदत्त चरित्र में पांचवां सर्ग समाप्त हुमा।
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( षष्ठम्:--सर्ग ) . अथासो जिनक्त्तोऽपि निमज्य जयतो जले। गत पोतं प्रदेशं तम द्राक्षी स्थितस्ततः ॥ १ ॥
राजकुमारी अपने पुण्यानुसार, अपनी बुद्धिमत्ता से पुरुषार्थ धैर्य और धर्म का पालम्बन ले यथास्थान जा पहुँची। इधर जिनदत्त अगाध सागर में जा पड़ा । उसका क्या हाल हुमा यह ज्ञात करना आवश्यक है।
सेठ द्वारा धकेला जिनदत्त कुमार शीघ्र ही सागर को उत्ताल तरंगों में डूबने लगा। उसने देखा तट से यान जहाज जा चुके हैं । उसने किसी प्रकार दृष्टि उठायी और तट प्रदेश को सूना देखा ।। १ ।।
जायते महतां चित्त कोमलं नवनीतवत् । सम्पत्ती कठिनं चेदं विपत्तावश्म सन्निभम् ।। २ ।।
महा पुरुषों का मन अद्भुत होता है वह जिस प्रकार सम्पत्ति काल में सुख में मक्खन सा कोमल होता है उसी प्रकार विपत्ति में वन्न सा कठोर भी जाता है ।। २ ।।
संभाव्येति पयोराशि भुजाभ्यां भय बज्जितम् । तरोतु प्रारमेतेन किमसाध्यं मनस्विनाम् ॥ ३ ॥
इसी प्रकार महामना जिनदत्त ने पयोराशि असीम है देखा तो भी धेर्य पूर्वक निर्भय होकर दोनों हाथों से पार करना प्रारम्भ किया-तेरते लगा । ठीक ही है मनस्वियों के लिए संसार में क्या दुर्लभ है ? कुछ भी नहीं ॥ ३ ॥
प्राप्तञ्च तरता तेन पुरस्तात् फलकं तथा । मित्र मालम्बनं तेन गाढमालिङ्गितं च तत् ।। ४ ।।
कुछ क्षण तैरने के बाद उसने अपने सामने एक लकड़ी के फलक को प्राते हुए देखा, शीघ्र ही उछल कर उसे सच्चे मित्र के समान पकड़ कर छाती से चिपका लिया। जोर से पकड लिया ॥ ४ ॥
पादाभ्यां वापि कटचासो स्पृष्ठ बंशेन व क्वचित । उदरेण गता शङ्क तरति स्म निराकुलम् ॥ ५ ॥
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इस फलक का सहारा लेकर कभी पैरों से कभी भुजाओं से कभी छाती के बल से, कभी कमर की ओर से, कभी पीठ के सहारे से तथा कभी पेट के सहारे से निर्भय होकर निराकुलता से तैरने लगा । जिसके मन में धर्म और पञ्च नमस्कार मन्त्र है उसे भला भय कहाँ ? ॥ ५ ॥
यावत्तावत्पुरोदष्टं गगते प्राकृताकृति। पुरूष द्वितीयं तेन तत्रैकेन प्रजल्पितम् ।। ६ ॥
पान: शनै: विशाल उदधि को चीर कर तट पर पहुँचा ही था कि सहसा आकाश प्रांगण में विशाल काय दो पुरुषों को देखा। उनमें से एक बोला ।। ६ ।।
रे रे नकोच किं फर्म विहितं भवताना। येना स्मलितं बाधि पादाभ्यामवगाहसे ॥ ७ ॥
रे रे नर कीट तू कौन है ? तू ने यह क्या कार्य प्रारम्भ किया है ? हमारे सामने अाप इस उत्तम सागर को पैरों से रौंद रहे हैं ? ॥ ७ ॥
शक्रोऽप्यत्र जल क्रीडां कत्त माशते मम । दुरात्मन्नध कि पाति जीवन भवानित: ॥ ८ ॥
हे दुरात्मन् ! मेरे सामने यहाँ इन्द्र भी क्रीडा करने में भयभीत हो कांपता है फिर भला तेरा क्या साहस ? क्या प्राज तु जीवित रह सकता है यहाँ ? ।। ८ ।।
विप्रलब्धोसि केनाऽपि मन्द भाग्यतया घवा । मन्नाम है श्रुतं क्वापि येनैवं विचरस्यहो ।। ६ ।।
हे मन्द भाग्य क्या किसी के द्वारा तुम वंचित किये गये हो, या उन्मत्त हुए हो? क्या मेरा नाम नहीं सुना है ? जो इस प्रकार निर्भीक क्रीडा कर रहे हो ? ।। ६ ॥
निशम्येति करं कृत्वा दक्षिणं भरिकोपरि । वामं च फलके वत्त्वा प्रोवाचेति स मत्सरम् ॥ १०॥
इस प्रकार के उद्धत वचनों को सुनकर, जिनदत्त श्रमित होते हुए भी चौकन्ना हो उठा, दाहिना हाथ छुरि-कटार पर जा पहुँचा, बाये हाथ से फलक को पकडा । पौर बडे अहंकार से ललकारा ॥ १० ॥ १२८ ]
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शरन्मेघ
गलगजितम् ।
इय व्यर्थ कुरुषे टूर एव किमाश्वेहि जुहोमि वडवानले ॥। ११ ॥
अरे क्या व्यर्थ ही शरद् कालीन मेघों के समान कोरे गाल बजा रहे हो ? दूर हो से क्या गरजते हो ग्राश्रो मेरे सामने अभी बडवाग्नि में तुम्हारा होम करता हूँ ॥ ११ ॥
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श्राकाश गमनादेव मामस्थास्त्वं श्रात्मानमत्र यद्यान्ति पक्षिणोऽपि
महत्तमम् । भयाकुलाः ।। १२ ।।
मात्र आकाश में गमन करने से तू अपने को महान समझता है ? भयाकुल पक्षी भी आकाश में उड जाते हैं ? प्रर्थात् तुम पक्षी समान क्या इसका अभिमान करते हो ? ।। १२ ।।
शङ्कन्तां हन्त शकाचा भोग लालस मानसाः । ग्रहमस्मि पुनर्मल्लो मुञ्च शस्त्रमशंकितः
१३ ॥
यदि तुमसे शक्रादि- इन्द्रादि भीत होते होंगे, क्यों कि वे भोगों जो रहते हैं हूँ, तुम में शक्ति है तो निशंक होकर
शस्त्र चलाओ ।। १३ ।
प्रमाद्यतोऽपि सिंहस्य सिंहस्य कुरङ्गः क्वापि रे मूढ
केसरच्छटा ।
लुप्यते दृष्टं वेति श्रुतं त्वया ॥
१४ ॥
रे मूढ सिंह प्रमाद में भी पड़ा हो तो क्या हिरणों के द्वारा उसकी केशर छटा का हरण करते हुए कहीं तूने देखा या सुना है ? अर्थात् मैं यद्यपि बहुत थका हूँ तो भी क्या तेरे जैसे कार को परास्त करने में पूर्ण समर्थ नहीं हूँ ? श्रवश्य ही समर्थ हूँ । १४ ॥
श्रुत्वेति तं महासत्त्व शालिनं समुयाचसः । कोपंभुञ्च महावीर मथंवं त्वं परिक्षितः ।। १५ ।।
जिनदत्त के प्रोज भरे शब्दों को सुनते ही उस विद्याधर ने उसके बल - पराक्रम, और महत्त्व को समझ लिया । वह बड़े विनय से, शान्ति पूर्वक बोला हे महामते ! बुद्धिमन् ! प्रसन्न होइये, मेरे यथार्थ युक्तियुक्त वचन सुनिये ! कोम त्यागिये, मैंने मात्र प्रापकी परीक्षा की थी ।। १५ ।।
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प्रसीव
महा
श्रृण मद्वाक्यमपऊ मते । ययाति विजयार्द्धाद्रि दक्षिण श्रेणि मण्डले ।। १६ ।।
श्राप संतुष्ट होइये, प्रसन्न हो मेरे सारभूत, यथार्थ वचन सुनिये | हे महामते ! मैं जो कहता हूँ उसे श्रवरण करिये, "एक विजयार्द्ध पर्वत है उसकी दक्षिण श्रेणी में मण्डन स्वरूप राजधानी है ।। १६ ।।
अशोक श्रीः बगाषोशो रथनूपुर विजया कुक्षि संभूता श्रृंगारादि मतिः
पत्तने ।
सुताः ॥ १७ ॥
वहाँ रथनूपुर नाम का नगर है उसका राजा अशोक श्री है उसकी महादेवी विजया है। इसकी कुक्षि से प्रसूत श्रृंगारमती नामकी सुन्दर कन्या पुत्री है ॥ १७
तस्य सा सुकुमाराङ्गी प्राप्त यौवन विद्याधर कुमारेषु वरं नेच्छति
मण्डना । कञ्चन ।। १८ ।।
उस नृप की कुमारी इस समय पूर्ण यौवन को प्राप्त हो गई है, उसके अंग-अंग से लावण्य झलकता है, किन्तु वह किसी भी विद्याक्षर कुमार को वरन करना नहीं चाहती है अर्थात् विद्यावर राजाओं में से किसी के भी साथ विवाह करना नहीं चाहती ॥ १८ ॥
ज्योतिर्विदा समाविष्टं तदेवं यः पयोनिधौ । तरिष्यति भुजाभ्यां स वरीता तब बेहजाम् ।। १६ ।।
उसके पिता ने चिन्तित होकर श्रेष्ठ ज्योतिषियों से परामर्श किया। उन्होंने निर्णय दिया कि जो पुरुष भुजाओं से सागर को पार करेगा - तरेगा वही श्रापके कन्यारत्न का वर होगा ।। १६ ॥
तदर्थं प्रेषिता वा वां विद्याभू चक्रवत्तिना । वायुवेग महावेगौविद्याधर कुमार कौ ॥ २० ॥
इसी हेतु से उस विद्यावर चक्रवर्ती द्वारा हम दोनों को वायुवेग के समान गतिवाले समझ कर भेजा है। हम दोनों विद्याधर पुत्र हैं । महावेग से गमन करने में समर्थ है ।। २० ।
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ततः प्राप्तोसि पुण्येन विश्व कल्याण भाजनम् । नर रत्नं त्वमित्युक्त्वा तं चक्रे तदवसिनम् ।। २१ ।।
आज महा पुण्य से आप जैसे विश्वकल्याण भाजन सत्पुरुष को प्राप्त किया। वस्तुतः भाप नर रत्न हैं । महान् श्रेष्ठ एवं ज्येष्ठ हैं । आइये इस प्रकार मधुर-प्रिय वचनों से सम्बोधन कर उसे सागर तट पर आसीन किया ।। २१ ।।
נו
संस्नातो मधुराम्भोभि दिव्यवस्त्र विभूषितः । समारोप्य विमाने सौ ताभ्यां नीत स्ततिकम् ॥ २२ ॥
शीघ्र ही अमृत तुल्य शीतल जल से उसे स्नान कराया। अमूल्य वस्त्र धारण कराये, बहुविध मरिण जटित सुन्दर भ्राभरणों से अलंकृत किया । सस्नेह विमान में प्रारूढ कर विद्याधर राजा के पास ले आये । सच है पुण्य से क्या नहीं प्राप्त होता है, धर्म से कौनसा संकट नहीं कटता पुरुषार्थ से क्या नहीं मिलता ? "बुद्धिर्यस्य बलं तस्य " गुणश की गुरंग गरिमा के समक्ष सम्पूर्ण विघ्न पलायमान हो जाते हैं और सुख सम्पदाएँ अनायास प्राप्त हो जाती हैं ।। २२ ।।
रूपातिशय मालोक्य तस्यासौ दूरतो नृपः । नममौ हृदि हर्षेण विग्रहः रोमाञ्चन्ति ॥ २३ ॥
वसुपति कुमार को दूर से ही देखकर गद्गद् हो गया, हर्ष से सारा शरीर रोमाञ्चित हो उठा। उसकी रूप राशि का पान करने को लालायित हो उठा । प्रत्यन्त अनुराग भरे हृदय से उसका स्वागत किया, उसे नमन किया। अनुकूल - अभीष्ट सिद्धि होने पर किसे मानन्द नहीं होता ? होता ही है ।। २३ ।।
प्रचिन्तree fr साक्षात् कन्दर्पोय मुपागतम् । नान्यथैवं विधारूप कान्ति लावण्य सम्पनः ॥ २४ ॥
वह सोचने लगा क्या सचमुच यह साक्षात् कामदेव ही घरा पर मानव रूप धर कर प्राया है ? अन्यथा इस प्रकार रूप लावण्य और कान्ति किस प्रकार होती है ? ।। २४ ।।
अथवा सन्ति संसारे सौभाग्य कुल मन्दिरम् ।
ते केऽपि पुरतो येषां मनोभूरपि लज्जते ।। २५ ।।
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अथवा क्यों विकल्प करूं ? संसार में अनेकों भव्य-पुण्य पुरुष पहले हो चुके हैं जिनके सामने कामदेव भी लज्जा को प्राप्त हो जाता था। अथात् उन्हीं कुल-मन्दिरो मे यह भी एक मनोभुव का पराभव करने वाला है ।। २५ ।।
यथा चिन्तित एवायं वरो विद्याभृदुत्तमः । सब्ध: पुण्येन कन्याया: कुत्राप्यप्राकृताकृतिः ॥ २६ ।।
इस प्रकार विमर्ष कर वह सोचने लगा, मेरी कन्या अतिशय पुण्य शालिनी है, उसने अपने पुण्य से ही यह अद्भुत स्वाभाविक सौन्दर्य युत, विद्याभूषित, गुण मण्डित उत्तम वर प्राप्त किया है। आश्चर्य कारक है इसकी सौम्य प्राकृति ।। २६ ॥
स्वयं आगत अनुकूल कुमार को पाकर भू-पति प्रादि संतुष्ट हए और अपनी कन्या के विवाह की योजना करने लगे। ज्योतिषी आये, पत्री-पत्रा दिखाये गये । तदनन्तर
प्रथान्येद्यः शुभै लग्ने सुमुहुर्ते ति धौ शुभे । विवाह मङ्गलं राजा कन्याया स्तेन संवधे ।। २७ ।।
किसी एक दिन विद्याधर नृपति ने शुभ लग्न, शुभ मुहूंत शुभदिन में राजकुमारी का मङ्गलमय विवाह सोत्साह उस कुमार के साथ कर , दिया । विधिवत् नाना गीत-नृत्य आदि महोत्सवों के साथ दोनों का का पाणिग्रहरण संस्कार सम्पादित कर दिया गया ॥२७॥
विज्ञाप्य श्वसुरं तेन दत्त चित्र विभूतिकः । प्रतस्थे स्वपुरं साकं कान्तया कान्तया तया ॥ २८ ।।
विवाह में इसे नाना प्रकार के चित्र विचित्र वस्वाभरणादि प्रदान किये समस्त विभूति प्राप्त कर अपने घर लौटने की भावना जाग्रत हुयी । उसने अपने श्वसुर से विनम्र प्रार्थना की और अनुमति प्राप्त कर प्रिया कान्ता के साथ निजपुर के लिए प्रस्थान किया ।। २८ ।।
चञ्चच्चाएवज यातं किङ्किणी क्वाण सुन्दरम् । प्रलम्भ मौक्तिकोद्दाम दामादयं बहु भूमिकम ॥ २६ ॥
श्वसुर से प्राप्त सुन्दर विमान में प्रारूढ़ हुए। उस विमान की १३२ ]
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शोभा निराली ही थी । चञ्चल सुन्दर ध्वजा फहरा रही थी, से वायु ताडित किंकिणियां- लटकते घुंघरू समूह रून-भुत बज रहे थे । सुन्दर विशाल मोतियों की अनेकों मालाएँ लटक रहीं थीं । इन्द्र विमान को भी तिरस्कृत करने वाला शोभनीय था ॥ २६ ॥
वरं विमान मारुतः पुरोधान नदो नगान् । प्रियाया दर्शयन्नेष यावद्याति विहाय सा ॥ ३० ॥
ऐसे उत्तम, सुदृढ़ विमान में सवार हो अपने पुर की ओर प्रस्थान किया । विमान चलने लगा मार्ग में प्राप्त नदी, नद, नाले, नगरी, पुर, उद्यान, पत आदि की शोभा को अपनी प्रिया को दिखाता हुआ आकाश मार्ग से चला जा रहा था ॥ ३० ॥
चम्पापुरो प्रवेशेहि जाता रात्रिस्ततः प्रिया । वक्ता तेन यथातिष्ठ जाग्रतो त्वं स्वपस्यहम् ॥ ३१ ॥
सायंकाल होते-होते विमान ने चम्पापुर में प्रवेश किया। शीघ्र ही रजनितम प्रसारित हो गया । विमान उतरा । सुन्दर उपवन में डेरा लगाया | मनोहर उपवन के लसाकुञ्ज में शैया बनायी । कुमार ने अपनी कोमलाङ्गी सुकुमारी प्रिया से कहा - "हे कान्ते ! मैं सोता हूँ तुम जागती रहना" ।। ३१ ।।
समुत्थाय शयित्वासौ तामवादी दिति प्रिये । स्वपिहि त्वं गता शङ्का तिष्ठाभ्येष पुरस्तव ।। ३२ ।।
इस प्रकार प्रिय पत्नी को बैठा कर स्वयं सो गया । श्रानन्द से यथा समय शयन कर उठा और अपनी भार्या से बोला, "प्रिय अब तुम निशंकनिर्भय होकर सो जाम्रो, मैं यहीं तुम्हारे सामने बैठ जाता हूँ ।। ३२ ।
एवमस्रिवति संज्ञप्य सा सुष्वाप सुनिर्भरम् । प्रसुप्तां तां ततो ज्ञात्वा जिनदत स्तिरोदधे ।। ३३ ।।
"आपकी जैसी आज्ञा, वैसा ही करती हूँ" ऐसा कह कर, वह के भोली बाला निर्भय हो प्रानन्द के साथ सो गईं। तत्काल शीतल वायु मधुर थपेड़ों से उसे गहरी निद्रादेवी ने श्रा दबाया। जिनदत्त ने पूर्ण स्वस्थ निद्रा में सोई ज्ञात कर अपनी विद्या से अपने को तिरोधान कर
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लिया और उद्यान से निकल गया। उसे एकाकी वहीं सोते हए छोड़ गया ॥ ३३ ॥
उन्मोटिताङ्ग यष्टिः सा यावदुत्तिष्ठते ततः । अरण्य वा विमानं तवद्राक्षी छयितोज्झितम् ।। ३४ ।।
प्रात: काल हुमा, पौ फटी, निर्भय सोई कुमारी की निद्रा टूटी, वह अंगडाई लेती उठ बैठी, इधर-उधर दृष्टि डाली तो विमान और उद्यान को पतिदेव रहित पाया ॥ ३४ ॥
बर्श च दिशस्तेन विनास तिमिरा इव । व्योमासोमं महीं मोहजननी मात विभ्रमा ॥ ३५ ॥
भयातुर हो चारों ओर दिशाओं में नजर दौड़ाई, सर्वत्र काल समान घोर तिमिर दिखाई दिया। प्राकाश में चन्द्र भी नहीं था। मही मोह उत्पन्न करने वाली भ्रम पैदा कर रही थी । अर्थात् झुरमुट में कुछ भी स्पष्ट प्रतिभासित नहीं हो रहा था ।। ३५॥
विललाप ततो यूथ भ्रष्टेव हरिणी भृशम् । विषाद तरलां दृष्टि पातयन्ती समन्ततः ।। ३६ ॥
अपने समूह से बिछुड़ी हिरणी मृगी जिस प्रकार व्याकुल हो विलाप करती है उसी प्रकार वह करुण क्रन्दन करने लगी। विषाद युक्त दष्टि बार-बार चहूं पोर फेरने लगो, प्राँखें फाड़-फाड़ अपने प्रियतम को निहारने का असफल प्रयत्न करने लगी। जिस ओर दृष्टिपात करती निराश लोटती ।। ३६ ।।
जीवितेश समुत्सज्य मामत्र क्व गतो धुना। निमेष मपि ते सोळु वियोगमहमक्षमा ॥ ३७ ।।
हे जीवन रक्षक । मुझे अकेली छोड़कर इस समय आप कहाँ गये ! प्राणेश ! पापका वियोग एक क्षण भी सहन करने में असमर्थ हैं॥ ३७॥
नर्माशर्म कर कान्त त्यज चित्त विवाहि मे। मालती मुकुल ग्लानी पत्ते हि हिममारुतः ॥ ३ ॥ हे देव ! अब हास-उपहास का त्याग करिये, शीघ्र मेरी दशा
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देखिये, मालती पुष्प के समान यह त्रियोग हिम का कार्य कर रहा है । जिस प्रकार शीतल वायु से हिम प्रपात होने से मालती कुसुम म्लानमुरझाया हो जाता है उसी प्रकार आपके वियोग से मेरे शरीर की कान्ति क्षीण हो गई है, मुख सूख गया है ।। ३८ ॥
रागान्धया कया था कि हुत: खग कन्यया। केनाऽपि वारिणा नाय नर रत्नं कटाक्षितम् ॥ ३६ ।।
क्या किसी रागान्ध विद्याधर कन्या द्वारा प्रापका हरण किया गया है अथ श हे नाथ पाप जैसे मर रत्न को किसी ने अपने कटाक्ष चारणों का शिकार बना लिया है ।। ३९ ॥
स्वप्नेनापि न मे निष्ट शिष्टं बान्धव सचितम् । कमौरष्ट मिवं जातं दस दुःख परं परम् ।। ४० ।।
हे प्रिय, मैंने स्वप्न में भी यह नहीं सोचा। मेरे श्रेष्ठ बान्धवों ने भी कभी इस प्रकार की सूचना नहीं पायो । न जाने किस कर्म की यह दुःख परम्परा में मुझे लाकर डाला है । क्यों मुझे यह विपत्ति दी है ।। ४० ।।
अथवास्ति न ते दोषः शेषोऽपि शुभ वर्शन । ममैत्र पूर्व कर्माणि फलन्स्येवं सविस्तरम् ॥ ४१ ।।
अथवा हे शुभ दर्शने ! इसमें आपका तनिक भी दोष नहीं है मेरा हो पूर्व जन्म कृत अशुभ कर्म इस समय विस्तार पूर्वक अतिशय रूप में प्रति फलित हुप्रा है ॥ ४१ ।।
राज हंसो मया कान्ता सन्निधौ कुकुमादिभिः । प्रायः पिजरितः किन्तु क्रीडा पपसर: स्थितः ॥ ४२ ।। प्रातरेवाथ कान्तायाः सङ्गमाभि मुखो मया। रथाङ्ग बिहगश्चके वियुक्तो युक्ति होनया ॥ ४३ ।।
मनोहर क्रीडारूपी पा सरोवर के राजहंस, माप प्रायः प्रातःकाल मेरे कुंकुम द्वारा पिञ्जरित दिखलाई पड़ते थे, अर्थात् कुंकुम मण्डित मेरे मुख रूपी पम सरोवर में क्रीड़ा करने से पाप उस कुंकुम से रंग जाते और प्रात:काल लाल कमल की शोभा धारण कर मेरे प्रानन्द के हेतू होते थे, किन्तु आज चक्रवाक् के वियोग से वियुक्त चकवी समान मुझे
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दुःख से पिञ्जरित कर दिया। मैं युक्ति विहीन वियोग में डूबी क्या
करू ।। ४२-४३ ॥
कि मया मदना तङ्कादन्य जन्मानि विनिता । सपत्नी वनिता वान्या भर्तु सङ्गम लालसा ॥ ४४ ॥
क्या पूर्व जन्म में मेरे द्वारा मदन से प्राक्रान्त हो किसी सपत्नी को विघ्न उपस्थित किया गया या अन्य किसी बनिता के भोग में अन्तराय डाला गया । अर्थात् पति-संगम को लालसा युक्त किसी नारी के संयोग में मैंने अवश्य विघ्न डाला होगा उसीका फल यह पति वियोग दुःख मुभी प्राप्त हुआ है || ४४ ॥
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श्रगालित जलं पेयं कन्द मूलादि जिनस्य पूजनं निन्दां करोमि पूर्व
भक्षणम् । जन्मिनि ॥ ४५ ॥
अथवा बिना छना जल पिया होगा या कन्दमूल भक्षण किया है अथवा पिछले भव में जिनेन्द्र प्रभु की पूजा की निन्दा की है ।। ४५ ।।
तस्येदं फलभायात मलध्य मति दुःसहम् । किमतो हं विधास्यामि भग्नाशा निर्जने वने ॥ ४६ ॥
उसो का यह अलंघ्य और दुस्सह फल यहाँ मेरे सामने उपस्थित हुना है । हे प्रभो ! निराश हो इस निर्जन वन में मैं अब क्या करूंगी ? ।। ४६ ।।
वल्लभा नाथ चेन्नाहं मुञ्च मां कुल मन्दिरे । एककां तत्र यान्तों माम यशो हन्ति दुर्वचम् ॥ ४७ ॥
हे प्राण वल्लभ ! मुझे अनाथ कर एकाकी मत छोड़िये यदि एकाकी मैं अपने पिता के घर जाऊँ तो अवश्य मेरे यश का नाश होगा, मैं दुर्वचनों द्वारा निन्दा की पात्र बनूंगी ।। ४७ ।।
महं
सापराधाप दीयतां वर्शमं
लघु । कारूण्यं श्रव नु ते फान्त मामेवं यद्युपेक्षसे ॥ ४८ ॥
हे नाथ ! यदि आप मुझे अपराधिनी समझ रहे हैं तो भी एक बार शीघ्र दर्शन दीजिये | क्या आपको तनिक भी दया नहीं जो इस प्रकार मेरी उपेक्षा कर रहे हैं ? ।। ४८ ।।
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प्राक्रन्वन्त्या स्तत स्तस्याः स्थितेन जिन सधमि । कुमार प्रेयसी युग्मेना श्रावि रूवितध्वनिः ॥ ४६ ॥
इस प्रकार वह अनेक प्रकार से विलाप करने लगी, उसकी रुदन ध्वनि से वन गूँज उठा । श्राक्रन्दन का राव जिनालय में भी पहुँच गया। उस वन उद्यान में स्थित जिनालय में ही पूर्व बिछुड़ी जिनदत्त की दोनों पत्नियाँ स्थित थीं उन्होंने इस करूण विलाप को सुन्दा और अधीर हो उसके पास जाने को उद्यत हुई ।। ४६ ।।
निर्गताभ्यां ततस्त्याभ्यां स जवाभ्यां विलोकिता । निकटे वन देवींव तदुद्याने ब्रुमान्तरे ॥ ५० ॥
शीघ्र ही वे दोनों मन्दिर जी से निकल कर उन द्रुम समूह-लता भवन में पहुँची जहाँ वनदेवी के समान सुन्दरी नर वनिता विलाप कर रही थी और रुदन का कारण पूछने लगीं ।। ५० ।।
का
प्राश्वासिता च सा ताभ्यां बहुधा जिन मन्दिरम् । शेष विमानादिविभिस्ततः ।। ५१ ॥
जगाम
संहृता
उन दोनों ने उसे प्राश्वासन दिया, सान्त्वना देकर जिन भवन में आने को कहा। उसने भी विमानादि समस्त सामग्री की विधि विशेष से एकत्रित कर चलने की तैयारी की। तीनों जिनेन्द्र प्रभु के मन्दिर जी आ गई ।। ५१ ।।
प्रसझ यवना तत्र त्यक्तार्त्ता भक्ति तत्परा | जिनाधीशं नमस्कृत्य तदनेन्ते समुपाविशत् ।। ५२ ।।
!
