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ततो महात्मा वन नायकेन, पुत्रः स मेने मदनोपमानः । धुराः स्वगेहे गुरण रक्त कोश सर्वज्ञ धर्मामृत पानपुष्टः ।। १२४ ।।
ततः सर्वज्ञ प्रभु - जिनेन्द्र भगवान के धर्मामृत से पुष्ट, गुणरत्नों का भण्डार, धर्मशील उस कुमार को वन नायक ने पुत्रवत् अपने घर में स्थान दिया । उसने समझा मेरे घर में साक्षात् कामदेव अवतरित हुआ है ।। १२४ ।।
यहाँ वह नाना सुखों का अनुभव करने लगा तथा अपनी धर्मध्यान साधना में तत्पर रहा। परन्तु पराश्रित वृत्ति मनस्त्रियों को भला कैसे भाती ?
अथान्यदा चिन्तितवानितीयं स्थातु ं न मे सपनि युज्यतेस्य । नयाव दाप्य भिसारिकेव कृताभ्रमंती स्व वशो मय श्रीः ॥ १२५ ॥
एक दिन वह विचारने लगा। मुझे इसके घर में रहना उचित नहीं श्रभिसारिका समान पराई लक्ष्मी का उपभोग, क्या महापुरुषों को करना योग्य है ? मेरे द्वारा उपार्जित लक्ष्मी ही मेरे वश रह सकेगी ।। १२५ ।।
विना न दानेन समस्त धर्मः सु पुष्कलेनापि घनेन काम: । विना धनं नो व्यवसायलोस्ति, श्रिवर्ग मूलं तदिदं स्वमेव ॥ १२६ ॥
वह आगे सोचने लगा — दान के बिना धर्म की स्थिति नहीं रह सकती, पुष्कल धन बिना दान भी तो नहीं कर सकता, धर्म बिना काम नहीं, धन बिना व्यवसाय भी नहीं चल सकता । अतः तीनों वर्गों का मूल धन ही है || १२६ ॥
प्रवोचिते नेसि ततः स तातः प्रयच्छ भाण्डं जलमात्र यानः । यामो यदा दाय विचित्र रहनं द्वीपं जवात् सिहल शब्द पूर्व ॥ १२७॥
इस प्रकार विचार कर उसने व्यापार करने का दृढ़ निश्चय किया और परम स्नेह पात्र उसने पिता सदृश उस सार्थवाह ( व्यापारी) से कहा - हे तात मैं व्यापार करने रत्नद्वीप जाना चाहता हूं। इसलिए मुझे व्यापार योग्य, नौका जहाज एवं बर्तन आदि सामग्री दीजिये । जलयान द्वारा मैं शीघ्र ही सिंहल द्वीप जो विचित्र रत्नों का भण्डार है जाना चाहता हूं ।। १२७ ॥
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