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प्रपायुस्तत् क्षरणादेव सर्व पापानि पश्यताम् । सक्ताः संयमिनः शश्वत् स्वाध्याय ध्यान कर्मणि ।। ३५ ।।
निरन्तर ध्यान स्वाध्याय में संलग्न उन संयमियों के दर्शन मात्र से तत्क्षणपाप समूह नष्ट हो जाता है । अर्थात् सर्व पापों की स्थिति उनके दर्शन से क्षीण हो जाती है, श्रपकृष्ट हो जाती है ।। ३५ ।।
निशम्य तं प्रदायास्मै प्रसादं मुदितस्ततः । ननाम तां दिशं गत्वा भक्तया सप्त पदानि सः ।। ३६ ।।
आगत वनपाल के द्वारा इस प्रकार श्री प्राचार्य देव के ससंघ आगमण कुठे प्रभाव को सुनकर (जिनत ३) मुदित हो महा प्रगाढ़ भक्ति से उस दिशा में सात पेंड गमन किया। कराञ्जुलि मस्तक पर धारण की। पुनः यथाविधि गवासन से नमस्कार किया ।। ३६ ।।
एकान्तो मिलिता शेष बन्धु लोक परिच्छदः । तत्कालोचित थानेन वन्दनायै चचाल सः ॥ ३७ ॥
तत्क्षण एक स्थान पर सभी अपने बन्धु बान्धव परिजनों को समन्वित किया । यथा योग्य वाहन पर सवार हो गुरु बन्दनार्थं प्रस्थान किया ।। ३७ ।।
उत्तीर्य दूरतो याना द्विवेशास भवनान्तरम् । कूल विहंगमाराव विहित स्वागत क्रियम् ॥ ३८ ॥
दूर से ही उद्यान दृष्टिगत हुआ। उसी समय सवारी से नीचे उतरा । पैदल चलने लगा। लघु समय में ही उद्यान में प्रवेश किया। उस समय पक्षीगण मनोरम स्वर में कूज रहे थे । मानों उसका स्वागत गान ही गा रहे हों ? उनसे सम्मानित कुमार ने उद्यान में प्रवेश किया ॥ ३८ ॥
प्रदेशं स ततः प्राप यत्रास्ते यति नायकः । श्रासोनो शोक वृक्षस्य मूलेऽमल शिला तले ॥ ३६ ॥
तत्पश्चात् शीघ्र ही वह उस प्रदेश में पहुँचा, जहाँ श्री मुनिराजयतिनायक अशोक वृक्ष के नीचे स्वच्छ-निर्मल प्राशुक शिलातल पर विराजमान थे ॥ ३६ ॥
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