जिन भक्ति में परायण उसने प्रतिध्यान का त्याग किया और प्रसन्न वित्त से श्री जिनेन्द्र प्रभु की भक्ति एवं स्तुति की, नमस्कार कर उनके पास श्राकर बैठ गई ।। ५२ ।।
उदाजहार प्रष्टा च तयो: स्व चरितं पुनः । निशम्यान्योन्य मालोक्य स्मितं ताभ्यां सविस्मयम् ॥ ५३ ॥
उन दोनों सतियों ने उसका चरित्र पूछा । उसने भी अपने पति वृत्तान्त यथार्थ रूप में कह सुनाया। अर्थात् समुद्र सैर कर धाना,
सर्व
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विद्याधर नगर में पहुँचना, उसके साथ विवाह कर यहां तक लाना और रात्रि को अदृश्य हो जाना मादि समस्त बार्ता सुनायी तथा उसके स्वभाव गुण, धर्म, रूप लावण्य का विवरण भी बतलाया। जिसे सुनकर के दोनों एक दूसरी का मुखावलोकन कर मुस्कुराने लगों पौर पाश्चर्यान्वित हुयीं ।। ५३ ॥
चिन्तितम्च किमेतेन भवितव्यं प्रिपेरण नौ। तयोऽस्मद् वृत्त संवादि बरत्येषा वचोखिलम् ॥ ५४॥
वे दोनों ही विचार में पड़ गयीं और सोचने लगी कि "क्या यही हम दोनों के प्राणनाथ हों? क्योंकि जो कुछ यह कह रही है वह सब कुछ हमसे ही सम्बन्धित प्रतीत हो रहा है ॥ ५४ ॥
अषया किमलीकेन विकल्पेनामुना धुना। प्रामाका फगता इस साप' ५५ ।
अथवा हमें इस समय व्यर्थ ही प्रसद् विकल्पों से भी क्या प्रयोजन ? यही हमारे कन्त हों तो हों। हो सकता है "हमारा भाग्य रूपी वृक्ष फलिस हो जाय" ॥ ५५ ॥
प्रकाचि च लगाोश बोहवा मा शुनः गुमे । सम दुःखा पवावाभ्यां भवती च समिणी ।। ५६ ॥
इस प्रकार तर्क-वितर्क कर वे दोनों उसे आश्वासित करते हुए कहने लगी, हे शुभे, हे विद्याधर पुत्री ! शोक का त्याग करो, हम सब एक समान दुःखाभिभूत हैं। प्रतः पाप भी हमारी साधर्मिणी हैं। है बहिन ! शान्ति पारण करो ।। ५६ ॥
एवं विधानि संसारे सरां प्राण धारिणाम् । दुःखानि शतसः सन्ति तद्विषावेन कि सखि ।। ५७ ।।
हे सखि ! संसार में इस प्रकार के सैंकड़ों दुःख हैं, संसारी जीव इन दुःखों से पीड़ित हो कष्ट सह रहे हैं। संसार का स्वरूप ही यही है फिर विषाद करने से क्या प्रयोजन ? अनेकों दुःखों का आना-जाना ही तो संसार है॥ ५७ ॥
पथा विष परिजात स्व वृत्तान्ता कृताच सा।
श्रुत्वा सम्पारितं बेतः स्वकीय तयका सदा ॥ ५८॥ १३८ ।
।।
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इस प्रकार अपना जीवन परिचय ज्ञात करा एवं उनको दुःखद कथा सुन उसे शान्ति हुयी। उसने मन में निश्चय किया ये ही मेरी अपनी सहेली है । क्योंकि मित्र वही है जो विपत्ति में धैर्य प्रदान करे । संकट में साथ निभाये । इस प्रकार सोचकर उनके साथ हो ठहरी ।। ५८ ॥
I
वान पूजा भूताध्यायसङ्गताः शुभ संगताः । एवं तिनोऽपि ताः सन्ति तत्र प्रीताः परस्परम् ।। ५६ ।।
श्रब तीनों मिलकर, श्री जिनेन्द्रका प्रभिषेक पूजन, श्रुल का अध्ययन, दानादि शुभ क्रियाओं में रत रहने लगीं। तीनों ही परम प्रीति से सम्यक्त्व पूर्वक थपने कर्त्तव्य में रत हो गयीं ॥
५६ ॥
अथ रूपं परावृत्त्य वामनी सूयतां पुरीम् । स वयस्यः कुमारोऽपि प्रविश्याश्रनि गायनः ॥ ६० ॥
1
इधर श्री जिनदस कुमार ने क्या किया ? यह ज्ञात करना चाहिए। विद्याधर कुमारी को सोते छोड़कर वह उद्यान से निकला । अपनी विद्या द्वारा बामन (बौना) का रूप बताया और चम्पानगर में प्रविष्ट हुआ I अन्य कलाओं की भांति यह संगीत कला में भी मति निपुण था । श्रतः बौना रूप धारण कर नाना प्रकार के सुन्दर सुरीले गानों से जनता को रमाने लगा || ६० ॥
गम्यं दस नामासौ वित्त कौतुक कारकः ।
गौ
राख्यायकः कान्ते अंहार जनता मनः ॥ ६१ ॥
इसने अपना नाम गंधर्वदत्त घोषित किया। यह सभी के चित्त को कौतुहल में डाल देता । सुन्दर-सुन्दर गीत गाता मनोरंजक कथाएँ भी संगीत में सुनाता, मधुर मनोहारी चरित्र गा गा कर सुनाता । इस प्रकार नगर की सारी जनता के लिए यह एक आकर्षण का विषय बन गया ।। ६१ ।।
दत्त्वा जीवनकं राशा विघृतो मिज गन्धर्बादि विनोबेन सत्रास्था ज्जन
सन्निधौ ।
बत्लभः ।। ६२ ।
यह वृत्तान्त वहाँ के राजा जीवक को विदित हुन । राजा ने उसे अपने दरबार में बुलाया और उसकी आजीविका की व्यवस्था कर अपने
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पास ही रख लिया। वह शीघ्र ही अपने विनोदी स्वभाव और गंधर्व विद्या से जनवल्लभ सबका प्रिय हो गया ।। ६२॥
अन्येचुर्गवितं राज्ञः पुरस्तादिति फेनधित् । यथा देवान तिष्ठन्ति स्त्रियस्तिस्रो जिनालये ।। ६३ ॥
एक दिन किसी समाचार वाहक ने राजा से कहा, हे प्रभो यहाँ उद्यान के जिनालय में तीन सुव्रता नारियाँ हैं। तीनों प्रेम से रह रही हैं ॥ ६३॥
रूप लावण्य सौभाग्य कान्तेनां परमं पदम् । न हसन्ति न जल्पन्ति समं केनापि ताः प्रभो ॥ ६४ ॥
वे आतिशायी रूप लावण्य और सौभाग्य से सम्पन्न हैं कान्ति का प्रागार हैं, विदूषी हैं किन्तु किसी के भी साथ न बोलती हैं, न हँसती हैं, न कोई विनोद ही करती हैं। अपने ध्यानाध्ययन में ही तल्लीन रहती हैं ।। ६४ ।।
केनापि हेतुने त्येवं श्रुत्वा भूमी भुजामुहुः । भालोकित मुखोबादी द्विहस्येति स वामनः ॥ ६५ ।।
इस समाचार को सुनकर राजा के मन में एक जिज्ञासा हुयी और वह बार-बार उस बौना गंधर्वदत्त की प्रोर देखता हुप्रा विहंस कर उससे कहने लगा क्या आप उन्हें हंसा सकते हैं ? किसी भी निमित्त से उन्हें बाचाल कर सकते हैं ? ।। ६५ ।।
ग्रहो मानुष मात्रेऽपि भृगार मुख मानसाः। किमेवं स्थापय वं भो हासयाम्येषता महम् ।। ६६ ॥
अहो ! मनुष्य मात्र को शृंगार हास मुख वाले सभी को मैं हंसाने में समर्थ हूँ फिर उनकी क्या बात ? यह विचार कर वह गंधर्यदत्त कहते लगा, पाप क्या कह रहे हैं "मैं अवश्य उन्हें शीघ्र हँसाता हूँ"। देखो।।६।।
विकास हास सम्पन्नान प्रमानपि नरेश्वर । विनोदेन करोम्येष मानुषेषु तु का कपा॥ ६७ ॥
मैं मनुष्यों की क्या कथा ब्रुमों, पादपों को भी विकसित करने१४० ]
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पल्लवित-पुष्पित करने में समर्थ हूँ। हे नरेश्वर शुष्क वृक्ष भी विकसित कर सकता हूँ अपने विनोद से मनुष्यों की क्या कथा? ।। ६७ ।।
ततोऽसौ प्रेषितो रामा स्वल्प लोकैः समं मुदा । जगामसौपि संकल्प संकेतः स्वजनैः सह ॥१८॥
राजा यह सुनकर प्रसन्न हुमा घोर अपने मन्तों गय उसे जिनालय में भेज दिया। वह भी अपने स्वजनों द्वारा संकेतिक संकल्पानुसार गया ।। ६८ ॥
जिना प्रणिपस्यान्ते स तासो समुपाविशत् । कृत गोताविक: प्रोचे वयस्यैरिति साबरम् ।। ६६ ।।
सर्व प्रथम विधिवत श्री जिनेन्द्र भगवान की पूजा की, स्तुति एवं नमस्कार कर उन तीनों पति विहीनानों के पास प्राया। उसने सुमधुर स्वर में गीतादि सुनाये। वे प्रानन्द के साथ भाश्चयोत्पादक भी थे। तदनन्तर उन सखियों ने सादर निवेदन किया ॥ ६ ॥
यथा कथानकं किञ्चित कथ्यता कौतुका वहम् । धूयतां सावधान भॊः कथयामि स्व चेष्टितम् ।। ७०॥
हे भद्र ! कौतूहल उत्पादक कोई भी थोड़ा कथानक सुनाइये । गंघवंदत्त ने भी स्वीकृत करते हुए कहा, भो ! भव्यात्मन् ! माप सावधानी पूर्वक मुनिये में स्वेच्छानुसार सुन्दर सरस कथानक कहता हूँ ॥ ७० ॥
वसन्तादि पुरादेत्य चम्पोद्यान मुपेयुषा। यावत् कान्ता परित्याग स्तावत्तेन तिवेवितम् ॥ ७१ ॥
अब उसने मनोहर अपना स्वयं का चरित्र सुनाना प्रारम्भ किया, वसंतादिपुर से प्रारम्भ कर चम्पानगरी के उद्यान में प्राकर अपनी पत्नी विमला का त्याग किया था, अर्थात् विमलादेवी को लता कुञ में छोडकर भदृश्य हो चला गया था वहाँ तक का उपाख्यान सुनाकर मौन हो गया ।। ७१ ॥
सवाकोलपत स्मित्वा विमलादि मतिस्तदा । कि जातमिति भोः हि सुष्टरम्या कमा तव ।। ७२ ।।
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उसके समाप्त करते ही, कथानक को सुनकर विमलामती विहंस कर बोली, महो भद्र ! यह कथा आपने कहाँ से किस प्रकार ज्ञात की है ? आपकी कथा अद्भुत रसीली है। बहुत सुन्दर है ।। ७२ ।।
पत्रान्तरे समुत्थाप्य नोतोऽसौ यथा राज कुले वेला वर्त्तते
स्थगनेस्ततः । गम्यतामिति ॥ ७३ ॥
पुनः क्या हुआ ? पूछते ही उसके साथियों ने कहा चलिए अब राज दरवार में जाने का समय है, भाइये । पुनः कल प्राकर सुनाना । सत्य है चलो कह कर वह भी उनके साथ मा गया ।। ७३ ।।
तथैवेत्य
द्वितीयेऽहि स्ववार्त्ता साववीरिता ।
भारम्य गमनं द्वीपे यावत् पातः पयोनिषौ ।। ७४ ।।
द्वितीय दिन पुनः प्रथम दिवस की भाँति वेषधारी कुमार श्री जिनालय में पधारा साथी - मण्डली भी साथ ही थी। क्रमशः प्रथम श्री वीतराग अरहंत प्रभु का दर्शन, पूजन, स्तवनादि किया। पुन: उस जिनभवन में उपस्थित तीनों सखियों के सान्निध्य में उपस्थित हुआ एवं कथानक प्रारम्भ किया। सिंहल द्वीप के लिए प्रस्थान करने के समय से कथा प्रारम्भ की और राजकुमारी के विवाहादि का वर्णन करते-करते अपने समुद्र में गिरने तक की कथा सुनायी। बस, अब इतना ही सुनाऊँगा कह चुप हो गया ।। ७४ ॥
ततस्तूष्ां स्थिते तत्र स्मित्वा श्रीमतीर ब्रबीत् । कि ततो जमि भो भन्न सरसेयं कथा तब ।। ७५ ॥
उसके शान्त - धूप होते ही द्वितीय रमणी श्रीमती विहंस उठी और बोली हे गुरणश ! श्राप की कथा बड़ी ही रसीली है, यह तो बतलाइये कि झागे क्या हुआ ? सागर में गिर जाने पर जिनदत कुमार का क्या हुआ ? ।। ७५ ।।
कि याति तव भुवस्था परायत्ता वयं पुनः ।
बस सेव सरो यामो राम मन्दिर मुत्सुकाः ।। ७६ ।।
अरे ! श्राप तो सुनने वाली हैं, सुनने में प्रापका क्या जाता है ? पर मैं तो पराधीन हूँ राजाज्ञानुसार चलना है। राजमन्दिर में जाने का
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समय हो गया है मुझे जाने की जल्दी है, समय पर पहुंचना होगा न ? कर्तव्य पालन करना सत्पुरुषों का का कार्य है । ॥ ७६ ॥
निगति गत: सापि साई विमलमा तया । सुधिरं चिन्तयामास किमेतदिति विस्मिता ।। ७७ ।।
इस प्रकार निवेदन कर वह राजमन्दिर की मौर चला गया। इधर विमला और श्रीमती दोनों बिचार में पड़ गयीं । दोनों ही बहुत देर तक परस्पर चकित हो चिन्तवन करती रहीं यह किस प्रकार घटित हुआ। इसे कैसे ज्ञात हमा? यह कौन है ? यह कया क्या है ? इत्यादि प्रश्नों में उलझी रहीं ।। ७७ ।।
प्रन्यस्मिश्य समागत्य बासरे लगपसने । प्रारभ्य स्वागमं प्रोक्त त्यक्तायावन्नभश्वरी ।। ७८ ॥
पुनः तृतीय दिवस पाया। वामन रूप धारी कुमार फिर उसी प्रकार जिनभवन में प्रा पहुँचा । उसकी जिन भक्ति भी तो अद्वितीय थी। नाना स्तोत्रों से जिनदेव प्रभु की पूजा भक्ति सम्पन्न की। तदनन्तर उन सतियों के पास पाया और अपनी संगीत ध्यान में भागे का कथानक प्रारम्भ किया अर्थात् समुद्र से पार हो विद्याधर नगरी में पहुँचना, विद्याधर राजा की कन्या के साथ विवाह कर लाना और इसी चम्पानगर के उद्यान में उस विद्याधरी को छोड़कर गायब होने तक का सपना पूरा वृत्तान्त सुना दिया । बस इतना ही कहकर वह जाने को उद्यत ही हुमा कि ।। ७८ ॥
स्मित भौतानना बोचत्त तोऽसौ खग हजा। प्रसमाप्य कथां मागा बहि बातं ततः किम् ॥७६ ।।
मुस्कुराती हुयो वह विद्याधर की पुत्री अर्थात् इसी की तीसरी पत्नी बोल उठी. हे भन्न अधूरी कथा छोडकर नहीं जाना, कहिये इसके मागे क्या हुआ? ।। ७६ ॥
प्रातरेय भरिष्यामि सजल्प्येति ततो गतः । सम्पन्न प्रिय संङ्गाशा विस्मिता स्ता अधिस्पिताः ।।८।। पाप सुनना चाहती हैं तो ठीक है मैं प्रातः काल सुनाऊँगा, अभी
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तो समय हो गया। इस प्रकार कह कर चला गया। अब इन्हें भी विश्वास सा हो गया कि अवश्य ही हमें पतिदेव का सङ्क्रम हो सकेगा क्योंकि इन्हीं का चरित्र था यह । अतः पति मिलन की श्राशा में प्राश्चर्य चकित हो तोनों वहीं रहीं || ८० ॥
नरेन्द्रोपि तथा कर्ण्य विस्मितः पारितोषिकम् । aarवस्मै जनः सर्वश्चित्रितश्च स्वचेष्टितैः ॥ ८१ ॥
राजा ने इसका वृत्तान्त सुना तो उसे भी बहुत प्राश्चर्य हुआ, अपनी प्रतिज्ञानुसार उसे प्रति सम्मान से सबको चकित करने वाला पारितोषिक (इनाम) दिया। सभी दर्शक इस घटना से चकित चित्र लिखित से प्रतीत हो रहे थे । उसका सम्मान किया क्यों कि तीनों सतियों को हंसा दिया और बुला दिया था । अपनी चेष्टाओं के अनुसार सम्मान प्राप्त कर सब अपने अपने स्थान पर चले गये ।। ८१ ।।
प्रथान्धेद्यू रभुक्त महान् कोलाहलस्ततः । प्रष्टाः कोऽपि नरेन्द्रेण किमेतदिति सो ब्रवीत् ।। ८२ ।।
दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही नगरी में चारों ओर अचानक कोलाहल मच गया। मारो, भागो, चलो, हटो आदि शब्दों से भयंकर भगदड़ सी मच गयी। उसी समय राजा ने किसी पुरुष से इसका कारण पूछा। वह पुरुष इस प्रकार कहने लगा ।। ६२ ।।
यथा राज गजो देव नाम्नामलय सुन्दर: 1 आलान स्तम्भ मुन्मूल्य निःशङ्कं विचरत्ययम् ॥ ८३ ॥
हे देव ! मलय सुन्दर नाम का पट्टगज मालान से बंधन तोड़कर भाग निकला है । भालान स्तम्भ को ही उसने उखाड़ फेंका है। इस समय निशंक और निर्भय नगरी में विचरण कर रहा है। उसके भय से त्रस्त जन कोलाहल कर रहे हैं ।। ८३ ।।
नरश्च वा ।
यः कोपि वशमायासि पशुरस्य विलम्बेन विना नाथ समाति यम मन्दिरम् ॥ ८४ ॥
उसके सामने जो भी पशु या मनुष्य प्राया नहीं कि उसे वश कर शीघ्र ही यमालय में भेज देता है अर्थात् सबको मार डालता है ।। ८४ ।।
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प्राकारोखान सदशम देवता पत्र नान्ययम् । भस्मो करोति भूपाला मरणयन् भद पेटकम् ॥ ५५ ॥
प्राकार, उद्यान, सुन्दर मकान, देव घर आदि अन्य जो भी हो जिधर गया उधर उन सबको भस्म सात कर देता है, हे भूपाल ! समझिये यह महाभट पेटक हो गया है। जो मिला उसके पेट में समाया ।। चारों प्रोर नाश कर रहा है। किसी के वश नहीं पा रहा है। अर्थात सभी सुभद अभट हो गये हैं । सबको सामथ्य से बाहर हो गया है ॥ ८५।।
तन्निशम्य महासत्त्वाः प्रेषिता बोर पुनवाः ।
राज्ञा ते पि न संशेकु र्वमने तस्य दन्तिनः ।। ८६ ।।
यह सुनकर महीपति-राजा ने अपने महावीर सुमटों को जो वीरों में श्रेष्ठतम थे उन्हें उस गज को वश करने के लिए प्राज्ञा दी । शीघ्र ही वे उस उन्मत्त सिंह समान हाथी के समक्ष पाये । किन्तु सबका पुरुषार्थ उसो प्रकार क्षीण हो गया जैसे चन्द्रोदय से तारागरणों का। कोई भी उस दन्ति को प्राधीन नहीं कर सका। राजा के वीर भी परास्त हए । दन्ति-हाथी का श्रातङ्क बढ़ता ही गया ।। ८६॥
एवं दिन अयं तत्र पोहयनखिलाः प्रजाः। बम्भ्रमिति करो यावत् पटहस्ताबदा हतः ।। ८७ ॥ यथा हस्ति न मेतं यः कुरुते यश वसिमम् । कन्या प्रदीयते तस्मै सामन्तश्च विधीयते ।।८।।
समस्त प्रजा को पीड़ित कर डाला । इस प्रकार घोर उपद्रव करते हुए तीन दिन व्यतीत हो गये, पर किसी भी उपाय से वह शान्त नहीं हमा, अन्त में निराश हो राजा ने नगर में पटह बजवाया अर्थात डोंडी पिटवायी कि जो शूरवीर महाभाग इस उन्मत्त दन्ति के दाँत तोड़ेगा अर्थात वश में करेगा, मैं उसके साथ अपनी कन्या का विवाह वेभव पूर्वक विधिवत करूगा एवं कन्या के साथ अनेक सामन्तादि भी प्रदान करूगा प्रतएव शीघ्र ही इसे वश में करो।। ८७-८८ ।।
श्रुत्त्वेति वेगतः स्पृष्ट्वा पदहं वा मनस्ततः। प्राजुहाव गजाधीशं सोयगादुष्करः पुरः ॥ ८ ॥
यह भेरी-नाद वेषधारी कुमार ने सुना, भेरी को स्पर्श किया और मन से स्वीकार किया, शीन ही उस दुष्कर कार्यभार को ले उस काल
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भैरव स्वरूप गज के सामने पाया दोनों आमने-सामने हुए और घोर दुगुल के साथ मुढ पाराधना 1
प्रष्टतः पावतो धावन्न प्रतो जठरा वषः । ताडयन्निविडं लोष्ठ मुद्गरंश्चदुर: क्वचित् ॥६० ।।
कुमार कभी सामने, क्षण में बगल में कभी पेट के नीचे, कभी पीछे उस हाथी को ताड़ना देने लगा। कभी अंकूश से, कभी लोहे की शांकल से तो कभी पत्थरों से जो हाथ लगा उसी से उसे मार-मार कर ठिकाने लाया। मुदगरों द्वारा वश में किया। चारों ओर से पाहत हमा वह भी वाान्त हुअा। ठीक ही है "शठे-शाव्यं समाचरेत्" । अति दुर्शन सरलता से वश में नहीं पाता ।। ६० ॥
स्व शिक्षा लाघवं सम्यग्दर्शयन् बलमादिभिः। प्रारूढः श्रुममानीय तं वत्त करिबस्ततः ॥ १॥
कुमार भी श्रम की अपेक्षा न कर शीघ्र ही उस पर प्रारूढ़ हो गया । अपनी शिक्षा से उसे लाघव गुण युक्त बना दिया । इच्छानुसार चारों ओर घुमाने लगा। भले प्रकार उसे आज्ञाकारी सेवक समान बना लिया ।। ६१ ॥
साधुवावं समासाच जनेभ्यो नप पुङ्गवम् । प्रणम्यालान मानीय करिणं स सुखं स्थित: ।। ६२ ।।
