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अन्यदा सो पुरस्कृत्य सर्वत्त कुसुमादिकम् । विज्ञप्तो वन पालेन सभामध्य व्यवस्थितः ॥ २५ ॥
एक दिन जिनदत्त राजसभा में उपस्थित था। उसी समय वनपाल पाया । पड़ ऋसुनों के फल-फूल भेंट कर विज्ञप्ति की ।। २५ ।।
भुगार हिललोहार सामागतः । दधत समाधि गुप्ताख्यां चतुर्जानी मुनीश्वरः ॥ २६ ॥
हे देव ! शृगार तिलक नाम के उद्यान में प्राज प्रातःकाल दीप्तिमान चार ज्ञानधारी मुनिराज पधारे हैं। उनका नाम समाधिगुप्त
ऋतुवस्तस्य भरुयेव योगपद्यादुपागताः । पुष्पाभरण मनाहि दृष्ट्वं च वश्रिया ।। २७ ॥
मुनि पुङ्गव के प्रागमन मात्र से भक्तिभाव से उल्लसित सभी ऋतुनों के फल-फलों से अनेकों वक्ष झूम उठे। एक साथ सर्वत्र वन श्री ने पुष्पाभरण धारण कर लिए। मानों साक्षात् लक्ष्मी ही शृंगारित हो उपस्थित हुई हो ॥ २७ ॥
सरस्योप्य भवं स्तन विकचांभोग लोचनाः। जाडाशयोपि को नाम नोल्लासि मुनि दर्शनात् ॥ २८ ॥
हे कुमार ! सरोवरों में नीरज रूपी नेत्र विकसित हो गये । क्या जड़ रूप भी मुनिदर्शन को उल्लसित नहीं होते ? होते ही हैं। अभिप्राय यह है कि बोतराम परम निर्गन्ध मुद्रा को निहारने के लिए मानों सरोवरों ने खिले पंकजों बहाने अनेक नेत्र धारण कर लिए हैं।॥ २८ ॥
मुज गुजदलि वातो भ्राम्यं स्तत्र विराजते । निर्गच्छनिय तभीत्या पाप पुजो रुवन् वनात् ॥ २६ ।।
उन विकसित सुमनों पर अनेकों मधुकर गूंज रहे हैं । ऐसा प्रतीत होता है मानों पापपुज भयभीत होकर उद्यान से रोता हुअा भाग रहा है ॥ २६ ॥
प्राश्रित्य सहकाराणां शाखा: प्रत्यग्र मञ्जरीः ।
भव्यां स्तबाहयन्तीष कोकिला: कल निश्वना ।। ३० ।। १६२ ]