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निशम्य तदु दीरितं भगति साथ बाहोमुवा, । मयैव सह गम्यतां यदि समस्ति बुद्धिने ।।
ततः प्रमुरिता खिलोचित विचित्र भाण्डेः समम् । जनै र्बहु विधैरिमो मुक्ति मानसौ प्रस्थितौ ॥ १२८ ॥ उसके इस अभिप्राय को सुनकर सार्थवाह बोला, "हे वत्स, मेरे ही साथ चलो, हे बुद्धिधन तुम्हारे साथ रहने से मुझे विशेष लाभ होगा । अस्तु, दोनों अनेकों उचित विचित्र भाण्डों के साथ एवं अनेकों जन समूहों के साथ प्रति श्रानन्द से दोनों व्यापार के लिए जहाजों द्वारा प्रस्थान करने को उद्यत हुने । १२५ ।।
इस प्रकार श्री गुरणभद्र स्वामी विरचित जिनदत्त चरित्र का तीसरा सर्ग समाप्त हुआ ।
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