चारों ओर जन-समुदाय उसे साधुवाद देने लगे अर्थात् वाह, वाह, धन्यवाद, धन्य मापका घेयै बल, पराक्रम इत्यादि प्रकार से उसकाकुमार का अभिनन्दन करने लगे। कुमार भी उस पर पासीन हो राजदरबार में लाया पुनः यथा स्थान प्रालान में ले जा कर बांध दिया। पुनः वह नर पुङ्गव राजा को नमस्कार कर यथा स्थान सुख से बैठ गया ।। ६२ ।। ___"इस प्रकार श्री गुणभद्राचार्य द्वारा प्रणीत जिनदत्त चरित्र में छटवां सर्ग समाप्त हुआ"।
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( सप्तम् — सर्ग )
अथामात्यः समं राज्ञा तवेति प्रविचारितम् । फुलं यस्य न जानीमो दीयतां बेहजां कथम् ॥ १ ॥
कुमार ने दुष्ट- उन्मत्त महाभीषण गज को वश में कर लिया । तदनुसार राजा को उसे कन्या रत्न प्रदान करना है । कन्या अपने जातीय शुद्ध कुल वंश परम्परा वाले को ही दी जा सकती है । प्रतः श्रागमानुसार कन्या प्रदान करना चाहिए यह सोच कर उसने अपनी मन्त्रिमण्डल को बुलाया एवं विचार-विमर्ष करने लगा कि हे मन्त्रिगण ! जिसका कुल वंश, जाति यज्ञात है उसे कन्या किस प्रकार दी जाये ? भ्रतः अन्य पारितोषिक दिया जा सकता है परन्तु कन्या प्रदान के लिए तो इसका कुलादि पता लगाना ही होगा ॥ १ ॥
ते
खाचि किमेतेन विकल्पेन वयोत्या कृतिरेवास्य कुलं कल्याण
इस पर मन्त्रियों ने उत्तर दिया राजन् ! यह सत्य है परन्तु इसके कुल वंश शुद्धि निःसंदेह है। क्योंकि कल्याण सूचक इसकी प्राकृति ही इसे उत्तम वंशोत्पन्न सूचित कर रही है । अतः इस सम्बन्ध में प्रापको कुछ भी विकल्प - सन्देह नहीं करना चाहिए ॥ २ ॥
विनोदेनामुना कोऽपि क्रोक्त्येष
पोद पटले नैव प्रखनो
महीपते । सूचकम् ॥ २ ॥
महामनाः । विवसाधिपः ॥ ३ ॥
वस्तुतः यह कोई महामना है। विशिष्ट पुरुष है । मात्र क्रीड़ार्थ यह रूप परिवर्तन कर इस प्रकार की चेष्टा कर रहा है । मेघ पटल के अन्तर्गत छिपे हुए सूर्य की भाँति यह कोई प्रतिभाशाली है || ३ ||
शौर्य लक्ष्य यशो रूप विज्ञानं र्नाकिनामापि । चमत्कारं करोत्येषो विन्स्य मस्य विचेष्ठितम् ॥ ४ ॥
देखिये जरा इसकी चेष्टा, यह अपने शौर्य, पराक्रम, यश, रूपलावण्य, विज्ञान कलाओं द्वारा इन्द्र को भी आश्चर्यचकित करता है । इन्द्र को भी पराभूत करने वाली हैं इसकी क्रियाएँ ॥ ४ ॥
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विशुद्धो भय पक्षाय कन्या स्मै दीयतां ततः। किम्चासाध्येष्वयं देव प्रतिच्छन्व स्तवापरः ॥ ५ ॥
इसलिए हे नराधिप ! पाप निशंक होकर इसे उभय कुल विशुद्ध समझिये और अवश्य कन्या रत्न प्रदान कर अपने यश को बढ़ाइये। हम अधिक क्या कहें, इससे बढ़कर पापको अन्य और कौन वर कन्या के योग्य मिलेगा। इसके समान यही है ।। ५॥
प्रतीतिरस्ति चेन्नाथ प्रच्छयता मयमेव हि। वचः श्रुत्वेति राज्ञा सौ प्रष्ठ एवं समन्त्रिशा ॥ ६ ॥
हे नाथ ! हमें तो पूर्ण प्रतीति है फिर भी यदि आप चाहें तो इसे ही पूछिये, आपकी शंका निवृत्य हो जायेगी। इस प्रकार मन्त्रियों के बचन सुनकर राजा ने मन्त्रियों सहित उस कुमार से प्रश्न किया ।। ६॥
विज्ञानाकृति सस्थाढय गुणज्ञातो बरोमया । प्रच्छन्नः कोऽपि भर त्वं नूनं नर शिरोमणिः ॥ ७ ॥
हे भद्र, आपके विज्ञान फला, कौशल, धर्य, वीर्य, पराक्रम, प्राकृति आदि गुणों द्वारा मैंने सम्यक् प्रकार जात कर लिया है कि पाप प्रच्छन्न रूप में कोई महानात्मा है, निश्चय ही नर शिरोमरिण हैं, नर रत्न हैं ॥७॥
प्रसोच बद सन्देहं हर स्वं प्रकटी कुरु । तथाप्यास्मानामत्येव मुक्त: स्मित्वा बजरूप सः ॥ ८ ॥
तथापि हे भद्र, हम पर प्रसन्न होइये, हमारे सन्देह को दूर करिये । अपने को प्रकट कीजिये । इस प्रकार राजा के द्वारा प्रार्थना करने पर भी अपने को उसी प्राकृति में रखकर मुस्कुराता हुआ कुमार कहने लगा ।। ८॥
वसन्तादि पुरावासि जीवदेव पणिक पतेः । जिमवत्त इति ख्यातः सूनुरस्मि मरेश्वर ।। ६॥
हे राजन् ! मेरा जीवन चरित्र-कुल वंश जानना चाहते हैं तो सुनिये-बसन्तादिपुर है । उस नगर में जीव देव नामक नरोत्तम वरिण पति है । उस श्रेष्ठी का मैं पुत्र हूँ। मेरा नाम है जिनदत्त कुमार । हे नरोत्तम, यह है मेरा वंश ॥ ६ ॥
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Fact श्रेष्ठिनः पुत्री विमलस्यैकापरा प्रभो । सिंहलेशस्य विद्याश्चक्रिरणो दुहितापरा ।। १० ।।
हे नरेश ! और सुनिये, आपके नगर श्रेष्ठी की अनुपम लावण्यवती गुणवती कन्या विमला मेरो प्रथम पत्नी है । द्वितीय सिंहल द्वीप के नरेश की पुत्री और तीसरी चक्रवर्ती विद्याधर नृप की पुत्री मेरी पत्नियाँ हैं ।। १ 11
एता तिस्रोऽपि मद्भार्या स्तिष्ठन्ति जिन वेश्मनि । मवीय सङ्ग मोत्कण्ठाकुलिताः कुल केतवः ॥
११ ॥
ये तीनों मेरी भार्या इस समय श्री जिनालय में उपस्थित हैं । मेरे संगम के लिए तीनों उत्कण्ठित हैं। कुल की ध्वजा स्वरूप मेरे मिलन के लिए प्राकुलित हो रहीं हैं ।। ११ ।।
विपदां सम्पदा देव भाजनो भवता मया । अधुना प्राप्तविधेन क्रीडेति बहुधा कृताः ।। १२ ।।
ये तीनों मेरी विपदा और संपदा में समान भागी हैं, इस समय में विद्यायल से रूप परिवर्तित किये हूँ यह मात्र कोड़ा है ।। १२ ।।
तवतं ततो ज्ञात्वाहूता स्ताः पृथिवी भुजा । तिस्रोऽपि नायिकास्ताश्च प्राप्ताः कञ्चुभिः समम् ।।
१३ ।।
इस प्रकार कुमार के कथन से उसके अभिप्राय को राजा समझ गया और तत्काल उसने उन्हें लाने के लिए कञ्चुकी को भेज दिया । यथा योग्य सम्मान पूर्वक वे तीनों पत्नियां उस कञ्चुकी के साथ श्रा उपस्थित हुयीं ।। १३ ।।
अत्रोपदिश्यतां पुत्र्यः स्वामिना भणिता इति । प्ररणभ्यो पाविशन्नन्ते विनोतास्ता यथाक्रमम् ।। १४ ।।
उन्हें प्रायो देख राजा ने स्नेह पूर्वक कहा है पुत्रियो ! यहाँ विराजिये । नृपति की प्राज्ञानुसार वे विनय पूर्वक क्रमानुसार राजा को प्रणाम कर बैठ गयीं ।। १४ ।।
उक्त ततो नरेन्द्रन महासस्यो वचत्ययम् । एतास्तिस्रोऽपि मद्भार्याः सत्यमेवं मृषा किमु ।। १५ ।।
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पाश्वस्त हो जाने पर राजा ने उनसे पूछा, हे वेवियों, यह महाभाग महा पराक्रमी कहता है कि (प्राप तीनों को) ये मेरी भार्या है। क्या यह सत्य हैं ? अथवा मृषा-झूठ है ? ॥ १५ ॥
अन्योन्य मुखमालोक्य ताभिरूचे पति प्रभो। न भवत्येव जानाति पाता तस्यैव केवलम् ।। १६ ।।
यह सुनकर वे तीनों एक दूसरे का मुख देखने लगी कुछ क्षण विचार कर कहने लगीं, हे नरेश यह हमारा पति नहीं केवल हमारे पतिदेव की वार्ता को जानने वाला है । अर्थात् हमारे पति का वर्णन यथार्थ करता है परन्तु यह स्वयं वह नहीं है ॥ १६ ।।
अत्रान्तरे कुमारोपि पुल काञ्चित विग्रहः । प्राधिर्भवत् स्मितं वक्त्रं पिदधाति स्म बाससा ॥१७॥
इसी डीज कुमार दुर्ग हे पुरित हो गया। वह सुख को वस्त्र से इंक कर हंसने लगा और तत्काल रूप परिवर्तन कर लिया ।। १७ ॥
भ्रयोप्युवाचभूपाल: पुश्यः सम्यक प्रविच्यताम। ताभि रूचे न सादृश्यमपि तस्यास्ति कि बहुः ॥ १८ ॥
पुन: नृपति ने पूछा हे पुत्रियो ! आप सम्यक् प्रकार विवेचना कर यथार्थ कहो क्या यह आपका पति है ? वे कहने लगी, देव ! इसमें हमारे पतिदेव की तनिक भी समानता भी नहीं है पति होने की फिर क्या बात है । हम अधिक क्या कहें प्रापसे ॥ १८ ॥
कूमारेण ततस्त्यक्त्वा बामनत्वं कृता कृतिः । जिनरत्तस्य संजातः श्याम वर्णन केवलम् ।। १६॥
अब कुमार ने अपनी वामन-बौने की प्राकृति को छोड़ दिया और यधार्थ जिनदत्त की प्राकृति को धारण कर लिया परन्तु शरीर रंग श्याम-काला बना लिया ।। १६॥
विस्मिताभि स्ततस्ताभिः स लज्जाभिश्च भूपतिः । प्रोचे तात स एषायें परं वर्णेन नो समः ॥ २० ॥
इसे देखकर वे दोनों अद्भुत प्राश्चर्य में डूब गयीं, लज्जा से १५० ]
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पानी-पानी हो गई, हैरत में पड़ गयीं, फिर भी साहस कर राजा के प्राग्रहानुसार बोली, हे तात ! यही हमारे प्राणनाथ हैं किन्तु वर्ण से उनके समान नहीं हैं ।। २० ॥
ततः स्मित्वा भवस्सोऽपि तप्तबाम्बूनबमछविः। तथा यथाभ पांश्वित्र लिखिता इव तास्तदा ।।२१।।
इस प्रकार सुरत ही हंसकर झारने तपाये हुए सुवर्ण की भाँति अपने शरीर की वास्तविक छवि को धारण कर लिया। यह विचित्र सहसा परिवर्तन देखकर तीनों चित्र लिखित सी बैठी रह गयीं ।। २१ ।।
उवञ्चबूच्च रोमाश्च स्फूरत कञ्चक जालिकाः। समुस्थाय ततो लम्मा: स्वामि पावद ये मुदा ।। २२ ॥
उनका रोम-रोम उल्लसित हो गया। शरीर में सर्वत्र रोमाञ्च हो जाने से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों हर्षांकुरों की चोली ही धारण की है। वे शीघ्र उठी और अपने पतिदेव के चरणों में प्रानन्द से जा लिपटी ।। २२॥
य: पुरा क्षे तौबस्तासां विरह पावकः । प्रानन्दाथ प्राहेण सेनासो शमितो भ्रमम् ।। २३॥
जो पूर्व विरह से तीव्र ताप बढ़ रहा था वह पतिवियोग की अग्नि का संताप इस समय प्रानन्द के प्रभु प्रवाह से उसने (कुमार ने) बुझा दिया। निश्चय ही उनका हर्ष अपूर्व था ॥ २३ ॥
यव भावि तदा तासां सौख्यं किमपि मानसे । तत्र तस्यापि तत्सर्व कवि वाचामगोचरम् ।। २४ ॥
उस समय उनके मन में कितना सुख-संतोष हा वह सर्व कवि की वाणी से अगोचर है। अर्थात उसका कथन करना लेखक की लेखनी द्वारा नहीं किया जा सकता उस मिलन का दृश्य अपूर्व ही था ॥ २४ ॥
संभाविताश्च तास्तेन सलमा निकटे स्थिताः। भूषणाम्बर ताम्बल पुष्पः राज्ञा प्रपूजिताः ॥ २५ ॥ इस प्रकार कुमार के निकट समर्यादा, लज्जापूर्वक उन्हें देखकर
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निश्चित संभावित कर लिया कि ये इसी की भार्याएँ हैं। उसी समय राजा ने सुन्दर अलङ्कार, वस्त्र, ताम्बूल पुष्पादि द्वारा उनकी पूजा की प्रति विशेष सम्मान किया ।। २५ ॥
ज्ञात वार्ता स तत्रत्य विमलो परिणजी पतिः। नत्वेशंगाढ मालिङ्गाय जिनदत्तमुपाविशत् ॥ २६ ॥
यह वार्ता बिजली की भांति शीघ्र ही नगर में फैल गयी। विमल वणिक् पति ने सुनी तो तत्क्षण वहाँ प्राया। राजा को प्रणाम कर जिनदत्त कुमार के पास प्रा प्रीति से गाढालिङ्गन किया। उसने भी पिता स्वरूप श्वसुर को नत हो प्रणाम किया ।। २६ ।।
क्षेपिं परिपथ संबका पहरो नाम । जवाचेति यया देव कुमारः प्रेष्यतां गृहम् ।। २७ ॥
परस्पर क्षेम कुशल पूछी, और बेठ गया। वार्तालाप करते हुए अवसर पाकर सेठ ने राजा से निवेदन किया, हे देव कुमार को मेरे घर जाने की प्राज्ञा दीजिये ॥ २७ ॥
राशावादीदमेवास्य गेहं गुरण महोवधेः । पाप्येवं तथापीश गाढमुत्कण्टिता वयम् ॥ २८ ॥
यह सुनकर राजा ने कहा इस गुणसागर का यही घर है। 'यद्यपि यह आपका कथन सत्य है तो भी हम अत्यन्त उत्कण्ठित हैं" सेठ ने प्रत्युत्तर दिया। हमारा पूरा परिवार कुमार के दर्शन को लालायित है ॥ २८ ॥
संभाषादौ कुमारस्य किचौचित्य क्रमोस्तिन: । इति तस्योपरोधेन विसष्टोसौ महीभुजा ।। २६ ।।
दोनों के इस प्रकार वार्तालाप को सुन कुमार ने कहा इस समय इनका कहना उचित है, मैं भी जाना चाहता हूँ क्योंकि मेरा भी प्रौचित्य इसी में है। यही क्रम भी ठीक है । कुमार का प्राग्रह देखकर नृपति ने भी अनुमति दे दी। अर्थात कुमार को सेठ के घर भेज दिया ।। २१ ।।
सकान्तं सोऽपि तं नीत्वा मन्दिरे मुक्तिो भृशम् ।
सावरं विदधे तस्य तत्रौचित्यं यथा विधि ।। ३० ॥ १५२ ]
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श्रेष्ठी भी अपने जमाई को पुत्रियों के साथ अपने घर ले गया और मानन्द से आदरपूर्वक उसका यथोचित सम्मान दान किया । यथा विधि स्वागत किया ।। ३० ।
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प्रारेमे चततः कर्तुं मुत्सवः सत पौर: सर्वोषि चायात स्तद्दर्शन
ससधाजनः ।
समुत्सुकः ॥ ३१ ॥
सेठ ने महान उत्सव प्रारम्भ किया। दर्शनों को सेंकड़ों की संख्या में उमड़ पड़े। नृत्यादि होने लगे । सभी उत्सुक थे ॥ ३१ ॥
नगर के नर-नारी उसके सेकड़ों प्रकार के गीत
तथा काल ततश्चक्रे सुख संभाषण विकम् । श्रेष्ठिना सोऽपि वृत्तं स्वमवादींवादि तस्ततः ।। ३२ ।।
माने जाने वालों का तांता कुछ समय बाद शान्त हुआ । यथावसर श्रष्ठी में कुमार से दुख संभावरा करना मार दिया। कुमार ने भी अपना समस्त वृत्तान्त आदि से अन्त तक क्रमशः सुनाया ।। ३२ ।।
नितम्बन्यो पितास्तस्य साभिज्ञानं सुविस्मिताः । प्रश्रौषु वृत्तमात्मीयं न्यगवंश्च यथा क्रमम् ॥ ३३ ॥
अपनी पत्नियों का वृत्तान्त भी सुनाया । श्रेष्ठी ने उन्हें पहिचान प्राश्चर्य से उन्हें भी उनका वृत्तान्त पूछा और क्रमश: सुनकर परम विस्मय को प्राप्त हुआ ॥ ३३ ॥
विदधे च जिनाबोशा यतनेषु समुत्सवम् । जिनार्था स्नानपूजाद्यं दीनावीनां विहाय तम् ॥ ३४ ॥
तदनन्तर कुमारादि ने श्री जिनेन्द्र भवन में महोत्सव किया । श्री जिनदेव की पूजा - पञ्चामृताभिषेक, भष्ट प्रकारी पूजादि कर, यतियों को दानादि दिया। दीन अनाथों को भी यथोचित वस्तु प्रदान की । इस प्रकार सुख से ठहरा ।। ३४ ।।
प्रथान्येयुः शुभे लग्ने सुमुहूर्ते शुभे विवाह मङ्गलं राज्ञा कन्याया स्तेन कारितम् ।। ३५ ।।
तिथौ ।
अथानन्तर राजा ने शुभ दिन, शुभ लग्न, शुभ मुहूर्त और शुभ
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तिथि में अपनी प्रिय पुत्री कन्या का विवाह उस कुमार के साथ यथा विधि सम्पन्न किया ।। ३५ ।।
राज्यालंकार पूर्वञ्च दत्त्वा देशादिकं बहु । महा सामन्त मेतं स चकार नर नायकः ॥ ३६॥
नरेश ने दहेज में अनेकों प्रलंकार, अनेक देश सामन्त प्रादि दिये। राज्यालंकार प्रदान कर उन्हें संतुष्ट किया ।। ३६ ।।
इस प्रकार नाना भीड़ाओं से प्रजा को प्रानन्द प्रदान कर वह सुख संतोष से जीवन यापन करने लगा। एक समय उसे अपने पिता-माता के दान का गान मारा : उसने न - इस प्रथम अपना कुशल समाचार भेजा।
प्रेषिताश्च कुमारेण पुरुषास्तात सन्निधौ । समयं बहु मेदानि द्वीप रत्नादि बेगतः ।। ३७ ॥
एक समय कुमार ने नाना द्वीपों से प्राप्त अनेकों अमूल्य बहुरत्नों के साथ पुरुष भेजा । वह भी वेग गति से उसके पिता के यहाँ पहुँच गया और वे रत्नादि भेट स्वरूप प्रदान किये ।। ३७ ।।
उपलभ्य च ताताधास्तदुवन्तं न मानसे । उल्लासेन ममुश्चन्द्र बिम्बादिव पयोषयः ।। ३८ ॥
अपने प्रिय पुत्र का कुशल समाचार एवं वैभव को पाकर माता-पिता प्रादि कुटुम्बी जनों को परमानन्द हुग्रा। जिस प्रकार चन्द्रोदय से सागर का जल उत्ताल तरंगों से उछलता है, उमड़ता है उसी प्रकार उनके मन का उल्लास वृद्धिगत हुमा ।। ३८ ॥
प्रेषिताश्च ततो लातु तस्य तातेन घागताः । तेऽपि प्रगम्यतां वाच मूखुरेख कृतावरः ।। ३६ ।।
पिता ने भी उन आये हुए सुभटों को तथा अन्य अपने योग्य पुरुषों को पुत्र जिनदत्त को लाने के लिए भेजा। ये सभी वहाँ पहुंचे । कुमार को प्रणाम कर मादर से कहने लगे || ३६ ।।
यथा विधीयतां नाय विलम्बेन विनोद्यमः ।
गमनाय किमयं स्थीयते स्व जनावते ॥ ४०॥ १५४ ]
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हे नाथ ! अब बिना विलम्ब के शीघ्र यहाँ से प्रस्थान करिये । पिता के समीप जाने का उद्यम करना योग्य है। क्योंकि स्वजनों के बिना यहाँ रहना क्या श्रेष्ठ है ? नहीं। सम्पत्ति का भोग स्वजनों के साथ भोगना सज्जन पुरुषों का लक्षण है ।। ४० ।। तातस्तवाभि नवं चन्द्र समान मूर्ति ।
तो वियोग भरतो भयसोति दुःखात् ।। मातुश्च बास्प जल विप्लुत कज्जलाया । गण्डस्थली मलिनता विजही न जातु ॥४१॥
हे कुमार ! आपके पिता मापके वियोग भार से अत्यन्त दुःखी हैं, उस संताप से उनकी कान्ति क्षीण होकर द्वितीया के मयत समान रह गयी है। प्रापकी पूज्या मातेश्वरी का हाल बेहाल हो रहा है, वह अहर्निश शोकाश्रु बहाती है। उस प्रवाह से नेत्रों का कज्जल घुलकर उसके कपोलों को कृष्ण बनाये हुए है अर्थात् उसके गण्डस्थल कालिमा को कभी छोड़ते ही नहीं हैं ।। ४१ ।।
प्रन्योपि माधव ननः सकलो बियोग । दुःखेन दुःस्थ हृदयोन्दुदिनं तवास्ते ॥ तिष्ठन्ति सांप्रतममी भवदीय पत्र ।
सन्दर्शनेक रसिका श्च सवेहि शोध ॥ ४२ ।। । इतना ही नहीं अन्य सभी बन्धु-बांधव प्रापके विरहानल से दग्ध हो रहे हैं। सभी दुःखित हैं। सबका हृदय आकुलित है और सब हर क्षण प्रापके मुख चन्द्र के दर्शन को पलक पावडे बिछाये बैठे हैं। प्रतः अब माप शीघ्र ही प्राइये। अर्थात् अपने पितृ गृह को प्रस्थान कीजिये ।। ४२ ॥
श्रुत्वेति तस्य वचनं नितरां समुत्कः । से प्रच्छय भूप वरिणगीश पुर: सरं सः ।। लोकं चचाल दयिता सहितो बलेना। कल्पेन कल्पित मनोहर दिव्य यान: ॥४३॥
इस प्रकार प्रागन्तुकों के वचन सुन कर कुमार अपने घर जाने को अधीर हो उठा। वह अत्यन्त उत्सुक हो गया। उसी समय नृपति और
