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इस प्रकार वात्सल्य भरे मधुर शब्दों से सम्बोधित किया। तथा अपना भी प्रशेष चरित्र सुनाया तथा उसके पति की प्रायु, वेषभूषा, वचनालाप प्रणाली, चेष्टा मादि के विषय में आदर पूर्वक जानने की इच्छा प्रकट की। उसने भी सर्व अवस्थाएं स्पष्ट वर्णन की ।। १०० ।।
प्रक्रियता : कातो का बैग यति । अथवा घिगिमं दृष्ट संकल्पम शुभाशुभम् ॥ १०१ ॥
पति सम्बन्धी क्रिया कलापों-गुण धर्मो को सुनकर विमलामती भी विचार करने लगी "क्या मेरा भी पति वही हो सकता है ? मेरा पति होगा क्या" ? पुनः सोचती है छि, ऐसे प्रदृष्ट संकल्प-विकल्पों को धिक्कार है। क्यों शुभाशुभ विकल्पों को करू ? ॥ १०१॥
सत्यनेक यतो रूप चेष्टितः सदशा नराः । अन्यः कोपि तयाभूतो भवितायं महामनाः ॥१०२ ।।
संसार में अनेकों पुरुष समान गुरग धर्म, वय स्वभाव, रंगरूप वाले हैं। वह भी कोई महानुभाव मेरे पतिदेव सदृश गुण-गरिमा वाला होगा। मैं क्यों व्यर्थ तत्सम्बन्ध में अन्यथा कल्पना करू ? || १०२ ।।
तस्ये जगाव सा सर्व निज वत्त विचक्षणा । मूवा समान दु.खा च सस्नेहं समुवाचताम् ।। १०३ ।।
इस प्रकार विचार कर विमलामती ने भी अपना सकल वृत्तान्त सुनाया। दोनों समान दुखानुभव कर अन्योन्य के प्रति प्रीति भाजन हुयीं ॥ १०३ ॥
जिन धर्म रते नित्यं तपः स्वाध्याय तरपरे । कियन्तमपि तिष्ठावः काल भगिनि सकते ॥ १०४।।
तथा कहने लगी हे भगिनि ! नित्य ही जिन धर्म में रत होकर, तप स्वाध्याय में तल्लीन हो यहीं कुछ काल तक हम लोग रहें ॥ १०४।।
पश्चात् ज्ञात यथा वृत्तं सर्व दुःख विनाशनम् । करिष्यावो महा मोह मयनं तिर्मलं तपः ।।१०५ ॥
पश्चात् पतिदेव सम्बन्धी निश्चित वृत्तान्त ज्ञात कर, समस्त दुःख १२२ ]