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सहकार वृक्षों की शाखाएँ मञ्जरियों से लद गयीं हैं-प्राम्र वृक्षों के प्राश्रय शाखाएँ मजरी-भौंरों से लद कर झूम रही हैं । उन पर कोकिलाएँ कल-कल-मधुर स्वर से कुहुक रही हैं, फुदक रही हैं मानों भव्य प्राणियों को श्री गुरु के सदुपदेश श्रवण करने को आह्वान कर रही है-बुला रही हैं ।। ३० ॥
तावन्ध्यानो प्याश फल पुष्प चिता विभो। वर्तते सर्व सामान्यं तादृशानां हि चेष्टितम् ।। ३१ ॥
हे विभो ! उस उद्यान में प्रवकेशी-वन्ध्या लता भी फल-पुष्पों से युक्त हो गई है । शीघ्र ही सर्व वनस्पतियाँ उसी प्रकार चेष्टाएँ धारण कर सुशोभित हो रही हैं। सर्वत्र हरा-भरा साम्राज्य हो गया है ।। ३१ ॥
मन्व गन्ध पहोमूता नत्यन्ति कुसुमाञ्ज लिम् । प्रक्षोप्येव लतास्तत्र सदानन्देन नो चिताम् ॥ ३२ ॥
मन्द-मन्द पवन के झकोरों से कुसुमाञ्जलि लिए डालियाँ झूमअम कर नृत्य कर रहीं हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानों मानन्द से लताएँ कुसुम प्रवकीर्ण कर प्रांगन में मङ्गल चौक-स्वास्तिकादिपूर रही हैं ।।३२॥
वाति प्रभजन स्तत्र माननी मान भजनः । तादृशस्य प्रभोः सङ्ग तथा कि मोपजायते ॥ ३३ ॥
हे नाथ ! माननियों का मान भजन करने वाली वायु बह रही है । इस प्रकार के परम तपस्वी श्री मुनि पुङ्गव के सानिध्य से भला उसका इस रूप में बहना उचित नहीं क्या ? उचित ही है। अर्थात् निष्कषाय-वीतरागी प्रभो... गुरु का सम्पर्क प्राप्त कर पवन भी मान कषाय संहारक क्यों न होती ? हो ही गई। ३३ ।।
पासते यतय स्तत्र विविद्धि विराजिताः । धर्माः समूर्त यो मन्ये भव्य पुण्याय ते सथा ॥ ३४ ॥
वहाँ अनेकों ऋद्धिधारी ऋषिराज विराज रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानों धर्म साक्षात् मूर्तिमान रूप धारण कर पा उपस्थित हुना है । मानों वे भवय जीवों के पुण्य के लिए ही इस प्रकार यहाँ पधारे हैं। अर्थात् भव्य प्राणियों के उज्ज्वल पुण्य समूह ने उन्हें यहाँ प्राकर्षित किया है ।। ३४ ।।