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वणिपति अपने युगल श्वसुरों से जाने की प्राजा ली । पुनः उन्हें एवं पुखासियों की भी अनुमोदना ले उनको प्रागे कर प्रस्थान किया। अपनी पलियों, अनल्प विभूति, अमूल्य सम्पत्ति के साथ स्वयं बनाये अनुपम मनोहर गान तैयार किया और प्रारूढ़ हो वेग से प्रयाण किया ॥ ४३ ॥
प्राप्तस्ततः क्षणतयेव पुरं प्रवद्धा। मन्बेन माधव जन समं समेत्य ।। तासेन कल्पित समुत्सव माकुलेन । स्वानन्द पूर्ण हृवयेन गृहं स निन्ये ।। ४४ ।।
अल्प क्षणों में ही वह अपने दिव्य विमान से जननी-जन्मभूमि में जा पहुँचा । उस समय पुर की अद्भुत शोभा देखते ही बनती थी। चारों ओर मानन्दोत्सव हो रहा था। बन्ध बान्धव यानन्द से उसकी प्रागवानी को सजधज कर उपस्थित थे। पिता के द्वारा पुत्र के आगमन में किये गये नाना नृत्य-गानादि से व्याकोणं था । सभी हर्ष और उल्लास से भरे थे। इस प्रकार महा महोत्सव पूर्वक अपने तातादि पारिवारिक जनों के साथ अभिनन्दित कुमार ने उनके साथ ही अपने घर में प्रवेश किया ।। ४४॥
इस प्रकार श्री भगवद् गुणभद्राचार्यकृत श्री जिनदत्त चरित्र में सातवाँ सर्ग समाप्त हुआ।
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( अष्टम् - सर्ग )
अथासौ सदनं प्राप्य प्रस्तुताखिल मङ्गलम् । ननाम मातरं सापि रूशेदाप्राय मस्तकम् || १ |
कुमार ने शुभ मङ्गल पूर्वक अपने सदन में प्रवेश किया। उस समय नाना प्रकार सौभाग्यवती नारियों ने शुभ मांगलिक क्रियाएँ सम्पादित की, अर्थात् दूर्वाक्षत, पुष्प प्रादि क्षेपण किये । निरांजना उतारी प्रादि । तदनन्तर उस कुमार ने अपनी माँ के चरणों में विनय पूर्वक नम्रीभूत से हो प्रणाम किया । उसने भी ( माँ ने उसे रुदन करते हुए हृदय लगाया श्रीप उसका मस्तक चूमा ॥ १ ॥
समाश्वास्य ततस्तां स यथा ज्येष्ठ कृतानतिः । भद्रासने निविष्ठश्च भवन् भाजन माशिषाम् ।। २ ।।
कुमार ने यथायोग्य अपनी अधीर माँ को ग्राश्वासित किया तथा अन्य सभी ज्येष्ठ- बड़े पुरुष स्त्रियों को नमन किया । तदनन्तर भद्रासन पर श्रासीन हुआ। उस समय सभी गुरुजनों ने उसे विविध शुभाशीर्वाद प्रदान किये ॥ २ ॥
प्रक्षतानि दव त मस्तस्य जनीजनः ।
गीत वादित्र नृत्यादि कृतानि च सहस्रशः ॥ ३ ॥
सुभाषिनी नारी समूह ने उसके शिर पर प्रक्षत क्षेपण किये । हजारों प्रकार के गीत, नृत्य, वादित्रादि से महोत्सव किया ।। ३ ॥
श्व प्ररणस्य नारीणा मन्या सा मदियोः । पपात कम इत्यस्य कान्तानां च चतुष्टयम् || ४ ||
चारों पत्नियों ने भी सास स्वसुर के पादकमलों में नमस्कार किया पुन: अन्य सभी के योग्यतानुसार क्रमशः चरण स्पर्श किया || ४ ||
निविष्टञ्च समासा वनिता जन मध्यतः । स्वरूप संपदा सर्व भाविता हित विस्मयम् ॥ ५ ॥
यथायोग्य विनयोपचार कर वे चारों रमणियों से प्रावेष्टित हो यथायोग्य प्रासन पर मासीन हुयीं। उनका रूप लावण्य सबको आश्चर्य [ १५७
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से चकित कर रहा था। अर्थात् सभी की दृष्टि इनके सौन्दर्यपान में लगी हुयी थी । स्वरूप सम्पदा से समीपस्थ नारी जन को महा विस्मय का केन्द्र बन गईं ये चारों ।। ५ ।।
संभाषिताश्च सर्वेऽपि बान्धवाः स्निग्ध बुद्धयः । सस्त्रीका स्तन्मुखाम्भोज लीन नेत्रालि मालिकाः ॥ ६ ॥
सर्व बान्धव जन सस्नेह बुद्धि से उसके गुण, बल, पौरुष से नाना प्रकार सम्भावित कल्पनाओं में मुग्ध थे। जिनदत्त को उसकी अनुपम सुन्दर स्त्रियों सहित देख सभी जन उसके मुखपंकज के निहारने में निनिमेष पसक थे। ऐसा प्रतीत होता था मानों मुख रूपी अरविन्द पर ये नेत्र रूपी भ्रमरों की पंक्तिमाला क्रीड़ा कर रही है-गूंज रही है ।। ६ ।।
गत्वा ततो जिनेन्माणां सर्वेष्वायत नेब्बसे । भक्तया पूजादिकं कृत्वा चकारोत्सव मावृतः ॥ ७ ॥
सर्व प्रकार लौकिक सस्क्रियायों के बाद ये सन श्री जिनेन्द्र भगवान के प्रायतन-मन्दिर में गये। सभी जिनालयों में अत्यन्त भक्ति से पूजन, स्तवन, भक्ति प्रादि करके महा उत्सव मनाया। जिनभक्ति के मनन्तर गुरु वन्दना को चला ॥ ७ ॥
प्रणमाम गुरुगरच पाच पानि भक्तितः । कृश्य कृत्य मिवात्मानं मेने संभाषिताच तैः ॥ ८ ॥
जिनालयस्थ स्थित श्री वीतराग-मुनिवृन्द के पादपद्यों में भक्ति से नमस्कार किया। उनके साथ घामिक संलाप कर अपने को कृतकृत्य माना । ठीक ही है सद्विवेकी जन अपने कर्तव्य में सतत जाग्रत रहते हैं। वे धर्म पुरुषार्थ को अग्रकर अन्य क्रियामों में प्रवतं होते हैं ।। ८ ।।
प्रागत्य च ततो दायि दीनानाथायिनां धनम् । यथा काम कुमारेण मारेणेव स मूत्तिना |६ ॥
वहाँ से पाकर दीन, अनाथ, गरीबों को यथेच्छ दान दिया। कामदेव की मूर्ति स्वरूप कुमार ने समस्त प्रथिजनों को संतुष्ट किया ।।६।।
तथास्य परितं श्रुत्वा पूजितोऽसौ विशेषतः ।
चन्द्र शेखर राजेन जन रम्येष सादरम ।। १० ।। १५८ ]
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कुमार का चरित्र-शौर्य, धैर्य, वीर्य पराक्रमादि का यश चारों ओर विस्तृत हो गया। नृपति चन्द्रशेखर ने भी विश्रुति सुनी, सुनकर विशेष रूप से उसका आदर सम्मान-सत्कार-पूजा की। अन्य सामन्तादि ने भी यथायोग्य उसका सम्मान किया । ...
इत्थमानन्द मुत्पाद्य तातादीना मुवाच सः । यथा क्षणं स्ववृत्तान्त मशेष प्रश्नपूर्वकम् ॥११॥
इस प्रकार अपने पिता-मातादि परिवार को मानन्द उत्पन्न कराता यथा समय प्रश्नादि पूर्वक अपने वृत्तान्त-पर्यटन की घटनाओं को भी सुनाता ॥ ११ ॥
यान्ति तत्र दिनान्यस्य सुरस्येव सुरालये। पञ्चेन्द्रिय सुखं सम्यक् ममानस्य निरन्तरम् ।। १२ ।।
आमोद-प्रमोद पूर्वक इसका समय स्वर्ग में देवों के समान पञ्चेन्द्रियों के विषय सुखों को भोगने में व्यतीत होने लगा। निरन्तर सुखों में लीन रहने लगा ॥ १२ ॥
उद्यान बोधिकाशाल शोभितानि पदे पदे । अकारयश्च चित्राणि मदिराणि जिनेशिनाम् ॥ १३ ॥
उसने रमणीय उद्यान, खातिका, वापिका, कोट आदि पद-पद पर बनवाये । अनेक नाना प्रकार की कलाओं से समन्धित जिमालयों का निर्माण कराया ।। १३ ।।
सारं श्रावक धर्मस्य विततार यथा विधि । पतुर्विधस्य संघस्य दानमेष चतुर्विधम् ॥ १४ ।।
श्रावक धर्म का प्रमुख सारभूत, चतुर्विध संघ को चार प्रकार का दान का विस्तार किया । मुनि, यति, ऋषि और अनगार इन चार प्रकार के निर्ग्रन्थ मुनीश्वरों के समूह को चतुर्विध संघ कहते हैं अथवा मुनि, प्रायिका, श्रावक-श्राविका को भी चतुर्विध संघ कहते हैं। खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय यह चार प्रकार का आहार है, इसे देना-माहार दान, शास्त्रादि-ज्ञान दान, औषध दान और अभय दान यह चार प्रकार का दान है। दिगम्बर साधुनों को वितरित दान ही दान कहलाता है ।
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जिनदत्त कुमार सपरिवार-पत्नियां सहित इन दानों को कर अपने गार्हस्थ्य जीवन को सफल करता ॥ १४ ।।
स प्रार्चनः प्रयाति स्म एवंणां च चतुष्टये। इष्टं जनं समादाय वन्धितु जिन पुगवान् ॥ १५ ॥
अष्टमी और चतुर्दशी प्रादि चारों पर्यों में अपने इष्ट जनों को । लेकर श्रेष्ठ जिनदेव की वन्दनार्थ जाता ।। १५ ।।
पञ्च कल्याण भू भागान् मेक कुल शिलोच्चयान् । एति चानन्य भक्तया सौ चारषि यतीश्वरान् ।। १६ ।।
अत्यन्त प्रगाढ भक्ति से पञ्च-कल्याणक भूमियों की वन्दना, मेरू, कुल, पर्वत मादि पर जाकर चारग ऋषिश्वरादि की वन्दना करने जाता ॥ १६ ॥
तथातिशय सम्पन्न दृष्ट्वा जनपदोप्यसौ। तं बभूव समस्तोऽपि जिनधर्म परायणः ॥ १७ ॥
इसके सातिशय धर्म कार्यों और भक्ति को देखकर समस्त जनपद भी जिनधर्म में परायण हो गये ।। १७ ।।
गजास्य रथ घनना मन्यासामपि सम्पदाम् । जाता संख्या ग्रहेनास्य वीचीमामिव सागरे ।॥ १८ ॥
उसके घर में असंख्य रथ, घोड़े, हाथी, गाय आदि सम्पदा हो गयीं । जिस प्रकार सागर में असंख्य लहरे होती हैं उसी प्रकार नाना सम्पदाएँ हो गई ॥ १८ ।।
ऋतयो पि वसन्ताधा: सकान्तस्य यथोचितं । भुजानस्य प्रयान्तस्य सुखं शारीर मानसम् ।। १६ ।।
अपने प्रियतम के साथ भोग विलास करने वाली उन कमनियों को वसन्तादि ऋतुएँ भी अनुकूल हो गईं। शारीरिक और मानसिक सभी । प्रकार के सुखानुभव पूर्वक समय व्यतीत होने लगा ।। १६ ।।
सुबत्त जय बत्तास्यो बिमलादि मसिः सुतौ । बसन्तलेखपा साधं सुप्रभं श्रीमती तथा ।। २०॥
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सुख पूर्वक भोगों में अनुरक्त जिनदत्त की प्रथम पत्नी विमलामती के दो सुकुमार-सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुए । प्रथम का नाम सुदत्त और द्वितीय का जयदत्त नाम घोषित हुआ तथा इन दोनों की "वसन्तलेखा" नाम की रूपवती बहिन भी हुयी। यह श्रीमती के गर्भ से जन्मी थी तथा सुप्रभ नामक पुत्र भी हुआ। पर्थात् द्वितीय पत्नी श्रीमती महादेवी ने एक कन्या और एक कुमार को जन्म दिया ।। २० ।।
सुकेतु जयकेतु च केतु गरुड़ पूर्वकम् । खगाधीश तनूजा च विजयादि मति सुताम् ॥
२१ ॥
तृतीय भार्या से सुकेतु, जयकेतु एवं गरुडकेतू नाम के तीन पुत्र रत्न हुए । यह नारी विद्याधर राजा चक्रवर्ती की पुत्री थी। प्रतः तदनुसार पराक्रमी पुण्यशाली संतान भी हुयी। इसका नाम विजयामती था। इसे तीन पुत्रों की सवित्री होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।। २१ ॥ जयमित्रं च वसुमित्रं नृपात्मज ।
सुमित्रं
प्राप पुत्रान् तुरीयाञ्च पुत्रीं नाम्ना प्रभावतीम् ।। २२ ।।
चतुर्थ पत्नी जो चम्पापुर नरेश की पुत्री थी, ने सुमित्र, जयमित्र और वसुमित्र इन तीन पुत्रों के साथ अनन्य सुन्दरी प्रभावती कन्या प्रसव करने का सौभाग्य प्राप्त किया ।। २२ ॥
कारितश्च समस्तानां जन्म नाम परोयाः ।
तथा महोत्सव स्तेन यथा लोकः सुविस्मितः ॥ २३ ॥
जिनदत्त एवं उसके तातादि ने इन सभी का जन्मोत्सव, नामकरण संस्कार आदि क्रियाएँ महा महोत्सव पूर्वक कीं। जिससे समस्त लोक विस्मय में पड़ गये अर्थात् श्राश्चर्य चकित हुए ।। २३ ।।
एवं बद्ध यतस्तस्य
त्रिवर्गोद्दाम
पादपम् । कालः कोऽपि जगामास्य मग्नस्य सुख सागरे ॥ २४ ॥
इस प्रकार उसके त्रिवर्ग - धर्म, अर्थ और काम रूप पादप उद्दाम वृहद रूप से निर्विघ्न वृद्धिंगत हुए। सुख सागर में निमग्न इसका समय कितना किधर जा रहा है यह प्रतीत ही नहीं होता । ठीक ही है भोगों का नशा ऐसा ही होता है किन्तु धर्म ध्यान पूर्वक हो तो यह उन्मत्त नहीं बनाता। जिनदत्त भी सावधान था ॥ २४ ॥
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अन्यदा सो पुरस्कृत्य सर्वत्त कुसुमादिकम् । विज्ञप्तो वन पालेन सभामध्य व्यवस्थितः ॥ २५ ॥
एक दिन जिनदत्त राजसभा में उपस्थित था। उसी समय वनपाल पाया । पड़ ऋसुनों के फल-फूल भेंट कर विज्ञप्ति की ।। २५ ।।
भुगार हिललोहार सामागतः । दधत समाधि गुप्ताख्यां चतुर्जानी मुनीश्वरः ॥ २६ ॥
हे देव ! शृगार तिलक नाम के उद्यान में प्राज प्रातःकाल दीप्तिमान चार ज्ञानधारी मुनिराज पधारे हैं। उनका नाम समाधिगुप्त
ऋतुवस्तस्य भरुयेव योगपद्यादुपागताः । पुष्पाभरण मनाहि दृष्ट्वं च वश्रिया ।। २७ ॥
मुनि पुङ्गव के प्रागमन मात्र से भक्तिभाव से उल्लसित सभी ऋतुनों के फल-फलों से अनेकों वक्ष झूम उठे। एक साथ सर्वत्र वन श्री ने पुष्पाभरण धारण कर लिए। मानों साक्षात् लक्ष्मी ही शृंगारित हो उपस्थित हुई हो ॥ २७ ॥
सरस्योप्य भवं स्तन विकचांभोग लोचनाः। जाडाशयोपि को नाम नोल्लासि मुनि दर्शनात् ॥ २८ ॥
हे कुमार ! सरोवरों में नीरज रूपी नेत्र विकसित हो गये । क्या जड़ रूप भी मुनिदर्शन को उल्लसित नहीं होते ? होते ही हैं। अभिप्राय यह है कि बोतराम परम निर्गन्ध मुद्रा को निहारने के लिए मानों सरोवरों ने खिले पंकजों बहाने अनेक नेत्र धारण कर लिए हैं।॥ २८ ॥
मुज गुजदलि वातो भ्राम्यं स्तत्र विराजते । निर्गच्छनिय तभीत्या पाप पुजो रुवन् वनात् ॥ २६ ।।
उन विकसित सुमनों पर अनेकों मधुकर गूंज रहे हैं । ऐसा प्रतीत होता है मानों पापपुज भयभीत होकर उद्यान से रोता हुअा भाग रहा है ॥ २६ ॥
प्राश्रित्य सहकाराणां शाखा: प्रत्यग्र मञ्जरीः ।
भव्यां स्तबाहयन्तीष कोकिला: कल निश्वना ।। ३० ।। १६२ ]
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सहकार वृक्षों की शाखाएँ मञ्जरियों से लद गयीं हैं-प्राम्र वृक्षों के प्राश्रय शाखाएँ मजरी-भौंरों से लद कर झूम रही हैं । उन पर कोकिलाएँ कल-कल-मधुर स्वर से कुहुक रही हैं, फुदक रही हैं मानों भव्य प्राणियों को श्री गुरु के सदुपदेश श्रवण करने को आह्वान कर रही है-बुला रही हैं ।। ३० ॥
तावन्ध्यानो प्याश फल पुष्प चिता विभो। वर्तते सर्व सामान्यं तादृशानां हि चेष्टितम् ।। ३१ ॥
हे विभो ! उस उद्यान में प्रवकेशी-वन्ध्या लता भी फल-पुष्पों से युक्त हो गई है । शीघ्र ही सर्व वनस्पतियाँ उसी प्रकार चेष्टाएँ धारण कर सुशोभित हो रही हैं। सर्वत्र हरा-भरा साम्राज्य हो गया है ।। ३१ ॥
मन्व गन्ध पहोमूता नत्यन्ति कुसुमाञ्ज लिम् । प्रक्षोप्येव लतास्तत्र सदानन्देन नो चिताम् ॥ ३२ ॥
मन्द-मन्द पवन के झकोरों से कुसुमाञ्जलि लिए डालियाँ झूमअम कर नृत्य कर रहीं हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानों मानन्द से लताएँ कुसुम प्रवकीर्ण कर प्रांगन में मङ्गल चौक-स्वास्तिकादिपूर रही हैं ।।३२॥
वाति प्रभजन स्तत्र माननी मान भजनः । तादृशस्य प्रभोः सङ्ग तथा कि मोपजायते ॥ ३३ ॥
हे नाथ ! माननियों का मान भजन करने वाली वायु बह रही है । इस प्रकार के परम तपस्वी श्री मुनि पुङ्गव के सानिध्य से भला उसका इस रूप में बहना उचित नहीं क्या ? उचित ही है। अर्थात् निष्कषाय-वीतरागी प्रभो... गुरु का सम्पर्क प्राप्त कर पवन भी मान कषाय संहारक क्यों न होती ? हो ही गई। ३३ ।।
पासते यतय स्तत्र विविद्धि विराजिताः । धर्माः समूर्त यो मन्ये भव्य पुण्याय ते सथा ॥ ३४ ॥
वहाँ अनेकों ऋद्धिधारी ऋषिराज विराज रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानों धर्म साक्षात् मूर्तिमान रूप धारण कर पा उपस्थित हुना है । मानों वे भवय जीवों के पुण्य के लिए ही इस प्रकार यहाँ पधारे हैं। अर्थात् भव्य प्राणियों के उज्ज्वल पुण्य समूह ने उन्हें यहाँ प्राकर्षित किया है ।। ३४ ।।
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प्रपायुस्तत् क्षरणादेव सर्व पापानि पश्यताम् । सक्ताः संयमिनः शश्वत् स्वाध्याय ध्यान कर्मणि ।। ३५ ।।
निरन्तर ध्यान स्वाध्याय में संलग्न उन संयमियों के दर्शन मात्र से तत्क्षणपाप समूह नष्ट हो जाता है । अर्थात् सर्व पापों की स्थिति उनके दर्शन से क्षीण हो जाती है, श्रपकृष्ट हो जाती है ।। ३५ ।।
निशम्य तं प्रदायास्मै प्रसादं मुदितस्ततः । ननाम तां दिशं गत्वा भक्तया सप्त पदानि सः ।। ३६ ।।
आगत वनपाल के द्वारा इस प्रकार श्री प्राचार्य देव के ससंघ आगमण कुठे प्रभाव को सुनकर (जिनत ३) मुदित हो महा प्रगाढ़ भक्ति से उस दिशा में सात पेंड गमन किया। कराञ्जुलि मस्तक पर धारण की। पुनः यथाविधि गवासन से नमस्कार किया ।। ३६ ।।
एकान्तो मिलिता शेष बन्धु लोक परिच्छदः । तत्कालोचित थानेन वन्दनायै चचाल सः ॥ ३७ ॥
तत्क्षण एक स्थान पर सभी अपने बन्धु बान्धव परिजनों को समन्वित किया । यथा योग्य वाहन पर सवार हो गुरु बन्दनार्थं प्रस्थान किया ।। ३७ ।।
उत्तीर्य दूरतो याना द्विवेशास भवनान्तरम् । कूल विहंगमाराव विहित स्वागत क्रियम् ॥ ३८ ॥
दूर से ही उद्यान दृष्टिगत हुआ। उसी समय सवारी से नीचे उतरा । पैदल चलने लगा। लघु समय में ही उद्यान में प्रवेश किया। उस समय पक्षीगण मनोरम स्वर में कूज रहे थे । मानों उसका स्वागत गान ही गा रहे हों ? उनसे सम्मानित कुमार ने उद्यान में प्रवेश किया ॥ ३८ ॥
प्रदेशं स ततः प्राप यत्रास्ते यति नायकः । श्रासोनो शोक वृक्षस्य मूलेऽमल शिला तले ॥ ३६ ॥
तत्पश्चात् शीघ्र ही वह उस प्रदेश में पहुँचा, जहाँ श्री मुनिराजयतिनायक अशोक वृक्ष के नीचे स्वच्छ-निर्मल प्राशुक शिलातल पर विराजमान थे ॥ ३६ ॥
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त्रिपश्य ततः स्तुत्वा तमन्यां श्च यतीश्वरान् । विनीतात्मा यथा स्थानं निविष्टोसौ कृताञ्जलिः ॥ ४० ॥
कर युगल जोड़कर जिनदत्त ने तीन प्रदक्षिणा दीं । यत्ति शिरोमणि गणनायक प्राचार्य परमेष्ठी को प्रथम नमस्कार किया, पुनः शेष यति रत्नोंको क्रमशः नमस्कार कर यथोचित स्थान पर बैठ गया । विनीतात्मा उस समय भी हस्त युगल जोड़ विनय से बैठा ।। ४० ।।
पुण्याकुरे रिया शेषां कुर्वन् विच्छुरितां सभाम् । धर्म वृद्धि बभारणासो यतीशो दशनांशुभिः । ४१ ।।
हुए.
पुण्याकुरों से समस्त सभा को अभिसिंचित करते अपनी दन्त पंक्तियों से प्रस्फुरायमान किरणों से "धर्मवृद्धि हो" इस प्रकार यतिनायक गुरुदेव ने प्राशीर्वाद दिया ।। ४१ ।।
ततो दाबीषयं भक्ति नम्र मूर्ति मुनीश्वरम् । मादृश मुग्ध बुद्धीनां दुर्लभं तव दर्शनम् ॥ ४२ ॥
आशीर्वाद प्राप्त, हर्ष एवं भक्ति से नत्रीभूत यह जिनदत्त बोला, हे प्रभो मेरे जैसे मुग्ध - मन्द बुद्धि जनों को श्रापका दर्शन प्रति दुर्लभ है ||४२||
तावदेव जगन्नाथ मोहान्ध तमसावृतम् । विचरन्ति न ते यावत् भानोरिव बच्चोंशयः ।। ४३ ।।
तो भी है जगत के नायक ! जीव तब तक ही मोह रूपी अंधकार से व्याप्त हैं जब तक कि आपके वचन रूपी सूर्य की किरणें उन्हें प्राप्त नहीं होतीं । अर्थात् आपका धर्मोपदेशामृत हम जैसे मोही प्राणियों के मोहान्धकार को नष्ट कर सम्यग्दर्शन प्रदान करने वाला है || ४३ ॥
भवान्ष कूप संपाति विश्वमाशु भवश्यदः । भवादृशा न चेत् सन्ति रश्न दोषास्तमश्छिदः ॥ ४४ ॥
हे प्रभो ! आप समान- तमरच्छेदक रत्न दीपक के समान यदि न हों तो यह सारा संसार शीघ्र ही संसार रूपी अंधकूप में जा गिरे। श्रतएव श्राप रत्न दीप हैं। भव्य जीवों को पथ प्रदर्शन कर कुमार्गमियामार्गे से बचा कर सन्मार्ग - मोक्षमार्ग प्रदर्शित करते हैं ॥ ४४ ॥
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विषयाशा हुता शेन वह्यमाने उद्भव्य पुण्येन सुत्रा मेघो
जगद्वने ।
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यह सारा संसार विषयों की आशा रूपी अग्नि में धांय धांय जल रहा है। उसे शमन करने में आप मेघ समान हैं। भव्य जीवों के पुण्य से ही ग्राम अमृत मेघ वर्षण करने संसार में उदित हुए हैं ।। ४५ ।।
त्वत्पाव पद्म सङ्गोऽपि यस्तत्वं मन्व भाग्यः समुद्रेऽपि शंखकानां
नावबुध्यते । सभाजनम् ॥। ४६ ।।
श्रापके चरण कलमों में श्राकर भी यदि कोई तत्त्व का अवबोध नहीं करता है तो वह रत्नों से भरे सागर में जाकर भी मन्द भागी सीप, शंख को ही इकट्टा करने वाला है । अर्थात् आपके धर्मामृत का पान करके भी यदि आपसे स्व तत्त्व परिज्ञान नहीं करता तो वह मूर्ख है । मन्द भागी है । रत्नाकर से शंख संचय करने वाले के समान प्रज्ञानी है ॥ ४६ ॥
सूर्य चन्द्र मसौ यत्र कर प्रसर वजितौ । ज्ञामाख्यं तब तत्रापि चक्षुः प्रतिहतं न हि ॥ ४७ ॥
जिस स्थान में रवि एवं चन्द्र की तीक्ष्ण, शान्त किरणों का प्रकाश नहीं पहुँच सकता वहाँ भी प्रापके ज्ञान चक्षु की रश्मियाँ अप्रतिहत गति से पहुँच जाती है । अर्थात् भाप अपने निर्मल ज्ञान सूर्य द्वारा भव्यों के हृदय में स्थित अन्धकार को भी प्रकाशित कर निकाल भगाते हैं ॥ ४७ ॥
प्रत: प्रसादतो नाथ भवतां भव मेदिनाम् । शुश्रूषति मनः किञ्चिज्जन्मान्तर गतं मम ॥ ४८ ॥
प्रत: है भवभेदि ! स्वामिन् ग्रापके प्रसाद से मैं अपने पूर्व भव सुनना चाहता हूँ । मेरे मन को कृपा कर जन्मान्तर का वर्णन कर संतोष प्रदान करिये ।। ४६ ।।
कर्मणा केन योगीन्द्र प्राप्तं सौख्यं परं ततः ।
परं पररा मतर्पानां ततश्च सकलाः श्रियः ।। ४६ ।।
हे गुरुवर्य ! यद्यपि परम्परा से अर्थ अनर्थों का मूल है किन्तु मुझे किस कर्म के उदय से यह समस्त सुखों का साधन रूप सम्पदा प्राप्त हुयी है । है योगीन्द्र ! समस्त श्री लक्ष्मी प्राप्ति का हेतु क्या है ? ।। ४६ ।।
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संयोगश्च अगद्वन्द्य कथमासां चतसगाम । अत्यन्त दूर जातानां नाषिकामां ममा भवत् ॥ ५० ॥
हे देव ! इन चारों अप्रतिम सुन्दरियों का संयोग किस कारण से मिला है । यद्यपि ये प्रत्यन्त दूर देश में उत्पन्न हुयी हैं फिर भी मुझे वह दूरी अधिक नहीं हुयी। स्वयं मैं वहाँ पहुँच गया और अनायास ही संयोग हो गया। इसका क्या कारण है ? || ५० ।।
निशभ्येति बचस्तस्य प्रोवाच यति सत्तमः। सावधानो महाभब्य वर्गमानं मया शृणु ॥५१॥
इस प्रकार जिनदत्त द्वारा अपने भवान्तर पूछे जाने पर वे मुनि श्रमणोत्तम प्राचार्य शिरोमणी इस प्रकार बोले, हे भद्र ! यदि तुम्हें सुनना है तो सावधान हो जायो। मैं जो वर्णन करू उसे एकाग्र होकर सुनो ।। ५१ ।।
सुखाभासा हि रामारिण दुखान्येव हि भवता । कमाल निसानां सानि नामानि हेरिनाम् ।। ५२ ॥
यह जीव इन्द्रिय जन्य सुखों को सुख मानता है किन्तु वे सुखाभास हैं । निश्चय से वे दुःख ही हैं । कर्मजाल में बद्ध प्राणियों के जो कुछ भी सुख-दुःख हैं वे सब दुःस्व रूप ही है । चे क्षण भर को सुख जैसे प्रतीत होते हैं परन्तु विपाक में दुःख कारक ही हैं ।। ५२ ।। ।
प्रनादि कालतोऽनादि संसारे परिवर्तनाम् । जानात्येव जिनस्तानि संख्यातु न पुनः क्षमः ॥ ५३ ॥
इस परिवर्तन शील अनादि संसार में अनादि काल से जीव ने कितने दुःख भोगे हैं उन्हें सर्वज्ञ जिन ही जान सकते हैं । हे भाई! जिनदेव भी केवल जानते हैं उनकी संख्या नहीं गिना सकते । क्योंकि शब्द शक्तियों ही नहीं है । अतः संसार दुःखों का नि:शेष वर्णन करने में भगवान भी सक्षम नहीं है ।। ५३ ।।
अतोऽनन्तर मेवाहं भवं तब बवाभ्यहो। यत्तव चिराद् भद्र भवतो हित संभवः ॥ ५४ ।।
प्रतः इसके पूर्व भव को ही मैं कहता हूँ, हे भद्र ! उससे ही तुम्हारा शोघ्र हित सम्भव है ।। ५४ ।।
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महाभाग सुना
देशोधन्तिः स्व
पि ॥ ५५ ।।
प्रस्त्यत्र भरत क्षेत्रे देशोषन्तिः स्वशोभया। सस्पृहा मयं लोकस्य कृता येन सुरा अपि ॥ ५५ ।।
जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र नाम का रमणीय क्षेत्र है। इसमें अवन्ति नाम का अतिशय मनोहर देश है । इस देश ने अपनी शोभा से सुरों को भी लालायित कर दिया । मृत्युलोक में रहते हुए भी देवों को स्पर्धा करने वाली इसकी श्री थी ॥ ५५ ॥
पतन्ति यत्र शालीनां केदारेषु मधु यताः । मलिनोभय पक्षा हि केदारेषु परान्मुखा: ।। ५६ ॥
इस देश में शालि-धान के पके खेतों की क्यारियों में मधु भ्रमर समूह गिरते हैं । उभय पक्ष को मलिन करने वाली परदारा का सेवन करने से शालीन पुरुष सतत पराड मुख रहते हैं । अर्थात् सभी सदाचारी हैं। शील संयम के पालक हैं ॥ ५६ ।।
चक्राङ्किता विराजन्ते राज हंस निषेविताः । मागषु यत्र पनाढया किरणां वा जलाशयाः ।। ५७ ॥
यहाँ के मार्गों में यत्र, तत्र-सर्वत्र रमणीय मधुर जल प्रपूरित सरोवर हैं । वे राज हंसों से सेवित हैं। चक्रवाल पक्षियों द्वारा गुंजित हैं । सुन्दर सुविकसित कमलों से परिपूर्ण हैं । इस प्रकार सरोवरों की मनुठी शोभा है ।। ५७ ।।
सरसा सदसङ्कारा व्यक्त वर्ण व्यवस्थितिः । प्रसादौ जोयुता यत्र कथेव जनता कवे: ।। ५८ ।।
सर्वोत्तम कवि को कविता, जिसमें सरसता, सुन्दर अलंकार छटर, स्पाट सरल शब्द संयोजना, प्रसाद प्रौर प्रोज गुरण युक्त होती है, उन्हीं कवियों की कथा के समान यहाँ की जनता थी । अर्थात् श्रेष्ठतम कवियों द्वारा यहाँ की जनता का वर्णन किया जाता था ।। ५८ ॥
तत्रास्त्युज्जयिनी नाम नगरी नर सत्तमः । यथेवं राजते हार लतयेव पराङ्गमा ।। ५६ ।।
हे नरोत्तम ! इस देश में उज्जयिनी नाम की सुन्दर नगरी है । यह सुन्दर रमणी के अनोखे हार की भांति शोभित होती है ।। ५६ ।। १६८ ]
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प्राकार शिखरा नद्ध पद्म रागांशुभि निशि। पतितैः खातिका नोरे रचा ङ्गा विरह व्यथाम् ॥ ६ ॥
यहाँ के उच्च प्राकार हैं, गगन-चुम्बी शिखर हैं, उन शिखरों में पद्यराग मरिणयाँ खचित हैं। रात्रि समय में इन मरिणयों की प्रभा से रजित खाइयों का जल अरूण हो जाता है। वह ऐसा प्रतीत होता है मानों विरहनी अंगनों की विरह व्यथा ही बिखर रही है ॥६॥
यत्र मुक्तयंव जायन्ते सङ्गमाभिमुखा मुदा । जवयं दिननाथस्य मन्यमाना इवाभितः ।। ६१ ॥
प्रसन्नता पूर्वक संगम की अभिलाषिनियां प्रसन्न वदना सुर्योदय की भ्रान्ति से चारों ओर से मुक्त हो जाती अर्थात् रात्रि में भी चारों ओर प्रकाश रहता जिससे रवि उदय हो गया यह भ्रम हो जाता और प्रेमियों का संयोग मुक्त हो जाता ।। ६१ ।।
यत्र प्रासाद संलग्न नीलांशु शवल: शशी। मुदेस्वच्छन्द नारीणां जायते निशि सर्वदा ।। ६२ ।।
यहाँ के प्रासादों में नीलमणियां लगी हैं इनकी प्राभा से हमेशा रात्रि में चन्द्र ज्योत्स्ना सबलित हो जाती अर्थात् चाँदनी सफेद होने पर भी नीलमरिणयों के प्रकाश में मिलकर धुंधली हो जाती। फलत: स्वच्छन्द नारियों को यह विशेष प्रानन्द दायक हो जाती । क्योंकि उन्हें आने-जाने में बाधा नहीं होती ॥ १२ ॥
( यह उज्जयिनी नगरी पृथ्वी की सारभूत सकल सम्पदाओं की जननी स्वरूपा है । यह पुण्यशाली महापुरुषों का पालन करने वाली धाय है । अर्थात् यहाँ महान् पुण्यशाली, धर्मात्मा जीव ही उत्पन्न होते हैं। )
समग्र वसुधा सार संपदा जन्म भूमिका । प्रावासा यत्रता पात्रा या नगा पुण्य शालिनाम् ॥ ६३ ॥
समस्त भूमि की सारभूत सम्पदा की यह जन्म भूमि थी। यह समस्त पुण्यशाली मनुष्यों का पालन करने वाली धाय के समान थी। उन्हें प्राश्रय-प्रावास प्रदान करने वाली थी ।। ६३ ।।
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तत्र विक्रम धर्माख्यो भूपो भूद भुवनान्तरम् । जग हे लोलया यस्य यशः पूर्णेन्दु सुन्दरम् ।। ६४ ॥
वहाँ धर्मविक्रम नाम का राजा हुअा। पूर्णिमा के पूर्ण चाँद के समान इसका यश लीला मात्र में समस्त भुवन में व्याप्त हो गया ।। ६४ ।।
शोभाये केवल यस्य धातुरङ्गम भूलम् । प्रतापे नेष यत्सेवा कारिताः सकलारयः ॥६५॥
अपने चतुरंग बल से यह शोभित हुपा। इसके प्रताप से समस्त शत्रु सेवा भाव को प्राप्त हो गये। प्रर्थात् सभी शत्रु राजा भी स्वयं सेवक हो गये ।। ६५ ।।
पद्मश्री रभवत्तस्य पव मधु विद्विषः । प्रिया प्रकर्षमापन्ना रूपाति गगण गोचरम् !! ६६ ॥
इस राजा को पद्म के समान कान्ति रूप युक्त पद्मश्री नाम की महारानी थी। जो अत्यन्त विदूषो गुणज्ञ भी थी। अपने रूपादि से नृपति को विशेष प्राकर्षित करने वाली थी ।। ६६ ।।
अथासीद्धम वेवाख्यः श्रीमानय वाणिजः । समुद्र इव नोराणां गुणाणामधि वासभूः ।। ६७ ।।
इसी उज्जयिनी नगरी में एक धनदेव नाम का वणिक् था। यह समुद्र के समान गम्भीर और अनेक गुणों का स्थान था। जिस प्रकार सागर में अनेकों रत्नों का पुज रहता है उसी प्रकार यह वरिणक भी गुण रूपी रत्नों का रत्नाकर स्वरूप था ।। ६७ ।।
यशोमतिरिति ख्याता कुल पोल समुज्ज्वला । बभूव वल्लभा सस्य कुशला गृह कमरिण ।। ६८ ॥
कुल शोल से समुज्जवल यशोमती नाम की इस सेठ की प्रिया थी। यह गृह कार्य में अत्यन्त निपुण थी॥ ६८ ।।
यथाकालं तया साद्धं भुनानस्य मिरन्तरम् । सुखं सतापिनो गातो भवानस्य तनरूहः ।। ६६ ।।
उस योग्य प्रिया के साथ यथायोग्य यथाकाल सुखानुभव करते हुए १७. ]
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उसका काल आनन्द से व्यतीत हो रहा था। उसीके गर्भ से तुम (जिनदत्त) पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ६६ ॥
यथा कामं ततस्तातो बन्धु लोक समन्धितः । चकार शिव देवास्यां भवतो भव्य बान्धव ॥ ७० ॥
तुम्हारे पिता ने यथोचित पुत्रोत्पत्ति महोत्सव मनाया। बन्धुबान्धवों ने समन्वित हो विधिवत तुम्हारा नाम करण संस्कार किया और "शिवदेव" नाम घोषित किया ।। ७० ॥
पूर्व पापोदया तत्र वद्ध से त्वं यथा यथा । क्षीयते यः कुटुम्म सा गेहे तपा तथा ॥१॥
पूर्व पाप कर्म के उदय से तुम जैसे-जैसे वृद्धिंगत हुए वैसे-वैसे कुटुम्ब के साथ-साथ धन को भी हानि होती गई। अर्थात् घर में धनजन दोनों ही क्षय होते गये ॥ ७१ ॥
अपरेयुः पतित्याशु व्योमतो विचूता दुजन् । हद्द मार्ग हतस्तातो यचा भूभस्मसात्तपा ।। ७२ ।।
किसी एक दिन तुम्हारे पिता व्यापारार्थ बाजार में गये। अचानक उसी समय प्राकाश से बिजली गिरी और तुम्हारे पिता वहीं उसके प्राघात से भस्मसात हो गये । अर्थात् मार्ग में ही अकस्मात विद्युतपात से मृत्यु को प्राप्त हुए ।। ७२ ॥
ततो शोकाकुलेनास्य सन्धुलोकेन निमिलम् । मृतकर्म रुरोवारं माता च करूणं तव ।। ७३ ।।
उस समय सभी बन्धुनों ने प्रत्यन्त शोकाकुलित हो उसका मृत्यु संस्कार किया। उस समय तुम्हारी माता अत्यन्त करूणा जनक रुदन करने लगी ।। ७३ ।।
हानाय स्वंगतस्त्यक्त्वा बालं बालेन्दु सुन्दरम् । कथमेषा भविष्यामि हताशा भवतोज्झिता ॥ ७४ ।।
हाय ! नाथ ! तुम इस वालेन्दु-पुत्र को छोड़कर कहाँ गये ? इस सुन्दर सुकुमार बालक का क्या होगा? मैं अापके द्वारा छोड़ी गई अब प्राशा विहीन हो जाऊँगो ? ।। ७४ ।।
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गतं क्षयं क्षणात् कान्त भवतव समं धनम् । विनं विनाधिपेनेव कथं पुत्रो भविष्यति ॥ ७५ ।।
हे नाथ ! आपके साथ-साथ ही धन भी नष्ट हो गया। यह सूर्य के समान दिन-दिन पुत्र किस प्रकार पलेगा । अर्थात् इसका कौन सहायी होगा ? ।। ७५ ।।
इत्यादिक विलप्यातौ संलग्ना ग्रह कमरिण । ववृद्ध च भवां स्तन दोन मूर्तिः सुवुः खितः ॥ ७६ ॥
इस प्रकार विलाप कर कुछ धयं से गृह कार्यो में संलग्न हुयी । बड़ दुःख से किसी न किसी प्रकार तुम्हारा पालन-पोषण करने लगी और तुम भी दोन मूर्ति के समान दु:ख से बढ़ने लगे ।। ७६ ।।
तमालोक्य जनः सर्वे वृधोतीति तथा सुतः। समस्ता तेन नो जात रविरगेव शनैश्चरः ॥ ७७ ।।
तथा पुत्र को इस प्रकार दीन-हीन देखकर लोग कहते, यह कहाँ से ऐसा हना है, क्या कभी रवि से शनिश्चर होता है। अर्थात सूर्य समान पिता से यह शनिश्चर हो गया है ।। ७७ ॥
क्रमाच्च यौवनं प्राप्तः कृत दार परिग्रहः । प्रामान्तरे प्रयास्येव अगिज्यायं विने विने ॥ ७ ॥
इस प्रकार क्रमशः उसने यौवन पद प्राप्त किया और विवाह भी हो गया। ग्राजीविका के लिए प्रतिदिन ग्रामान्तर को जाने लगा। वाणिज्य के लिए जाना ही पड़ता ।। ७८ ।।
ततः किञ्चित समानीय कुरुते स दिन यम । स प्रातरचलितोन्येध लत्विा परिकर नितम् ।। ७६ ।।
प्रतः अपने परिवार को कुछ लाकर देता। उससे तीन दिन काम चलता । किसी एक दिन वह अपने परिवार को लेकर प्रातःकाल ही कारिणज्य करने निकला ।। ७६॥
अन्तरेत्र ततस्तेन मुले अश्वस्थ महीबहः ।
त्रिकाल योग सम्पन्नः सर्व सत्व हितोद्यत: ॥८०॥ १७२ ]
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वट वृक्ष के नीचे ध्यान न योगिराज के दान करते ६५ सेठ पल (जिनदत्त यंभव।
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वह मार्ग में जा रहा था। एक विशाल वटवृक्ष के नीचे पहुंचा । वहाँ पर एक योगिराज विराजमान थे । वे त्रिकाल योग से सम्पन्न थे श्रर्थात् ग्रीष्मावकाश योग, वर्षा योग और शौत योग धारण करने वाले थे । गरमी में भीषण धूप में विशाल उन्नत पर्वत की चोटियों पर ध्यान करते, वर्षाकाल में वृक्षों के नीचे ग्रात्म-चिन्तन करते और शरदकाल में चौराहे या खुले आकाश में धैर्य रूप कम्बल धारण कर श्रात्म-साधना करने वाले थे । समस्त जीवों के हित में सतत उद्यत थे । ८० ॥
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महारामाधिवासोऽपि नि: कामो मान वर्जितः । भाजन सर्व मानानां स द्वेषो द्वेष शून्यधीः ॥ ८१ ॥
वे अपनी आत्म रूपी वाटिका में निवास करते, निष्काम, मान रहित, सबके द्वारा माननीय-सम्मान भाजन, द्वेष विहीन अर्थात् द्वेष बुद्धि से शून्य थं ॥ ८१ ॥
उद्यतो बन्ध विध्वंसे गुप्ति विलय संयुतः । नितान्तं शान्त रूपोपि सवा समिति भासुरः ।। ८२ ।।
जटिल कर्मबन्ध के विध्वंस करने में उद्यत, तीन गुप्तियों के धारक नितान्त शान्त स्वरूप एवं निरन्तर सदैव पञ्च समितियों से शोभायमान, तेज पुञ्ज थे ।। ८२ ।।
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मुरजादि विधि व्रात कृशतायात विग्रहः । पञ्चेन्द्रिय मनोदुष्ट सम्यग् विहित निग्रहः ॥ ८३ ॥ मासोपवास मास्थाय मिरुद्ध सकलेन्द्रियः । पर्यङ्कासन संस्थानो ध्यायत् सहज मात्मनः ॥ ८४ ॥
मुरज, कनकावली, रत्नावली, सिंह निष्क्रिडित, मुरजावली प्रादि उपवासों से उनका शरीर अत्यन्त कृश क्षीण हो गया था । पाँचों इन्द्रियों और दुष्ट मन को सम्यक् प्रकार वश कर लिया था। समस्त इन्द्रियों का निरोध कर निश्चल वे एक मास का उपवास लेकर पर्यङ्कासन से स्थित सहज-शुद्ध श्रात्मा का ध्यान करते हुए विराजे ये ।। ८३-८४ ।
विमलामिधः । मानसः ।। ८५ ।।
दुष्टोऽयुष्ट समस्तार्थो मुनीन्द्रो प्ररणनाम ततस्तस्थ पादौ मुक्ति
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दुष्ट-शिष्ट पर्थात् शुभाशुभ - हेयोपादेय समस्त तत्त्वों के ज्ञाता वे मुनीन्द्र अपने स्वभाव में लीन थे । उनका शुभ नाम श्री विमल मुनीन्द्र था । उन्हें देखते ही देव प्रति भक्ति एलिसे उनके चरणों में पड़ा । प्रर्थात् नमस्कार किया ॥ ८५ ॥
श्रचिन्तयच्च संसारे द्वावेव सुखिना जनाँ । पद्मशतपत्र मापते यस्य यच्च जितेन्द्रियः ॥ ८६ ॥
वह चिन्तवन करने लगा, अहो ! संसार में दो ही सुखी हैं। एक तो पद्मछत्रधारी चक्री और दूसरे ये जितेन्द्रिय मुनीश्वर ।। ८६ ।।
किलोऽपि न तत् सौख्यं यदेतस्य तपस्यतः । राग रोष वशश्चक्री मतिस्ताभ्यां विवर्जितः ॥ ८७ ॥
I
तो भी उनमें चक्रवर्ती भी उस सुख को प्राप्त नहीं कर सकता जिस आत्मानन्द का अनुभव इन्हें इस तप से प्राप्त हो रहा है । क्योंकि चक्रवर्ती राग-द्वेष के वशवर्ती है और ये उनसे ( राग-द्वेष से ) सर्वथा रहित हैं । वीतरागी, समदर्शी हैं ॥ ८७ ॥
चिन्तयित्वेति संनम्य भूयो भूयोऽपि भक्तितः ।
सं जगाम यथा भीष्टं करोत्येवं च नित्यशः ॥ ८८ ॥
इस प्रकार बार-बार चिल्लवन कर उसने पुनः पुनः उन गुरुदेव के चरणों में विशेष अनुराग एवं भक्ति से नमस्कार किया पुन: अपने श्रभीष्ट स्थान को ( वणिक ) चला गया। इस प्रकार वह प्रतिदिन वहाँ ग्राकर उन ऋषिराज मुनिपुङ्गव के दर्शन करने लगा ॥ ८८ ॥
आतेऽन्यवर यत्तेस्तस्य पारगादिवसे सति । चिन्तितं मानसे तेन सद्गुरु ग्राम वासिना ॥ ८६ ॥
शनं शनं: एक मास पूर्ण हुआ । पारणा का दिन माया । वह उन मुनीश्वर के गुण समूह में निवास करने वाला वणिक् विचार करता है मन में || ६ ||
कस्याद्य मन्दिरं पाद पांसुभिः पुण्य भागिनः । करिष्यत्यद्य कल्याण भाजनं यति नायकः ॥ ६० ॥
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आज किस भाग्यशाली पुण्यवान का घर इन श्री मुनि को चरण धूलि से पवित्र होगा । ये कल्याण स्वरूप यतिनाथ किस पर कृपा करेंगें, किसे अपनी चरण रज से कल्याण का पात्र बनाएँगें ।। ६० ।।
उत्तमोत्तम भोगानां भाजनं जायतां जनः । कथं न तत्र यत्रामो विद्यन्ते पात्र सत्तमाः ॥ ६१ ॥
जिसके यहाँ इस प्रकार के उत्तम पात्र प्राते हैं वह मनुष्य उत्तमोत्तम भोगों का पात्र भला क्यों नहीं होगा ? अवश्य ही होगा। मुनि दान से आहार दान से समस्त भोग अनायास प्राप्त हो जाते हैं ।। ६१ ।।
अत्यल्पेनापि दत्तेन पात्र स्येवं विषस्य हि । तन्नास्ति प्राप्यते यस वाञ्छितं पर जन्मनि ।। ६२ ।।
ऐसे उत्तम पात्र को अत्यन्त अल्प भी आहार दान जो देता है, उसे संसार में कोई ऐसा पदार्थ नहीं जो इच्छा करने पर प्राप्त न हों। सभी कुछ प्राप्त होता है । इसी भव में नहीं परभव में भी उत्तमोत्तम भोगोपभोग सामग्री प्राप्त होती है ।। ६२ ।
दर्शनेनैव पापानि नश्यतन्त्य तस्य रवे रिय ।
तमांसि कथ्यते कि वा यदि दानादि सङ्गमः ॥ ६३ ॥
इन पुण्य मूर्ति के दर्शन मात्र से ही पाप समूह नष्ट हो जाते हैं । जिस प्रकार रवि के उदय होते ही रात्रिजन्य घोर अन्धकार नष्ट हो जाता है । उसी प्रकार प्रशुभ कर्म इनके दर्शन से विलीन हो जाते हैं फिर यदि दानादि का संयोग प्राप्त हो जाय तो कहना ही क्या ? ।। ६३ ।।
मादृशां मन्द भाग्यानां विलीयन्ते मनोरथाः । सम्पूर्णा मनस्येव तरङ्गा इव वारिधेः ॥ ६४ ॥
मेरे समान मन्द भागी के मनोरथ तो मन ही मन उठ कर विलीन हो जायेंगे। जिस प्रकार कि विशाल सागर में उत्पन्न घनेकों लहरें उठउठ कर उसी में घुल-मिल जाती हैं। क्या मेरे मनोरथ पूर्ण होंगे ? वे तो अधूरे ही हैं ॥ ६४ ॥
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श्राक्रामन्ति विपुण्यस्य पादपद्येनं मन्दिरम् । यतयो आयते कस्य प्राङ्गणे वा सुर द्रुमः ।। २५ ।।
पुण्यहीनों का मन्दिर (घर) श्रेष्ठ यतियों के चरण कमलों से प्रान्त नहीं होता । किस पापी के प्रांगण में कल्पवृक्ष प्रायेगा ? नहीं
आ सकता ।। ६५ ।।
परिस्यज्य वितर्कये । कञ्चनापि यतीशस्य लाभे चिन्तामणे रिव ।। ६६ ॥
दुष्यात हेतुमस्य
ܪ
अथवा चिन्तामणि समान इस प्रकार के मुनीश्वर के विषय में इस प्रकार की तर्करणा नहीं करना चाहिए। ये महान पुण्य के हेतु हैं । महा पुण्यों को छोड़कर इन तर्कों से क्या प्रयोजन ? ठीक है इनका लाभ चिन्तामरिण समान दुर्लभ है तो भी ।। ६६ ।।
तथापि सावधानोस्मि मा कदाचित्तागमः । व्यवसाय वशात् पुंसां जायते विपुलं फलम् ।। ६७ ।।
मैं इस विषय में सावधान रहें क्योंकि मनुष्य को पुरुषार्थवश प्रचिन्त्य वस्तुयों की प्राप्ति भी सम्भव हो जाती है । पुरुषार्थी को अपने सफल उद्योग से विपुल फल प्राप्त हो जाता है ॥ ६७ ॥
विभावयेति प्रसन्नात्मा
धौत वस्त्रोत्तरीयकः । मार्ग मध्येषयंस्तस्य तस्थौ द्वारे स्व सद्मनः ॥ ६८ ॥
इस प्रकार विचार कर उसने स्नानादि कर शुद्ध स्वच्छ सफेद वस्त्र धारण किये । वह अति प्रसन्नात्मा अपने द्वार पर द्वारापेक्षण को खड़ा हो गया। चारों ओर मार्ग अन्वेषण करने लगा । किघर से मुनिवर श्रा जाये | हम ॥
प्रथा सौ प्रेरित स्तस्य पुण्यं रिव मेवापक्रमात् कामन्तुच्च नोच
यथा मुनिः । गृहाबलीः ॥ ६६ ॥
मानों इसके तीव्र पुण्योदय से प्रेरित हुए मुनिराज ईर्यापथ शुद्धि पूर्वक दन से चर्यार्थ निकले। वे मुनि क्रमशः यमीर-गरीब का भेद न कर अपने क्रमशः पर्यटन करते आये ।। ६६ ।।
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वोक्षितच ततस्तेन दुर्गते नेव सनिधिः । पुण्य पुउज इव स्वस्याभि मुखो वा स्व वेश्मनः ।। १०० ॥
गृहावलियों का उल्लंघन करते हुए उस महानुभाव शिवदेव के घर की अोर पाये । मन्द-मन्द गमन कर पाते हुए उन यतीश्वर को देखकर उसे अत्यानन्द हुा । वे मुनिवर मानों दुर्गति में उत्तम निधि ही हैं। पुण्य पुञ्ज स्वरूप हैं । वे उसके घर के सामने प्रा पहुंचे ॥१०० ।।
अग्ने भूयस्वतस्तेन प्रत्यग्नाहि प्रयत्नतः । उच्चस्थान स्थितस्यास्य चके चरण पावनम् ।। १०१ ।।
अपने सम्मुख पधारे महा मुनिराज को देख उसने स्वयं प्रागे पाकर परम श्रद्धा, भक्ति, विनय, निर्लोभता, सन्तोषादि सप्त गुण युक्त होकर परमाद से पडामा मा पूर्वमा प्रवेश कराया। उच्च स्थान पर विराजमान किये। पुन: उनके पावन चरणों का प्रक्षालन किया । १०१।।
तत् प्रवन्धोदकं कृत्वा पूजामष्ट विधामसौ। यावभोजयते मुक्ति धर्म मूत्ति मुनीश्वरम् ॥ १०२ ॥
गंधोदक मस्तक पर चढ़ाया। प्रष्ट-द्रव्य से पूजन कर प्रति भक्ति से नमस्कार किया। पुनः शुद्ध प्रासुक निर्दोष आहार दिया। वे साक्षात् धर्म मूर्ति स्वरूप मुनिराज भी समताभाव से आहार लेने लगे ॥ १०२ ।।
सूर देव यशोवेव नन्द इत्त वणिक सुताः । पञ्चावती जय श्रीश्च सुलेखा मदना बली ॥ १०३ ॥
उसी समय सूरदेव, यशोदेव और नन्ददत्त वणिक् की पुत्रियाँपद्मावती, जय श्री, सुलेखा एवं मदनावली वहाँ पायीं ॥ १०३ ।।
लारवा लेहनऊं तावत् सर्वाभरण भूषिताः । मत्त्वा सुवासिनो त्यस्य मातुराता गृहं क्षणात् ॥ १०४ ॥
ये सम्पूर्ण प्राभरणों से भूषित थीं। इन्हें सुभाषिनी समझ कर शिवदेव की माता ने शीघ्र अपने घर में से कुछ लेह पदार्थ लाकर दिया ॥ १०४ ।।
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निविष्टा स्वास्ततः सर्वास्तत्रा साबधि साधवे । सन्मध्यात् प्रददौ किञ्चित् तद्वाक्यात्त तुषुश्व ताः ॥ १०५ ॥
वे भी वहाँ चारों बेठीं तथा उसी भोजन से लेकर उनके (शिवदेव के ) कहने पर अत्यन्त संतुष्ट हो प्रहार दान दिया। क्योंकि मालिक की आज्ञा बिना दूसरे के घर का दिया बाहार साधुजन नहीं लेते। इसलिए उसके कहने पर ही दिया ।। १०५ ।।
श्रचितयं श्च ता धन्य तम एष यस्यैवं दुर्ग तस्यापि धर्म कार्य
महामतिः । महोद्यमः ॥ १०६ ॥
ये विचारने लगीं, अहो ये महामति दिगम्बर साघुराज धन्य हैं । परन्तु यह श्रावकोत्तम महानतम धन्य है जो इस दारिद्र दशा में भी इसे ऐसे सुपात्र - उत्तमपात्र का लाभ हुआ है । इस अवस्था में भी धर्म कार्य मैं महा उद्यमशील है ।। १०६ ।।
नरनाथादयोप्यस्य पाव पद्माव वाञ्छन्तोऽपि लभन्ते न सुनेन्द्रानं
लोकनम् । किमुच्यते ॥ १०७ ॥
बड़े-बड़े राजा महाराजा भी इनके चरण कमलों के दर्शन को चाहने पर भी प्राप्त नहीं कर पाते ऐसे पुण्यवाली पात्र की इसे उपलब्धि हुयी है ॥ १०७ ॥
अयि लक्ष्मि किमन्बासि येनेवं गुण शालिने ।
स स्पृहा नर रश्नाय सात्विकाय न जायसे || १०८ ॥
न जाने लक्ष्मी श्रन्ध्री हो गई है ? क्या लक्ष्मी का विवेक नष्ट हो गया ? जो इस प्रकार के नर रत्न, गुणशाली, सात्विक, धन्य द्वारा स्पृहनीय इसके घर में नहीं भा रही है। हे लक्ष्मी क्या तुम नेत्र विहीन हो ? ॥ १०८ ॥
जन्मना वा धने नाऽपि विवेकेनापि किं नृणाम् ।
यवीदृशे महा पात्रे न किञ्चिदुप जयंते ।। १०६ ।।
संसार में मनुष्यों के पास यदि अत्यन्त धन भी हो, और विवेक भी हो तो क्या प्रयोजन ? यदि इस प्रकार के महा पात्र के लिए कुछ भी
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उपचार नहीं करे । अर्थात उत्तम, मध्यम, जधन्य पात्रों को श्राहार दान नहीं दे तो उस धन और विवेक का कोई प्रयोजन नहीं है ।। १०६ ।।
एतस्य यानि पुण्यानि तानि नान्यस्य निश्वितम् । यवेतद्गृह मायातो दुर्लभो जगतां पतिः ॥ ११० ॥
वस्तुतः इसका महापुण्य है, इस प्रकार का पुण्य अन्य किसी को भी नहीं हो सकता । विश्व वन्द्य, संसार के पति स्वरूप ये मुनीश्वर इसके घर पधारे हैं ।। ११० ॥
ea e तदा ताभिस्तद्दानं भक्ति पूर्वकम् ।
मुहुर्मुनि मुहस्तं च पश्यन्तीभिः स विस्मयम् ॥ १११ ॥
वे चारों कन्या विश्मय से कभी पात्र को देखतीं तो कभी दाता को बार-बार दान की प्रशंसा करा पूर्ण श्रद्धालु हो गई । भक्ति से गद्गद् हो गई ।। १११ ।।
स्वयापि पारित: साधुर्भक्तितो मनसा परं ।
प्राशङ्का विहोता मातु स्तद्दाना सहना हि सा ।। ११२ ।।
हे भद्र तुमने भी परम भक्ति से अचिन्त्य श्रद्धा से उन मुनिराज को निर्विघ्न, निरन्तराय पारणा कराया । किन्तु तुम्हारी माता के मन में उस दान के प्रति कुछ असह्य भाव जाग्रत हुआ ।। ११२ ।।
भुक्त्वासौ पि जगामातो यथा भीष्टं मुनीश्वरः । द्वस्तिजोऽपि निजालयम् ।। ११३ ।।
अनुयुज्य प्रणम्याया
परम वीतरागी मुनीश्वर पारणा कर अपने प्रभीष्ट स्थान को विहार कर गये । (तुम) वणिक् भी कुछ दूर उनके पीछे-पीछे जाकर पुनः नमस्कार कर वापिस अपने घर मा गये ।। ११३ ।।
यत्त्वया विहितं भन्न सिद्धयत्येतन कस्यचित् ।
भाजनं सर्व कल्याण सम्पदां नियतं भवान् ।। ११४ ॥
हे भद्र तुमने जो कुछ उस समय पुण्यार्जन किया था उसी का यह फल सिद्ध हुआ है कि तुम सम्पूर्ण कल्याणों के पात्र हुए। सभी सुखों
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की साधन सम्पदा तुम्हारे ही पूर्वाजित भाग्य का फल है अन्य का नहीं ॥ ११४ ॥
प्रशस्येति गता स्तास्तं स्व लय मुदिता स्तराम् । बुभुजे प्रत्यहं कृत्वातिथीनां सं प्रतीक्षणात् ॥ ११५॥
तुम्हारे घर से वे चारों कन्याएँ भी मुदित हो अपने-अपने घर चली गई और प्रतिदिन सत्पात्र की प्रतीक्षा कर ही भोजन करने लगीं। अर्थात् प्रतिदिन द्वाराप्रेक्षण करतीं। आहार बेला के अनन्तर ही भोजन करती ।। ११५ ।।
यतीश गुग भावितः सहज सौम्यता सङ्गतो। वसन्नीति विहायि ते रसिक चित्त वृत्तिस्तदा । जगाममृति गोचरं सुचिर कालतो वाणिजो। निरन्तर मिमास्तथा समनु भूय सौख्यं मृताः ॥ ११६ ॥
वह वणिक् यतीश्वर के गुणों की अनुचिन्तना करता, अपने सहज भावों को उनकी सौम्यता से संङ्गत करता । इस प्रकार रसिक चित्तवृत्ति वह घर में रहने लगा। पुनः सुचिर काल बाद उनके गुणों का रसिक हो मृत्यु को प्राप्त हमा। निरन्तर वह वरिण और बे चारों कन्याएँ सोल्यानुभव कर सम्यक मरण को प्राप्त हुए।। ११६ ॥
इस प्रकार श्री भगवद् गुणभद्राचार्य विरचित श्री जिनदत्त चरित्र का प्राध्या सर्ग समाप्त हुआ।
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( नवम्-सर्ग ) मायामो शिव देवोऽभूद भवा स्तहान पुण्यतः । श्रेष्ठिनो जीव देवस्य जिनदत्ताभिधः सुतः ॥ १ ॥
उपर्युक्त शिवदेव उस उत्तम दान के पुण्य से तुम जीवदेव श्रेष्ठी की पत्नी जिनदत्ता के गर्भ से जिनदत्त नाम के पुत्र हुए हो।। १ ।।
प्राप्त स्वं तत एवासि सौख्यं सर्वाङ्ग गोचरम् । अथवा लभ्यते कि न पात्र दानेन देहिभिः ।। २ ॥
उसी पुण्य से तुम्हें सर्वाङ्ग सुखकर भोगोपभोग सम्पदा प्राप्त हुयी है । अथवा संसारी प्राणियों को उत्तम दान के प्रभाव से क्या प्राप्त नहीं होता ? सब कुछ प्राप्त होता है ।। २ ।।
तासां पत्रानुरागण सर्व देवासि भाक्तिः । तेनान्यासु नते स्त्रीषु साभिलाष मभून्मनः ॥ ३ ॥
वे चारों कन्यायें भी योग्य प्रेमानुराग से अपने-अपने सद्भावानुसार सदैव विरक्त भाव से रहीं । सबका एक प्रकार परिणाम होने से अन्य स्त्रियों में उनका मन नहीं रमा ॥ ३ ।।
जननी शया यश्च संक्लिष्टं हृदयं तदा । बिपाकास्य चावापि मध्येन) परंपरा ॥ ४ ॥
तुम्हारी माँ ने दान के प्रति शङ्का कर कुछ क्लिष्ट रूप मन किया था उस पाप के कारण स्वरूप मध्य में अनर्थ की परम्परा को प्राप्त हुयी ।। ४ ।।
तबिरामे च सम्पन्न सम्पदो पर मुसमम् । कन्या चतुष्टयं तच्च स्वपरीणाम योगतः ॥ ५ ॥
किन्तु उस विपाक के अन्त में समस्त सम्पदा युत उत्तम पद प्राप्त किया । वे कन्याये भी अपने-अपने परिणामानुसार कन्याएँ हुयीं और तुम्हारे द्वारा विवाही गई ।। ५ ।।
अम्पाया सिंहल द्वीपे रथनपुर पसने । चम्पायामेव सजातं नारी रत्न चतुष्टयम् ॥ ६ ॥
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प्रथम चम्पानगरी में, दूसरी सिंहल द्वीप में, तीसरी रथनुपुर द्वीप मैं और चौथी चम्पापुर नगर में चारों नारी रत्न उत्पन्न हुयीं ॥ ६ ॥
विमलादिमतिः पूर्वा श्रीमती यदिता परा । श्रृंगारादि मतिश्वान्या विलासादि मतिस्तथा ॥ ७ ॥
प्रथम का नाम विमलामती, द्वितीया का नाम श्रीमती, तीसरी का नाम श्रृंगारमती और चौथी का नाम विलासमती विख्यात हुमा ॥ ७ ॥ परपोतास्वमा सर्वास्तत्र तत्र नरन्तरम् । अनिच्छन्त्यः क्रमाद्भद्र भवत् सङ्गम लालसाः ॥ ८ ॥
हे भद्र ये चारों ही श्रन्य पुरुषों से विरक्त, तुम्हारे ही संगम की लालसा रखने वाली उस उस नगर में जाकर तुमने वरण की । श्रतः क्रमशः तुम इनकी जन्म भूमि में पहुँचे और पूर्व भवजन्य स्नेह से तुम्हारे सङ्गम की इन्हें अभिलाषा हुयी। तदनुसार तुम्हारी पत्नियाँ हुयीं ॥ ८ ॥
माहात्म्या तस्य दानस्य सार्थमाभिनिरन्तरम् । सारं संसार वासस्य भुज्यते भवता सुखम् ॥ ६ ॥
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यह सब उस आहार दान का ही माहात्म्य है कि तुम इन चारों प्रिय वल्लभायों के साथ निरन्तर संसार वास के सारभूत सुख को भोग रहे हो ॥ ६ ॥
निगद्येति यतौ तत्र विरते स्मृत निज जन्म समताभिर्मुमूर्च्छ च ततो
वानसौ । द्रुतम् ॥ १० ॥
इस प्रकार उन दिव्य ज्ञानधारी परम गुरु श्री मुनीन्द्र ने इनके पूर्वभव स्पष्ट रूप से वर्णित किये। जिसे सुनकर उसे उसी समय जातिस्मरण हो गया । अपने-अपने पूर्वभव का समस्त वृत्तान्त चित्रपट की भाँति इसके समक्ष भाया और उसी समय मूच्छित हो गया ।। १० ।।
श्रचिरादुप धारं स समासाद्यततो जबात् । अङ्गनाभिः समं पृष्ट उत्थितो विस्मिते जनः ॥ ११ ॥
शीघ्र ही उचित शीतोपचारादि करने पर शीघ्र ही संज्ञा - सचेतना प्राप्त की और अपनी प्रियाओं के साथ उठ बैठा । उपस्थित जन विस्मित और अचेत होने का कारण पूछा ।। ११ ।।
हुए
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उदीयं च तथा वृत्त जनेभ्यो भव्य बान्धवः । इवं विचिन्तया मास संविग्नो हृदये तदा ।। १२ ।।
उसने (जिनदत्त) भी अपना सकल वृत्तान्त सुनाया, सबकी शंका निवारण की तथा संसार से उद्विग्नमना होकर इस प्रकार चितवन करने लगा ॥ १२ ॥
प्रचव साधुना नेन चक्षु रुद्घाटितं मम । विषयाशा विमुग्धस्य वयित्वा भवान्तरम् ।। १३ ॥
अहो ! प्राज इन साधु रत्न ने नेरे मिथ्या तिमिर से प्राच्छादित लोचन जन्मीलित किये हैं। विषयों में उलझे, प्राशाजाल में पड़े मेरे पूर्व भव का स्वरूप दिखाकर मेरी निद्रा भंग की है ॥ १३ ॥
न भया विसं किया होगा मोनाः । महत्वाच्च तथापीत्थं सम्पदा मस्मि भाजनम् ।। १४ ।।
उस भव में दुर्भाग्य के योग से मुझे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआभिखारी जैसा जीवन था। प्रज्ञ होने पर भी जो कुछ एक दिन पुण्य सम्पादन किया उससे इस समय अनेक सम्पदानों का पात्र हुया हूँ ॥१४॥
प्रत्यल्प मध्यहो न्यस्तं विधिना पात्र सत्तमे । शत शाखं फलस्याशु बट बीज मिव ध्र वम् ॥ १५ ।।
अहो ! दान का चमत्कार, अत्यन्त मल्प विधिवत् उत्तम पात्र को दान दिया वह प्राजवट बीज की भौति निश्चय ही सैकड़ों शाखाओं के रूप में फलित हुआ है । वस्तुतः सत्पात्र दान हजारों गुणा फल प्रदान करता है। किन्तु भक्ति पूर्वक विधिवत् दिया जाना चाहिए ॥ १५ ॥
तावतंब यवि प्राप्तः सम्पदं जगदुत्तमाम् । स्वर्मोक्ष सुख सम्पत्तिः सुलभैव ततो ध्र वः ॥ १६ ॥
यदि इतने मात्र से जीव इतनी उत्तम भोग सम्पदा प्राप्त कर सकता है तो क्या विशेष त्याग से स्वर्ग मोक्ष की सुख सम्पदा सुलभ नहीं होगी ? अवश्य ही सरलता से प्राप्त हो सकती है ।। १६ ।।
परं चेतयते जन्तु मत्मिानं मूढ मानसः । प्रमाद मद मात्सर्य मोहाशाने निरन्तरम् ॥ १७ ॥
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किन्तु यह मूढ़ प्राणी, प्रभाद, मद, मोह, अज्ञान और मात्सर्यादि से अभिभूत हुप्रा निरन्तर उन्हीं का सेवन करता है प्रात्मा की चिन्ता नहीं करता । प्रात्म चेतना पाना ही नहीं चाहता ।। १७ ।।
न माता न पिता नैव सुहृदः स्निग्ध मुद्धयः । तथा प्रेम करा नगा निस्पृहा, य तयो यथा ।।१८॥
संसार में जिस प्रकार निस्पृह यति जन-वीतरागी साधु पात्म हित करने वाले यथार्थ हित हैं, उस प्रकार माता, पिता, मित्र, बन्ध-बान्धव कोई नहीं हैं । ये सब बाह्य में स्नेह बद्ध दिखलाई पड़ते हैं । भोगों के साथी हैं प्रात्म-कल्याण के नहीं ।। १५ ।।
जिन शासन मुद्दिश्य दीयते किम पीहयत् । क्रियते कृत कृत्यत्वं तेनेवास्ति विसंशयम् ।। १६ ।।
इस समय इन्होंने जिन शासन का सारभूत कुछ उपदेश किया है। वह अल्प है तो भी मुझे कृतकृत्य कर दिया। मेरे संशय को नष्ट किया ।। १६ ।।
अधुना विकला सर्वा सामग्री मम बत्तते। परोत्यज्य बहिर्भाव विवधामि ततो हितम् ॥२०॥
इस समय अविकल रूप से समस्त सामग्री मेरे सामने उपस्थित है। अतः अब समस्त बाह्य भावों का परित्याग कर अात्महित में प्रवत्त होता है। अर्थात् ज्ञान वैराग्य सम्पन्न हो सकल संयम धारण करना चाहिए ॥ २० ॥
तथाहायं महा मोह हुताशनशमनाम्बदः । प्रस्माकमेव पुण्येन समायान्मुनि पुङ्गवः ॥ २१ ॥
क्योंकि मोह रूपी भयंकर अग्नि के लिए शमन करने को ये शान्ति जल से भरे हुए सघन मेघ हैं । हमारे पुण्योदय से ही ये महामुनि पुङ्गव यहाँ पधारे हैं ॥ २१ ॥
अर्जरी कुरुते धापि न शरीर मिदं भरा।
माफमन्ती महा वेगा व्या त्येव च कुटोरकम् ।। २२ ॥ १८४ ]
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जब तक इस शरीर रूपी कुटिया को जरा जर्जरित नहीं करती, वेग से चलने वाली तीक्ष्ण पवन रूपी मृत्यु जब तक उड़ा नहीं ले जाती उसके पूर्व ही इसके प्रक्रमण से बचने का प्रयत्न करना चाहिए ।। २२ ॥
विवेकोऽपि स्पिरोमूतो मनागस्य महा मुनेः । वचस्यैव हृदि व्यक्ता विज्ञाता च भवस्थितिः ॥ २३ ॥
इन मुनीश के श्रमृत रूप वचनों से मेरा मन स्थिर हुआ है कुछ विवेक जाग्रत हुआ है तथा मेरे हृदय में पूर्वभव की स्मृति भी जागृत हुयी है ।। २३ ।।
विदधामि पादमूले मुने रस्य विचिन्त्येति ततो दत्त्वा समुवाच
ततस्तप: ।
यतीश्वरम् ।। २४ ।।
के गुरु पादमूल
में पवित्र तप धारण
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"इसलिए अब में इन्हीं श्री विचार कर कुल निश्चय करता हुआ श्री गुरु राज को नमस्कार कर इस प्रकार प्रार्थना करने लगा ।। २४ ।।
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यथा प्रसादतो नाथ भवतः स्व भवोमया । सम्यगध्यक्षतां नीतो तरामर
नमस्कृतः ।। २५ ।।
हे नरामर पूजित पाद पद्म ! गुरुदेव ! आपके प्रसाद से मैंने अपने भव प्रत्यक्ष की भांति स्पष्ट जान लिये । उससे जो मुझे ग्रानन्दानुभव और सन्तोष प्राप्त हुआ है ।। २५ ।।
न कल्प पादपः सुते न चकाम दुधान छ । चिन्तामरिण रचिन्त्यं यत् फलं त्वत्पाद सेवनम् ।। २६ ।।
वह कल्पवृक्ष, कामधेनू एवं चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति होने पर भी नहीं हो सकता । अर्थात् इनके सेवन से वह अचिन्त्य फल प्राप्त नहीं हो सकता है ।। २६ ।।
दावदग्धो जनः सर्वः सर्वतो बोध शून्यकः । स्थत्पाद पद्म पर्यन्तं यावदेति न भक्तितः ॥ २७ ॥
ये संसारी प्राणी - मानव तभी तक संसार रूपी दावाग्नि में जलते रहते हैं जब तक कि आपके चरण कमलों मैं भक्ति पूर्वक नहीं प्रति ।
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क्योंकि ज्ञान शून्य होने से उन्हें चारों ओर से संसार दाह पीड़ित करती रहती है । पाप प्रात्म ज्ञानी हैं, ज्ञानाम्बु से ही दाह शान्त होती है ॥२७॥
भावि भूतं भवद्वस्तु तबस्तीह न भूतले । ज्ञाने तव नयत् स्वामिन् करस्थामलकापते ॥ २८ ॥
भत, भविष्य और वर्तमान कालीन ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो हाथ की हथेली पर रक्खे आंवले की भाँति प्रापके ज्ञान में नहीं झलकती हो। अर्थात् सम्पूर्ण वस्तुओं के पाप ज्ञाता हैं ।। २८ ॥
भ्राम्यतां नाय जीवानामस्मिन् संसार कानने । सम्परमार्गोप देष्टान्यो भयतो स्ति न कश्चन ।। २६॥
हे नाथ ! इस भयंकर संसार रूपी अटवी में भटकते हुए जीवों को सम्यग उपदेश देने वाला अापके सिवाय अन्य कोई भी नहीं है ॥ २६ ॥
शरणश्च त्वमेवासि सवा दुर्गति पाततः । अस्यतामस्तु ते नाथ प्रसावो मम दीक्षया ।। ३० ॥
हे नाथ ! पाप ही दुर्गति पतन से बचाने वाले हैं। पाप ही एक मात्र शरण हैं । सदा रक्षक हैं। मैं संसार त्रस्त हूँ | मुझ दुखिया पर प्रसन्न होइये । मुझे निरिग दीक्षा प्रदान कर अनुग्रहीत कीजिये ।। ३० ।।
स निशम्य बच्चस्तस्य प्रोवाचेति यतीश्वरः । भव्य चूडामणे सूक्त मुक्त किन्तु परं श्रृणु ॥ ३१ ॥
इस प्रकार वैराग्यपूर्ण वचन सुनकर करूणा निधान गुरुवर कहने लगे "हे भव्य चूडामणे" ! बापने यथार्थ प्रश्न किया है तो भी मैं कुछ कहता हूँ अवहित होकर सुनो ।। ३१ ।।
स्वादशां सुकुमारा सपोनामैव सुन्दरम् । न जासु सहते जाति कुसुमं हिम वर्षणम् ॥ ३२ ।।
हे भद्र ! तुम्हारे जैसे सुकुमारों को इतना कठोर तप शोभनीय नहीं होगा । क्योंकि जाति पुष्प कभी भी हिम वर्षा को सहन नहीं कर सकता । अर्थात् तुम जाति पुष्प सदश सुकुमार हो मला प्रचण्ड हिमपात समान तप किस प्रकार सह सकोगे ? ॥ ३२ ॥
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बालुका कवल भोक्त' पातु ज्वाला हविर्भुजः । बन्धु गंष बहो वोभ्यां तरोतु मकरालयम् ॥ ३३ ॥ मेरूस्तोलयितु सङ्ग धारायां खलु लीलया। शक्यं संचरितु मातु प्राप्तुं पारं विहायसः ।। ३४ ।। न तु नंग्नेय्य दीक्षायाः सन्मुखं क्षणमप्यहो। भयितु भावीयत्तत्र कस्टमेष समन्ततः ।। ३५ ।।
हेमनीषि : हा काय द्वारा भोजन करना, भयंकर अग्नि ज्वाला का पान करना, तीक्ष्ण पवन से उद्वेलित समुद्र को बाहनों से तैरता, मेरू पर्वत का तोलना, पृथ्वी का मापना, प्राकाश का पार पाना कदाचित लीलामात्र में सम्भव हो सकता है परन्तु जिन दीक्षा-निग्रंथावस्था धारण कर क्षणभर भी टिकना महान दुष्कर है, इसके समक्ष चारों ओर भयङ्कर कष्ट ही कष्ट हैं ।। ३३, ३४, ३५ ।।
क्षुधादि च सथास्पड माग्न्यमङ्गोपसापकम। धर्तव्यं विधुतोदाम मनो मल्ल विभितम् ॥ ३६॥
क्षुधादि परीषहों का सहना, अत्यन्त मङ्गों को तापदायक नग्नत्व धारण करना मन रूपी विस्तृत मल्ल को वश करना चाहिए ॥ ३६ ।।
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मनसापि न यः शक्यः पुसा चिन्तयितुं स च । महाबत महाभारो पत्तं व्यो जीवितायधि ।। ३७ ।।
यह महानत महान है, महा गम्भीर है, जो मनुष्य मन से भी इसका चिन्तन करने में भी समर्थ नहीं हो सकता फिर यावज्जीवन धारण करना महा दुर्लभ है ।। ३७ ।।।
स्वच्छन्दं स्पन्दनं नव शृङ्खलाभिरिवा भितः । एकाभिस्ता प संसेक्ष्या सदर समितयो ध्रुवम् ॥ ३८ ॥
पांचों समितियां चारों मोर शृखला के समान वेस्टित करने वाली हैं । स्वच्छंदता से एक श्वास भी जीव नहीं ले सकता। अर्थात् जोवन के प्रवाह पांचों समितियों के मध्य से ही चलना चाहिए। सभी का सदा सेवन करना चाहिए ।। ३८ ॥
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एक सोपि विश्व मानान्तं करणानि च । जेयानि तानि सर्वाणि मनसा सह सर्वदा ॥ ३६॥
ये इन्द्रियां एक-एक ही विश्व को व्याप्त किये हुए हैं अर्थात् संसार को वश करे हुए है पांचों इन्द्रियों की तो बात ही क्या है ? इन जगज्जयी इन्द्रियों को मन के साथ जीतना चाहिए अर्थात् वश करना चाहिए ।।३।।
यथाकालं च कर्तव्यं षडावश्यक मजसा । प्रमावेन विना भर श्रद्धा संशुद्ध चेतसा ।। ४० ॥
हे भद् ! प्रमाद का त्याग कर निरन्तर प्रतिदिन यथा समय षडावश्यक पालन करना चाहिए । सतत श्रद्धा पूर्वक शुद्ध चित्त से यथा काल, जिन वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, समता भाव धारणा कर और कायोत्सर्ग करना प्रावश्यक है । ४० ।।
नितान्त समारस्य महा मायोचितस्य च । कार्य केशकलापस्य सुचनं सुषिया तथा ॥ ४२ ॥ रोम वल्कल पत्राद्या वरणापि यत्र नो। अचेलक्यं तदत्यन्त क्लेशकारि सहेतकः ॥ ४२ ॥
नितान्त सुकुमार, सुकोमल, महा माल्योचित केशों का हे सुधि ! शुद्ध बुद्धि से अपने हाथों से लौंच करना चाहिए तथा शरीर पर वल्कल, पत्रादि का भी प्रावरण नहीं करने वाला अचेलत्व व्रत महा क्लेशकारी है उस कठोर नग्नत्व का कष्ट सहना होता है ।। ४१-४२ ।।
प्राजन्म मल मल्लादि लिप्त देह तया स्थिति: । स शर्करा धरा शय्या मुख वासादि वर्जनम् ॥४३॥
जीवन पर्यन्त जल्ल मल्ल से लिप्त देह की स्थिति रखना चाहिए अर्यात् यावज्जीन स्नान त्याग करना होगा। कंकरीली-पथरीली भूमि पर शयन करना होगा, वस्त्रादि रहित भूमि मे सोना पड़ेगा ।। ४३ ।।
बल्भनं पाणि पात्रेण काले कार्य यथा विधिः । स्थितेम सवबा सकृत् कायस्य स्थिति हेतये ॥ ४४ ॥
अपने हाथों में शुद्ध प्रासुक आहार दाता के द्वारा यथा विधि दिया १८८ ]
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हुमा ग्रहण करना होगा । वह भी एक ही स्थान पर स्थिर होकर और दिन में एक ही बार करना होता है ।। ४४॥
इति भूल गुणा छार मनोन शिक्षा : त्रिकाल योग सेवाझा नियमाश्चोतरे परा: ।। ४५ ।।
मात्र शरीर स्थिति निमित्त ही साधु भोजन-पाहार लेते हैं। इस प्रकार ये साधु के संक्षेप में २८ मुल गुणों का वर्णन किया । त्रिकाल योग, सेवा प्रादि उत्तर गुण अनेक हैं ॥ ४५ ॥
दुःसहाः सर्वतः सन्ति प्रसूताश्च परीषहाः । ध्यानाध्ययन कर्मारिए कतव्यानि निरन्तरम ।। ४६॥
निरन्तर ध्यान और अध्ययन करना, असहनीय दुर्धर परीषहों का सहना महा कठिन है । चारों ओर परिषहों से उत्पन्न दुःखों से भरा है साधु जीवन ॥ ४६ ।।
तत्रात्मानं कयं क्षोप्तु सर्वदा सुख लालितं । शानुवन्ति महा चकुवन्ति बुद्ध कोमलाङ्गा भवादृशाः ॥४७ ।। पूमा श्रीमज्जिनेन्द्राणां वानं सर्वाङ्गि तर्पकम् । विवेकश्चेशो भद्र तपोय ते किमुच्यते ।। ४८ ॥
हे महा बुद्धिमन ! सर्वदा सुख में पले हुए तुम्हारे जैसा कोमलाङ्गी भला किस प्रकार अपने को उन दुःखों में डाल सकेगा-सहन करने में समर्थ हो सकेगा? अर्थात् इस दुर्गम पथ पर चलना तुम जैसे सुकुमार को सम्भव नहीं। इसलिए आप गृहस्थ धर्म का ही पालन करो। श्री मज्जिनेन्द्र भगवान की पूजा करना, सर्वाङ्गों को तृप्त कारक शुद्ध एवं प्रासुक आहार दान देना यही प्राप से विवेकी को उचित है। हे भद्र ! तप धारण करना अन्य मागं है, उसके विषय में क्या कहें ॥ ४७-४८ ॥
स्वर्गापवर्ग सौल्यस्य पारंपर्येण कारणम् । गाहस्थ्यमेव ययुक्त पालितु प्रिय दर्शनम् ।। ४६ ॥ गार्हस्थ धर्म भी परम्परा से मोक्ष सुख का कारण है। इसलिए
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वही सम्यक्त्व पूर्वक पालनीय है । अतः प्राप शुद्ध गृहस्थ धर्म ही सेवन करो ।। ४६ ।।
अतो गृहस्थ भावस्थो ज्ञात तत्त्वो भवानिह । दान पूजा रतः शोल सम्पन्न स्तनुताद्वितम् ॥ ५० ॥
अतएव पाप गृहाश्रम में गार्हस्थ भाव में रहकर तत्त्वों का परिज्ञान करो । दान, पूजा में रत हो शील सम्पन्न होकर भात्म हित विस्तृत करो ।। ५०11
विरते प्रतिपद्येति यतोशे स जगाविति । स्मित्त्वोचितं म नो नाथ गुरूणां दातुमुत्तरम् ॥ ५१ ।।
इस प्रकार सम्यक प्रकार यति धर्म का ज्ञान कराया और उसकी कठिनाइयों का उपदेश दिया। समझा कर जब यति राज ने विराम लिया तब कूमार (जिनदत्त) मुस्कुराता हुआ बोला "हे नाथ ! गुरुजनों को उत्तर देना उचित नहीं है" ।। ५१ ।।
जानन्ति च य एषात्र युक्ता युक्त यथाभवत् । प्रसादो जल्प यत्येष तेषामेव तथापि माम् ।। ५२ ।।
यहाँ जो युक्त और अयुक्त कार्यों को यथोचित जानते हैं उनका प्रसाद ही मुझे यहाँ कह रहा है । अर्थात् विवेक पूर्वक मैं कुछ कह रहा हूँ ।। ५२ ।।
तपसो दुष्करस्वं यत् पूर्व मुक्त महामुने । तत्तथैव समस्तं हि को न वेत्तीति बुद्धिमान् ।। ५३ ॥
हे महामुने ! आपने उपर्युक्त प्रकार तप को अति दुष्कर वरिणत किया है वह तथैव प्रकारेण कठिन है। समस्त बुद्धिमानों में कौन इसे नहीं जानता ? अर्थात् सभी विज्ञ जन भली प्रकार जानते हैं ।। ५३ ।।
पर विचायते चार चारित्रेयं भवस्थितिः । यथा यथा कृतं कष्टं प्रतिभाति तथा तथा ।। ५४ ॥
परन्तु विचार करने पर प्रतीत होता है कि संसार स्थिति का ज्यों ज्यों सम्यक् प्रकार से स्वरूप चिन्तन किया जाता है तो इसके कष्टों के समक्ष त्यों-त्यों निर्मल चारित्र प्रतिभासित होता जाता है।
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अभिप्राय यह है कि संसार के भीषण कष्टों के समक्ष सपोजन्य कष्ट कुछ भी नहीं हैं ॥ ५४ ।।
निशात शस्त्र संघात घात खण्डित विग्रहाः । परस्पर परोवाव शरणा हित निपहाः ॥ ५५ ।।
नरक भव के कितने कष्ट सह, सुनिये, अति तीक्ष्ण शस्त्र के समूह से धात किये जाने पर शरीर के खण्ड-खण्ड कर दिये गये। परस्पर परीवाद कर शरण में प्राप्त का भी निग्रह कर डाला ।। ५५ ।।
महा वात महा शोत महातप कथिताः। स्व काय कत्तंन ग्रास फल भोजनाधिनः ॥५६॥ वन्तोष्ठ कण्ठ हत्पाराव मुल तालुक कुक्षिणः। वैतरण्या हता तर्षा वसा पूया सवारिण: ।। ५७ ॥ धौतासि पत्र शंकाश पत्र कृत्त्येव नान्तरे । श्व काक कङ्क गद्धा हि श्वापदानां नगान्तरे ।। ५८ ।। क्वचिद्यन्त्रौः क्वचित कुम्भी पाके रायस कष्टकैः । क्वचिच्च फूट शामस्था रोहावतरणैरपि ॥ ५६॥ शारीरं मामसं वाचं सहन्ते शरणोज्झिताः । याचदायु न किं दुःखं नरके नारकाः भृशम् ।। ६० ॥
महा वायु से ताडित होता है, महाशीत और प्रातम की व्यथा सहन करता है, नाना प्रकार से शरीर कथित-दलन-मलन किया जाता है, भोजन की चाह की तो, उसी के शरीर को काट-काट कर उसे खिलाते हैं, दांत, पोष्ठ, कण्ठ, तालु, हृदय, पसली, पेट प्रादि अंगों का च्छेदन भेदन करते हैं। उषातुर हमा तो वैतरनी नदी में ले जाकर डालते हैं जो रूधिर, राध से भरी है महान दुर्गन्ध पूर्ण हैं । सेमर के वृक्ष हैं वहां छाया की याशा से उनके नीचे गया तो पनी तलवार के समान उनके पत्तों के गिरने से शरीर क्षार-क्षार छिन्न-भिन्न हो गया । वन में भी शरण नहीं। भयंकर कुत्ते, काक छरी समान नोंच वाले गिद्धपक्षी श्रादि श्वापदों से भरे पर्वतों पर उनके द्वारा खाया गया 1 कभी यंत्रों से चीरा-फाडा गया, कभी कुम्भीपाक में पाया गया कभी पैने कांटों पर मला गया, काटों द्वारा कभी छेदा गया, और कभी शाल्मली वृक्षों पर
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चढाया उतारा गया उन वृक्षों पर कीलों के समान कार्टे होते हैं वलात् उन पर चढाने उतारने से रगड़ कर शरीर लोह लुहान हो जाता है । क्या कहूँ वहां शारीरिक मानसिक एवं वाचनिक अनेकों कष्टों को सहा । वहां एक क्षण को भी कोई शरण नहीं । मरण भी नहीं हो सकता श्रर्थात् प्रायुष्य पर्यन्त महाभयंकर दुःखों को सहना ही पडता है क्योंकि वहां प्रकाल मरण नहीं हो सकता । शरीर छिन्न-भिन्न होने पर पुनः पारे के समान जुड़ जाता है । इतने वीर दुःख नरकों में हैं ।। ५६,५७, ५८, ५६, ६० ॥
I
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परायत्त
प्रतिकारतः ।
सर्वदेव वृत्तयः विनारण्य भुवो लोक मध्यमा स्तु समन्ततः ॥ ६१ ॥ हेयावेय विकल्पेन बिकला सर्ववा त्रिधाः । सहन्ते दुःख संभारं तिर्यञ्चोऽपि विवानिशम् ।। ६२ ।।
पशु पर्याय को क्या कथा ? सदेव पराधीन वृत्ति रहती है । दुःखसुख का प्रतिकार करने की योग्यता ही नहीं है । इस मध्य लोक में उत्पन्न होकर भी चारों ओर से अरण्य में असहाय हो दुःख ही सहे । निरंतर हेमादेय बुद्धि शून्य रहा। कर्त्तव्याकर्त्तव्य विचार हीन होकर मानसिक, दैहिक और भौतिक तापों के भयंकर दुःख समूह को सहन किया। रात-दिन विपत्तियों का ही शिकार बना रहा ।। ६१-६२ ॥
प्राध्यते पुण्य योगेन मानुषत्वं कथञ्चन । भ्राम्यता भूरि दु:खासु चिर कालं कुयोनिषु ॥ ६३ ॥
पुनः किसी-किसी प्रकार महान दुर्लभ मनुष्य पर्याय प्राप्त हुयी । अनेकों दुःखों से भरे घनघोर तिमिराच्छन्न कुयोनियों में भटकते भटकते किसी प्रकार यह मानुष भव मिला ।। ६३ ।।
तत्वेप्यनार्थ खण्डेषु जन्म यत्र जिनोदितः । स्वप्नेऽपि दुर्लभो धर्मो देहिनामघमोहिनाम् ॥ ६४ ॥
मनुष्यों में भी म्लेच्छ खण्ड में उत्पन्न हुआ जहाँ श्री जिनेन्द्र देव द्वारा उपदिष्ट धर्म स्वप्न में भी प्राप्त न हो सका । पाप और मोह से अभिभूत प्रारणी को भला जिनोदित धर्म वहाँ किस प्रकार प्राप्त होता ? ।। ६४ ॥
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प्रायं खण्डेऽपि संप्राप्ते चंबादे तन्न लभ्यते । सुजाति: सुकुलं सर्व सुकुलं सर्व शरीर परिपूर्णता ।। ६५ ॥
भाग्यवश श्रायंखण्ड में जन्म लिया भी तो वहाँ उत्तम शुद्ध सुजाति, सुकुल, सुवंश नहीं प्राप्त हुआ । यही नहीं शरीर के प्रङ्ग भी परिपूर्ण नहीं मिले। कभी विकलाङ्ग और कभी हीनाङ्ग हुआ जिससे पूजा दानादि की योग्यता ही नहीं हुयी ।। ६५ ।।
विपतयः ।
कुल जात्यादि संपत्तौ गर्भावेव शतशः सन्ति योगोन्द्र लंघितास्ताः कथञ्चन ।। ६६ ॥
तत्रापि मुग्ध बुद्धीनां बाल्यं यौवनमङ्गिनाम् । काम ग्रह ग्रहीतानां वार्द्धक्थ विकलात्मनाम् ॥ ६७ ॥
है योगीन्द्र ! किसी प्रकार कोई पुण्य योग्य से सज्जातित्वादि मिला भी तो गर्भवास में हो सैकड़ों विपत्तियाँ आ गईं। किसी तरह उन्हें पार कर जन्म भी हुआ तो हे देव वाल्यावस्था में मुग्ध बुद्धि प्रज्ञानी रहा, यौवनावस्था में विषय-भोगों के नशे में डूबा रहा-काम पिशाच से ग्रसित हो धर्म-कर्म हीन रहा । वृद्धावस्था में तो इन्द्रियाँ शिथिल हो गई । शक्ति विकल हुयी । क्या करता ? ।। ६६-६७ ।।
अनिष्टाभीष्ट संयोग वियोगं धन प्राजन्म रोग सूयस्त्वं पर
हीनता । किङ्करला सदा ॥ ६८ ॥
कभी अनिष्ट पदार्थों के संयोग से व्याकुल रहा था तो कभी इष्ट वस्तुमों के वियोग में झुलसता रहा। कभी निर्धनता से पराभवों का दास बन कष्ट सहा तो कभी ग्राजन्म दुःसाध्य रोगों का दास बना रहा। बार-बार पर की दासता का दुःख सहा । नौकर-चाकर होकर अनेकों दुःख सहे ।। ६८ ।।
संकथा |
इत्येवं दु.ख खिज्ञानां नराणां सुख मस्तकोपान्त विश्रान्त यमाहोना सुदुर्लभा ।। ६६ ।।
इस प्रकार नाना दुःखों से व्याकी इस मानव पर्याय की भी कथा क्या कही जा सकती है ? पैर से शिर तक विश्रान्त मानव को सुख सुदुर्लभ है । प्रर्थात् जन्म मरण के दुःखों का पार नहीं है ॥ ६६ ॥
[ १६३
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देवानामपि दुःखानि देवानां
पश्यतामन्य
पदे पवे ।
मानसानि विभूति भूवनोत्तमाः ॥ ७० ॥
आप कहें देव पर्याय में सुख होगा सी भी नहीं है। वहीं पद-पद पर मानसिक कष्ट विद्यमान हैं। एक क्षण को भी स्वातन्त्र्य नहीं है, जब देवेन्द्र की जो प्रज्ञा होती है वही करना ही पड़ता है | पराभव और ईर्ष्या जन्य मानसिक कष्ट निरन्तर व्याप्त रहता है। झूरते रहते हैं | अपने से अधिक ऋद्धिधारियों के वैभव और भवनों को देख-देख कर ही मन में कुढ़ते रहते हैं ।। ७० ।।
पातनेयानि दुःखानि क्रन्दतां सरोज्झितम् । तंश्चनारक देशीया यु सदोऽपि भवन्ति ॥ ७१ ॥
शरण विहीन, कारण रहित स्वर्ग में रह कर भी नारकियों के समान ही आक्रन्दनादि दुःखों को सहते हैं ।। ७१ ।।
प्रतो ऽनादौ न कालेभ्राम्यतां भव कानने । सावस्था जायते यस्यां सुखं निदु:ख मङ्गिनाम् ॥ ७२ ॥
श्रतएव इस अनादि संसार में अनादि से भ्रमण करते हुए इस जीव ने उस अवस्था को कभी प्राप्त नहीं किया जहाँ दुःख रहित सुख की प्राप्ति एक क्षण के लिए भी हुयी हो । अभिप्राय यह है कि जो कुछ इन्द्रिय विषय जन्य सुख है भी तो वह दुःख पूर्वक ही है। सुखाभास है । यथार्थ नहीं || ७२ ॥
न चास्ति किञ्चनाध्यत्र यद्म सोढुं सहस्रशः । दुःखमेतेन जीवेन तन्नाथा जानता हि तम् ।। ७३ ।।
हे नाथ ! इस संसार में कोई भी ऐसा दुःख नहीं है जिसे इस जीव ने भोगा न हो । जानते हुए भी उसी को पाने का प्रयत्न कर दुःखी रहा ।। ७३ ।।
इदानीञ्च
प्रसादेन भवता भवाचित । प्राप्ते विवेक मानिय बोपके कि प्रमाद्यते ।। ७४ ।।
हे त्रिभुवन पूजित पादपद्मे ! ग्राज ग्रापके प्रसाद से मुझे विवेक रूपी माणिक्य दीप प्राप्त हुआ है । इस भेद - विज्ञान प्रदीप को पाकर भी क्या प्रमाद करता रहूँ ? ॥ ७४ ॥
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कल्याण कारिणी स्वामिन् चेवियं गृहमेधिता। जायते जगती बन्ध वृर्थवार्य श्रमस्तव ॥ ७५ ॥
हे देव ! यदि ग्रह गृहस्थावस्था श्रावकों को कल्याणकारी होती प्रक्षय सुख का दाता होती तो फिर आपका श्रमणत्व जो जगत से वन्दनीय है व्यर्थ हो जाता। साधुजन का श्रम निरर्थक हो जाता ? कौन तप करता? ॥ ७५ ॥
सतो स्तु निविकरुपं मे वीक्षणं क्षरण भगुडारे । एतदेव प्रतः सारं संसारे साधु सत्सम ॥ ७६ ॥
अतएव हे साधुसत्तम ! इस क्षणभंगुर प्रसार संसार में एक मात्र सारभत बस्तु जैनेश्वरी दीक्षा है। अतः यही मेरे लिए शरण होवे ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय है । मैं निविकल्प रूप से यही धारण करने को तत्पर हूँ। अब पाप जिन दीक्षा प्रदान कर मुझे कल्याण पथ पर आरूढ़ करें ।। ७६ ॥
संविग्नस्य निशभ्येति वचस्तस्य महामुनिः । यया भीष्टं महा बुद्ध क्रियतामितिऽसौ सवीत् ॥ ७७ ।।
इस प्रकार संसार दुःखों से भयभीत अक्षय सुखाकांक्षी उस कुमार के वचन सुन यतीश्वर कहने लगे "हे महामते ! प्रापको जो अभीष्ट है वहीं कार्य करो । अर्थात् दिगम्बर दीक्षा से अलंकृत हो प्रात्म हित करो ॥ ७७॥
अत्रान्तरे द्रवोत्येष स्वमित्रं मति कुण्डलम् । पुत्रेभ्यो बोयतां भन्न यथा योग्य पदं लघु ।। ७ ।।
परम गुरु की आज्ञा पाते हो उसने अपने प्रतिनिकद उपस्थित मतिकुण्डल नामक मित्र से कहा-“हे भद्र आप शीघ्र ही मेरे पुत्रों को पथा योग्य पद प्रदान करो" ।। ७८ ॥
तेमाहतां समस्तास्ते प्रणम्यो प्राविशन्पुरः । योगिम पितरं सर्वे ज्येष्ठ मूचेपिता तप्तः ।। ७६ ।
मित्र ने तत्क्षण श्री कुमार के पुत्रों को बुलाया । सभी ने योगिराज को नमस्कार किया। तदनन्तर पिता को प्रणाम कर सम्मुख उपस्थित हुए। तब पिता ने ज्येष्ठ पुत्र से कहा ।। ७६ ।।
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जानास्येव भवान वस पूर्वकम मूवार धोः । तपस्थति यथा तातोन्यस्य स्वसर्व मात्मजे ॥ १० ॥ असोऽहं त्वयिविन्यस्याधिपत्यमिदमादतम् । विधामि तपः पुत्र विषेषा स्व प्रहस्थता ।। ८१॥
हे वत्स ! तुम उदार बुद्धि वाले हो, हमारी परम्परा के अनुसार जैसे मेरे पिता तपस्वी हुए उसी प्रकार मैं भी अब तप धारण करने को उद्यमी हुआ हूँ। उन्होंने अपना भार मुझे दिया अब मैं तुम्हें अपना उत्तराधिकार देता हूँ। तुम प्राधिपत्य स्वीकार करो। मैं निर्मल तपश्चरण धारण करता हूँ। हे पुत्र ! तुम्हें गृहस्थ धर्म स्वीकार करना चाहिए ।। ८०-८१॥
प्रारमबत पालये रेतान सर्ववयानु जन्मनः । प्रकृती व समस्ता स्वं विरक्ता जातु मा कक्षाः ।। २ ॥
अपने सभी भाइयों को अपने मान पालन ना | कानी उपेक्षा भाव नहीं करना । अपने स्वभाव में निरन्तर दया रखना कभी भी क्रुद्ध नहीं होना ।। ८२ ।।।
परित्यज्य समस्तानि कार्याणि च विशेषतः । कर्म षम्य स्वयं घर कुर्याः स्वार्थ हित: सदा ।। ६३ ।।
हे भद्र ! समस्त कार्यों को छोड़कर विशेषत: स्व आत्म कल्याणकारी धर्म कार्यों को प्रथम स्वयं सम्पादन करना । सदा स्वार्य चिन्तन करना ।। ८३ ॥
ततस्तात मुवाचाऽसौ वक्त मेवं न युज्यते । यतो भुक्ता खया सम्पत् मातेव मम सर्वथा ।। ८४ ।।
इस प्रकार पिता के प्रादेश और उपदेश को सुनकर ज्येष्ठ पुत्र सुदत्त कहने लगा "हे पिताजी. आप यह क्या कह रहे हैं ? जिस सम्पत्ति को मापने भोगा है वह मेरे लिए माता समान है। भला मैं उसे कसे भोग सकता हूँ ? अर्थात् मुझे भोगना उचित नहीं। अभिप्राय यह है कि मैं भो दीक्षा धारण करूंगा" || ८४ ।।
शास्ति तातः सुतं श्रेयः श्रुति रेषा हुतान्यथा।
त्वयामोह समच्छन्न मार्ग दर्शयता मम ।। ८५ ॥ १६६ ]
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संसार की नीति है और श्रुति भी यही है कि पिता अपने को पुत्र कल्याणकारी प्राज्ञा- उपदेश देता है। आप इसे अन्यथा कर रहे हैं । आप मुझे मोहांधकार से भरा मार्ग दिखा रहे हैं ।। ८५ ।।
ततः ।
सन्ति पुत्रास्तवान्येऽपि कस्मैचिद्दीयतां ग्रहं च साधयिष्यामि त्वत् समीपे निजं हितम् ॥ ८६ ॥
ये अन्य भी सब आपके ही पुत्र हैं। इनमें से किसी को भी आप अपना श्राधिपत्त्व प्रदान करें में तो भाप ही के सानिध्य में रह कर अपना आत्महित साधन करूँगा । जेनेश्वरी दीक्षा धारण कर मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न करूँगा । ८६ ॥
इत्यादिकं ववन् शेषंमित्र तातादिभि बंहू बोषितः । प्रति जग्राह मनकल्य पवं तथा ॥ ८७ ॥
देश कोषादिकं तस्मे राज्याष्ट्रातिभिः । अभिषेकं विषायाशु वयो तत्र महोत्सये ॥ ८८ ॥
पुनः पिता एवं मित्र ने बहुत प्रकार समझाया किन्तु उसका उत्तर एक ही रहा पिता के पथ का अनुशरण करना। अधिक कहने पर उसने स्वीकृति दी । तब पिता का पद उसे, देश, कोषादि- राज्यालंकृति के साथ प्रदान किया। प्रथम मंगलाभिषेक कर महोत्सव पूर्वक भार दे दिया ।। ६७-६८ ॥
प्रन्येषां च तनूजानां यथा योग्यं प्रदाय सः । सर्वाः संभावयामास प्रकृतीः कृस्य कोविदः || ८
अन्य लघु भ्राताथों को भी उसने यथा योग्य पद प्रदान किये । सभी को प्रकृति स्वभावानुसार सम्भावित पद और कार्य प्रदान किये ।। ८६ ।।
भारतास्ततो विगल राम विशुद्ध बुद्धिः । प्रो बाब चारू चरिता हित विस वृत्तिः ॥
रागेण रोष वशतो
मानेन
मुग्व मनसा
रति
मदनेन
कैतवेन ।
यच्च ।। ६०
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हे कान्ते ? हमने राग से अथवा द्वेष से या रतिक्रीड़ा के कौतुकवश, मान से मुग्ध हो मन से अथवा कामदेव की विवशता से यदि कुछ अनुचित व्यवहार किया हो या कुछ ऐसा कहा हो तो आप क्षमा करें ऐसा उस विगत राग-शुद्ध चित्त, विशुद्ध वृद्धि कुमार ने अप से कहा। वे भी सुन्दर चरित्र, हित में चित्त वृत्ति लगाने वाली उसकी वारणी शान्ति से सुन रहीं थीं ॥ ९० ॥
प्रोक्ता शिवरं
त्रिचाहम् ।
तदखिलं क्षमये श्रुत्वेति ताश्चररण मूलगता: समूचुः ॥
क्षान्तं
सदास्माभिः |
क्षभ्यं
सफलं च बुरोहितं नः ॥ ६१ ॥
समस्तमपि नाथ
त्वयापि
P
पुन: वह कहने लगा, हे देवियो ! "हमें श्राप सब लोग मन, वचन, काय से क्षमा करें।" यह सुनकर वे उसके चरणों के समीप जाकर विनयावनत बोली हे नाथ ! हमारी थोर से पूर्ण क्षमा है । आप भी हमारे समस्त दुष्कृत्यों को क्षमा करें ॥। ११ ॥
संप्रच्छय सर्वमिति लोक मसोल यत्रेव चन्दन तरूस्तत एव शिश्राय साघु पदवीं सुहृवा संवेग हृदयं रपरश्च
शुद्ध
चित्तो । सर्पः ॥
सभेत: ।
भव्यैः ।। २ ।।
दृढ चित्त कुमार ने सम्पूर्ण बन्धु-बांधवों से क्षमा कराकर प्राज्ञा ली । सच ही है जहाँ चन्दन का वृक्ष होता है विषधर सर्प वहीं रहता है | अतएव उसने अन्य सभो संवेगधारी भव्य जनों के साथ शुद्ध भाव से जिन दीक्षा धारण की ।। ६२ ।।
पुण्यंः ॥
शभ दम यम सक्ता गेह वासे विरक्ताः । सितसि चय पदेन प्रावृता वाय जिन पतिपद मुले HT बसूबु विरक्ता | स्तदनु विश्वचिता स्तस्य कान्ताः समस्ताः ॥ ६३ ॥
इस समय वे गृहवास से पूर्ण विरक्त हो राम कषायों का शमन,
दम- इन्द्रिय निरोध, यम यावज्जीवन चारों प्राराधनाभों की साधना में अटल होगी। अपने पुण्य द्वारा वे भी जिनपति के पाद मूल में विरक्त हो
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गईं। अपने पति का अनुकरण कर निर्मल चित्त से सभी ने दीक्षा धारण की । शुक्ल एक साड़ी धारण कर भ्रात्म कल्याण में प्रारूढ़ हुयीं ॥ ६३ ॥
समस्तं
विषिताङ्ग
श्रुतं
प्रकीर्णकाव्यं
गुरो: सधर्म
समोपे दानेन
समषीत्य
तपसी
ननन्द
पूर्व
सम्यक् ।
निवासः ।।
पृथ्वीम् ।। ६४ ।।
अब उन मुनिराज जिनदत्त स्वामी ने क्रमश: विधिवत् श्रङ्ग र पूर्वो का अध्ययन किया। सम्यक् प्रकार प्रकीकों को पढ़ा। गुरुदेव के समीप में रहकर आगमाभ्यास के साथ उग्र तपश्चरण करने लगे तथा सद्धर्मदान प्रदान कर पृथ्वी को प्रानन्दित क्रिया ।। ६४ ।
कुवरियो भव वारि राशि लग्गं सीव्रं तपः कारणम् । सम्यक सिद्धि सुखस्य संयम निधिर्धात्रीं विहृत्यागमत् ॥ सम्मेवं मुदिता गयो मुनि जनैः सार्द्धं विबुध्यात्मनः । प्राप्तं प्रान्तमशेष दोष शमनीं कृत्वा च सल्लेखनाम् ।। ६५ ।।
संसार समुद्र को पार करने के लिए नौका स्वरूप घोर--कठोर नाना प्रकार तपश्चरण करते हुए बिहार किया। सम्यक् सिद्धि का निमित्त भूत उत्तम संग्रम की साधना करते हुए श्रभ्य उग्र तपस्वियों के साथ श्री मुदित वे श्री मुनि परम पवित्र श्री सम्मेद शिखर पर्वत राज पर पधारे। अपने अंतिम काल में सकल सल्लेखना धारण की। प्रशेष दोषों-कर्मों का नाश करने वाली समाधि धारण की ।। ६५ ।।
तत्राराध्य चतुविधां स विधना सा तदाराधनाम् । त्यक्त्वा सव्रतमै तपोभिरभिक नौस्वातनुत्वं तनुम् ॥ कल्पेनल्प सुखालये सम भवत् सम्यक्त्व रस्नाञ्चित | देवो दिव्य विलासिनी जन मनो माणिक्य चौरोष्टमे ।। ६६ ।।
चारों प्राराधनाएँ - दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप आराधनाओं को सिद्ध किया । विधिवत् शरीर को कुश किया, कषायों का नाश किया । तीव्र तप एवं ध्यान द्वारा श्रनरूप काल पर्यन्त सुख स्थान में स्थित हो निज स्वभाव रतन्त्रय से अलंकृत हुआ । समस्त दिव्य विलासिनियों के मन माणिक्य को चुराने वाला भ्रष्टम स्वर्ग को प्राप्त किया ।। ३६ ।
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________________ अन्ये विशुद्ध मतयो यतयः समस्ताः / स्वर्गे गताः परिणते रूचिते निजायाः / / प्रान्ते समाधि मधिगम्य मुवाप्सरोभिः / सङ्कल्पिता खिल सुखावह कान्त चेष्टाः / / 67 // पन्य तपस्वी मी अपने-अपने तपश्चरणानुसार यथा योग्य विधिवत् समाधि कर विशुद्ध मति स्वर्गों में गये / वहाँ यथेच्छ कल्पित सुखों का अनुभव करने लगे। अप्सराओं के साथ नाना प्रकार उत्तमोत्तम भोगोपभोगों का अनुभव किया ! सुभग चेष्टानों से विविध क्रीड़ामों का स्थान प्राप्त किया / / 67 / / कृत्वा सारतरं तपो बहविध शान्ताश्चिरं खायिका: / कल्पं तास्तम वापु रेत्य सकला दत्तो जिमादिर्गतः / / पत्रासो सुख सागरान्तर गतो विज्ञाय सर्वेऽपि ते / न्योन्यं तत्र जिनावि बन्दन पराः प्रीताः स्थिति तन्यते // 8 // जिनदत्त की भार्याएँ प्रायिका व्रत से अलंकृत हो घोर तपश्चरण करने लगीं। वे शान्त चित्त, विकार रहित शुद्ध सफेद एक साड़ी मात्र परिग्रह धारण कर कठोर साधना करने लगी। अन्त में कषाय और शरीर को कृश कर उत्तम समाधि मरण कर उसी स्वर्ग को प्राप्त किया जिसमें श्री जिनत्तद मुनिराज उत्पन्न हुए थे। सभी देव अपने दिव्य प्रवविज्ञान से एक-दूसरे के सम्बन्ध को ज्ञात कर परम प्रीति और संतोष को प्राप्त हुए। तदनन्तर सर्व एक साथ मिलकर जिनदर्शन वन्दन, पूजन, अर्चन प्रादि धर्म कार्यों को करने लगे // 68 / / इस प्रकार श्रीमद् भगवद गुणभद्राचार्य विरचित जिनदत्त चरित्र में नवमा अध्याय समाप्त हुमा। 4 समाप्तोऽयं ग्रन्थः * भाद्रपद शुक्ला 5 शनिवार तारीख 26 अगस्त, 1987 पूर्वाह्नकाल, पोम्नूरमल-कुन्दकुन्द प्राश्रम में श्री 1008 श्री बादिनाथ चैत्यालयस्थ नन्दीश्वर दीप रचना जिनालय में लिखकर पूर्ण किया। 20. ]